सनातन गोस्वामी का भक्ति सिद्धान्त

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श्रीचैतन्य महाप्रभु ने एक बार सनातन गोस्वामी की असाधारण शक्ति का मूल्यांकन करते हुए कहा था- "तुम्हारे भीतर मुझ तक को समझाने और पथ प्रदर्शन करने की शक्ति है। कितनी बार तुमने इसका परिचय भी दिया है।"[1] इस शक्ति के कारण ही उन्होंने उनके शरीर को अपने उद्देश्य की सिद्धि का प्रधान साधन माना था- तोमार शरीर मोर प्रधान साधन।"[2] और कहा था- तुम्हारे शरीर से मैं अपने बहुत से प्रयोजनों को सिद्ध करूंगा। कृष्ण-प्रेम-तत्त्व और वैष्णवों के कृत्य का निर्धारण, अपने प्रिय स्थान मथुरा-वृन्दावन में कृष्ण-भक्ति और कृष्ण-प्रेम-सेवा का प्रवर्तन, लुप्त तीर्थों को उद्धार और वैराग्य का शिक्षण, यह सब कार्य मैं तुम्हारे शरीर के माध्यम से करूंगा।[3]

प्रयोजन की सिद्धि

सनातन गोस्वामी के शरीर से महाप्रभु के प्रयोजन की सिद्धि अब हो चुकी थी। उनका शरीर बहुत वृद्ध हो गया था। उन्होंने जीवन के बचे हुए कुछ दिन एकान्त भजन में व्यतीत करने का निश्चय किया। वे मानसगंगा के तीर पर चक्रेश्वर महादेव के मन्दिर के निकट एक वृक्ष के नीचे भजन करने लगे। उनकी वृत्ति अन्तर्मुखी हो गयी। आहार-निद्रा तक की चिन्ता न कर वे हर समय राधा-कृष्ण के चिन्तन और हरिनामामृत के आस्वादन में डूबे रहते। उस समय की उनकी अवस्था का वर्णन श्रीराधावल्लभदास ने एक पद में इस प्रकार किया है-

"कत दिने अन्तर्मना छाप्पान्न दण्ड भावना,

चारिदण्ड निद्रा वृक्षतले।

स्वप्ने राधाकृष्ण देखे, नाम गाने सदा थाके,

अवसर नाहिं एक तिले।"

इसी अवस्था में एक बार उन्हें बहुत समय से निर्जल, निराहार देख श्रीकृष्ण से न रहा गया। वे स्वयं एक गोप-बालक के वेश में गये दूध का पात्र हाथ में लिये अपने प्रिय भक्त के लिए और निकट जाकर बोले-

"आछह निर्जने, तोमा केह नाहि जाने।

देखिलाम तोमारे आसिया गोचारने॥

एइ दुग्ध पान कर आमार कथाय।

लइया जाइब भाण्ड, राखिओ एथाय॥[4]

-बाबा, तुम यहाँ निर्जन में रहते हो। किसी को तुम्हारा पता नहीं। मैं यहाँ आया गोचारण को तो तुम्हें देखा। तुम भूखे हो। मेरा कहा मानो, यह दूध पी लो। पीकर बरतन यहीं रखों, मैं अभी आकर ले जाऊंगा।" उसने आगे कहा-

"कुटीरे रहिले, मो सभार सुख हबे। ऐछे रह, न हिले व्रजवासी दु:ख पाबे॥[5]

-तुम ऐसे रहते हो वृक्षतले, यह ठीक नहीं। कुटिया में रहा करों, जिससे हम सबको सुख मिले। ऐसे रहोगे तो हम व्रजवासियों को बड़ा दु:ख होगा।"

उन्होंने व्रजवासियों को प्रेरणा दे उनके लिए एक कुटिया का निर्माण करवा दिया। व्रजवासियों के आग्रह से वे उसमें रहने लगे। उस समय सनातन गोस्वामी के मुख पर छायी रहती तृप्ति की एक उज्ज्वल कान्ति, जो स्वाभाविक रूप से फूट पड़ती है, जब जीवन का उद्देश्य पूरा हो लेता है, जीवन की सभी समस्याओं का हल और सभी रहस्यों का उद्घाटन हो लेता है। उस कान्ति के आलोक में वे अपनी कुटिया के एक कोने में बैठे रहते गम्भीर पांडित्य और उच्चतम आध्यात्मिक उपलब्धियों की सम्पत्ति को दैन्य की ओढ़नी से यत्नपूर्वक छिपाए, दीन-हीन कंगाल के वेश में। फिर भी दूर-दूर से दर्शनार्थी आते इस मानव रूपी देवता के दर्शन करने, तत्ववेत्ता पंडित आते अपनी-अपनी समस्याओं को लेकर उन्हें सुलझाने साधक आते उपदेश ग्रहण करने भक्तिपथ के निराश्रय पथिक आते आश्रय ग्रहण करने। सभी उनके पास आकर तृप्ति लाभ करते, उनके दर्शन कर जीवन सार्थक करते।

मदनगोपाल द्वारा प्राप्त शिला

सनातन गोस्वामी का नियम था गिरि गोवर्धन की नित्य परिक्रमा करना। अब उनकी अवस्था 90 वर्ष की हो गयी थी। नियम निभाना मुश्किल हो गया था। फिर भी वे किसी प्रकार निबाहे जा रहे थे। एक बार वे परिक्रमा करते हुए लड़खड़ाकर गिर पड़े। एक गोप-बालक ने उन्हें पकड़ कर उठाया और कहा-

