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न्याय दर्शन में प्रमाण का उल्लेख

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न्याय दर्शन विषय सूची

न्याय दर्शन संस्कृत शब्द है, जिसका अर्थ है- "व्युत्पत्ति के आधार पर मार्गदर्शन करने वाला"। प्रपूर्वक मा धातु से करण अर्थ में ल्युट् प्रत्यय करके ल्युट् के अन आदेश होने पर प्रमाण पद निष्पन्न होता है। जिससे विषय का यथार्थ अनुभव हो उसे उस विषय में प्रमाण कहा जाता है, जो इसका व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है। प्रमा अर्थात् उत्कृष्ट ज्ञान का करण प्रमाण है। ज्ञान की उत्कृष्टता उसके यथार्थ होने से होती है। यद्यपि यथार्थ ज्ञान अनुभव और स्मरण के भेद से दो प्रकार के होते हैं तथापि स्मरण का असाधारण कारण रूप करण अनुभव ही होता है अत: अनुभव ही प्रमुख रूप से 'प्रमा' कहलाता है। स्मरण तो अनुभूत विषय का ही होता है, अत: स्मरण स्थल में अनुभव ही प्रमाण होता है। फलत: अनुभव रूप प्रधान प्रमा का असाधारण कारण प्रमाण होता है। अनुभव के चार प्रकार कहे गये हैं-

  1. प्रत्यक्ष,
  2. अनुमिति,
  3. उपमिति
  4. शब्दबोध।

अतएव प्रमाण भी चार प्रकार के माने गये हैं-

  1. प्रत्यक्ष,
  2. अनुमान,
  3. उपमान
  4. शब्द।[1]

प्रत्यक्ष

प्रत्यक्ष के बिना किसी अन्य प्रमाण की सत्ता सम्भव नहीं है। अतएव यहाँ सबसे पहले प्रत्यक्ष का उल्लेख हुआ है। इन्द्रिय और अर्थ के सन्निकर्ष से जन्य तथा अव्यभिचारी अर्थात् यथार्थ ज्ञान प्रत्यक्ष कहलाता है।[2] यहाँ इन्द्रिय से घ्राण आदि पञ्चेन्द्रिय और मनस विवक्षित है तथा अर्थ से इन सभी इन्द्रियों के ग्राह्य भिन्न-भिन्न विषय। इस प्रत्यक्ष ज्ञान का करण ही प्रत्यक्ष प्रमाण होता है जो प्राचीन के मत में इन्द्रियार्थ सन्निकर्ष रूप है और नीवन के मत में इन्द्रिय रूप है। प्राचीन नैय्यायिक की दृष्टि में असाधारण कारण का परिष्कार क्रिया की सिद्धि में जो प्रकृष्ट उपकारक हो उसे करण कहकर किया गया है, जो यहाँ इन्द्रियार्थ सन्निकर्ष होता है।

नवीन नैय्यायिक ने व्यापारवान कारण को करण कहकर असाधारण कारण का परिष्कार किया है। अत: इन्द्रिय प्रत्यक्ष प्रमाण होता है क्योंकि इन्द्रिय ही यहाँ व्यापारवान है। इस मत में चक्षुषा पश्यति, घ्राणेन जिघ्रति आदि प्रयोग भी उपोद्बलक होते हैं। इसके अतिरिक्त प्रत्यक्षात्मक ज्ञान भी प्रमाण होता है क्योंकि हानबुद्धि, उपादानबुद्धि और उपेक्षाबुद्धि को यदि उसका फल माना जाए तो वह इन बुद्धियों का ‘करण’ अवश्य होगा। भाष्यकार ने इस तरह से प्रत्यक्षान तथा उसके करण (इन्द्रियार्थसन्निकर्ष या इन्द्रिय) दोनों को प्रत्यक्ष प्रमाण कहा है।

