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| | style="border:1px solid #d2cd9f; padding:10px; -moz-border-radius: 6px;-webkit-border-radius: 6px; border-radius: 6px;" class="bg63" valign="top"| <div style="padding-left:8px; background:#f8f4d2; border:thin solid #d2cd9f">'''विशेष आलेख'''</div> | | | style="border:1px solid #d2cd9f; padding:10px; -moz-border-radius: 6px;-webkit-border-radius: 6px; border-radius: 6px;" class="bg63" valign="top"| <div style="padding-left:8px; background:#f8f4d2; border:thin solid #d2cd9f">'''विशेष आलेख'''</div> |
− | <div align="center" style="color:#34341B;">'''[[वेद]]'''</div> | + | <div align="center" style="color:#34341B;">'''[[चार्वाक दर्शन]]'''</div> |
− | <div id="rollnone"> [[चित्र:Vedic-Tradition-1.jpg|right|150px|वेद पाठ|link=वेद]] </div> | + | <poem> |
− | *'वेद' [[हिन्दू धर्म]] के प्राचीन पवित्र ग्रंथों का नाम है, इससे वैदिक संस्कृति प्रचलित हुई।
| + | '''[[चार्वाक दर्शन]]''' के अनुसार [[पृथ्वी देवी|पृथ्वी]], [[जल]], [[तेज]] तथा [[वायु देव|वायु]] ये चार ही तत्त्व सृष्टि के मूल कारण हैं। जिस प्रकार [[बौद्ध]] उसी प्रकार चार्वाक का भी मत है कि आकाश नामक कोई तत्त्व नहीं है। यह शून्य मात्र है। अपनी आणविक अवस्था से स्थूल अवस्था में आने पर उपर्युक्त चार तत्त्व ही बाह्य जगत, इन्द्रिय अथवा देह के रूप में दृष्ट होते हैं। आकाश की वस्त्वात्मक सत्ता न मानने के पीछे इनकी प्रमाण व्यवस्था कारण है। जिस प्रकार हम गन्ध, रस, रूप और स्पर्श का [[प्रत्यक्ष]] अनुभव करते हुए उनके समवायियों का भी तत्तत इन्द्रियों के द्वारा प्रत्यक्ष करते हैं। आकाश तत्त्व का वैसा प्रत्यक्ष नहीं होता। अत: उनके मत में आकाश नामक तत्त्व है ही नहीं। चार महाभूतों का मूलकारण क्या है? इस प्रश्न का उत्तर चार्वाकों के पास नहीं है। यह विश्व अकस्मात भिन्न-भिन्न रूपों एवं भिन्न-भिन्न मात्राओं में मिलने वाले चार महाभूतों का संग्रह या संघट्ट मात्र है। '''[[चार्वाक दर्शन|.... और पढ़ें]]''' |
− | *ऐसी मान्यता है कि इनके मन्त्रों को परमेश्वर ने प्राचीन ऋषियों को अप्रत्यक्ष रूप से सुनाया था। इसलिए '''वेदों को श्रुति भी कहा जाता है'''।
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− | *मानव जाति के लौकिक (सांसारिक) तथा पारमार्थिक अभ्युदय-हेतु प्राकट्य होने से वेद को अनादि एवं नित्य कहा गया है।
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− | *ब्रह्म का स्वरूप 'सत-चित आनन्द' होने से ब्रह्म को वेद का पर्यायवाची शब्द कहा गया है। इसीलिये '''वेद लौकिक एवं अलौकिक ज्ञान का साधन''' है।
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− | *वेद के मन्त्र विभाग को संहिता कहते हैं। संहितापरक विवेचन को 'आरण्यक' एवं संहितापरक भाष्य को 'ब्राह्मणग्रन्थ' कहते हैं।
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− | *वेदों के ब्राह्मणविभाग में 'आरण्यक' और '[[उपनिषद]]' का भी समावेश है। ब्राह्मणग्रन्थों की संख्या 13 है, जैसे [[ऋग्वेद]] के 2, [[यजुर्वेद]] के 2, [[सामवेद]] के 8 और [[अथर्ववेद]] के 1 है। '''[[वेद|.... और पढ़ें]]'''
