"नंददास" के अवतरणों में अंतर
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+ | |अन्य जानकारी=[[कृष्ण|भगवान श्रीकृष्ण]] का यश-चिन्तन ही नंददास के काव्य का प्राण था। वह कहा करते थे कि- "जिस कविता में 'हरि' के यश का रस न मिले, उसे सुनना ही नहीं चाहिये।" भगवान श्रीकृष्ण की रूप-माधुरी के वर्णन में उन्होंने जिस योग्यता का परिचय दिया | ||
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+ | '''नंददास''' 16वीं शती के अंतिम चरण के कवि थे। वे '[[अष्टछाप कवि|अष्टछाप]]' के प्रमुख कवियों में से एक थे, जो [[सूरदास]] के बाद सबसे अधिक प्रसिद्ध हुए। नंददास भक्तिरस के पूर्ण मर्मज्ञ और ज्ञानी थे। | ||
+ | ==परिचय== | ||
+ | नंददास जी का जन्म संवत 1570 (1513 ई.) विक्रमी में हुआ था। एक मान्यता के अनुसार इनका जन्म उत्तर प्रदेश के एटा ज़िले में सोरों के पास रामपुर गांव में हुआ था। उनके पिता का नाम जीवाराम और चाचा का आत्माराम था। वे शुक्ल ब्राह्मण थे और रामपुर ग्राम के निवासी थे। कहते हैं कि गोस्वामी तुलसीदास उनके गुरुभाई थे। नंददास उनको बड़ी प्रतिष्ठा, सम्मान और श्रद्धा की दृष्टि से देखते थे। वे युवक होने पर उन्हीं के साथ काशी में रहकर विद्याध्ययन किया करते थे। नंददास के विषय में ‘भक्तमाल’ में लिखा है- | ||
− | - | + | <blockquote>‘चन्द्रहास-अग्रज सुहृद परम प्रेम में पगे’</blockquote> |
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− | + | इससे इतना ही सूचित होता है कि इनके भाई का नाम चंद्रहास था। 'दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता' के अनुसार ये तुलसीदास के भाई थे, किन्तु अब यह बात प्रामाणिक नहीं मानी जाती। उसी वार्ता में यह भी लिखा है कि [[द्वारका]] जाते हुए नंददास सिंधुनद ग्राम में एक रूपवती खत्रानी पर आसक्त हो गए। ये उस स्त्री के घर में चारो ओर चक्कर लगाया करते थे। घरवाले हैरान होकर कुछ दिनों के लिए [[गोकुल]] चले गए। ये वहाँ भी जा पहुँचे। अंत में वहीं पर गोसाईं विट्ठलनाथ जी के सदुपदेश से इनका मोह छूटा और ये अनन्य [[भक्त]] हो गए। इस कथा में ऐतिहासिक तथ्य केवल इतना ही है कि इन्होंने गोसाईं विट्ठलनाथ जी से दीक्षा ली। | |
− | + | ==वृन्दावन आगमन== | |
− | + | एक बार काशी से एक वैष्णव-समाज भगवान रणछोर के दर्शन के लिये [[द्वारका]] जा रहा था। नंददास ने तुलसीदास जी से आज्ञा मांगी। उन्होंने पहते तो जाने की मनाही कर दी, पर बाद में नंददास ने उनको पर्याप्त अनुनय-विनय से प्रसन्न कर लिया। [[मथुरा]] में उन्होंने वैष्णव समाज का साथ छोड़ दिया। वे वहां से द्वारका के लिये स्वयं आगे बढ़े। दैवयोग से वे रास्ता, भूल गये। [[कुरुक्षेत्र]] के सन्निकट सीहनन्द नामक गांव में आ पहुंचे और वहां से किसी कारणवश पुन: [[वृन्दावन|श्रीवृन्दावन]] को लौट पड़े। नंददास भगवती कालिन्दी के तट पर पहुंच गये। [[यमुना]] दर्शन से उनका लौकिक माया-मोह का बन्धन टूट गया। | |