यद्यपि प्रत्यक्ष प्रमा के कारण आत्ममन: संयोग, इन्द्रियमन:संयोग तथा इन्द्रिय और विषय का सन्निकर्ष आदि अनेक माने गये हैं, तथापि उनमें इन्द्रिय और अर्थ का सन्निकर्ष ही प्रधान है- यह समझाने के लिए प्रत्यक्ष सूत्र में उसका शब्दश: उल्लेख हुआ है। सन्निकर्ष दो प्रकार का होता है- लौकिक और अलौकिक।

  • लौकिक सन्निकर्ष के छह प्रकार होते हैं।
  1. संयोग
  2. संयुक्त समवाय
  3. संयुक्त समवेत समवाय
  4. समवाय
  5. समवेत समवाय
  6. विशेषण-विशेष्य-भाव।

घट आदि द्रव्य का प्रत्यक्ष संयोग सन्निकर्ष से होता है और घटगत रूप के प्रत्यक्ष में द्वितीय सन्निकर्ष, घट के रूपगत रूपत्व प्रत्यक्ष में तृतीय सन्निकर्ष अपेक्षित है। शब्द के प्रत्यक्ष में चतुर्थ सन्निकर्ष एवं शब्दत्व के प्रत्यक्ष में पंचम सन्निकर्ष की अपेक्षा होती है। समवाय संबन्ध तथा अभाव के प्रत्यक्ष में छठवाँ सन्निकर्ष लगता है। इस लौकिक प्रत्यक्ष के दो प्रकार कहे गये हैं- सविकल्प और निर्विकल्प। विकल्प से विशेषण-विशेष्य-भाव अभिप्रेत हे। फलत: विशेषण-विशेष्य-भाव से रहित निर्विकल्पक प्रत्यक्ष है और उससे युक्त सविकल्पक। वाचस्पतिमिश्र ने कहा है कि प्रत्यक्ष सूत्र में अव्यपदेश्य तथा व्यवसायात्मक पदों से सूत्रकार का यही अभिप्राय विवक्षित है।

  • अलौकिक सन्निकर्ष के तीन प्रकार होते हैं-
  1. सामान्य लक्षण,
  2. ज्ञान लक्षण
  3. योगज।

सामान्य लक्षण - सामान्य ही लक्षण अर्थात् स्वरूप है जिस सन्निकर्ष का उसे सामान्य लक्षणा प्रत्यासत्ति कहते हैं। सामान्य से इन्द्रिय संबद्ध विशेष्यक ज्ञान के प्रकारीभूत पदार्थ विवक्षित है, जो धर्म स्वरूप होता है। वह कदाचित जाति रूप और कदाचित प्रकार रूप देखा गया है। धूमस्वरूप सन्निकर्ष से सकल धूम का अलौकिक प्रत्यक्ष रूप ज्ञान इसका उदाहरण होता है। यहाँ चक्षुष इन्द्रिय से संबद्ध धूम विशेष्यक ज्ञान उत्पन्न होता है, इसमें प्रकार होता है, धूमत्व, जो सन्निकर्ष होकर देशान्तरीय और कालान्तरीय सभी धूम का ज्ञान कराता है। यहाँ इन्द्रिय का संबन्ध लौकिक अभीष्ट हे। अत: सामान्य लक्षणा प्रत्यासत्ति (सन्निकर्ष) से बहिरिन्द्रिय के द्वारा ज्ञानोत्पत्ति के समय में, इस सन्निकर्ष में इन्द्रिय जन्यता अपेक्षित है। फलत: इन्द्रिय के साथ विषय के लौकिक सन्निकर्ष से जो विशिष्ट विषय का ज्ञान होता है, उसमें प्रकारीभूत सामान्य ही सामान्य लक्षणा प्रत्यासत्ति है। मानस प्रत्यक्ष स्थल में यही सन्निकर्ष ज्ञान प्रकारीभूत सामान्य रूप होता है।

