"प्रयोग:नवनीत3": अवतरणों में अंतर
नवनीत कुमार (वार्ता | योगदान) No edit summary |
नवनीत कुमार (वार्ता | योगदान) No edit summary |
||
पंक्ति 1: | पंक्ति 1: | ||
{| style="background:transparent; float:right" | {| style="background:transparent; float:right" | ||
|-valign="top" | |-valign="top" | ||
| | |||
[[चित्र:madan-mohan-temple-1.jpg|मदन मोहन जी का मंदिर, [[वृन्दावन]]<br /> Madan Mohan temple, Vrindavan|thumb|200px]] | |||
| | | | ||
{{सनातन गोस्वामी विषय सूची}} | {{सनातन गोस्वामी विषय सूची}} | ||
|} | |} | ||
जब भी इस भूमि पर [[भगवान]] [[अवतार]] लेते हैं तो उनके साथ उनके पार्षद भी आते हैं। श्री सनातन गोस्वामी ऐसे ही [[संत]] रहे, जिनके साथ हमेशा [[कृष्ण|श्रीकृष्ण]] एवं [[राधा|श्रीराधारानी]] हैं। श्री सनातन गोस्वामी जी का जन्म सन 1466 ई. के लगभग हुआ था। सन 1514 [[अक्टूबर]] में [[चैतन्य महाप्रभु]] सन्न्यास रूप में नीलाचल में विराज रहे थे। श्रीकृष्ण के प्रेम रस से परिपूर्ण श्रीकृष्ण लीलास्थली मधुर [[वृन्दावन]] के [[दर्शन]] की, उनके [[हृदय]] सरोवर में एक भाव तरंग उठी। देखते-देखते वह इतनी विशाल और वेगवती हो गयी कि नीलाचल के प्रेमी [[भक्त|भक्तों]] के नीलाचल छोड़कर न जाने के विनयपूर्ण आग्रह का अतिक्रमण कर उन्हें बहा ले चली, [[वृन्दावन]] के पथ पर साथ चल पड़ी भक्तों की अपार भीड़ भावावेश में उनके साथ [[नृत्य]] और [[कीर्तन]] करती। | जब भी इस भूमि पर [[भगवान]] [[अवतार]] लेते हैं तो उनके साथ उनके पार्षद भी आते हैं। श्री सनातन गोस्वामी ऐसे ही [[संत]] रहे, जिनके साथ हमेशा [[कृष्ण|श्रीकृष्ण]] एवं [[राधा|श्रीराधारानी]] हैं। श्री सनातन गोस्वामी जी का जन्म सन 1466 ई. के लगभग हुआ था। सन 1514 [[अक्टूबर]] में [[चैतन्य महाप्रभु]] सन्न्यास रूप में नीलाचल में विराज रहे थे। श्रीकृष्ण के प्रेम रस से परिपूर्ण श्रीकृष्ण लीलास्थली मधुर [[वृन्दावन]] के [[दर्शन]] की, उनके [[हृदय]] सरोवर में एक भाव तरंग उठी। देखते-देखते वह इतनी विशाल और वेगवती हो गयी कि नीलाचल के प्रेमी [[भक्त|भक्तों]] के नीलाचल छोड़कर न जाने के विनयपूर्ण आग्रह का अतिक्रमण कर उन्हें बहा ले चली, [[वृन्दावन]] के पथ पर साथ चल पड़ी भक्तों की अपार भीड़ भावावेश में उनके साथ [[नृत्य]] और [[कीर्तन]] करती। | ||
पंक्ति 12: | पंक्ति 13: | ||