+ | ==दीक्षा== | ||
+ | [[वृन्दावन]] आने के बाद नंददास ने यमुना के उस पार वृन्दावन के बड़े-बड़े मन्दिर देखे। अपने जन्म-जन्म के सखा का प्रेम-निकुंज देखा। प्रियतम की मुसकान यमुना तट की धवल और परमोज्ज्वल बालुका में बिखर रही थी। उन्हें ब्रजदेवता प्रेमालिंगन के लिये बुला रहे थे। वैष्णव-परिवार से गोसाईं विट्ठलनाथ ने पूछा कि- "ब्राह्मण देवता कहां रह गये?" लोग आश्चर्यचकित हो उठे। नंददास को अपने शिष्य भेजकर उन्होंने बुलाया। वे गोसोईं जी के परम पवित्र दर्शन से धन्य हो उठे। गोसाईं जी ने उनको 'नवनीतप्रिय' का दर्शन कराया। नंददास जी को दीक्षित किया, उन्हें देहानुसन्धान नहीं रह गया। चेत होने पर नंददास की काव्यवाणी ने भगवान की लीला रसानुभूति का मांगलिक गान गाया। वे भागवत हो उठे। उनके हृदय में शुद्ध भगवत्प्रेम की भागीरथी बहने लगी। श्रीगोसाईं विट्ठलनाथ ने उन्हें गले लगाया। नंददास ने गुरु-चरण की वन्दना की, स्तुति की। उनकी भारती के स्वरमय सरस कण्ठ ने गुरुकृपा के माधुर्य से उपस्थित वैष्णव मण्डली को कृतार्थ कर दिया। वे गाने लगे- | ||
+ | <blockquote><poem>श्रीबिट्ठल मंगल रूप निधान। | ||
+ | कोटि अमृत सम हंस मृदु बोलन, सब के जीवन प्रान।। | ||
+ | करुनासिंधु उदार कल्पतरु देत अभय पद दान। | ||
+ | सरन आये की लाज चहुं दिसि बाजे प्रकट निसान।। | ||
+ | तुमरे चरन कमल के मकरंद मन मधुकर लपटान। | ||
+ | 'नंददास' प्रभु द्वारे रटत है, रुचत नहीं कछु आन।।</poem></blockquote> | ||
+ | ==काव्य-साधना== | ||
+ | नंददास ने गोसाईं जी के चरण-कमल के स्थायी आश्रय के लिये उत्कट इच्छा प्रकट की। श्रीवल्लभनन्दन दास कहलाने में उन्होंने परम गौरव अनुभव किया। नंददास ने उनके चरण-कमलों पर सर्वस्व निछावर कर दिया। उनका मन [[कृष्ण|भगवान श्रीकृष्ण]] में पूर्ण आसक्त हो गया। उन्होंने [[गोवर्धन]] में श्रीनाथ जी का दर्शन किया। वे भगवान की किशोर-लीला के सम्बन्ध में पद रचना करने लगे। श्रीकृष्ण लीला का प्राणधन रासरस ही उनकी काव्य-साधना का मुख्य विषय हो गया। वे कभी गोवर्धन और कभी [[गोकुल]] में रहते थे। | ||
+ | ;उच्च कोटि के कवि | ||
+ | नंददास उच्च कोटि के कवि थे। उन्होंने सम्पूर्ण [[भागवत पुराण|भागवत]] को भाषा का रूप दिया। कथावाचकों और ब्राह्मणों ने गोसाईं विट्ठलनाथ से कहा कि- "हम लोगों की जीविका चली जायगी"। गुरु के आदेश से महाकवि नंददास ने केवल ब्रजलीला-सम्बन्धी पदों के और प्रधान रूप से रासरस के वर्णन को बचा रखा, शेष भाषा भागवत को [[यमुना]] में बहा दिया। नंददास ऐसे नि:स्पृह और रसिक श्रीकृष्ण [[भक्त]] का गौरव इस घटना से बढ़ गया। | ||
+ | ==सूरदास से घनिष्ठता== | ||
