ऋजुपक्ष

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ऋजुपक्ष कीटवर्ग अपेक्षाकृत एक कम विकसित कोटि है जिसके अंतर्गत टिड्डियों, टिड्डों, झींगुरों, झिल्लियों, रीवों आदि की गणना की जाती है। पहले इस कोटि में तेलचट्टे, पर्णकीट, मैंटिस आदि भी रखे गए थे, किंतु अब वे दूसरी कोटि के अंतर्गत कर दिए गए हैं। तो भी ऋजुपक्ष कोटि में 10,000 से अधिक कीटपतंगों का वर्णन किया जाता है।

ये कीट सामान्य से बहुधा काफी बड़ी नाप के होते हैं तथा इनकी भिन्न-भिन्न जातियों में कुछ पंखदार, कुछ पंखहीन और कुछ छोटे पंखवाली जातियाँ होती हैं। ये सभी जंतु स्थल पर रहनेवाले होते हैं। कई जातियों में ध्वनि उत्पन्न करने के अंग होते हैं और कुछ तो बड़ी तेज ध्वनि करते हैं। अगले पंख पिछले पंखों की अपेक्षा मोटे होते हैं। शिशुओं के पंखों की गद्दियाँ विकासकाल में उलट जाती हैं। मादा में सामान्यत: अंडरोपक अंग होते हैं। नर के जननांग नवें अधरपट्ट के नीचे छिपे रहते हैं। रूपांतरण साधारणत: थोड़ा ही या अपूर्ण होता है।

ऋजुपक्ष के वर्गीकरण के संबंध में विशेषज्ञों के मतों में कुछ विभिन्नता है, किंतु लगभग सभी वर्तमान विद्वान्‌ इसके अंतर्गत 12 वंश रखते हैं-शीजोडैक्टाइलिडी, ग्रिल्लैक्रिडाइडी, फ़ैज्मोडाइडी, टेटिगोनिडी, स्टीनो-पेल्मैटिडी, प्रोफ़ैलैंगोप्सिडी, ग्रिल्लोटैल्पिडी, ग्रिल्लिडी, टेट्रिगिडी, प्रास्कोपाइडी, न्युमोरिडी, यूमैस्टैसिडी, एक्रिडाइडी, सिलिंड्रैकेटिडी तथा ट्राइडैक्टाइलिडी।

