बॉम्बे टाकीज़

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बॉम्बे टाकीज़ (अंग्रेज़ी: Bombay Talkies) फ़िल्म निर्माण के क्षेत्र में भारत की प्रथम पब्लिक लिमिटेड कंपनी थी। इसमें फ़िल्म निर्देशक के रूप में फ़्रांज ऑस्टेन एक प्रमुख नाम था, जिसके साथ हिमांशु रॉय ने कई फ़िल्में बनाई थीं। देविका रानी को लेकर हिमांशु रॉय ने बॉम्बे टाकीज़ के बैनर तले जो पहली फ़िल्म बनाई, वह अंग्रेज़ी और हिंदी दोनों में थी। उनके कैमरा मैन और निर्देशक दोनों विदेशी थे। फ़्रांज ऑस्टेन के निर्देशन में सन 1935 में बनी 'जवानी की हवा' बॉम्बे टाकीज़ की पहली फ़िल्म थी। यह एक अपराध कथा पर आधारित प्रेमकथा थी, जिसमें मुख्य भूमिका देविका रानी और नजमूल हसन ने की थी।

स्थापना

सन् 1934 में हिमांशु रॉय द्वारा स्थापित बॉम्बे टाकीज़ फ़िल्म निर्माण के क्षेत्र में भारत की प्रथम पब्लिक लिमिटेड कंपनी थी। इस कंपनी की सबसे बड़ी अभिनेत्री देविका रानी थीं। "बॉम्बे टाकीज़" में हिमांशु रॉय के तकनीकी दल में भारतीय और यूरोपीय दोनों थे। ये सभी अपने अपने क्षेत्र में अनुभवी और असाधारण प्रतिभावान थे। "बॉम्बे टाकीज़" में फ़िल्म निर्देशक के रूप में "फ़्रांज ऑस्टेन" एक प्रमुख नाम था, जिसके साथ हिमांशु रॉय ने कई फ़िल्में बनाईं।[1]

फ़िल्म निर्माण

हिमांशु रॉय ने बॉम्बे टाकीज़ की स्थापना से पूर्व लंदन में कानून की पढ़ाई की थी। इसी दौरान उन्होंने देविका रानी से विवाह कर लिया। देविका रानी उन दिनों वास्तुकला की पढ़ाई कर रहीं थीं, वह एक कुशल वास्तु शिल्पकार बनाना चाहती थीं। बॉम्बे टाकीज़ के शुरू होने के बाद हिमांशु रॉय को एक अत्यंत सुंदर और भारतीयता लिए हुए चेहरे की तलाश थी। उनकी नज़र में वैसी सुंदर नायिका उनकी पत्नी देविका रानी ही थीं, लेकिन देविका रानी के जीवन का लक्ष्य फ़िल्मों में अभिनय कदापि नहीं था। फिर हिमांशु रॉय ने पत्नी को काफ़ी समझाया और उन्हें अभिनय में आने के लिए प्रेरित किया। काफ़ी प्रयासों के बाद देविका रानी तैयार हुईं। देविका रानी को लेकर हिमांशु रॉय ने बॉम्बे टाकीज़ के बैनर तले जो पहली फ़िल्म बनाई, वह अंग्रेज़ी और हिंदी दोनों में थी। उनके कैमरा मैन और निर्देशक दोनों विदेशी थे, क्योंकि वे यूरोपीय फ़िल्म बाज़ार को नहीं छोड़ना चाहते थे। उस फ़िल्म का अंग्रेज़ी नाम "कर्मा" और हिंदी में वह "नागिन की रागिनी" नाम से बनी थी। इन दोनों फ़िल्मों में तकनीकी दल और नायक-नायिका और अन्य कलाकार सब एक ही थे।

देविका रानी को नायिका के रूप में अभिनय करने में कोई संकोच न हो, इसलिए हिमांशु रॉय ने स्वयं नायक के रूप में अभिनय किया था। इस फ़िल्म का अंग्रेज़ी संस्करण इंग्लैंड में रिलीज़ किया गया और हिंदी संस्कारण भारत में। भारत में यह फ़िल्म विफल हुई, जब कि इंग्लैंड में यह सफल रही। यह फ़िल्म लंदन में लगातार आठ महीने तक चली जो एक कीर्तिमान है। इस फ़िल्म में देविका रानी ने विदेशी दर्शकों को ज़्यादा प्रभावित किया। उनकी सुंदरता की प्रशंसा लंदन की पत्र-पत्रिकाओं में लगातार छपती रही। दूसरी ओर हिमांशु रॉय के अभिनय की ओर किसी का ध्यान नहीं गया, जिसके परिणाम स्वरूप हिमांशु रॉय ने अभिनय से संन्यास ले लिया और वे अपना पूरा ध्यान बॉम्बे टाकीज़ के कार्यकलापों में लगाया।[1]