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| | class="headbg20" style="border:1px solid #FBE773;padding:10px; -moz-border-radius: 6px;-webkit-border-radius: 6px; border-radius: 6px; " valign="top" | <div style="padding-left:8px; background:#f6f0b9; border:thin solid #FBE773">'''चयनित लेख'''</div> | | | class="headbg20" style="border:1px solid #FBE773;padding:10px; -moz-border-radius: 6px;-webkit-border-radius: 6px; border-radius: 6px; " valign="top" | <div style="padding-left:8px; background:#f6f0b9; border:thin solid #FBE773">'''चयनित लेख'''</div> |
− | <div align="center" style="color:#34341B;">'''[[सांख्य दर्शन]]'''</div> | + | <div align="center" style="color:#34341B;">'''[[ज्ञानमीमांसा]]'''</div> |
− | <div id="rollnone"> [[चित्र:Sankhya-Darshan.jpg|right|150px|सांख्य दर्शन|link=सांख्य दर्शन]] </div> | + | <poem> |
− | *सांख्य शब्द की निष्पत्ति संख्या शब्द से हुई है। संख्या शब्द 'ख्या' धातु में सम् उपसर्ग लगाकर व्युत्पन्न किया गया है जिसका अर्थ है 'सम्यक् ख्याति'।
| + | '''[[ज्ञानमीमांसा]]''' दर्शनशास्त्र की एक शाखा है। [[दर्शनशास्त्र]] का ध्येय सत् के स्वरूप को समझना है। सदियों से विचारक यह खोज करते रहे हैं, परंतु किसी निश्चित निष्कर्ष से अब भी उतने ही दूर प्रतीत होते हैं, जितना पहले थे। सदियों से सत् के विषय में विवाद होता रहा है। [[आधुनिक काल]] में 'देकार्त' (1596-1650 ई.) को ध्यान आया कि प्रयत्न की असफलता का कारण यह है कि दार्शनिक कुछ अग्रिम कल्पनाओं को लेकर चलते रहे हैं। दर्शनशास्त्र को गणित की निश्चितता तभी प्राप्त हो सकती है, जब यह किसी धारणा को, जो स्वत: सिद्ध नहीं, प्रमाणित किए बिना न मानें। उसने व्यापक संदेह से आरंभ किया। उसकी अपनी चेतना उसे ऐसी वस्तु दिखाई दी, जिसके अस्तित्व में संदेह ही नहीं हो सकता। संदेह तो अपने आप चेतना का एक आकार या स्वरूप है '''[[ज्ञानमीमांसा|.... और पढ़ें]]''' |
− | *'सांख्य' शब्द की निष्पत्ति गणनार्थक 'संख्या' से भी मानी जाती है। ऐसा मानने में कोई विसंगति भी नहीं है।
| + | </poem> |
− | *[[महाभारत]] में शान्तिपर्व के अन्तर्गत सृष्टि, उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय और मोक्ष विषयक अधिकांश मत '''सांख्य ज्ञान''' व शास्त्र के ही हैं जिससे यह सिद्ध होता है कि उस काल तक वह एक सुप्रतिष्ठित, सुव्यवस्थित और लोकप्रिय एकमात्र दर्शन के रूप में स्थापित हो चुका था।
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− | *एक सुस्थापित दर्शन की ही अधिकाधिक विवेचनाएँ होती हैं, जिसके परिणामस्वरूप व्याख्या-निरूपण-भेद से उसके अलग-अलग भेद दिखाई पड़ने लगते हैं।
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− | *'''डॉ. आद्याप्रसाद मिश्र''' लिखते हैं- ऐसा प्रतीत होता है कि जब तत्त्वों की संख्या निश्चित नहीं हो पाई थी तब सांख्य ने सर्वप्रथम इस दृश्यमान भौतिक जगत की सूक्ष्म मीमांसा का प्रयास किया था। '''[[सांख्य दर्शन|.... और पढ़ें]]'''
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- यहाँ हम भारत के दर्शन संबंधी जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। दर्शन वह ज्ञान है जो परम सत्य और प्रकृति के सिद्धांतों और उनके कारणों की विवेचना करता है।
- लोकायत दर्शन या चार्वाक दर्शन हमारे देश में नास्तिक विचारधारा माना जाता रहा है। दर्शन यथार्थता की परख के लिये एक दृष्टिकोण है। दार्शनिक चिन्तन मूलतः जीवन की अर्थवत्ता की खोज का पर्याय है।
- दर्शन श्रेणी के सभी लेख देखें:- दर्शन कोश
- भारतकोश पर लेखों की संख्या प्रतिदिन बढ़ती रहती है जो आप देख रहे वह "प्रारम्भ मात्र" ही है...