+ | नंददास की [[सूरदास]] से बड़ी घनिष्ठता थी। महाकवि सूर ने उनके बोध के लिये अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ 'साहित्य-लहरी' की रचना की थी। एक दिन महात्मा सूर ने उनसे स्पष्ट कह दिया था कि- "अभी तुम में वैराग्य का अभाव है"। अत: महाकवि सूर की आज्ञा से वे घर चले आये। कमला नामक कन्या से उन्होंने विवाह कर लिया। अपने ग्राम का नाम श्यामपुर रखा। श्यामसर नामक एक तालाब बनवाया। वे आनन्द से घर पर रहकर भगवान की रसमयी लीला पर काव्य लिखने लगे, पर उनका मन तो श्रीनाथ जी के चरणों पर न्योछावर हो चुका था। कुछ दिनों के बाद वे [[गोवर्धन]] चले आये। वे स्थायी रूप से [[मानसी गंगा गोवर्धन|मानसी गंगा]] पर रहने लगे तथा शेष जीवन श्रीनाथ जी की सेवा में समर्पित कर दिया। | ||
+ | ==कृष्ण का यश-चिन्तन== | ||
+ | [[कृष्ण|भगवान श्रीकृष्ण]] का यश-चिन्तन ही नंददास के काव्य का प्राण था। वह कहा करते थे कि- "जिस कविता में 'हरि' के यश का रस न मिले, उसे सुनना ही नहीं चाहिये।" भगवान श्रीकृष्ण की रूप-माधुरी के वर्णन में उन्होंने जिस योग्यता का परिचय दिया, वह अपने ढंग की एक ही वस्तु है। नंददास ने [[गोपी]] प्रेम का अत्यन्त उत्कृष्ट आदर्श अपने काव्य में निरूपित किया है। ब्रज-काव्य साहित्य में रासरस का पारावार ही उनकी लेखनी से उमड़ उठा। नित्य नवीन रासरस, नित्य गोपी और नित्य श्रीकृष्ण के सौन्दर्य-माधुर्य में वे रात-दिन सराबोर रहते थे। रसिकों के संग में रहकर हरि-लीला गाते रहने को ही वे जीवन का परमानन्द समझते थे। उनकी दृढ़ मान्यता थी- | ||
+ | <blockquote><poem>"रूप प्रेम आनन्द रस जो कछु जग में आहि। | ||
+ | सो सब गिरिधर देव को, निधरक बरनौं ताहि।।"</poem></blockquote> | ||
+ | ==गोलोक प्राप्ति== | ||
+ | नंददास जी ने संवत 1640 (1583 ई.) विक्रमी में गोलोक प्राप्त किया। वे उस समय [[मानसी गंगा गोवर्धन|मानसी गंगा]] पर रहते थे। एक बार अकबर की राजसभा में तानसेन नंददास का प्रसिद्ध पद "देखौ देखौ री नागर नट निरतत कालिन्दी तट" गा रहे थे। उसका अन्तिम चरण था- "नंददास तहं गावै निपट निकट।" बादशाह आश्चर्य में पड़ गये कि नंददास किस तरह 'निपट निकट' थे। वे बीरबल के साथ उनसे मिलने के लिये मानसी गंगा पर गये। अकबर ने नंददास से अपनी शंका का समाधान चाहा। नंददास के प्राण प्रेमविह्वल हो गये, उनकी कामना ने उनको अनुप्राणित किया। | ||
+ | <blockquote><poem>मोहन पिय की मुसकनि, ढलकनि मोरमुकुट की। | ||
+ | सदा बसौ मन मेरे फरकनि पियरे पट की।।</poem></blockquote> | ||
+ | उनके नेत्र सदा के लिये बंद हो गये। गोसाईं विट्ठलनाथ ने उनके सौभाग्यपूर्ण लीला-प्रवेश की सराहन की। नंददास महारसिक प्रेमी [[भक्त]] थे। | ||
==कृतियाँ== | ==कृतियाँ== | ||
− | + | नंददास जी की निम्नलिखित मुख्य रचनाएँ हैं- | |
− | + | '''पद्य रचना''' - 'रासपंचाध्यायी', 'भागवत दशमस्कंध', 'रुक्मिणीमंगल', 'सिद्धांत पंचाध्यायी', 'रूपमंजरी', 'मानमंजरी', 'विरहमंजरी', 'नामचिंतामणिमाला', 'अनेकार्थनाममाला', 'दानलीला', 'मानलीला', 'अनेकार्थमंजरी', 'ज्ञानमंजरी', 'श्यामसगाई', 'भ्रमरगीत', 'सुदामाचरित्र'। | |