सामान्य लक्षणा पद में कदाचित लक्षण पद का विषय भी अर्थ लिया गया है। इन्द्रिय संबद्ध विशेष्यक घटज्ञान अभी हुआ और दूसरे दिन उक्त संबन्ध के बिना भी उक्त ज्ञान के प्रकारीभूत पदार्थ रूप सामान्य के विद्यमान रहने से इस प्रत्यासत्त से अलौकिक प्रत्यक्ष होने लगेगा, जो अनुभव विरुद्ध है। अत: लक्षण का अर्थ यहाँ विषय होता है। और सामान्य विषयक ज्ञान रूप प्रत्यासत्ति उसका अर्थ होता है 'न तु ज्ञायमान सामान्य रूप प्रत्यासत्ति।' अब यह आपत्ति नहीं होगी। पद दिन में उक्त ज्ञान की अविद्यमानता से उक्त दोष संभव नहीं है।

इसके मानने में युक्ति यह है कि उक्त सन्निकर्षजन्य प्रत्यक्ष के नहीं मानने पर वह्नि के साथ धूम का महानस में प्रत्यक्ष होने पर भी सकलदेशीय धूम के साथ चक्षुष् इन्द्रिय के संयोग के अभाव में क्या सर्वत्र ही धूम वह्नि का व्याप्य है तथा धूम युक्त सभी स्थलों में वह्नि रहता है या नहीं- इस तरह का जो संशय होता है, वह नहीं हो पाएगा। अप्रत्यक्ष धर्मों में किसी धर्म का संशय नहीं होता है और उक्त स्थल में सभी धर्म का प्रत्यक्ष अन्यथा संभव नहीं है।

सामान्य धर्म के प्रत्यक्ष रूप अलौकिक सन्निकर्षजन्य सकल धूम के प्रत्यक्ष मानने पर धूमत्वेन, सकल धूम में वह्नित्वेन सकल वह्नि की व्याप्ति का निश्चय करके धूम हेतु से वह्न का सार्वत्रिक एवं सार्वकालिक अनुमिति होती है जो इस सन्निकर्ष के बिना संभव नहीं है।