"बाबा, तो पै सात कोस की गोवर्द्धन परिक्रमा अब नाँय हय सके। परिक्रमा को नियम छोड़ दे।"

बालक के स्पर्श से उन्हें कम्प हो आया। उसका मधुर कण्ठस्वर बहुत देर तक उनके कान मूं गूंजता रहा। पर उन्होंने उसकी बात पर ध्यान न दिया परिक्रमा जारी रखी। एकबार फिर वे परिक्रमा मार्ग पर गिर पड़े। दैवयोग से वही बालक फिर सामने आया। उन्हें उठाते हुए बोला-

"बाबा, तू बूढ़ो हय गयौ है। तऊ माने नाँय परिक्रमा किये बिना। ठाकुर प्रेम ते रीझें, परिश्रम ते नाँय।"

फिर भी बाबा परिक्रमा करते रहे। पर वे एक संकट में पड़ गये। बालक की मधुर मूर्ति उनके हृदय में गड़ कर रह गयी थी। उसकी स्नेहमयी चितवन उनसे भुलायी नहीं जा रही थी। वे ध्यान में बैठते तो भी उसी की छबि उनकी आँखों के सामने नाचने लगती थी। खाते-पीते, सोंते-जागते हर समय उसी की याद आती रहती थी। एक दिन जब वे उसकी याद में खोये हुए थे, उनके मन में सहसा एक स्पंदन हुआ, एक नयी स्फूर्ति हुई। वे सोचने लगे-एक साधारण व्रजवासी बालक से मेरा इतना लगाव! उसमें इतनी शक्ति कि मुझ वयोवृद्ध वैरागी के मन को भी इतना वश में कर ले कि मैं अपने इष्ट तक का ध्यान न कर सकूँ।नहीं, वह कोई साधारण बालक नहीं हो सकता, जिसका इतना आकर्षण है। तो क्यो वे मेरे प्रभु मदनगोपाल ही हैं, जो यह लीला कर रहे हैं? एकबार फिर यदि वह बालक मिल जाय तो मैं सारा रहस्य जाने वगैर न छोड़ूँ। संयोगवश एक दिन परिक्रमा करते समय वह मिल गया। फिर परिक्रमा का नियम छोड़ देने का वही आग्रह करना शुरू किया। सनातन गोस्वामी ने उसके चरण पकड़कर अपना सिर उन पर रख दिया और लगे आर्तिभरे स्वर में कहने लगे-

"प्रभु, अब छल न करो। स्वरूप में प्रकट होकर बताओ मैं क्या करूँ। गिरिराज मेरे प्राण हैं। गिरिराज परिक्रमा मेरे प्राणों की संजीवनी है। प्राण रहते इसे कैसे छोड़ दूं?"

भक्त-वत्सल प्रभु सनातन गोस्वामी की निष्ठा देखकर प्रसन्न हुए। पर परिक्रमा में उनका कष्ट देखकर वे दु:खी हुए बिना भी नहीं रह सकते थे। उन्हें भक्त का कष्ट दूर करना था, उसके नियम की रक्षा भी करनी थी और इसका उपाय करने में देर भी क्या करनी थी? सनातन गोस्वामी ने जैसे ही अपनी बात कह चरणों से सिर उठाकर उनकी ओर देखा उत्तर के लिए, उस बालक की जगह मदनगोपाल खड़े थे। वे अपना दाहिना चरण एक गिरिराज शिला पर रखे थे। उनके मुखारविन्द पर मधुर स्मित थी, नेत्रों में करुणा झलक रही थीं वे कह रहे थे-

"सनातन, तुम्हारा कष्ट मुझसे नहीं देखा जाता। तुम गिरिराज परिक्रमा का अपना नियम नहीं छोड़ना चाहते तो इस गिरिराज शिला की परिक्रमा कर लिया करो। इस पर मेरा चरण-चिह्न अंकित है। इसकी परिक्रमा करने से तुम्हारी गिरिराज परिक्रमा हो जाया करेगी।"

इतना कह मदनगोपाल अन्तर्धान हो गये। सनातन गोस्वामी मदनगोपाल-चरणान्कित उस शिला को भक्तिपूर्वक सिर पर रखकर अपनी कुटिया में गये। उसका अभिषेक किया और नित्य उसकी परिक्रमा करने लगे। आज भी मदगोपाल के चरणचिह्नयुक्त वह शिला वृन्दावन में श्रीराधादामोदर के मन्दिर में विद्यमान हैं, जहाँ जीव गोस्वामी सनातन गोस्वामी के अप्राकट्य के पश्चात् उसे ले आये थे। अन्त के कुछ दिनों में सनातन गोस्वामी शिला के सामने आसन पर बैठ जाते और अर्द्धनिमीलित नेत्रों से नाम-जप करते रहते। उस समय उनका मनोभाव कुछ इस प्रकार का होता-

"हे भगवान्, मैं जीवन नहीं चाहता, मरण भी नहीं चाहता। भृत्य जिस प्रकार स्वामी के आदेश की प्रतीक्षा करता है, मैं भी उसी प्रकार काल की प्रतीक्षा कर रहा हूँ।"[6]