सनातन गोस्वामी के पितामह मुकुन्ददेव दीर्घकाल से गौड़ राज्य में किसी उच्च पद पर आसीन थे। वे रामकेलि में रहते थे। उनके पुत्र श्रीकुमार देव बाकलाचन्द्र द्वीप में रहते थे। कुमारदेव के देहावसान के पश्चात मुकुन्ददेव श्रीरूप-सनातन आदि को रामकेलि ले आये। उन्होंने रूप-सनातन की शिक्षा की सुव्यवस्था की। | सनातन गोस्वामी के पितामह मुकुन्ददेव दीर्घकाल से गौड़ राज्य में किसी उच्च पद पर आसीन थे। वे रामकेलि में रहते थे। उनके पुत्र श्रीकुमार देव बाकलाचन्द्र द्वीप में रहते थे। कुमारदेव के देहावसान के पश्चात मुकुन्ददेव श्रीरूप-सनातन आदि को रामकेलि ले आये। उन्होंने रूप-सनातन की शिक्षा की सुव्यवस्था की। | ||
{{main|सनातन गोस्वामी का बाल्यकाल और शिक्षा}} | {{main|सनातन गोस्वामी का बाल्यकाल और शिक्षा}} | ||
==दीक्षा == | |||
सनातन गोस्वामी ने मंगलाचरण में केवल विद्यावाचस्पति के लिये 'गुरुन्' शब्द का प्रयोग किया है, जिससे स्पष्ट है कि वे उनके दीक्षा गुरु थे, और अन्य सब शिक्षा गुरु। 'गुरुन' शब्द बहुवचन होते हुए भी गौरवार्थ में बहुत बार एक वचन में प्रयुक्त होता है। यहाँ भी एक वचन में प्रयुक्त होकर विद्यावाचस्पति के साथ जुड़ा हुआ है।<ref> डा. सुशील कुमार देने भी अपनी पुस्तक Early History of the Vaisnava Faith and Movement in Bengal (p. 148 fn) में लिखा है “The word gurun in the passage expressly qualifies Vidyavavchaspatin only, and the plural is honontic”</ref> यदि विद्यावाचस्पति और सार्वभौम भट्टाचार्य दोनों दोनों से जुड़ा होता तो द्विवचन में प्रयुक्त किया गया होता। | |||
{{main|सनातन गोस्वामी को दीक्षा}} | |||
==भक्ति-साधना== | |||
सनातन गोस्वामी गौड़ दरबार में सुलतान के शिविर में रहते समय मुसलमानी वेश-भूषा में रहते, अरबी और फारसी में अनर्गल चैतन्य-चरितामृत में उल्लेख है कि रूप और सनातन जब रामकेलि महाप्रभु के दर्शन करने गये, उस समय नित्यानन्द और हरिदास ने, जो महाप्रभु के साथ थे, कहा- | |||
रूप और साकर आपके दर्शन को आये हैं। यहाँ सनातन को ही साकर (मल्लिक) कहा गया है।<ref>रूप साकर आइला तोमा देखिबारे। (चैतन्य-चरितामृत 2।1।174</ref> | |||
{{main|सनातन गोस्वामी को दीक्षा}} | |||
==वृन्दावन आगमन== | |||
'सनातन गोस्वामी ने दरवेश का भेष बनाया और अपने पुराने सेवक ईशान को साथ ले चल पड़े [[वृन्दावन]] की ओर। उन्हें [[हुसैनशाह]] के सिपाहियों द्वारा पकड़े जाने का भय था। इसलिये [[राजपथ]] से जाना ठीक न था। दूसरा मार्ग था पातड़ा पर्वत होकर, जो बहुत कठिन और विपदग्रस्त था। उसी मार्ग से जाने का उन्होंने निश्चय किया। सनातन को आज मुक्ति मिली है। हुसैनशाह के बन्दीखाने से ही नहीं, माया के जटिल बन्धन से भी। उस मुक्ति के लिये ऐसी कौन सी क़ीमत है, जिसे देने को वे प्रस्तुत नहीं। | |||
{{main|सनातन गोस्वामी का वृन्दावन आगमन}} | |||
==चैतन्य महाप्रभु से मिलन== | |||