ज्ञानलक्षणा- दूसरा अलौकिक सन्निकर्ष है। ज्ञान ही लक्षण अर्थात् स्वरूप है जिसका वह ज्ञानलक्षणा प्रत्यासत्ति (सन्निकर्ष) कहलाता है। जिस इन्द्रिय से जिस विषय का ज्ञानलक्षणा सन्निकर्षजन्य प्रत्यक्ष इष्ट होता है, उस इन्द्रिय से संयुक्त मनस के साथ संयुक्त आत्मा में समवेत उस विषयक ज्ञान ही उस विषय के प्रत्यक्ष में अलौकिक सन्निकर्ष होता है। चन्दनखण्ड में सौरभ का चाक्षुष प्रत्यक्ष ज्ञानलक्षणा से होता है। यहाँ चक्षुष संयुक्त मनस से संयुक्त आत्मा में सौरभ का स्मरण रूप ज्ञान समवेत है, वह ज्ञान विषय तो सम्बन्ध से सौरभ में विद्यमान है। अत: वह ज्ञान ही (चक्षुष से युक्त मनस और मनस से युक्त आत्मा में समवेत सौरभ ज्ञान ही) सौरभ के साथ चक्षुष का सन्निकर्ष है, जिससे दूरस्थित चन्दनखण्ड के लोक प्रत्यक्ष के समय उसके सौरभ का अलौकिक चाक्षुष प्रत्यक्ष होता है। इसे उपनय भी कहते हैं। अतएव इस सन्निकर्ष से अन्य प्रत्यक्ष को उपनीत भान कहा जाता है। न्यायमत में इस सन्निकर्ष से भ्रमात्मक प्रत्यक्ष होता है। रस्सी में सर्प के भ्रमस्थल में, रस्सी में सर्प तो रहता नहीं है, अतएव सर्पात्मक विषय के साथ इन्द्रिय का कोई भी लौकिक सन्निकर्ष संभव नहीं है। असत या अलीक पदार्थ भ्रम का भी विषय नहीं होता है। अत: सिद्ध है कि जिस विषय का यथार्थज्ञान संभव है उसी विषय का भ्रम भी हो सकता है। फलत: किसी सत्पदार्थ में ही किसी सत्पदार्थ का भ्रम होता है। उपर्युक्त इस भ्रमस्थल में ज्ञानलक्षण सन्निकर्ष ही सर्प के भ्रमात्मक प्रत्यक्ष का चरम कारण होता है। ज्ञान ही जिस सन्निकर्ष का स्वरूप हो उसे ज्ञानलक्षण कहते हैं। बाह्य पदार्थविषयक सविकल्पक ज्ञान का मानस प्रत्यक्ष रूप अनुव्यवसाय[3] भी ज्ञानलक्षणसन्निकर्ष से ही होता है। इस अनुव्यवसाय में मन: संयुक्त आत्मा में उक्त घटविषयक सविकल्पक ज्ञान समवाय सम्बन्ध से विशेषण रूप में विषय होता है। क्योंकि घटत्व विशिष्ट घटविषयक ज्ञान से युक्त मैं हूँ- यही तो उस मानस प्रत्यक्ष का स्वरूप होता है। यहाँ घट का ज्ञान बाह्य पदार्थ में स्वतंत्र रूप से मनस की प्रवृत्ति नहीं है। अत: मानना होगा कि मैं घटत्व विशिष्ट घटविषयक ज्ञानवान हूँ- इस मानस प्रत्यक्ष में ज्ञानांश लौकिक प्रत्यक्ष है और घटांश अलौकिक प्रत्यक्ष। इसका सन्निकर्ष है ज्ञानलक्षणा। यद्यपि सामान्य लक्षणा और ज्ञानलक्षणा दोनों ही प्रत्यासत्ति (सन्निकर्ष) ज्ञानस्वरूप ही है तथापि दोनों में परस्पर पार्थक्य हे। इस सामान्य लक्षणा अपने आश्रय का ज्ञान कराती है। कारिकावली में विषयी 'यस्य तस्यैव व्यापारो ज्ञानलक्षण:' इस कारिका से बात स्पष्ट होती है।

योगज - अलौकिक सन्निकर्ष का तीसरा प्रभेद है- योगज। महायोगी का समाधि विशेष रूप योग से जन्य सन्निकर्ष ही योगज सन्निकर्ष है। इस सन्नकिर्ष से योगी भूत, भविष्यत व्यवहित एवं दूरस्थ आदि विषयों का अलौकिक प्रत्यक्ष कर लेते हैं।