ऐसी अवस्था में जीवन और मरण के बीच की दीवार टूट जाती है। साधक स्वेच्छा से या इष्ट के इंगित पर किसी समय जीर्णवास छोड़कर इष्ट के साथ उसके धाम को चला जाता है। ऐसे ही एक दिन सनातन गोस्वामी शिला के सम्मुख बैठे भावना में गिरिराज-परिक्रमा कर रहे थे। भावना करते-करते यकायक उनके मुखारविन्द पर छा गयी एक अलौकिक दीप्ति की आभा और शरीर अश्रु-कम्प-पुलकादि सात्विक भावों से परिपूर्ण हो गयां कुछ ही क्षणों में भाव-लक्षण समाधि में विलीन हो गये, नेत्र स्थिर हो गये वर देहस्पन्दनहीन हो गया। परिक्रमा मार्ग में उन्हें मिल गये गिरिधारी और अपने साथ कहीं ले जाने को हुए। सनातन गोस्वामी कुछ ठिठके। उनका मनोभाव जान गिरिधारी ने राधा-मदनमोहन के जुगल रूप में दर्शन दिये। तब उन्होंने इष्ट के चरणों में आत्म-निवेदन किया, पार्थिव, शरीर छोड़ मंजरी-स्वरूप से निकुंज की ओर उनका अनुगमन किया।

सनातन गोस्वामी का अप्राकट्य हुआ सन् 1554 की आषाढ़ी पूर्णिमा के दिन। उस दिन प्रेम-साधना का अलोक-स्तम्भ अन्तर्हित हो गया। समस्त ब्रजमंडल पर छा गया शोक और विषाद का अन्धकारं श्रीहरिराम व्यास जैसे रसिक महात्माओं को कहते सुना गया कि साधु-सिरामनि' सनातन गोस्वामी के अन्तर्हित हो जाने से व्रज का साधु-समाज 'अनाथ' हो गया, रस-मन्दाकिनी का मुख्य स्त्रोत अतीत के गर्भ में विलीन हो गयां उसके बिना अब सूखे पत्ते चबाना ही बाक़ी रह गया-

तिन बिनु 'व्यास' अनाथ भये सब सेवत सूखे पातन।[7]

वृन्दावन में मदनमोहन के मन्दिर के प्रांगण में सहस्त्रों साधु-वैष्णों और व्रजवासियों के प्रेमाश्रुओं की भावभरी श्रद्धांजलि के स उन्हें समाधि दी गयी। सनातन गोस्वामी के विशेष अवदान का वर्णन करते हुए श्रीप्रियादास जी ने भक्तमाल की भक्ति-रस बोधिन टीका में लिखा है-

वृन्दावन व्रजभूमि जानत न कोऊ प्राय, दई दरसाय

जैसी शुक मुख गाई है।

रीति हूं उपासनाकी भागवत अनुसार, लियो रससार

सो रसिक सुख दाई है॥

एक और कवि ने सनातन और रूप के सम्बन्ध में कहा है-

को सब त्यजि, भजि वृन्दावन

को सब ग्रन्थ विचारत।

मिश्रित खीर, नीर बिनु हंसन,

कौन पृथकृ करि पारत॥

को जानत, मथुरा वृन्दावन,

को जानत व्रज-रीति।

को जानत, राधा-माधव रति,

को जानत सब नीति॥

सनातन गोस्वामी व्रज के समस्त वैष्णव-समाज के अधिनायक थे। सभी अपने पिता के समान उनका आदर करते थे। इसलिए उस आषाढ़ी पूर्णिमाके दिन सबने मस्तक मुड़वा कर उनके तिरोभाव पर शोक प्रकट किया। तभी से व्रज में आषाढ़ी पूर्णिमा का नाम 'मुड़िया पूर्णिमा' पड़ गया। सनातन गोस्वामी की गिरिराज के प्रति अटूट श्रद्धा थी औ उन्होंने अन्त तक गिरिराज परिक्रमा का अपना व्रत निभाया था। इसलिए उस दिन सभी वैष्णवों ने गिरिराज की परिक्रमा कर उन्हें श्रद्धाजंलि अर्पित की। इसीलिए तब से मुड़िया पूर्णिमा पर विशेष रूप से गिरिराज परिक्रमा करने की प्रथा चली आ रही है।

सनातन गोस्वामी द्वारा लिखित ग्रन्थों का संक्षिप्त परिचय

सनातन गोस्वामी द्वारा लिखित ग्रन्थों में चार ऐसे हैं, जिनका उनके द्वारा प्रणीत होने के सम्बन्ध में किसी प्रकार का विवाद या संशय नहीं है, क्योंकि उनका उनके नाम से उल्लेख किया गया है जीव गोस्वामी की लघुतोषणी के उपसंहार में, श्रीकृष्ण दास कविराज के चैतन्य –चरितामृत[8] में और नरहरि चक्रवर्ती के भक्तिरत्नाकर[9] में। वे हैं-

