मध्य भारत का पठार

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मध्य भारत का पठार भारतीय उपमहाद्वीप के हृदयस्थल में स्थित यह पठार संकुल मध्यवर्ती उच्चभूमि का उत्तरी भाग निर्मित करता है। यह लगभग 57000 वर्ग किमी में फैला हुआ है और इसमें पश्चिमोत्तर मध्य प्रदेश तथा मध्य राजस्थान राज्य के अधिकांश भाग शामिल हैं। यह पठार पश्चिम में पूर्वी राजस्थान उच्चभूमि, उत्तर में ऊपरी गांगेय मैदान, पूर्व में बुंदेलखंड उच्चभूमि और दक्षिण में मालवा के पठार से घिरा हुआ है। इसकी मुख्य ढाल उत्तर में यमुना के मैदानों की ओर है। उत्तरी तथा मध्य भाग चंबल, बेतवा, केन, टोन्स और सोन नदियों द्वारा अपवाहित है। दक्षिण पश्चिम में साबरमती, माही, मर्मदा, ताप्ती नदी तंत्र प्रमुख हैं। गोदावरी तंत्र दक्षिण पूर्वी भाग को अपवाहित करता है।

भूगोल

भू-आकृतियाँ क्षेत्रीय विविधताएँ दर्शाती हैं, जिनकी विशेषताओं में भू-अपरदन संबंधी अश्मविज्ञानी परिवर्तन शामिल है, जो उन्नयन और भ्रंशन द्वारा रूपांतरित होते हैं। आधार के शैल प्रमुख रूप से भू-संरचना को प्रभावित करते हैं। मध्य भारत के पठार का आधार शैल बेसॉल्ट की समरुप संरचना से निर्मित हैं, अपक्षय के कारण कुछ स्थानों पर गोलाकार शिलाखंडों का निर्माण हुआ है। पठार की औसत लंबाई लगभग 500 मीटर है और इसका ढाल दक्षिण में 602 मीटर से उत्तर में 301 मीटर तक है। अपरदन होने से कई स्थानों पर बलुआ पत्थरों के कगार वाली एक लगभग समतल सतह निर्मित हो गई है। विंध्य पर्वतमाला के ऊपरी भाग से निकलने वाली चंबल नदी दक्षिण-पश्चिम से पूर्वोत्तर की ओर एक चौड़ी कटोरीनुमा द्रोणी से होती हुई लंबे, संकरे दर्रे में प्रवेश करती है। जहाँ चंबल घाटी परियोजना[1] का गाँधी सागर बाँध स्थित है। चंबल घाटी में जंगलों की कटाई और अंधाधुंध चराई से गंभीर रूप से बड़े खड्डे तथा अपरदन वाले क्षेत्र बन गए हैं। कहा जाता है कि इसकी तंग घाटियों का उपयोग डकैतों द्वारा छिपने की जगहों के रूप में किय जाता था। यहाँ की मिट्टी काली तथा जलोढ़ है। बाणगंगा, कुंवारी, पारबती और काली सिंध अन्य मुख्य नदियाँ हैं। पठार पर घास के मैदान, दक्षिण में सघन और नम पर्णपाती वन, उत्तर में आर्द्र पर्णपाती वन[2] आम है, जो पश्चिम की ओर बहुत कम वृक्षों और झाड़ झंकार से युक्त भूमि में परिवर्तित हो जाते हैं।

इतिहास

ऐतिहासिक काल से ही यह क्षेत्र मूल निवासियों का निवास स्थान है। पठारी भूमि पूर्णतः बसे हुए उत्तरी मैदानों और अधिक खुले दक्षिण के लिए ओट का कार्य करती थी। पश्चिमी मार्ग से राजस्थान की परिक्रमा करते हुए मध्य के दो दर्रों के मार्गों और उड़ीसा के तट के निकटवर्ती मार्ग से इसे पार किया जा सकता था। इस क्षेत्र ने इस्लामी शक्तियों के कारण भागे राजपूत वंशो को राजनीतिक शरण दी थी। इसने न केवल क्षेत्र की राजनीतिक व्यवस्था को, बल्कि इसके मौजूदा आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक विकास को भी प्रभावित किया।