अनुमान

प्रत्यक्षजनित यथार्थ ज्ञान ही अनुमान प्रमाण होता है। जिस किसी प्रकार के प्रत्यक्ष ज्ञान से जनित यथार्थ ज्ञान अनुमान नहीं होता है, अपितु प्रत्यक्ष ज्ञान विशेष उसका कारण होता है। अनुमान में हेतु का प्रत्यक्ष, हेतु के साथ साध्य के संबन्ध का प्रत्यक्ष और उस सम्बन्ध विशिष्ट हेतु का प्रत्यक्ष तथा उक्त अवसर पर उक्त सम्बन्ध विशिष्ट हेतु का स्मरण आवश्यक है। जिस पदार्थ के सभी आधारों में जो अन्य पदार्थ निश्चित रूप से रहता है, उस पदार्थ का वह अन्य पदार्थ व्याप्त होता है और अपर पदार्थ व्यापक। जहाँ व्याप्त पदार्थ रहता है उस स्थल में व्यापक पदार्थ अवश्य रहता है। अत: व्याप्य पदार्थ के द्वारा व्यापक पदार्थ की अनुमति होती हैं व्याप्य पदार्थ हेतु और व्यापक पदार्थ साध्य कहलाता है। जहाँ साध्य की सिद्धि की जाती है वह 'पक्ष' कहलाता है। यथा ‘पर्वतो वह्निमान् धूमात्’ इस अनुमान में पर्वत पक्ष, वह्नि साध्य और धूम हेतु होता है। चूँकि वह्नि के बिना धूम की उत्पत्ति स।भव नहीं है, अत: जहाँ धूम रहेगा उस स्थल में आग अवश्य रहेगी धूम है व्याप्य और वह्नि है व्यापक। दोनों का पारस्परिक अविनाभाव संबन्ध ही व्याप्ति कहलाती है। उस व्याप्ति के प्रत्यक्षात्मक ज्ञान के बिना अनुमति नहीं हो सकती है। पहले महानस (रसोईघर) में धूम और वह्नि का सहचार दर्शन होता है। पुन: वह्नि से रहित स्थल में धूम को नहीं देखकर धूम में वह्नि की व्याप्ति रूप संबन्ध विशिष्ट हेतु का स्मरण होता है। पुन: वह्नि के व्याप्य धूम से युक्त है यह पर्वत, इस तरह से धूम का प्रत्यक्ष पर्वत में होता है। यही तृतीय लिंगपरामर्श या परामर्श शब्द से अभिहित होता है।

धूम का प्रथम दर्शन महानस में होता है, उसका द्वितीय दर्शन है पर्वत में जो पहली बार वह देखा गया और तृतीय दर्शन है उक्त व्याप्ति से युक्त धूम का जो पुन: दर्शन होता है। यही तृतीय हेतु दर्शन परामर्श है। निष्कर्ष यह हुआ कि साध्य धर्म की व्याप्ति से युक्त हेतु अनुमान के आश्रय पक्ष में विद्यमान है- इस प्रकार का निश्चमात्मक ज्ञान ही लिंगपरामर्श है, जो अनुमिति का चरम कारण है। प्राचीन नैय्यायिक इसे ही अनुमान प्रमाण कहते हैं।

नव्य नैय्यायिक व्याप्तिज्ञान को अनुमान कहते हैं। इनके मत में वही अनुमिति का करण होता है। प्राचीन मत में चरम व्यापार को करण कहा गया है और नवीन मत में व्यापारवान कारण को। अत: दृष्टिभेद के कारण मतभेद यहाँ स्वाभाविक है। यहाँ भी प्रत्यक्षज्ञान की तरह हान, उपादान और उपेक्षा बुद्धि को फल मानकर अनुमिति को अनुमान प्रमाण कहा जा सकता हैं। सूत्रकार ने इसके तीन प्रकार बताये हैं- पूर्ववत्, शेषवत्, तथा सामान्यतोदृष्ट।[4] कारण यदि हेतु रूप में विद्यमान हो और कार्य साध्य हो तो उसे पूर्ववत अनुमान कहते हैं। यथा बादल की घटा देखकर वृष्टि होने का अनुमान होता है। कार्य यदि हेतु रूप में विद्यमान हो और कारण साध्य हो तो वह शेषवत अनुमान होता है। यथा नदी की पूर्णता एवं शीघ्रगति देखकर अतीत वृष्टि का अनुमान होता है। किसी पदार्थ के साथ किसी पदार्थ की व्याप्ति के प्रत्यक्ष होने पर उसके सदृश किसी अन्य पदार्थ के साथ अन्य पदार्थ की व्याप्ति का निश्चय करके उस व्याप्तिविशिष्ट हेतु से अप्रत्यक्ष पदार्थ की अनुमिति सामान्यतो-दृष्ट कहा गया है। इच्छा आदि गुणों से आत्मा का अनुमान इसका उदाहरण होता है।