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09:30, 9 नवम्बर 2015 के समय का अवतरण
नंददास
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पूरा नाम | नंददास |
जन्म | संवत 1570 (1513 ई.) विक्रमी |
जन्म भूमि | रामपुर गांव, सोरों, उत्तर प्रदेश |
मृत्यु | संवत 1640 (1583 ई.) विक्रमी |
मृत्यु स्थान | मानसी गंगा, गोवर्धन |
अभिभावक | जीवाराम (पिता) |
कर्म भूमि | भारत |
भाषा | ब्रजभाषा |
प्रसिद्धि | अष्टछाप कवि |
नागरिकता | भारतीय |
संबंधित लेख | अष्टछाप कवि, गोसाईं विट्ठलनाथ, सूरदास, मानसी गंगा, गोवर्धन। |
दीक्षा गुरु | गोसाईं विट्ठलनाथ |
प्रभु लीला आसक्ति | किशोर लीला |
अन्य जानकारी | भगवान श्रीकृष्ण का यश-चिन्तन ही नंददास के काव्य का प्राण था। वह कहा करते थे कि- "जिस कविता में 'हरि' के यश का रस न मिले, उसे सुनना ही नहीं चाहिये।" भगवान श्रीकृष्ण की रूप-माधुरी के वर्णन में उन्होंने जिस योग्यता का परिचय दिया |
इन्हें भी देखें | कवि सूची, साहित्यकार सूची |
नंददास 16वीं शती के अंतिम चरण के कवि थे। वे 'अष्टछाप' के प्रमुख कवियों में से एक थे, जो सूरदास के बाद सबसे अधिक प्रसिद्ध हुए। नंददास भक्तिरस के पूर्ण मर्मज्ञ और ज्ञानी थे।
परिचय
नंददास जी का जन्म संवत 1570 (1513 ई.) विक्रमी में हुआ था। एक मान्यता के अनुसार इनका जन्म उत्तर प्रदेश के एटा ज़िले में सोरों के पास रामपुर गांव में हुआ था। उनके पिता का नाम जीवाराम और चाचा का आत्माराम था। वे शुक्ल ब्राह्मण थे और रामपुर ग्राम के निवासी थे। कहते हैं कि गोस्वामी तुलसीदास उनके गुरुभाई थे। नंददास उनको बड़ी प्रतिष्ठा, सम्मान और श्रद्धा की दृष्टि से देखते थे। वे युवक होने पर उन्हीं के साथ काशी में रहकर विद्याध्ययन किया करते थे। नंददास के विषय में ‘भक्तमाल’ में लिखा है-
‘चन्द्रहास-अग्रज सुहृद परम प्रेम में पगे’
इससे इतना ही सूचित होता है कि इनके भाई का नाम चंद्रहास था। 'दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता' के अनुसार ये तुलसीदास के भाई थे, किन्तु अब यह बात प्रामाणिक नहीं मानी जाती। उसी वार्ता में यह भी लिखा है कि द्वारका जाते हुए नंददास सिंधुनद ग्राम में एक रूपवती खत्रानी पर आसक्त हो गए। ये उस स्त्री के घर में चारो ओर चक्कर लगाया करते थे। घरवाले हैरान होकर कुछ दिनों के लिए गोकुल चले गए। ये वहाँ भी जा पहुँचे। अंत में वहीं पर गोसाईं विट्ठलनाथ जी के सदुपदेश से इनका मोह छूटा और ये अनन्य भक्त हो गए। इस कथा में ऐतिहासिक तथ्य केवल इतना ही है कि इन्होंने गोसाईं विट्ठलनाथ जी से दीक्षा ली।
वृन्दावन आगमन