(1) हरिभक्तिविलास की दिग्दर्शनी टीका,

(2) 'वृहत् वैष्णवतोषणी' नामकी श्रीमद्भागवत के दशम स्कन्ध की टीका

(3) लीला-स्तव और

(4) 'वृहत्भागवतांमृत' और उसकी टीका।

हरिभक्तिविलास की दिगदर्शिनी टीका

हरिभक्तिविलास महामूल्यवान् वैष्णव-स्मृति है, जिसमें वैष्णवोचित आचार का प्रामाण्य शास्त्र-वाक्यों द्वारा परिपुष्ट विस्तृत वर्णन है। इसके रचयिता श्री गोपाल भट्ट गोस्वामी हैं। यह ग्रन्थ के प्रारम्भिक श्लोक से स्पष्ट है, जो इस प्रकार है-

भक्तोर्विलासांश्चिनुते प्रबोधानान्दस्यशिष्यो भगवतप्रियस्य।

गोपालभट्टो रघुनाथदासं सन्तोषयन् रूप-सनातनौ च॥

इसके प्रत्येक विलास के अन्त में भी लेखक रूप में गोपाल भट्ट के ही नाम का उल्लेख है। परन्तु श्रीजीव गोस्वामी ने लघुतोषणी के उपसंहार में, कृष्णदास कविराज ने चैतन्य-चरितामृत[10] में और नरहरि चक्रवर्ती ने भक्तिरत्नाकर[11] में इसे सनातन गोस्वामी की कृति बतलाया है। इसलिए यथार्थ में इसका लेखक कौन है, इस सम्बन्ध में मतैक्य नहीं है। डॉ. दिनेशचन्द्र सेन ने इसका समाधान यह कहकर किया है कि ग्रन्थ के वास्तविक रचयिता सनातन गोस्वामी ही हैं। पर वे यवनों के संसर्ग में रहने के कारण जातिच्युत थे। यदि वे अपने नाम से इसका प्रचार करते तो सर्वसाधारण द्वारा इसके ग्रहण किये जाने की संभावना कम होतीं इसलिए उन्होंने गोपाल भट्टजी के नाम से इसका प्रचार किया, जो दक्षिण देश के एक सुप्रसिद्ध नेष्ठिक और आचारवान ब्राह्मण वंश के थे।[12] सनातन गोस्वामी जातिच्युत थे, इसका कोई प्रमाण देखने में नहीं आता। पर वे स्वयं दैन्यवश यवन राजा के प्रधानमन्त्री रह चुकने के कारण अपने को अस्पृश्य मानते थे। इसलिए यक बिल्कुल संभव है कि इस महत्त्वपूर्ण स्मृति ग्रन्थ का प्रचार उन्होंने अपने नाम से न कर गोपाल भट्ट के नाम से किया हो। नरहरि चक्रवर्ती ने तो स्पष्ट ही लिखा है कि उन्होंने इस ग्रन्थ की रचना कर गोपाल भट्ट का नाम ग्रन्थकार के रूप में दे दिया-

गोपालेर नामे श्रीगोस्वामी सनातन।

करिला श्रीहरिभक्तिविलास वर्णन॥[13]

पर इस सम्बन्ध में उचित मत यह जान पड़ता है कि सनातन गोस्वामी ने एक संक्षिप्त वैष्णव-स्मृति की रचना की और गोपालभट्ट गोस्वामी ने उसका विस्तार किया। इस मत की पुष्टि दो बातों से होती है। एक तो यह कि सनातन गोस्वामी कृत 'लघुहरिभक्तिविलास' नामक एक ग्रन्थ की हस्तलिखित प्रतियाँ जयपुर के गोविन्द-ग्रन्थकार में और राजशाही वरेन्द्रानुसंधान समिति में वर्तमान हैं। दूसरा यह कि ग्रन्थ के प्रत्येक विलास के शेष में लिखा मिलता है, 'इति श्रीगोपालभट्ट विलिखित। 'विलिखित' का अर्थ है विशेषरूप से लिखित या विस्तार से लिखित । यदि गोपाल भट्ट ने मूल रूप में इसकी रचना की होती तो वे 'विलिखित' की जगह 'लिखित' शब्द का ही प्रयोग करते।[14] मनोहरदास की अनुरागवल्लीकी निम्न पंक्तियों से भी इस मतका समर्थन होता हैं-

श्रीसनातन गोस्वामी ग्रन्थ करिल।

सर्वत्र आभोग भट्ट गोसाईं दिल॥[15]

वास्तविकता यह है कि गोस्वामीगण सभी मिलकर भगवत्तत्त्व की आलोचना करते थे। श्रीभगवान् उनके अन्त:करण में जो भाव परिस्फुरित करते थे, उसी के अनुसार ग्रन्थों की रचना करते थे, अपनी स्वतंत्र बुद्धि से कुछ नहीं लिखते थे। इसलिये अपने को ग्रन्थ-कर्ता भी नहीं मानते थे। पर जो भी हो, हरिभक्ति विलास की दिग्दर्शिनी टीका के रचयिता सनातन गोस्वामी हैं, इस सम्बन्ध में कोई विवाद नहीं है। श्रीरामनारायण विद्यारत्न ने उसे जीव गोस्वामी कृत अवश्य कहा है। पर उसका कोई मूल्य नहीं, क्योंकि जीवगोस्वामी ने स्वयं हरिभक्तिविलास और उसकी टीका दोनों को सनातनकृत लिखा है। हरिभक्तिविलास का ठीक रचना काल भी निर्धारित करना कठिन है। पर इतना निश्चित है कि इसकी रचना सन् 1541 के पूर्व हुई। क्योंकि रूप गोस्वामी के भक्तिरसामृतसिन्धु में इसका उल्लेख है। भक्तिरसामृतसिन्धु का रचना काल सन् 1541 है।