सनातन गोस्वामी कुछ दिनों में [[काशी]] पहुँचे। वहाँ पहुँचते ही सुसंवाद मिला कि महाप्रभु [[वृन्दावन]] से लौटकर कुछ दिनों से काशी में चन्द्रशेखर आचार्य के घर ठहरे हुए हैं। उनके [[नृत्य]]-[[कीर्तन]] के कारण काशी में भाव-भक्ति की अपूर्व बाढ़ आयी हुई है। यह सुन उनके आनन्द की सीमा न रही। | |||
{{main|सनातन गोस्वामी का चैतन्य महाप्रभु से मिलन}} | |||
==मदनगोपाल विग्रह की प्राप्ति== | |||
वृन्दावन पहुँचकर [[सनातन गोस्वामी|सनातन]] ने जमुना पुलिन के वन प्रान्त से परिवेष्टित आदित्य टीले के निर्जन स्थान में अपनी पर्णकुटी में फिर आरम्भ किया, अपनी अंतरंग साधना के साथ महाप्रभु द्वारा निर्दिष्ट-लीलातीर्थ- उद्धार' [[कृष्ण]]-भक्ति-प्रचार और कृष्ण-विग्रह-प्रकाश आदि का कार्य आरम्भ किया। | |||
{{main|सनातन गोस्वामी को मदनगोपाल विग्रह की प्राप्ति}} | |||
==मदनमोहन मन्दिर का निर्माण== | |||
मदनगोपाल को अपनी व्यवस्था आप करनी पड़ी। उस दिन पंजाब के एक बड़े व्यापारी श्रीरामदास कपूर जमुना के रास्ते नाव में कहीं जा रहे थे। नाव अनेक प्रकार की बहुमूल्य सामग्री से लदी थी, जिसे उन्हें कहीं दूर जाकर बेचना था। दैवयोग से आदित्य टीले के पास जाकर नाव फँस गयी जल के भीतर रेत के एक टीले में और एक ओर टेढ़ी हो गयी। | |||
{{main|सनातन गोस्वामी द्वारा मदनमोहन मन्दिर का निर्माण}} | |||
==मदनमोहन की सेवा== | |||
सनातन गोस्वामी ने अपनी [[कुटिया]] के निकट ही एक फूँस की झोंपड़ी का निर्माण किया और उसमें मदनगोपाल जी को स्थापित किया। उनके भोग के लिये वे मधुकरी पर ही निर्भर करते। मधुकरी में जो आटा मिलता उसकी अंगाकड़ी (बाटी) बनाकर भोग के रूप में उनके सामने प्रस्तुत करते। | |||
{{main|सनातन गोस्वामी द्वारा मदनमोहन की सेवा}} | |||
==भक्ति सिद्धान्त== | |||
[[चैतन्य महाप्रभु|श्रीचैतन्य महाप्रभु]] ने एक बार [[सनातन गोस्वामी]] की असाधारण शक्ति का मूल्यांकन करते हुए कहा था- "तुम्हारे भीतर मुझ तक को समझाने और पथ प्रदर्शन करने की शक्ति है। कितनी बार तुमने इसका परिचय भी दिया है।"<ref>"आमा के ओ बुझाइते तुमि धर शक्ति। | |||
{{main|सनातन गोस्वामी का भक्ति सिद्धान्त}} | |||
==सनातन और हुसैनशाह== | |||
हुसैनशाह के दरबार में रूप-सनातन किस प्रकार राज-मन्त्री हुए, इस सम्बन्ध में श्रीसतीशचन्द्र मित्र ने 'सप्त गोस्वामी' ग्रन्थ में लिखा है-"शैशव में सनातन और उनके भाई बाकला से रामकेलि अपने पितामह मुकुन्ददेव के पास ले जाये गये। उन्होंने ही उनका लालन-पालन किया। | |||
{{main|सनातन गोस्वामी और हुसैनशाह}} | |||
==वंश परम्परा== | |||
