चतुर्वर्ण की उत्पत्ति

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चतुर्वर्ण की उत्पत्ति
चर्मकार का अभिकल्पित चित्र
विवरण शूद्र भारतीय समाज व्यवस्था में चतुर्थ वर्ण या जाति है।
उत्पत्ति शूद्र शब्द मूलत: विदेशी है और संभवत: एक पराजित अनार्य जाति का मूल नाम था।
पौराणिक संदर्भ वायु पुराण का कथन है कि शोक करके द्रवित होने वाले परिचर्यारत व्यक्ति शूद्र हैं। भविष्यपुराण में श्रुति की द्रुति (अवशिष्टांश) प्राप्त करने वाले शूद्र कहलाए।[1]
वैदिक परंपरा अथर्ववेद में कल्याणी वाक (वेद) का श्रवण शूद्रों को विहित था।[2] परंपरा है कि ऐतरेय ब्राह्मण का रचयिता महीदास इतरा (शूद्र) का पुत्र था। किंतु बाद में वेदाध्ययन का अधिकार शूद्रों से ले लिया गया।
ऐतिहासिक संदर्भ शूद्र जनजाति का उल्लेख डायोडोरस, टॉल्मी और ह्वेन त्सांग भी करते हैं।
आर्थिक स्थिति उत्तर वैदिक काल में शूद्र की स्थिति दास की थी अथवा नहीं[3] इस विषय में निश्चित नहीं कहा जा सकता। वह कर्मकार और परिचर्या करने वाला वर्ग था।
मध्य काल कबीर, रैदास, पीपा इस काल के प्रसिद्ध शूद्र संत हैं। असम के शंकरदेव द्वारा प्रवर्तित मत, पंजाब का सिक्ख संप्रदाय और महाराष्ट्र के बारकरी संप्रदाय ने शूद्र महत्त्व धार्मिक क्षेत्र में प्रतिष्ठित किया।
आधुनिक काल वेबर, भीमराव आम्बेडकर, ज़िमर और रामशरण शर्मा क्रमश: शूद्रों को मूलत: भारतवर्ष में प्रथमागत आर्यस्कंध, क्षत्रिय, ब्राहुई भाषी और आभीर संबद्ध मानते हैं।
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अन्य जानकारी पद से उत्पन्न होने के कारण पदपरिचर्या शूद्रों का विशिष्ट व्यवसाय है। द्विजों के साथ आसन, शयन वाक और पथ में समता की इच्छा रखने वाला शूद्र दंड्य है।[4]