वृहद्-वैष्णवतोषणी

वृहद्-वैष्णवतोषणी, श्रीमद्भागवत के दशम स्कन्ध की विस्तीर्ण टीका, सनातन गोस्वामी की शास्त्र-साधना का चरम फल है। ग्रन्थ के आरम्भ में उन्होंने लिखा है कि इस टीका में उन्होंने उन सब विषयों को खोलकर लिखा है, जो श्रीधर गोस्वामी की टीका में अस्पष्ट रह गये हैं। पर वास्तविकता यह है कि उन्होंने इसमें सभी विषयों की जैसी पांडत्यपूर्ण और रसमयी व्याख्या की है, वैसी किसी प्राचीन टीका में देखने को नहीं मिलती। कारण यह है कि उन्होंने श्रीकृष्ण के ऐश्वर्य-भाव को छोड़ उनके माधुर्य-भाव पर जितना बल दिया है, उतना प्राचीन टीकाकारों ने नहीं दिया। जीव गोस्वामी ने वैष्णव तोषणी का एक संक्षिप्त संस्करण प्रकाशित किया है। जो 'लघुतोषणी' के नाम से जाना जाता है। उसके अन्त में उन्होंने वृहद्-वैष्णवतोषणी का रचना-काल 1476 शकाब्द, अर्थात सन् 1554 लिखा है। इससे स्पष्ट है कि इसकी रचना करते समय सनातन गोस्वामी अति वृद्ध थे और जिस वर्ष इसकी रचना समाप्त हुई उसी वर्ष उन्होंने नित्य-लीला में प्रवेश कियां

लीलास्तव

श्रीजीव गोस्वामी ने 'लीलास्तव' नामक सनातन गोस्वामी के एक ग्रन्थ का उल्लेख किया है। श्रीकृष्णदास कविराज ने चैतन्य-चरितामृत में –दशम चरित' नामक सनातनकृत एक ग्रन्थ का उल्लेख किया है।[16] नरहरि चक्रवर्ती ने स्पष्ट किया है कि दशम चरित लीलास्तव का ही दूसरा नाम है,[17] क्योंकि इसमें भागवत के दशम स्कन्ध के प्रथम पैंतालीस अध्यायों में से प्रत्येक का लीला-सूत्र नामाकार में वर्णित है। इनके अतिरिक्त और कई ग्रन्थ सनातन गोस्वामी के नाम पर आरोपित हैं, पर उनका सनातनकृत होने के सम्बन्ध में कोई ठोस प्रमाण नहीं हैं। इतना निश्चित है कि उस समय के कुछ अन्य लोगों द्वारा लिखे गये ग्रन्थों में भी हरिभक्तिविलास की तरह सनातन गोस्वामी का हाथ है, जैसे श्रीरूप गोस्वामी के प्रसिद्ध ग्रन्थ 'भक्तिरसामृतसिन्धु' में। उस समय व्रजमंडल में कोई गौड़ीय साधक या शास्त्रविद् कोई ग्रन्थ लिखता तो उसके लिए सनातन गोस्वामी का सहयोग या समर्थन प्राप्त करना आवश्यक होता, क्योंकि उसके बिना भक्त-समाज में उसके ग्रहण किये जाने की सम्भावना ही न होती।

वृहद्-भागवतामृत

वृहत्-भागवतामृत जैसा सनातन गोस्वामी के शास्त्र ज्ञान का परिचायक है, वैसा ही उनकी आध्यात्मिक अनुभूतियों का। इसमें उन्होंने भक्ति-शास्त्र के विशाल सागर का मन्थन कर सार तत्त्व को बड़े सरल और आकर्षक ढंग से उपस्थित किया है। यह उनकी क्रमिक आध्यात्मिक उपलब्धियों और उच्चस्तरीय रसानुभूतियों का मनोरम उपाख्यान के द्वारा हृदयस्पर्शी वर्णन है। यह दो खण्डों में लिखा गया है। प्रथम खण्ड में यह दिखाने की चेष्टा की गयी है कि भगवान् का सबसे अधिक कृपापात्र कौन है। दूसरे में भक्ति के विभिन्न सोपानों का वर्णन है। प्रथम खण्ड के नायक हैं नारद। वे भगवान के सबसे अधिक कृपापात्र भक्त की खोज में ब्रह्माण्ड में भ्रमण करते हैं। सर्वप्रथम प्रयाग तीर्थ के एक ब्राह्मण को भगवान का सबसे अधिक कृपापात्र जान उसकी प्रशंसा करते हैं। ब्राह्मण दाक्षिणात्य के एक क्षत्रिय राजा को भगवान् का परमप्रिय भक्त निर्धारित करता है। नारद उस राजा के पास जाते हैं, तो वह ब्रह्मा को भगवान् का परमप्रिय भक्त बताते हैं। इसी प्रकार ब्रह्मा शिव को, शिव प्रह्लाद को, प्रह्लाद पाण्डवों को, पाण्डव यादवों को, विशेष रूप से उद्धव को, उद्धव व्रज की गोपियों को और उनमें भी राधा को भगवान् का सबसे अधिक कृपापात्र बताते हैं। प्रत्येक अपने मत की पुष्टि में जो कारण उपस्थित करता है, उससे भक्तों की विभिन्न श्रेणियों की विशेषतायें प्रकाश में आती हैं। दूसरे खण्ड के नायक हैं गोवर्धनवासी एक गोपकुमार, जिनके गुरु हैं गौड़देश में गंगातट पर जन्मे जयन्त नाम के एक ब्राह्मण। जयन्त के स्वरूप और भाव का जैसा वर्णन है, उसके आधार पर कुछ लोगों का निश्चित मत है कि जयन्त नाम से सनातन गोस्वामी ने श्रीचैतन्य महाप्रभु को इंगित किया है और गोपकुमार नाम से स्वयं अपने आप को।[18]