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विशेष आलेख
चार्वाक दर्शन के अनुसार पृथ्वी, जल, तेज तथा वायु ये चार ही तत्त्व सृष्टि के मूल कारण हैं। जिस प्रकार बौद्ध उसी प्रकार चार्वाक का भी मत है कि आकाश नामक कोई तत्त्व नहीं है। यह शून्य मात्र है। अपनी आणविक अवस्था से स्थूल अवस्था में आने पर उपर्युक्त चार तत्त्व ही बाह्य जगत, इन्द्रिय अथवा देह के रूप में दृष्ट होते हैं। आकाश की वस्त्वात्मक सत्ता न मानने के पीछे इनकी प्रमाण व्यवस्था कारण है। जिस प्रकार हम गन्ध, रस, रूप और स्पर्श का प्रत्यक्ष अनुभव करते हुए उनके समवायियों का भी तत्तत इन्द्रियों के द्वारा प्रत्यक्ष करते हैं। आकाश तत्त्व का वैसा प्रत्यक्ष नहीं होता। अत: उनके मत में आकाश नामक तत्त्व है ही नहीं। चार महाभूतों का मूलकारण क्या है? इस प्रश्न का उत्तर चार्वाकों के पास नहीं है। यह विश्व अकस्मात भिन्न-भिन्न रूपों एवं भिन्न-भिन्न मात्राओं में मिलने वाले चार महाभूतों का संग्रह या संघट्ट मात्र है। .... और पढ़ें
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चयनित लेख
ज्ञानमीमांसा दर्शनशास्त्र की एक शाखा है। दर्शनशास्त्र का ध्येय सत् के स्वरूप को समझना है। सदियों से विचारक यह खोज करते रहे हैं, परंतु किसी निश्चित निष्कर्ष से अब भी उतने ही दूर प्रतीत होते हैं, जितना पहले थे। सदियों से सत् के विषय में विवाद होता रहा है। आधुनिक काल में 'देकार्त' (1596-1650 ई.) को ध्यान आया कि प्रयत्न की असफलता का कारण यह है कि दार्शनिक कुछ अग्रिम कल्पनाओं को लेकर चलते रहे हैं। दर्शनशास्त्र को गणित की निश्चितता तभी प्राप्त हो सकती है, जब यह किसी धारणा को, जो स्वत: सिद्ध नहीं, प्रमाणित किए बिना न मानें। उसने व्यापक संदेह से आरंभ किया। उसकी अपनी चेतना उसे ऐसी वस्तु दिखाई दी, जिसके अस्तित्व में संदेह ही नहीं हो सकता। संदेह तो अपने आप चेतना का एक आकार या स्वरूप है .... और पढ़ें
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कुछ लेख
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दर्शन श्रेणी वृक्ष
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संबंधित लेख
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श्रुतियां |
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मसकसूत्र · लाट्यायन सूत्र · खदिर श्रौतसूत्र · जैमिनीय गृह्यसूत्र · गोभिल गृह्यसूत्र · खदिर गृह्यसूत्र · गौतम धर्मसूत्र · द्राह्यायण गृह्यसूत्र · द्राह्यायण धर्मसूत्र | | अथर्ववेदीय सूत्र-ग्रन्थ | |
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श्रुतियां |
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| शाखा | | शाखा |