चतुर्वर्ण की उत्पत्ति के बारे में प्राचीनतम अनुमान ऋग्वेद के पुरुषसूक्त में वर्णित सृष्टि सम्बन्धी पुराकथा में पाया जाता है। समझा जाता है कि इस संहिता के दशम मंडल में यह विषय बाद में अंतर्वेशित किया गया है। लेकिन उत्तर वैदिक साहित्य[5] में और गाथाकाव्य[6] पुराण[7] तथा धर्मशास्त्र[8] की अनुश्रुतियों में भी इसे कुछ हेरफेर के साथ प्रस्तुत किया गया है। इसमें कहा गया है कि ब्राह्मण की उत्पत्ति आदिमानव (ब्रह्मा) के मुख से, क्षत्रिय की उत्पत्ति उनकी भुजाओं से, वैश्य की उनकी जाँघों से और शूद्र की उनके पैरों से हुई थी।[9] इससे या तो यह स्पष्ट होता है कि शूद्र और अन्य तीन वर्ण एक ही वंश के थे और इसके फलस्वरूप वे आर्य समुदाय के अंग थे, अथवा इसके द्वारा विभिन्न जातियों को ब्राह्मणीय समाज में उत्पत्ति की कहानी के द्वारा मिलाने का प्रयास किया गया। पुरुषसूक्त अथर्ववेद के अन्तिम अंश में है[10] और इसे कालक्रम की दृष्टि से अथर्ववैदिक युग के अन्त का माना जा सकता है।[11] यह जनजातियों के सामाजिक वर्गों में विघटित होने का सैद्धान्तिक औचित्य प्रस्तुत करता है। श्रम का विभाजन ऋग्वैदिक काल में ही काफ़ी विकसित हो चुका था। किन्तु, यद्यपि एक ही परिवार के विभिन्न सदस्य कवि, भिषक और पाठक (पिसाई करने वाले) का काम करते थे, [12] इससे कोई सामाजिक भेदभाव उत्पन्न नहीं होता था। पर अथर्ववैदिक काल के अन्त में कार्यों की भिन्नता के आधार पर सामाजिक हैसियत में भी अन्तर किया जाने लगा और इस प्रकार जनजातियों तथा कुनबों का सामाजिक वर्गों में विघटन शुरू हुआ। मालूम होता है कि शूद्र या दासकर्म करने वाले कुछ आर्य चतुर्थ वर्ण की श्रेणी में आ गए। इस अर्थ में चारों वर्णों की समान उत्पत्ति की कथा में आर्य शूद्रों के वंशजों की संख्या गंगा की नई उर्वर घाटियों में बढ़ती गई हो। साथ ही वैदिक काल से लेकर आगे तक विभिन्न प्रकार के विभिन्न वर्णों के आर्येतर आदिवासी धीरे-धीरे बड़ी संख्या में शूद्र वर्ण में सम्मिलित किये गए।[13] वर्णों की समान उत्पत्ति के बारे में चली आ रही परम्परा से यह स्पष्ट नहीं हो सका कि आर्येतर जनजातियाँ किस प्रकार ब्राह्मणीय समाज में प्रवेश पा सकीं, लेकिन यह कल्पना उपयोगी सिद्ध हुई। यह विभिन्न प्रकार के लोगों को मिलाने और उन्हें साथ ले चलने में सहायक हो सकी, और चूँकि शूद्रों को प्रथम मानव के चरण से उत्पन्न माना गया है, इससे ब्राह्मणप्रधान समाज में उनकी ग़ुलामों जैसी स्थिति को न्यायसिद्ध माना और बताया जा सका।

शूद्रों का सर्वप्रथम उल्लेख

तीन उच्च वर्णों की सेवा करने वाले सामाजिक वर्ग के रूप में शूद्रों का सर्वप्रथम उल्लेख कब किया गया है? ऋग्वैदिक कालीन समाज में कुछ दास-दासियाँ होती थीं, जो घरेलू नौकर के रूप में काम करती थीं, पर उनकी संख्या इतनी नहीं थी कि उनको मिलाकर शूद्रों का दास वर्ण बन पाता। समाज के वर्ग के रूप में शूद्रों का प्रथम और एकमात्र उल्लेख ऋग्वेद के पुरुषसूक्त में आया है, जिसकी पुनरावृत्ति अथर्ववेद के उन्नीसवें भाग में हुई है।[14] इसी भाग के दो अन्य परिच्छेदों में भी चार वर्णों का संकेत किया गया है। इसमें से एक परिच्छेद में दर्भ (घास) से प्रार्थना की गई है कि वह प्रार्थी को ब्राह्मण, क्षत्रिय, शूद्र और आर्य का प्रियपात्र बनाए।[15] यहाँ आर्य शब्द का प्रयोग प्राय: वैश्य के लिए किया गया है। दूसरे परिच्छेद में देवों और राजाओं के साथ-साथ शूद्र तथा आर्य दोनों के ही प्रियपात्र बनने की इच्छा व्यक्त की गई है।[16] मालूम होता है कि यहाँ देव ब्राह्मण के लिए और आर्य वैश्य के लिए प्रयुक्त हुआ है।[17] हमें स्मरण रखना है कि ये सभी परिच्छेद उन्नीसवें भाग में आए हैं, जो बीसवें भाग को मिलाकर अथर्ववेद के मुख्य संकलन का परिशिष्ट है।[18] इसके पूर्व के एक परिच्छेद में ब्राह्मण, राजन्य या शूद्र द्वारा किये गए जादू-टोने (या उनके द्वारा बनाये गए ताबीज) का उल्लेख है और एक मंत्र में बताया गया है कि प्रयोग करने वाले को भी जादू का झटका लग सकता है।[19] यह परिच्छेद अथर्ववेद के द्वितीय खण्ड (भाग आठ-बारह) में है, जिसके सम्बन्ध में व्हिटने की राय है कि इसकी रचना स्पष्टत: पुरोहितों ने की होगी।[20] इससे यह संकेत मिलता है कि वर्ण व्यवस्था का विकास पुरोहितों के प्रभाव में हुआ। हमारे काम का केवल एक प्रसंग ऐसा है, जिसे व्हिटने के अनुसार अथर्ववेद के आरम्भिक काल का कहा जा सकता है। इसमें ब्राह्मण, राजन्य और वैश्य का उल्लेख तो हुआ है, [21] किन्तु शूद्र को छोड़ दिया गया है। इससे स्पष्ट है कि अथर्ववेद काल के अन्त में ही शूद्रों को समाज के एक वर्ग के रूप में चित्रित किया गया है। इसी अवधि में उनकी उत्पत्ति के सम्बन्ध में पुरुषसूक्त में उल्लिखित उक्ति का समावेश ऋग्वेद के दशम मंडल में किया गया होगा।