एक बार काशी से एक वैष्णव-समाज भगवान रणछोर के दर्शन के लिये द्वारका जा रहा था। नंददास ने तुलसीदास जी से आज्ञा मांगी। उन्होंने पहते तो जाने की मनाही कर दी, पर बाद में नंददास ने उनको पर्याप्त अनुनय-विनय से प्रसन्न कर लिया। मथुरा में उन्होंने वैष्णव समाज का साथ छोड़ दिया। वे वहां से द्वारका के लिये स्वयं आगे बढ़े। दैवयोग से वे रास्ता, भूल गये। कुरुक्षेत्र के सन्निकट सीहनन्द नामक गांव में आ पहुंचे और वहां से किसी कारणवश पुन: श्रीवृन्दावन को लौट पड़े। नंददास भगवती कालिन्दी के तट पर पहुंच गये। यमुना दर्शन से उनका लौकिक माया-मोह का बन्धन टूट गया।
दीक्षा
वृन्दावन आने के बाद नंददास ने यमुना के उस पार वृन्दावन के बड़े-बड़े मन्दिर देखे। अपने जन्म-जन्म के सखा का प्रेम-निकुंज देखा। प्रियतम की मुसकान यमुना तट की धवल और परमोज्ज्वल बालुका में बिखर रही थी। उन्हें ब्रजदेवता प्रेमालिंगन के लिये बुला रहे थे। वैष्णव-परिवार से गोसाईं विट्ठलनाथ ने पूछा कि- "ब्राह्मण देवता कहां रह गये?" लोग आश्चर्यचकित हो उठे। नंददास को अपने शिष्य भेजकर उन्होंने बुलाया। वे गोसोईं जी के परम पवित्र दर्शन से धन्य हो उठे। गोसाईं जी ने उनको 'नवनीतप्रिय' का दर्शन कराया। नंददास जी को दीक्षित किया, उन्हें देहानुसन्धान नहीं रह गया। चेत होने पर नंददास की काव्यवाणी ने भगवान की लीला रसानुभूति का मांगलिक गान गाया। वे भागवत हो उठे। उनके हृदय में शुद्ध भगवत्प्रेम की भागीरथी बहने लगी। श्रीगोसाईं विट्ठलनाथ ने उन्हें गले लगाया। नंददास ने गुरु-चरण की वन्दना की, स्तुति की। उनकी भारती के स्वरमय सरस कण्ठ ने गुरुकृपा के माधुर्य से उपस्थित वैष्णव मण्डली को कृतार्थ कर दिया। वे गाने लगे-
श्रीबिट्ठल मंगल रूप निधान।
कोटि अमृत सम हंस मृदु बोलन, सब के जीवन प्रान।।
करुनासिंधु उदार कल्पतरु देत अभय पद दान।
सरन आये की लाज चहुं दिसि बाजे प्रकट निसान।।
तुमरे चरन कमल के मकरंद मन मधुकर लपटान।
'नंददास' प्रभु द्वारे रटत है, रुचत नहीं कछु आन।।
काव्य-साधना
नंददास ने गोसाईं जी के चरण-कमल के स्थायी आश्रय के लिये उत्कट इच्छा प्रकट की। श्रीवल्लभनन्दन दास कहलाने में उन्होंने परम गौरव अनुभव किया। नंददास ने उनके चरण-कमलों पर सर्वस्व निछावर कर दिया। उनका मन भगवान श्रीकृष्ण में पूर्ण आसक्त हो गया। उन्होंने गोवर्धन में श्रीनाथ जी का दर्शन किया। वे भगवान की किशोर-लीला के सम्बन्ध में पद रचना करने लगे। श्रीकृष्ण लीला का प्राणधन रासरस ही उनकी काव्य-साधना का मुख्य विषय हो गया। वे कभी गोवर्धन और कभी गोकुल में रहते थे।
- उच्च कोटि के कवि
नंददास उच्च कोटि के कवि थे। उन्होंने सम्पूर्ण भागवत को भाषा का रूप दिया। कथावाचकों और ब्राह्मणों ने गोसाईं विट्ठलनाथ से कहा कि- "हम लोगों की जीविका चली जायगी"। गुरु के आदेश से महाकवि नंददास ने केवल ब्रजलीला-सम्बन्धी पदों के और प्रधान रूप से रासरस के वर्णन को बचा रखा, शेष भाषा भागवत को यमुना में बहा दिया। नंददास ऐसे नि:स्पृह और रसिक श्रीकृष्ण भक्त का गौरव इस घटना से बढ़ गया।
सूरदास से घनिष्ठता