जहाँ इच्छा आदि गुण रहते हैं, वह आत्मा है- ऐसी व्याप्ति संभव नहीं है। किन्तु जो गुण है वह किसी द्रव्य में अवश्य आश्रित है। यथा रूपादि गुण पृथ्वी आदि में आश्रित है। इस तरह सामान्य रूप से दृष्ट व्याप्ति के निश्चय से इच्छा आदि गुणों का आश्रय देह आदि से भिन्न आत्मा की अनुमिति होती है। इच्छा आदि गुण हैं- वे किसी द्रव्य में अवश्य आश्रित हैं। इस प्रकार गुणत्व हेतु से इच्छा आदि गुण के द्रव्याश्रि तत्त्व सिद्ध होने पर, उक्त गुण देह तथा इन्द्रियादि का आश्रित नहीं है तथा किसी द्रव्य का अवश्य आश्रित है- इतना सिद्ध करने के पश्चात् वह द्रव्य आत्मा ही है, जहाँ इच्छादि गुण आश्रित है। यह परिशेषत: सिद्ध होता है।

अनुमान को अन्य प्रकार से भी विभक्त किया गया है, यथा स्वार्थानुमान और परार्थानुमान। जो अनुमान अपने लिए किया जाये उसे स्वार्थानुमान कहते हैं। इसमें पंचावयव वाक्य का मानस स्मरण भी हो सकता है, उपपादन आवश्यक नहीं है। जो दूसरों को समझाने के लिए अनुमान होता है वह परार्थानुमान है। इसमें पंचावयव वाक्य का विधिवत उपपादन अपेक्षित है। नव्य नैयायिकों ने अन्य प्रकार से इसके तीन प्रकार बताये हैं- केवलान्वयी, केवल-व्यतिरेकी तथा अन्वयव्यतिरेकी। यद्यपि, अन्वयी, व्यतिरेकी तथा अन्वयव्यतिरेकी का उल्लेख वार्त्तिक में मिलता है तथापि इन प्रभेदों के साथ नव्य नैयायिकों का नाम प्रचारित इसलिए है कि इन्होंने इन प्रकारों का व्यवहार अधिक किया है।

केवलान्वयी- जो सभी वस्तुओं में विद्यमान हो, जिसका अभाव कहीं उपलब्ध नहीं होता हो, वह केवलान्वयी है। केवल अन्वय ही जहाँ घटता है। यथा ‘सर्वं ज्ञेयं वाच्यत्वात्,’ यहाँ ‘तदभावे तदभाव:’ रूप व्यतिरेक नहीं घटता है। इसके लक्षण में ‘वृत्तिमदत्यन्ताभावाप्रतियोगित्वम्’ कहा गया है। वृत्तिमान् से तात्पर्य है वृत्ति नियामक संबन्ध से जो वर्तमान हो। वृत्तिमान् अत्यन्ताभाव का जो प्रतियोगी नहीं है वह केवलान्वयी कहलाता है। आत्मा तथा आकाश आदि नित्य द्रव्य अवृत्ति पदार्थ है। क्योंकि वृत्ति नियामक संयोग आदि संबन्ध से ये कहीं रहते नहीं हैं।

केवलव्यतिरेकी – जिस हेतु में केवल व्यतिरेक सहचारज्ञान से व्याप्तिज्ञान का निश्चय होता है, उससे उत्पन्न अनुमिति केवलव्यतिरेकी कहलाता है। यथा पृथिवी सबसे भिन्न पदार्थ है, क्योंकि इसमें गन्ध होता है, जिसमें गन्ध नहीं है वह पृथिवी भी नहीं है।

अन्वयव्यतिरेकी- जिस हेतु में अन्वय सहचारज्ञान और व्यतिरेक सहचारज्ञान से अन्वयव्याप्ति का ज्ञान होता है, उसे अन्वयव्यतिरेकी अनुमान कहते हैं। जैसे पर्वत में आग है धूम रहने से। यहाँ ‘जहाँ-जहाँ धूम रहता है उस स्थल में वह्नि अवश्य रहती है’- इस तरह का अन्वय-सहचार का ज्ञान और ‘जहाँ-जहाँ आग नहीं रहती है उस स्थल में धूम भी नहीं रहता है’- इस तरह का व्यतिरेक सहचारज्ञान अन्वयव्याप्ति का जनक होता हैं।