गोपकुमार गुरुदत्त मन्त्र का जप करते हुए प्रयाग, जगन्नाथपुरी और वृन्दावन गये। मन्त्र के ही अचिन्त्य प्रभाव से वे स्वर्गलोक, महर्लोक, तपोलोक और सत्यलोक गये। इस यात्रा में वे पहले राजा बने, फिर इन्द्र के पद को प्राप्त हुए और फिर ब्रह्मा के पद को। पर इन लोकों और पदों के वैभव को प्राप्त करके भी उन्हें तृप्ति न हुई। इसलिए ब्रह्मत्व त्यागकर वे पृथ्वी पर मथुरा लौटे। वहाँ गुरुदेव ने कहा-"वत्स! मैंने तुम्हें मन्त्र के रूप में अपना सर्वस्व दान कर दिया है। उसके प्रभाव से तुम सब कुछ जान जाओगे। और तुम्हारी सर्वार्थ सिद्धि होगी।" वे मन्त्र जप करते रहे। उसकें प्रभाव से उन्हें प्रतीत होने लगा कि उनका पाञ्चभौतिक देह एक अपार्थिव देह में परिणत हो गया है। तब वे मन्त्र के प्रभाव से उस अपार्थिव देह से क्रमश: शिवलोक, वैकुण्ठ, अयोध्या, द्वारका और गोलोक गये। गोलोक में उन्हें अपने इष्ट मदनगोपाल के दर्शन हुए और वे उनकी नित्यलीला में प्रवेश कर गये। इस आध्यात्मिक आख्यामिका के माध्यम से सनातन गोस्वामी ने इस सभी लोकों का सुन्दर चित्रांकन किया है, उन भगवत्-स्वरूपों ने वर्णन किया है, जो इनका संचालन और शासन करते हैं और उस सुख का वर्णन किया है, जो उनके सान्निध्य में उनके भक्तों को मिलता है। यह सभी लोक बहुत आकर्षक होते हुए भी गोपकुमार की आत्मा को सन्तुष्ट नहीं करते। वे निरन्तर अपने मन्त्र का जप करते रहते हैं और जिस लोक में जाते हैं, उसमें प्रकट भगवद्स्वरूप से मदनगोपाल की कृपा और गोलोक प्राप्ति की प्रार्थना करते हैं।

वृहद्भावतामृत का महत्त्व बंगाल के श्रीअतुलकृष्ण गोस्वामी ने इन शब्दों में व्यक्त किया है:

"वैष्णवधर्म का मर्म जानने के लिए साधन-भजन के सुगम सोपान का अबलम्न करने के लिए, विविध लोकों और विविध अवतारों का तत्त्व जानने के लिए, और श्रीराधाकृष्ण के पादपद्म की प्राप्ति कराने के लिए यदि कोई चोटी का ग्रन्थ है तो वृहद्भागवतामृत है।...................... सरल कहानी के माध्यम से सभी सिद्धान्तों की अभिज्ञता उत्पन्न करने वाला, एक शब्द में, अति सहज रूप से जिससे मानव-जन्म सफल हो सके ऐसा उपाय बतानेवाला और कोई ग्रन्थ नहीं है।"

ग्रन्थ में कुछ जटिल और दुर्बोध विषयों को सरल करने के लिए सनातन गोस्वामी ने स्वयं ही 'दिग्दर्शिनी' नाम की इसकी विस्तृत टीका लिखकर इसकी उपादेयता और बढ़ा दी है।[19]