चतुर्थ वर्ण शूद्र क्यों

लोग जानना चाहेंगे कि चतुर्थ वर्ण शूद्र क्यों कहलाने लगा। मालूम होता है कि जिस प्रकार सामान्य यूरोपीय शब्द ‘स्लेव’ और संस्कृत शब्द ‘दास’ विजित जनों के नाम पर बने थे, उसी प्रकार शूद्र शब्द उक्त नामधारी पराजित जनजाति के नाम पर बना था। ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में शूद्र नाम की जनजाति थी, क्योंकि डियोडोरस ने लिखा है कि सिकन्दर ने आधुनिक सिंध के कुछ इलाकों में रहने वाली सोद्रई नामक जनजाति पर चढ़ाई की थी।[22] ग्रीक लेखकों ने जिन जातियों का उल्लेख किया है, उनका अस्तित्व अतिप्राचीन काल में भी देखा जा सकता है। उदाहरणार्थ, एरियन द्वारा चर्चित अबस्तनोई (जिसे डियोडोरस ने संबस्तई कहा है) को ऐतरेय ब्राह्मण के अंबष्ठों का समरूप माना गया है।[23] इस ब्राह्मण में एक अंबष्ठ राजा की चर्चा है।[24] यही बात शूद्र जाति पर भी लागू होती है और इस तरह लगभग ई.पू. 10वीं शताब्दी की शूद्र जाति और चौथी शताब्दी की शूद्र जनजाति में साम्य देखा जा सकता है। अथर्ववेद के आरम्भिक भाग में शूद्रों के तीन उल्लेखों की इस दृष्टि से विवेचना की जा सकती है। व्हिटने का कथन है कि ये अथर्ववेद के प्रथम खण्ड (भाग1-7) में आते हैं, जो परम लोकमूलक हैं और सभी प्रकार से उस संहिता का अत्यन्त अभिलाक्षणिक अंश है।[25] इनमें से दो सन्दर्भों में पुजारी चाहता है कि हर किसी को, चाहे वह आर्य हो या शूद्र, जड़ी-बूटी की सहायता से परखे ताकि जादूगर का पता चल जाए।[26] इस सम्बन्ध में ब्राह्मण या राजन्य का कोई उल्लेख नहीं हुआ है। अब प्रश्न यह है कि यहाँ आर्य और शूद्र दो सामाजिक वर्गों (वर्णों) के प्रतीक हैं, या दो जनजातियों के। इनमें से उत्तरवर्ती कल्पना युक्तियुक्त लगती है। पहले आर्य और दास या दस्यु के बीच जो विरोध रहता था, वह अब बदलकर आर्य और शूद्र के बीच का हो गया। यह विशेष रूप से ध्यान देने योग्य है कि ये निर्देश सामाजिक विभेद या अशक्तताओं का ऐसा आभाव नहीं देते, जो वर्ण की कल्पना में अंतर्निहित हैं। उनकी तुलना उसी संहिता के एक अन्य परिच्छेद से की जा सकती है, जिसमें आर्य और दास की चर्चा है और जिसमें पुरोहित या वरुण ने यह दावा किया है कि उसने जिस मार्ग का अनुसरण किया है, उसे कोई दास या आर्य विनष्ट नहीं कर सकता।[27]