फ़्रांज ऑस्टेन का निर्देशन

बॉम्बे टाकीज़ में मुख्यत: सामाजिक विषयों पर ही फ़िल्मों का निर्माण हुआ। हिमांशु रॉय ने हमेशा समाज की रूढ़िवादी संस्कारों और नियमों को आधार बनाकर ही फ़िल्मों का निर्माण किया। इनकी फ़िल्में संदेशात्मक होती थीं और हर फ़िल्म में कोई न कोई नया संदेश होता था। इस संस्था ने फ़िल्म निर्माण में नए कीर्तिमान स्थापित किए। फ़्रांज ऑस्टेन के निर्देशन में सन् 1935 में बनी "जवानी की हवा" बॉम्बे टाकीज़ की पहली फ़िल्म थी। यह एक अपराध कथा पर आधारित प्रेमकथा थी, जिसमें मुख्य भूमिका देविका रानी और नजमूल हसन ने की थी। हिमांशु रॉय ने भारतीय सिनेमा को दो महान् अभिनेता दिए- अशोक कुमार और दिलीप कुमार। सन् 1936 बॉम्बे टाकीज़ के इतिहास में बहुत ही महत्वपूर्ण वर्ष रहा। इस वर्ष हिमांशु रॉय ने फ़्रांज ऑस्टेन के निर्देशन में तीन फ़िल्मों का निर्माण किया, "जीवन नैया", "अछूत कन्या" और "जन्मभूमि"। इन तीनों में नायक अशोक कुमार और नायिका देविका रानी थीं। "जीवन नैया" अशोक कुमार की पहली फ़िल्म थी। "अछूत कन्या" उस दौर की एक क्रांतिकारी सुधारवादी फ़िल्म थी। यह फ़िल्म समाज में फैली जाति भेद और अस्पृश्यता जैसी सामाजिक बुराइयों पर प्रहार करती है। यह अपने समय की चंद अति-लोकप्रिय फ़िल्मों में से एक थी। बॉम्बे टाकीज़ से प्रमुख फ़िल्म लेखक के रूप में निरंजन पाल शुरू से ही जुड़े हुए थे। फ़िल्म "अछूत कन्या" की कहानी भी निरंजन पाल की अंग्रेज़ी में लिखी गई कहानी "द लेवल क्रासिंग" पर आधारित थी।

आगे के वर्षों में फ़्रांज ऑस्टेन के निर्देशन में कई फ़िल्में बनीं। "दुर्गा" में देविका रानी के साथ रामा शुक्ल और हंसा वाडेकर ने काम किया था। ऑस्टेन ने केवल इन्हीं दोनों के लिए "नवजीवन" नामक एक फ़िल्म बनाई। हंसा वाडेकर के जीवन पर आधारित फ़िल्म "भूमिका" बहुत आगे चलकर निर्देशक श्याम बेनेगल ने बनायी, जिसमें हंसा वाडेकर की भूमिका स्मिता पाटिल ने की थी। सन् 1939 में निर्मित "कंगन" में अपने समय की चर्चित और सुंदर नायिका लीला चिटनिस ने अपना फ़िल्मी सफ़र शुरू किया था, जिसमें नायक अशोक कुमार थे। बॉम्बे टाकीज़ में निर्मित फ़िल्मों में "बंधन" का स्थान महत्वपूर्ण है, इसके निर्माता सुबोध मुखर्जी थे। इस फ़िल्म में लीला चिटनिस और अशोक कुमार ने अपने अभिनय की अनूठी छाप छोड़ी। इस फ़िल्म में अशोक कुमार का गाया हुआ गीत "चल-चल रे नौजवान..." काफ़ी लोकप्रिय हुआ।[1]

सुबोध मुखर्जी और अमिय चक्रवर्ती का योगदान

इसके बाद के वर्षों मे फ़्रांज ऑस्टेन ने बॉम्बे टाकीज़ छोड़ दिया, जिसके बाद बॉम्बे टाकीज़ के साथ सुबोध मुखर्जी और अमिय चक्रवर्ती, दो नए फ़िल्मकार जुड़ गए। सन् 1940 में हिमांशु रॉय की असामयिक मृत्यु हो गई। हिमांशु रॉय की मृत्यु के बाद बॉम्बे टाकीज़ का सारा काम-काज देविका रानी की देख-रेख में होने लगा; किन्तु दो वर्षों में यह कंपनी दो हिस्सों में बँट गई। कंपनी का एक हिस्सा अमिय चक्रवर्ती के देखरेख में और दूसरा हिस्सा सुबोध मुखर्जी और राय बहादुर चुन्नीलाल की देख-रेख में चला गया। सन् 1941 में ज्ञान मुखर्जी के निर्देशन में "झूला" और सन् 1945 में "किस्मत" फ़िल्में बनाईं। "किस्मत" के निर्माण के साथ साथ सुबोध मुखर्जी ने अपनी अलग फ़िल्म कंपनी खोल ली, जिसका नाम "फिल्मिस्तान" रखा गया।


उधर अमिय चक्रवर्ती ने सन् 1944 में "ज्वारभाटा" नामक फ़िल्म बनाई। यह फ़िल्म महत्वपूर्ण फ़िल्म इसलिए मानी जाती है, क्योंकि भारतीय सिनेमा के महान् अभिनेता दिलीप कुमार का फ़िल्मों में प्रवेश इसी फ़िल्म से हुआ था। इसके बाद बॉम्बे फ़िल्म कंपनी भी धीरे-धीरे बंद होने के कगार पहुँचने लगी। उधर "फिल्मिस्तान" से जुड़कर आज के जाने-माने कलाकार और नायक-नायिकाएँ अपना फिल्मी जीवन शुरू कर रहे थे। इनमें देवानंद, श्यामा, कमाल अमरोही, बिमल रॉय, नितिन बोस और फणी मजुमदार प्रमुख हैं। सन् 1954 तक फिल्मिस्तान भी बंद हो गई।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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