रूप और [[सनातन गोस्वामी|सनातन]] के असाधारण व्यक्तित्व की गरिमा का सही मूल्यांकन करने के लिए उनकी वंश परम्परा पर दृष्टि डालना आवशृयक है। उनके पूर्वपुरुष दक्षिण [[भारत]] में रहते थे। वे राजवंश के थे और जैसे राजकार्य में [[दक्ष]] थे वैसे ही शास्त्र-विद्या में प्रवीण थे। | |||
{{main|सनातन गोस्वामी की वंश परम्परा}} | |||
==नीलाचल में== | |||
महाप्रभु ने स्वयं ही एक बार नीलाचल जाने को सनातन गोस्वामी से कहा था। इसलिये वे झारिखण्ड के जंगल के रास्ते नीलाचल की पदयात्रा पर चल पड़े। मार्ग में चलते-चलते अनाहार और अनियम के कारण उन्हें विषाक्त खुजली रोग हो गया। उसके कारण सारे शरीर से क्लेद बहिर्गत होते देख, वे इस प्रकार विचार करने लगे, एक तो मैं वैसे ही म्लेक्ष राजा की सेवा में रह चुकने के कारण अपवित्र और अस्पृश्य हूँ। | |||
{{main|सनातन गोस्वामी नीलाचल में}} | |||
==विविध घटनाएँ== | |||
नन्दग्राम में जिस कुटी में [[सनातन गोस्वामी]] भजन करते थे, वह आज भी विद्यमान है। इसमें रहते समय एक बार मदनगोपाल जी ने उनके ऊपर विशेष कृपा की। यद्यपि वे मदनगोपालजी को [[वृन्दावन]] में छोड़कर यहाँ चले आये थे, मदनगोपाल उन्हें भूले नहीं थे। वे छाया की तरह हर समय उनके आगे-पीछे रहते और उनके योग-क्षेम की चिन्ता रखते। | |||
{{main|सनातन गोस्वामी विविध घटनाएँ}} | |||
<div align="center">'''[[सनातन गोस्वामी का परिचय|आगे जाएँ »]]'''</div> | <div align="center">'''[[सनातन गोस्वामी का परिचय|आगे जाएँ »]]'''</div> | ||
==वीथिका-गौड़ीय संप्रदाय== | ==वीथिका-गौड़ीय संप्रदाय== |
05:56, 11 दिसम्बर 2015 का अवतरण
![]() Madan Mohan temple, Vrindavan |
सनातन गोस्वामी विषय सूची
|
जब भी इस भूमि पर भगवान अवतार लेते हैं तो उनके साथ उनके पार्षद भी आते हैं। श्री सनातन गोस्वामी ऐसे ही संत रहे, जिनके साथ हमेशा श्रीकृष्ण एवं श्रीराधारानी हैं। श्री सनातन गोस्वामी जी का जन्म सन 1466 ई. के लगभग हुआ था। सन 1514 अक्टूबर में चैतन्य महाप्रभु सन्न्यास रूप में नीलाचल में विराज रहे थे। श्रीकृष्ण के प्रेम रस से परिपूर्ण श्रीकृष्ण लीलास्थली मधुर वृन्दावन के दर्शन की, उनके हृदय सरोवर में एक भाव तरंग उठी। देखते-देखते वह इतनी विशाल और वेगवती हो गयी कि नीलाचल के प्रेमी भक्तों के नीलाचल छोड़कर न जाने के विनयपूर्ण आग्रह का अतिक्रमण कर उन्हें बहा ले चली, वृन्दावन के पथ पर साथ चल पड़ी भक्तों की अपार भीड़ भावावेश में उनके साथ नृत्य और कीर्तन करती।
शिक्षा
सनातन गोस्वामी के पितामह मुकुन्ददेव दीर्घकाल से गौड़ राज्य में किसी उच्च पद पर आसीन थे। वे रामकेलि में रहते थे। उनके पुत्र श्रीकुमार देव बाकलाचन्द्र द्वीप में रहते थे। कुमारदेव के देहावसान के पश्चात मुकुन्ददेव श्रीरूप-सनातन आदि को रामकेलि ले आये। उन्होंने रूप-सनातन की शिक्षा की सुव्यवस्था की।