ऋग्वेद में इसी तरह की अन्य ऋचाएँ भी आई हैं, जिनमें पुरोहित चाहता है कि वह अपने दुश्मन आर्यों और दासों या दस्युओं को परास्त करे। वैदिक ग्रन्थों में आए हुए सामाजिक सम्बन्धों के प्रत्यक्ष निर्देशों का सही अर्थ लगाने में ब्राह्मण टीकाकार इसलिए सफल नहीं हो सके कि उनका ध्यान सदा बाद में होने वाली घटनाओं की ओर लगा रहता था। ऋग्वेद में आर्य और दास शब्दों का अर्थ जिस रूप में किया गया है, वह इस आशय का उदाहरण कहा जा सकता है। सायण आर्य को प्रथम तीन वर्णों का और दास को शूद्र वर्ण का मानते हैं।[28] स्पष्ट है कि सायण ने यह टीका बाद में समाज के चार वर्णों में विभक्त होने के आधार की, जिनका औचित्य वह सिद्ध करना चाहते हैं। इसी प्रकार यहाँ जिस अथर्ववैदिक प्रसंग का विवेचन किया जा रहा है, उसमें सायण ने आर्य की व्याख्या तीन वर्णों के सदस्य के रूप में की है,[29] जिससे सहज ही शूद्र चौथे वर्ण के प्रतिनिधि हो जाते हैं। किन्तु धर्मशास्त्रों में आर्य और शूद्र के प्रति जो दृष्टि अपनाई गई है, उसके आधार पर पहले के ग्रन्थों का सही अर्थ लगाना बहुत कठिन हो जाता है।