उपमान

पहले से यथार्थ रूप में ज्ञात (प्रसिद्ध) पदार्थ के सादृश्य के प्रत्यक्ष से पूर्वत: अज्ञात (साध्य) पदार्थ के ज्ञान में जो करण हो उसे ‘उपमान प्रमाण’ कहते हैं[5] उपमान प्रमाण से होने वाली अनुभूति का नाम ‘उपमिति’ है गवय पशु में गलकम्बल रूप गौ का लक्षण नहीं है किन्तु अन्य प्रकार से बहुत सादृश्य दोनों में (गौ तथा गवय) घटता है। नागरिक गवय को कभी देखा नहीं है किन्तु किसी आरण्यक ने उससे कहा कि गवय गौ के सदृश होता है। पश्चात् किसी समय नागरिक ने पहली बार गवय को देखा, उसमें गाय के सादृश्य का प्रत्यक्ष करके पूर्वश्रुत अरण्यवासी के वाक्य का स्मरण किया और उसे गवय समझ लिया अर्थात् गवयत्व विशिष्ट पशु में गवय शब्द की वाच्यत्वरूप शक्त् का निश्चय किया। न्यायमत में प्रमाणान्तर से इस तरह गवय शब्द के वाच्यत्व का निर्णय नहीं हो सकता है। अतएव उपमान नामक पृथक् प्रमाण मानना आवश्यक है।

आचार्य उदयन ने गवय में गाय के सादृश्य के प्रत्यक्ष को ही उपमिति का करण कहकर वाक्यार्थ के स्मरण को उसका व्यापार कहा है। प्राचीनों के मत से व्यापार रूप चरम कारण ही मुख्य करण है, वही मुख्य उपमान प्रमाण है। इससे होने वाली उपमिति रूप प्रमा भी कदाचित उपमान प्रमाण है जिसका फल होता है- हीनबुद्धि, उपादानबुद्धि और उपेक्षाबुद्धि।

वैधर्म्योपमिति- जैसे प्रसिद्ध पदार्थ के सादृश्य के प्रत्यक्ष से उपमिति होती है, उसी तरह वैधर्म्य के प्रत्यक्ष से भी उपमिति होती है जिसे वैधर्म्योपमिति कहते हैं। जैसे किसी व्यक्ति को यह ज्ञात नहीं है कि करभ पद ऊँट का वाचक है, उस व्यक्ति ने किसी जानकार व्यक्ति से करभ पद को सुना और समझा कि वह बहुत कुरूप होता है, कठोर काँटा खाता है तथा उसका गला बड़ा लम्बा होता है। पश्चात् उसने कभी यदि ऊँट को देखकर उसमें गाय आदि पशुओं के वैधर्म्य को देखकर पूर्वश्रुत वाक्य के स्मरण द्वारा ऊँट में करभ शब्द के वाच्यत्व का निश्चय कर लेता है। इस तरह का शक्तिनिर्णय वैधर्म्योपमिति है।

मीमांसक तथा वेदान्त सम्प्रदाय उपमान प्रमाण को मानता है, किन्तु उनकी प्रक्रिया कुछ भिन्न है। इनके मत में गवयत्व विशिष्ट गवय पशु में गवय शब्द के वाच्यत्व के बोधक उपमान का फल उपमिति को नहीं माना जा सकता है। अपितु गवय पशु में गाय के सादृश्य के प्रत्यक्ष होने पर वह पूर्वदृष्टि गाय इस गवय के सदृश है- इस तरह से उस गो पदार्थ में प्रत्यक्ष दृष्ट गवय के सादृश्य का ज्ञान होता है। यही उपमान का फल उपमिति है। यहाँ पूर्वदृष्ट गाय के प्रत्यक्ष नहीं रहने पर उसमें गवय के सादृश्य का प्रत्यक्ष नहीं हो सकता है। न्याय सम्प्रदाय में तो पूर्वदृष्ट गाय में गवय का सादृश्यबोध स्मरणात्मक ज्ञान है। वह गाय इस गवय के सदृश है- इस तरह से पूर्वदृष्ट गाय का स्मरण होता है, वह उपमान प्रमाण का फल नहीं हो सकता है।