दीक्षा
सनातन गोस्वामी ने मंगलाचरण में केवल विद्यावाचस्पति के लिये 'गुरुन्' शब्द का प्रयोग किया है, जिससे स्पष्ट है कि वे उनके दीक्षा गुरु थे, और अन्य सब शिक्षा गुरु। 'गुरुन' शब्द बहुवचन होते हुए भी गौरवार्थ में बहुत बार एक वचन में प्रयुक्त होता है। यहाँ भी एक वचन में प्रयुक्त होकर विद्यावाचस्पति के साथ जुड़ा हुआ है।[1] यदि विद्यावाचस्पति और सार्वभौम भट्टाचार्य दोनों दोनों से जुड़ा होता तो द्विवचन में प्रयुक्त किया गया होता।
भक्ति-साधना
सनातन गोस्वामी गौड़ दरबार में सुलतान के शिविर में रहते समय मुसलमानी वेश-भूषा में रहते, अरबी और फारसी में अनर्गल चैतन्य-चरितामृत में उल्लेख है कि रूप और सनातन जब रामकेलि महाप्रभु के दर्शन करने गये, उस समय नित्यानन्द और हरिदास ने, जो महाप्रभु के साथ थे, कहा- रूप और साकर आपके दर्शन को आये हैं। यहाँ सनातन को ही साकर (मल्लिक) कहा गया है।[2]
वृन्दावन आगमन
'सनातन गोस्वामी ने दरवेश का भेष बनाया और अपने पुराने सेवक ईशान को साथ ले चल पड़े वृन्दावन की ओर। उन्हें हुसैनशाह के सिपाहियों द्वारा पकड़े जाने का भय था। इसलिये राजपथ से जाना ठीक न था। दूसरा मार्ग था पातड़ा पर्वत होकर, जो बहुत कठिन और विपदग्रस्त था। उसी मार्ग से जाने का उन्होंने निश्चय किया। सनातन को आज मुक्ति मिली है। हुसैनशाह के बन्दीखाने से ही नहीं, माया के जटिल बन्धन से भी। उस मुक्ति के लिये ऐसी कौन सी क़ीमत है, जिसे देने को वे प्रस्तुत नहीं।
चैतन्य महाप्रभु से मिलन
सनातन गोस्वामी कुछ दिनों में काशी पहुँचे। वहाँ पहुँचते ही सुसंवाद मिला कि महाप्रभु वृन्दावन से लौटकर कुछ दिनों से काशी में चन्द्रशेखर आचार्य के घर ठहरे हुए हैं। उनके नृत्य-कीर्तन के कारण काशी में भाव-भक्ति की अपूर्व बाढ़ आयी हुई है। यह सुन उनके आनन्द की सीमा न रही।
मदनगोपाल विग्रह की प्राप्ति
वृन्दावन पहुँचकर सनातन ने जमुना पुलिन के वन प्रान्त से परिवेष्टित आदित्य टीले के निर्जन स्थान में अपनी पर्णकुटी में फिर आरम्भ किया, अपनी अंतरंग साधना के साथ महाप्रभु द्वारा निर्दिष्ट-लीलातीर्थ- उद्धार' कृष्ण-भक्ति-प्रचार और कृष्ण-विग्रह-प्रकाश आदि का कार्य आरम्भ किया।
मदनमोहन मन्दिर का निर्माण
मदनगोपाल को अपनी व्यवस्था आप करनी पड़ी। उस दिन पंजाब के एक बड़े व्यापारी श्रीरामदास कपूर जमुना के रास्ते नाव में कहीं जा रहे थे। नाव अनेक प्रकार की बहुमूल्य सामग्री से लदी थी, जिसे उन्हें कहीं दूर जाकर बेचना था। दैवयोग से आदित्य टीले के पास जाकर नाव फँस गयी जल के भीतर रेत के एक टीले में और एक ओर टेढ़ी हो गयी।