जनजीवन

आरंभिक राजनीतिक व्यवस्था जनजातिय प्रमुखों और राजाओं की थी। राजपूत वंश मध्यकाल में इस क्षेत्र में आए और निवास योग्य निम्न भूमि पर दुर्ग बनाए। उनका सांमती दृष्टिकोण या तो जनजातियों ने स्वीकार कर लिया या वे और आगे की वनाच्छादित पहाड़ियों पर चले गए। गुप्तों, मौर्यों और राजा हर्ष का प्रभाव मुख्यतः मार्गों पर रहा प्रतित होता है, जैसा साँची, विदिशा और उज्जैन की स्थिति से दिखाई देता है। भोपाल, टोंक, पालनपुर के नवाबों और साथ ही मराठोंमुग़लों ने अपने मुख्य सामरिक मार्गों को संघटित करने तथा राजधानी बनाने के किए इंदौर व ग्वालियर को पसंद किया। भारत पर अंग्रेज़ों के की विजय ने मध्य भारत पर बहुत कम प्रभाव डाला, जिससे राजनीतिक अपरिपक्वता और कम सामाजिक और आर्थिक विकास हुआ और बहुत सा क्षेत्र आज भी दुर्गम है।

इस क्षेत्र के हर सात लोगों में से एक आदिवासी है। आदिवासी अपनी विशिष्टता इसलिए बनाए रख सके हैं, क्योंकि भूमि पहाड़ी, वनाच्छादित और दुर्गम है। क्षेत्रीय भाषा और संस्कृति विविध विशिष्टाओं को सुदृढ़ करने में सहायक है, जैसा कि छत्तीसगढ़, बुंदेलखंड, दंडकारण्य और अन्य ज़िलों में देखा गया है।

अर्थव्यवस्था

अर्थव्यवस्था कृषि प्रधान है, दलहन (फलियाँ) तिलहन, कपास, गन्ना और तंबाकू का उत्पादन होता है। उद्योगों में आरा घर, तिलहन से तेल निकालना, मशीन के औज़ारों व उपकरणों का निर्माण, कपड़े की बुनाई, मिट्टी के बर्तन, ईंट और सीमेंट का निर्माण शामिल हैं। लौह अयस्क, ताँबा, सीसा, बैदूर्य, सेलखड़ी और चूना पत्थर के भंडारों से उत्खनन किया जाता है। परिवहन व्यवस्था में सड़कें और नैरो-गेज रेल मार्ग आते हैं, जो ग्वालियर[3] को कोटा, मुरैना, भिंड, शिवपुरी और बूंदी से जोड़ते हैं। ग्वालियर और कोटा में हवाई पट्टियाँ हैं।

कृषि की सघनता मिट्टी के प्रकार, सिंचाई की उपलब्धि और आसपास के पहाड़ी क्षेत्रों के निम्न वनों तथा झाड़ीदार भूमि पर निर्भर है, जिनमें मुख्यतः जनजातियों का निवास है।

जहाँ पुराने स्थापित नगरों ने स्वतंत्रता के पश्चात् वाणिज्यिक और कुछ औद्योगिक कार्य अपना लिया है, वहीं योजनाबद्ध नए व्यवस्थित औद्योगिक नगर भी विकसित हुए हैं। ग्वालियर, इंदौर, भोपाल और जबलपुर पहले वर्ग में आते हैं, जबकि भिलाई, दुर्ग, नेपानगर, कोरबा व कटनी दूसरे में। इन नगरों के निकट स्थानीय खनिज तथा वन स्रोतों की प्राप्ति और रेल व सड़क मार्गों के माध्यम से आसानी से पहुँचा, इनके लिए लाभ की स्थिति निर्मित है।

यद्यपि क्षेत्र में शहरीकरण की दर कम है, फिर भी यह औद्योगिक नगरों के मामले में अधिक रही है। क्षेत्र के कुल क्षेत्रफल के 30 प्रतिशत में वनाच्छादित पहाड़ियाँ व अतिदोहन से बने झाड़ीदार जंगल तथा वनों के बंजर टुकड़े हैं।

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शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सिंचाई व जलविद्युत
  2. जिनमें कुछ सागौन भी हैं
  3. मुख्य औद्योगिक केंद्र

बाहरी कड़ियाँ

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