शब्द प्रमाण

आप्त व्यक्ति का वाक्य शब्द प्रमाण है।[6] जो व्यक्ति जिस विषय का तत्त्वज्ञ है और उस तत्त्व को प्रकाशित करने के लिए ही यथार्थ वाक्य का व्यवहार करता है, उसी व्यक्त को उस विषय में आप्त कहा गया है। उस विषय में उस व्यक्ति का उपदेश अर्थात् उस विषय का बोधक वाक्य ‘शब्द प्रमाण’ होता है। नव्य नैय्यायिकों ने तो वाक्य के पद समूहों स्मरणात्मक ज्ञान को ही वाक्यार्थबोध के ‘करण’ होने के नाते शब्द प्रमाण कहा है। ‘पदज्ञानं तु करणम्’। अभिप्राय यह है कि शब्दबोध से पहले ‘पदज्ञानं तु करणम्’। प्रथमत: पद का ज्ञान पुन: उसके अर्थ का स्मरण होता है। प्रत्येक पद के ज्ञान होने पर भी बाद में उन सब पदों के बारे में समूहालम्बन स्मरण होता है, पुन: प्रत्येक पदार्थ का स्मरण होता है। इस पदार्थ-स्मरणरूप व्यापार से पूर्वोत्पन्न वह पद स्मरण वाक्यार्थबोध का करण होने के नाते शब्द प्रमाण कहलाता है।

यद्यपि शाब्दबोध के अव्यवहित पूर्वक्षण में उस वाक्य के विद्यमान नहीं रहने से वह शब्द प्रमाण नहीं हो सकता है। इस मत में शब्द चरम कारण पदार्थ-स्मरण ही मुख्य शब्द प्रमाण है। यह दो प्रकार का होता है दृष्टार्थक और अदृष्टार्थक। आप्त वाक्य का प्रतिपाद्य अर्थ इस लोक व्यवहार में प्रत्यक्षादि से परिज्ञात होता है, वह दृष्टार्थक शब्द प्रमाण है। जिस आप्त वाक्य का प्रतिपाद्य लोक-व्यवहार में प्रमाणान्तर से नहीं समझा जा सकता है, वह अदृष्टार्थक शब्द प्रमाण है। लोकवाक्य यदि इसका पहला प्रकार है तो वेदवाक्य इसका दूसरा प्रकार है। वेद आदि शास्त्र में दृष्टार्थक वाक्य भी बहुत से हैं और सत्यार्थक लौकिक वाक्य को सुनकर तदनुसार लोक व्यवहार चलता है। जो व्यक्ति जिस विषय में यथार्थ वक्ता है, उस विषय में उस व्यक्ति का वाक्य ही आप्त वाक्य है,- जिसे प्रमाण कहते हैं। भाष्यकार ने आप्त का लक्षण कहकर आगे कहा है कि यह लक्षण ऋषि, आर्य तथा म्लेच्छों के लिए समान है।


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श्रुतियाँ
  1. न्यायसूत्र 1/1/31
  2. न्यायसूत्र 1/1/4।
  3. घटत्वेन घटमहं जानामि’ इस तरह से सविकल्पज्ञान का जो मानस प्रत्यक्ष होता है वही अनुव्यवसाय है।
  4. न्यायसूत्र 1.1.5।
  5. न्यायसूत्र 1/1/6।
  6. न्यायसूत्र 1/1/7।