मदनमोहन की सेवा
सनातन गोस्वामी ने अपनी कुटिया के निकट ही एक फूँस की झोंपड़ी का निर्माण किया और उसमें मदनगोपाल जी को स्थापित किया। उनके भोग के लिये वे मधुकरी पर ही निर्भर करते। मधुकरी में जो आटा मिलता उसकी अंगाकड़ी (बाटी) बनाकर भोग के रूप में उनके सामने प्रस्तुत करते।
भक्ति सिद्धान्त
श्रीचैतन्य महाप्रभु ने एक बार सनातन गोस्वामी की असाधारण शक्ति का मूल्यांकन करते हुए कहा था- "तुम्हारे भीतर मुझ तक को समझाने और पथ प्रदर्शन करने की शक्ति है। कितनी बार तुमने इसका परिचय भी दिया है।"<ref>"आमा के ओ बुझाइते तुमि धर शक्ति।
सनातन और हुसैनशाह
हुसैनशाह के दरबार में रूप-सनातन किस प्रकार राज-मन्त्री हुए, इस सम्बन्ध में श्रीसतीशचन्द्र मित्र ने 'सप्त गोस्वामी' ग्रन्थ में लिखा है-"शैशव में सनातन और उनके भाई बाकला से रामकेलि अपने पितामह मुकुन्ददेव के पास ले जाये गये। उन्होंने ही उनका लालन-पालन किया।
वंश परम्परा
रूप और सनातन के असाधारण व्यक्तित्व की गरिमा का सही मूल्यांकन करने के लिए उनकी वंश परम्परा पर दृष्टि डालना आवशृयक है। उनके पूर्वपुरुष दक्षिण भारत में रहते थे। वे राजवंश के थे और जैसे राजकार्य में दक्ष थे वैसे ही शास्त्र-विद्या में प्रवीण थे।
नीलाचल में
महाप्रभु ने स्वयं ही एक बार नीलाचल जाने को सनातन गोस्वामी से कहा था। इसलिये वे झारिखण्ड के जंगल के रास्ते नीलाचल की पदयात्रा पर चल पड़े। मार्ग में चलते-चलते अनाहार और अनियम के कारण उन्हें विषाक्त खुजली रोग हो गया। उसके कारण सारे शरीर से क्लेद बहिर्गत होते देख, वे इस प्रकार विचार करने लगे, एक तो मैं वैसे ही म्लेक्ष राजा की सेवा में रह चुकने के कारण अपवित्र और अस्पृश्य हूँ।
विविध घटनाएँ
नन्दग्राम में जिस कुटी में सनातन गोस्वामी भजन करते थे, वह आज भी विद्यमान है। इसमें रहते समय एक बार मदनगोपाल जी ने उनके ऊपर विशेष कृपा की। यद्यपि वे मदनगोपालजी को वृन्दावन में छोड़कर यहाँ चले आये थे, मदनगोपाल उन्हें भूले नहीं थे। वे छाया की तरह हर समय उनके आगे-पीछे रहते और उनके योग-क्षेम की चिन्ता रखते।
वीथिका-गौड़ीय संप्रदाय
-
गुरु पूर्णिमा पर भजन-कीर्तन करते श्रद्धालु, गोवर्धन, मथुरा
-
गुरु पूर्णिमा पर भजन-कीर्तन करते श्रद्धालु, गोवर्धन, मथुरा
-
गुरु पूर्णिमा पर भजन-कीर्तन करते श्रद्धालु, गोवर्धन, मथुरा
-
गुरु पूर्णिमा पर भजन-कीर्तन करते श्रद्धालु, गोवर्धन, मथुरा
-
गुरु पूर्णिमा पर भजन-कीर्तन करते श्रद्धालु, गोवर्धन, मथुरा
-
गुरु पूर्णिमा पर भजन-कीर्तन करते श्रद्धालु, गोवर्धन, मथुरा
-
गुरु पूर्णिमा पर भजन-कीर्तन करते श्रद्धालु, गोवर्धन, मथुरा