शाकल ॠग्वेदीय शाखा · काण्व शुक्ल यजुर्वेदीय · माध्यन्दिन शुक्ल यजुर्वेदीय · तैत्तिरीय कृष्ण यजुर्वेदीय · मैत्रायणी कृष्ण यजुर्वेदीय · कठ कृष्ण यजुर्वेदीय · कपिष्ठल कृष्ण यजुर्वेदीय · श्वेताश्वतर कृष्ण यजुर्वेदीय · कौथुमी सामवेदीय शाखा · जैमिनीय सामवेदीय शाखा · राणायनीय सामवेदीय शाखा · पैप्पलाद अथर्ववेदीय शाखा · शौनकीय अथर्ववेदीय शाखा | | मन्त्र-संहिता |
ॠग्वेद मन्त्र-संहिता · शुक्ल यजुर्वेद मन्त्र- संहिता · सामवेद मन्त्र-संहिता · अथर्ववेद मन्त्र-संहिता | | आरण्यक | | |
प्रातिसाख्य एवं अनुक्रमणिका | | ॠग्वेदीय प्रातिसाख्य |
शांखायन प्रातिशाख्य · बृहद प्रातिशाख्य · आर्षानुक्रमणिका · आश्वलायन प्रातिशाख्य · छन्दोनुक्रमणिका · ऋग्प्रातिशाख्य · देवतानुक्रमणिका · सर्वानुक्रमणिका · अनुवाकानुक्रमणिका · बृहद्वातानुक्रमणिका · ऋग् विज्ञान | | यजुर्वेदीय प्रातिसाख्य |
शुक्ल यजुर्वेदीय |
कात्यायन शुल्वसूत्र · कात्यायनुक्रमणिका · वाजसनेयि प्रातिशाख्य | | कृष्ण यजुर्वेदीय |
तैत्तिरीय प्रातिशाख्य |
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शौनकीया चतुर्ध्यापिका |
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उपवेद और वेदांग |
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| उपवेद |
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कामन्दक सूत्र · कौटिल्य अर्थशास्त्र · चाणक्य सूत्र · नीतिवाक्यमृतसूत्र · बृहस्पतेय अर्थाधिकारकम् · शुक्रनीति | | |
मुक्ति कल्पतरू · वृद्ध शारंगधर · वैशम्पायन नीति-प्रकाशिका · समरांगण सूत्रधार · अध्वर्यु | | | | | |
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स्मृति साहित्य |
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वैष्णवागम |
अहिर्बुध्न्य-संहिता · ईश्वर-संहिता · कपिलाजंलि-संहिता · जयाख्य-संहिता · पद्मतंत्र-संहिता · पाराशर-संहिता · बृहद्ब्रह्म-संहिता · भरद्वाज-संहिता · लक्ष्मी-संहिता · विष्णुतिलक-संहिता · विष्णु-संहिता · श्रीप्रश्न-संहिता · सात्त्वत-संहिता | | शैवागम |
तत्त्वत्रय · तत्त्वप्रकाशिका · तत्त्वसंग्रह · तात्पर्य संग्रह · नरेश्वर परीक्षा · नादकारिका · परमोक्ष-निराशकारिका · पाशुपत सूत्र · भोगकारिका · मोक्षकारिका · रत्नत्रय · श्रुतिसूक्तिमाला · सूत-संहिता | | शाक्तागम |
वामागम |
अद्वैतभावोपनिषद · अरुणोपनिषद · कालिकोपनिषद · कौलोपनिषद · तारोपनिषद · त्रिपुरोपनिषद · ब्रहिचोपनिषद · भावनोपनिषद | | मिश्रमार्ग |
कलानिधि · कुलार्णव · कुलेश्वरी · चन्द्रक · ज्योत्स्रावती · दुर्वासस · बार्हस्पत्य · भुवनेश्वरी | | समयाचार |
वसिष्ठसंहिता · शुक्रसंहिता · सनकसंहिता · सनत्कुमारसंहिता · सनन्दनसंहिता | | तान्त्रिक साधना |
कालीविलास · कुलार्णव · कूल-चूड़ामणि · ज्ञानार्णव · तन्त्रराज · त्रिपुरा-रहस्य · दक्षिणामूर्ति-संहिता · नामकेश्वर · प्रपंचसार · मन्त्र-महार्णव · महानिर्वाण · रुद्रयामल · शक्तिसंगम-तन्त्र · शारदा-तिलक |
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