वृहद्भागवतामृत द्वारा प्रतिपादित सनातन गोस्वामी का भक्ति-सिद्धान्त

भगवत्ता का सार माधुर्य

वृहद्भागवतामृत का मूल उद्देश्य है 'दो गूढ़तम रहस्यों का उद्घाटन करना। एक तो यह कि भगवान् का ज्ञान नहीं है। वे जैसे अपनी भगवत्ता को बिलकुल भूले हुए हैं। उन्हें अभिमान है अपने गोपवेश-मोरपिच्छ-बंसीधारी-लीला-कौतुक-प्रिय, नीलकान्ति, युक्त नवकिशोर, नटवर गोपाल होने का। वे मधुर से भी मधुर हैं। उनका रूप-रंग बोलना-चालना, उठना-बैठना, चलना-फिरना, नाचना-गाना, खेलकूद और हास-परिहास सभी कुछ अति मधुर है। माधुर्य ही उनकी भगवत्ता का सार है। जिस भगवत् स्वरूप में माधुर्य का जितना विकास है, उसमें उतना ही ऐश्वर्य का प्रकाश कम है। उनके इस पूर्णतम रूप में माधुर्य का पूर्णतम विकास है। इसलिये इस रूप में यद्यपि उनके ऐश्वर्य का भी पूर्णतम विकास है, ऐश्वर्य माधुर्य से पूर्णत: आच्छादित है। उसका उन्हें किंचित भी ज्ञान नहीं। वे साधारण गोप बालकों के साथ उन्हीं की तरह खेलते हैं, उन्हें अपने कन्धे चढ़ाते हैं, उनके कन्धे चढ़ते हैं, उनका जूठा खाते हैं, उन्हें अपना जूठा खिलाते हैं। साधारण बालकों की तरह ही नन्दबाबा की पादुका अपने सिर पर उठाकर ले जाते हैं, माँ यशोदा द्वारा ताड़ित होने पर भय खाते हैं, रो देते हैं। यह सब उनका नाटक बिलकुल नहीं होता। नाटक होता, यदि उन्हें अपनी भगवत्ता का ज्ञान रहता। यदि नाटक होता तो उन्हें वह रसानुभूति भी न होती, जिसका इन मधुर लीलाओं के माध्यम से आस्वादनकर वे श्रुतिके "रसो वै स:" वाक्य को सार्थक करते हुए अपने अखिलरसामृत-मूर्ति रूप का परिचय देते हैं।?

भगवान का भक्तवात्सल्य

दूसरा रहस्य, जिसका सनातन गोस्वामी ने उद्घाटन किया है, यह है कि भगवान् सब प्रकार से पूर्ण, आत्माराम, आंप्तकाम होते हुए भी अपने भक्तों का प्रेम रस आस्वादन करने के लिए सदा उत्कंठित हैं, लालायित हैं। उन्हें अपने स्वरूपानन्द से भी भक्तों की सेवा से उत्पन्न आनन्द का लोभ अधिक है। आत्मानन्द से प्रेमानन्द कोटिगुना अधिक आस्वाद्य हैं। प्रेम का स्वभाव हैं अतृप्ति। प्रेम जितना अधिक होता है, उतना ही उसकी कमी का अनुभव होता है, उतना ही उसकी भूख और अधिक होती है। भगवान् का प्रेम अनन्त हैं। इसलिए उनकी प्रेम की भूख भी अनन्त है। अनन्त कोटि भक्तों के प्रेम का आस्वादन करके भी वे अतृप्त हैं। इसलिए अनन्तकोटि जीव, जो उनसे विमुख हैं, उनके उन्मुख होने पर उनके प्रेम का सुख आस्वादन करने की आशा से उनका हृदय सदा उद्वेलित है। जीव उनका भजन नहीं करते, तो भी वे उनका भजन करते हैं, उन्हें किसी प्रकार अपनी ओर उन्मुख करने के लिए यत्नशील रहते हैं।[20] वृहद्भागवतामृत में वैकुण्ठाधिपति श्रीनारायण की गोपकुमार के प्रति उक्ति से इस रहस्य का उद्घाटन भली प्रकार होता है। गोपकुमार के वैकुण्ठ में प्रवेश करने पर उन्होंने भावगद्गद् कण्ठ से उनसे कहा-

"वत्स! स्वागत है! स्वागत है! मैं चिरकाल से तुम्हारे दर्शन के लिए उत्कंठित था। बड़े सौभाग्य की बात है जो आज तुम्हारे दर्शन हुए। तुमने बहुत जन्म व्यतीत किये, पर किंचिन्मात्र भी मेरी ओर उन्मुख न हुए। तुम्हारी उपेक्षा देख मैं बहुत दु:खी हुआ। इसलिए अपने ही बनाये मर्यादा-मार्ग का लंघन कर तुम्हें गोवर्धन में जन्म दिया ओर स्वयं जयन्त नाम के तुम्हारे गुरु रूप में अवतीर्णहुआ। तब यह आशा बंधी कि इस बार अवश्य तुम मेरी ओर अग्रसर होगे। इस आशा को हृदय में धारणकर मैं अनवरत आनन्द से नृत्य करता रहा हूँ। तुमने मेरी आशा सफल की। अब स्थिर रूप से यहाँ रहकर मुझे सुखी करो और तुम भी सुखी हो।"[21]

यह हैं वैकुण्ठधीश्वर श्रीनारायण के गोपकुमार के प्रति प्रेमोद्गार। पर नारायण में ऐश्वर्य की प्रधानता है। उनका माधुर्य ऐश्वर्य से आच्छादित है। अयोध्यापति राम, द्वारकाधीश, श्रीकृष्ण और वृन्दावन बिहारी श्रीकृष्ण में क्रमश: माधुर्य का अधिक विकास हैं माधुर्य का सार है प्रेम। इसलिए उनमें प्रेम और भक्त-वत्सलता का भी क्रमश: अधिक विकास है। वृन्दावन बिहारी, मोरपिच्छ-वंशीधारी श्रीकृष्ण में माधुर्य की पराकाष्ठा हैं। इसलिए उनमें भक्तवत्सलता की भी पराकाष्ठा हैं।