अथर्ववेद के आरम्भिक भाग में शूद्र को जनजाति माना गया है। इस आशय का निष्कर्ष इसमें उपलब्ध तीसरे प्रसंग से भी निकाला जा सकता है, जिसमें ‘तक्मन्’ ज्वर से कहा गया है कि वह मुजवंतों, बल्हिकों और महावृषों के साथ-साथ कुलटा शूद्र महिलाओं को भी ग्रसित करे।[30] मालूम है कि ये सभी जन उत्तरपूर्व भारत के निवासी थे,[31] जहाँ शूद्र जनजाति आभीरों के साथ रहती थी,[32] जैसा कि महाभारत में बताया गया है। एक अन्य ऋचा में भी इस इच्छा की पुनरावृत्ति की गई है कि ज्वर विदेशियों को ग्रसित करे।[33] इससे आभास मिलता है कि शूद्र महिलाओं का उल्लेख जिस सन्दर्भ में हुआ है वह अथर्ववेदकालीन आर्यों के उस बैर-भाव का द्योतक है जो उनके मन में भारत के उत्तर-पश्चिम भाग के विजातीय निवासियों के प्रति रहता था। अत: यहाँ सम्भवत: शूद्र शब्द का अर्थ है शूद्र जाति की महिला। पैप्लाद शाखा की एक ऐसी ही ऋचा में शूद्रा की जगह ‘दासी’ शब्द का प्रयोग हुआ है,[34] जिससे लेखक की राय में यह प्रकट होता है कि ये दोनों शब्द पर्यायवाची हैं। अत: अथर्ववेद के आरम्भिक भाग में जो शूद्र शब्द का प्रयोग हुआ है उसे वर्ण के अर्थ में नहीं, बल्कि जाति के अर्थ में लेना चाहिए, जो प्रसंग की दृष्टि से अधिक समीचीन मालूम पड़ता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. वेदांतसूत्र- 1, 44, 33
  2. अथर्ववेद 19, 32, 8
  3. रामशरण शर्मा पृ. 163-164
  4. गौतम धर्मसूत्र 12, 5
  5. पंचविश ब्राह्मण, VI. I. 6-10; वाजसनेयी संहिता, XXXI, 11; तैत्तिरीय आरण्यक, III. 12.5 और 6.
  6. महाभारत, XII. 73.4-8.
  7. वायुपुराण, I. VIII. 155.9; मार्कण्डेय पुराण, अध्याय 49; विष्णु पुराण, I. अध्याय VI.
  8. वसिष्ठ धर्मसूत्र, IV. 2; बौधायन धर्मसूत्र, I. 10. 19. 5-6; देखें आपस्तम्ब धर्मसूत्र, I. 1. 1.7; मनुस्मृति, I. 31; यजुर्वेद III. 126.
  9. ऋग्वेद, X. 90-12.
  10. व्हिटने : ‘हार्वर्ड ओरिएंटल सिरीज’, VIII. पृष्ठ CXLI; VIII. 895-898.
  11. अथर्ववेद, XIX. 6.6.
  12. ऋग्वेद, IX. 112.3.
  13. ओल्डेनबर्ग (साइटशृफ्ट डेर डोय्चेन मेर्गेनलैंडिशेनगेज़ेलशाफ्ट, बर्लिन, 1i. 286.).
  14. अथर्ववेद, XIX. 6.6.
  15. अथर्ववेद, XIX. 32.8; पैप्लाद., XII. 4.8.
  16. अथर्ववेद, XIX. 62.1; पैप्लाद, II. 32.5.
  17. हार्वर्ड ओरिएंटल सिरीज, VIII. 1003; अथर्ववेद के अनुवाद पर व्हिटने की टिप्पणी, XIX. 62.1.
  18. व्हिटने : ‘हार्वर्ड ओरिएंटल सिरीज’, VIII., पृष्ठ 33.
  19. अथर्ववेद, X. 1.3.
  20. व्हिटने : ‘हार्वर्ड ओरिएंटल सिरीज’, VII. पृष्ठ. CLV.
  21. अथर्ववेद, V. 17.9; पैप्लाद. IX. 16.7.
  22. माक्रिण्डल : ‘इनवेजन ऑफ़ इण्डिया’, पृष्ठ 293. एरियन सोगदोई (‘इनवेजन ऑफ़ इण्डिया पृष्ठ 157) का उल्लेख करते हैं, जो ग़लत हो सकता है। मैक्रिण्डल : ‘ऐनशिएंट इण्डिया ऐज डिस्क्राइब्ड बाइ टालमी’, पृष्ठ 317. फिर टालमी ने स्पष्ट लिखा है (VI. 20.3) कि सिद्रोई आर्केसिया के मध्य भाग में रहते थे, जिसके अन्तर्गत पूर्वी अफ़ग़ानिस्तान का काफ़ी बड़ा हिस्सा पड़ता है, और जिसकी पूर्वी सीमा पर सिंधु है।
  23. एच.सी. रायचौधरी : पोलिटिकल हिस्ट्री ऑफ़ एनशिएंट इण्डिया, पृष्ठ 255.
  24. ऐतरेय ब्राह्मण, VIII. 21.
  25. हार्वर्ड ओरिएंटल सिरीज, VII. पृष्ठ CXLVIII और CLV.
  26. अथर्ववेद, IV. 20.4, 8; पैप्प. VIII. 6.8. ‘तयाहं सर्व पश्यामि यश्च शूद्र उतार्य:’
  27. अथर्ववेद, V. 11.3.
  28. ऋग्वेद की टीका, II. 12.4.
  29. अथर्ववेद की टीका, IV. 20.4.
  30. अथर्ववेद, V. 22.7 और 8.
  31. मजूमदार और पुसलकर : वैदिक एज, पृष्ठ 258-9.
  32. महाभारत, VI. 10.66, 46 जहाँ क्रिटिकल एडिशन ऑफ़ महाभारत में अपरान्ता की जगह अशुद्ध पाठ अपरंध्रा है। ‘शूद्राभीराथ दरदा: काश्मीरा पशुभि: सह’।
  33. अथर्ववेद, V. 22.12, 14.
  34. पैप्लाद, XIII. 1.9.

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