स्टीनोपेल्मैटिडी तथा ग्रिल्लैक्रिडाइडी बहुत पिछड़े हुए वंश हैं। शीजोडैक्टाइलिडी वंश में केवल तीन जातियाँ ही रखी जाती हैं जो संसार के पूर्वी गोलार्ध में जहाँ तहाँ फैली हुई हैं। इनकी एक जाति शीजोडैक्टाइलस हो पंखदार है। विश्रामावस्था में इसके लंबे पंखों के सिरे कमानी की भाँति लिपटे होते हैं। यह मिट्टी में बिल बना सकता है और दिन में उसी में रहता है। प्रोफ़ैलैगोप्सिडी में केवल तीन जातियाँ रखी जाती हैं जिनमें से एक प्रोफ़ैलैंगाप्सिस आब्सकूरा भारत में पाई जाती है। टेटिगोनिडी वंश में लंबी सींगोंवाले पतले टिड्डे रखे जाते हैं। इनके पंख हरे रंग के होते हैं और ये साधारणत: झाड़ियों, घास फूस आदि में छिपे रहते हैं। इस क्रिया में इनके हरे रंग से विशेष सहायता मिलती है। इनकी मादाओं के अंडरोपक भी बहुत लंबे होते हैं। कभी-कभी तो इनकी लंबाई शरीर की लंबाई से भी अधिक होती है। ग्रिल्लिडी वंश के अंतर्गत झिल्ली तथा झींगुर रखे जाते हैं। ये अपने पंखों के किनारों को रगड़कर तीव्र ध्वनि उत्पन्न करते हैं। रगड़ के समय पंख लगभग 45 के कोण पर उठ जाते हैं और फिर बाएँ पंख का सिरा दाहिने पंख के रेती जैसे को रगड़ता है। कहा जाता है, घरेलू झींगुर द्वारा उत्पन्न ध्वनि एक मील तक सुनाई पड़ती है। ग्रिल्लोटैप्लिडी के अंतर्गत रेवाँ या जंगली झींगुर आते हैं। इस पूरी कोटि का सबसे बड़ा वंश है ऐक्रिडाइडी; इसके अंतर्गत लगभग 5,000 जातियाँ हैं जो अधिकांशत: उष्ण प्रदेशों में ही पाई जाती हैं। इस वंश में छोटी सींगवाले टिड्डे तथा विनाशकारी टिड्डियाँ हैं। इनमें कई प्रकार के ध्वन्युत्पादक अंग पाए जाते हैं। कुछ उड़ते समय भी ध्वनि उत्पन्न कर सकते हैं। इनके अंडरोपक बहुत विकसित नहीं होते किंतु उनकी सहायता से बहुधा ये कीट खेतों, मेड़ों आदि में एक छेद करते हैं और फिर उदर का अंतिम भाग उस बिल में डालकर 30 से 100 तक की संख्या में अंडे देते हैं। साथ ही एक चिपचिपा पदार्थ भी निकालते हैं जिससे अंडे चिपक जाते हैं और एक प्रकार का अंडपुंज बन जता है। सूखने पर इसके द्वारा अंडों पर पानी का प्रभाव नहीं पड़ता। अंडों से 'शिशु' निकलते हैं जो छोटे और पंखहीन होते हैं किंतु अन्य लक्षणों में बहुत कुछ प्रौढ़ के ही समान होते हैं। कई बार त्वक्‌पतन के साथ वे बढ़ते जाते हैं और अंत में पंखदार प्रौढ़ हो जाते हैं। इस वंश की अधिकाशं जातियाँ बड़ी विनाशकारी होती हैं, किंतु टिड्डी इनमें से सबसे अधिक विनाश करती है। एक्रिडाइडी को लगभग 10 उपवंशों में विभाजित किया जाता है।[1]

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लघु श्रृंगोंवाला टिड्डा (स्टेनोब्थ्रॉास बाइकलर)

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रेवाँााँ

यह कीट बरसात के दिनों में अति तीव्र ध्वनि उत्पन्न करता है।

शकार को पकड़ने के लिए अग्रिम टाँगों को

मोड़कर आक्रमण के लिए, या साधारणत: इसी

प्रकार तैयार रहता है। शेष टाँगें इस प्रकार

रखी हुई हैं कि शरीर को वे संभाले रहें।

शेष तीन वंश पर्याप्त छोटे हैं। टेट्रिगिडी वंश की लगभग 700 जातियों की विशेषता उनके वक्षाग्र के प्रोनोटम भाग का बहुत बड़ा और पीछे की ओर बढ़ा होना है। ये बहुधा ठंडे प्रदेशों में पाई जाती हैं। ट्राईडैक्टाइलिडी की लगभग 50 जातियाँ मेडिटरेनियन प्रदेश में पाई जाती है। ये झींगुरों के समान किंतु छोटी होती हैं और इनकी टाँगों के फिमोरा खंड बहुत लंबे होते हैं तथा श्रृंग छोटे। सिलिंड्रैकेटिडी वंश की थोड़ी सी जातियाँ आस्ट्रेलिया, न्यू गाइना और पटागोनिया में मिलती हैं। ये पंखहीन होती हैं तथा मिट्टी में बिल बनाती हैं। अत: इनके श्रृंग, आँखें आदि भी छोटी होती हैं और शरीर कुछ कुछ बेलनाकार होता है। बद्धहस्त (मैंटिस)[2]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 2 |प्रकाशक: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 193 |
  2. सं.ग्रं.-एल.चोपार: बिओलोगी देज़ोर्थोप्तेपीर।

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