नंददास की सूरदास से बड़ी घनिष्ठता थी। महाकवि सूर ने उनके बोध के लिये अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ 'साहित्य-लहरी' की रचना की थी। एक दिन महात्मा सूर ने उनसे स्पष्ट कह दिया था कि- "अभी तुम में वैराग्य का अभाव है"। अत: महाकवि सूर की आज्ञा से वे घर चले आये। कमला नामक कन्या से उन्होंने विवाह कर लिया। अपने ग्राम का नाम श्यामपुर रखा। श्यामसर नामक एक तालाब बनवाया। वे आनन्द से घर पर रहकर भगवान की रसमयी लीला पर काव्य लिखने लगे, पर उनका मन तो श्रीनाथ जी के चरणों पर न्योछावर हो चुका था। कुछ दिनों के बाद वे गोवर्धन चले आये। वे स्थायी रूप से मानसी गंगा पर रहने लगे तथा शेष जीवन श्रीनाथ जी की सेवा में समर्पित कर दिया।
कृष्ण का यश-चिन्तन
भगवान श्रीकृष्ण का यश-चिन्तन ही नंददास के काव्य का प्राण था। वह कहा करते थे कि- "जिस कविता में 'हरि' के यश का रस न मिले, उसे सुनना ही नहीं चाहिये।" भगवान श्रीकृष्ण की रूप-माधुरी के वर्णन में उन्होंने जिस योग्यता का परिचय दिया, वह अपने ढंग की एक ही वस्तु है। नंददास ने गोपी प्रेम का अत्यन्त उत्कृष्ट आदर्श अपने काव्य में निरूपित किया है। ब्रज-काव्य साहित्य में रासरस का पारावार ही उनकी लेखनी से उमड़ उठा। नित्य नवीन रासरस, नित्य गोपी और नित्य श्रीकृष्ण के सौन्दर्य-माधुर्य में वे रात-दिन सराबोर रहते थे। रसिकों के संग में रहकर हरि-लीला गाते रहने को ही वे जीवन का परमानन्द समझते थे। उनकी दृढ़ मान्यता थी-
"रूप प्रेम आनन्द रस जो कछु जग में आहि।
सो सब गिरिधर देव को, निधरक बरनौं ताहि।।"
गोलोक प्राप्ति
नंददास जी ने संवत 1640 (1583 ई.) विक्रमी में गोलोक प्राप्त किया। वे उस समय मानसी गंगा पर रहते थे। एक बार अकबर की राजसभा में तानसेन नंददास का प्रसिद्ध पद "देखौ देखौ री नागर नट निरतत कालिन्दी तट" गा रहे थे। उसका अन्तिम चरण था- "नंददास तहं गावै निपट निकट।" बादशाह आश्चर्य में पड़ गये कि नंददास किस तरह 'निपट निकट' थे। वे बीरबल के साथ उनसे मिलने के लिये मानसी गंगा पर गये। अकबर ने नंददास से अपनी शंका का समाधान चाहा। नंददास के प्राण प्रेमविह्वल हो गये, उनकी कामना ने उनको अनुप्राणित किया।
मोहन पिय की मुसकनि, ढलकनि मोरमुकुट की।
सदा बसौ मन मेरे फरकनि पियरे पट की।।
उनके नेत्र सदा के लिये बंद हो गये। गोसाईं विट्ठलनाथ ने उनके सौभाग्यपूर्ण लीला-प्रवेश की सराहन की। नंददास महारसिक प्रेमी भक्त थे।
कृतियाँ
नंददास जी की निम्नलिखित मुख्य रचनाएँ हैं-
पद्य रचना - 'रासपंचाध्यायी', 'भागवत दशमस्कंध', 'रुक्मिणीमंगल', 'सिद्धांत पंचाध्यायी', 'रूपमंजरी', 'मानमंजरी', 'विरहमंजरी', 'नामचिंतामणिमाला', 'अनेकार्थनाममाला', 'दानलीला', 'मानलीला', 'अनेकार्थमंजरी', 'ज्ञानमंजरी', 'श्यामसगाई', 'भ्रमरगीत', 'सुदामाचरित्र'।
गद्यरचना - 'हितोपदेश', 'नासिकेतपुराण'।
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