भगवत्-स्वरूपों में माधुर्य और भक्तवात्सल्य का क्रमिक विकास

सनातन गोस्वामी ने वृहद्भागवतामृत में विभिन्न भगवद्स्वरूपों में माधुर्य के क्रमिक विकास के अनुसार भक्तवात्सल्य के विकास का चित्रण बड़े सुन्दर ढंग से किया है। गोपकुमार सख्यभाव के उपासक थे। दशाक्षर मन्त्रराज का वे सदा जप करते रहते थे। उसके प्रभाव से इष्ट के प्रति भय, सम्भ्रम, गौरवादि उनमें बिल्कुल नहीं रह गया था। इसलिए जब वे वैकुण्ठ में नारायण के निकट पहुँचे तो उन्हें देखते ही प्रेमावेश में उन्हें आलिंगन करने को उनके सिंहासन की ओर दौड़े। उनके पार्षदों ने ऐसा करने से उन्हें रोका, क्योकि ऐसा करना वैकुण्ठनाथ की मर्यादा और गौरव के विरुद्ध था। वैकुण्ठनाथ उन्हें प्राप्त कर बहुत प्रसन्न हुए, बचनों से उनका सत्कार किया। पर ऐसा कोई व्यवहार नहीं कया, जो गोपकुमार को सम्भ्रम-संकोच-रहित मनोवृत्ति के अनुकूल हो। जब उनके भोजन का समय आया, उनके पार्षदों ने महालक्ष्मी के इंगित पर उन्हें कौशलपूर्वक अन्त:पुर से बाहर कर दिया।

जब वे अयोध्या पहुँचे और श्री राम चन्द्र के दर्शन किये तो उन्होंने स्वयं उनसे गौरव-बुद्धि त्याग देने को कहा और बोले- हे सुहृत्तम्! तुम मेरे प्रति स्नेह से प्रेरित हो यहाँ चले आये हो। कुछ देर विश्राम करो, प्राणामादि करने का कष्ट न करो। तुम्हारा कष्ट देखकर मुझे भी कष्ट होता है, क्योंकि तुम मेरे चिरबन्धु हो। मैं तुम्हारे प्रेम के सदा अधीन हूँ। गोपकुमार उनके वचनों से परमसंतुष्ट हुए। पर वे पूर्वाभ्यास और दशाक्षर मन्त्र-जप के प्रभाव के कारण रामचन्द्र में मदनगोपाल के रूपगुणादि का आरोप करते और तदनुरूप उनके आलिंगन-चुम्बनादि सहित प्रेमपूर्ण व्यवहार की आशा करते। उन्हें जब उनकी इस प्रकार की लीला-माधुर्य और कृपा का अनुभव न होता, तब वे शोकातुर हो पड़ते। यह देख रामचन्द्र ने द्वारकापुरी को उनके भाव के अधिक उपयुक्त जान उन्हें वहाँ भेज दिया।

द्वारकापुरी में गोपकुमार राज-राजेश्वर के वेश में अपने इष्ट श्री कृष्ण की रूपमाधुरी के दर्शन कर आनन्द-समुद्र में डूब गये। क्षण भर में उन्हें मूर्च्छा आ गयी। उद्धव जी ने यत्नपूर्वक उन्हें सचेत किया। फिर भी वे प्रभु के दर्शन कर आनन्दातिरेक के कारण इतना विवश थे कि उनकी स्तुति आदि कुछ नहीं कर पा रहे थे। प्रभु स्वयं उन्हें अपने निकट ले आने के लिए जैसे ही आगे बढ़े, उद्धव ने उन्हें बलपूर्वक खींचकर उनका मस्तक उनके चरणों पर रख दिया। प्रभु ने अपने हस्त कमल से उनका अंग मार्जन किया और कुशल-प्रश्न पूछे। फिर उनका हाथ पकड़कर अन्त:पुर में रोहिणी, देवकी माता और सोलह हज़ार आठ महिषियों के बीच ले गये। वहाँ गोपकुमार की वंशी लेकर उन्होंने जैसे ही अपने हाथ में धारण की उनकी भावमुद्रा गोकुल के मदन गोपाल जैसी हो गयी। उनमें अपनी ध्यानध्येय मूर्ति के दर्शन कर गोपकुमार को फिर आनन्दमूर्छा आ गयी। तब द्वारकाधीश ने अपने हस्तकमल से उनका गात्र मार्जन किया। प्रबोध वाक्यों द्वारा उन्हें सचेत किया। फिर अपने हाथ से पहले उन्हें भोजन कराया, पीछे स्वयं भोजन किया।

गोपकुमार परमानन्दपूर्वक द्वारकापूरी में रहने लगे। यहाँ का आनन्द वैकुण्ठ और अयोध्या के आनन्द से भी कोटिगुना श्रेष्ठ था। विशेष रूप से यहाँ वे अपने इष्टदेव श्रीव्रजेन्द्र कुमार की अनुपम रूप माधुरी के दर्शन कर, अपने प्रति सौहार्दपूर्ण व्यवहार को देखकर और उनके अमृतमय, करुणापूर्ण वचनों को सुनकर जिस सुख का अनुभव करते उसकी तुलना नहीं की जा सकती। फिर भी उन पर एक अनिर्वचनीय उदासी छायी रहती। उनके मुखारविन्द पर अतृप्ति के लक्षण स्पष्ट दिखाई देते। कारण यह था कि द्वारका में उनके इष्ट का सान्निध्य और उनका प्रेम पूर्ण व्यवहार था, तो भी वे राजैश्वर्य की मर्यादा से बंधे हुए थे। यहाँ न तो उनके साथ गोचारण और खेल-कूद आदि का अवसर था, न व्रज का आलिंगन-चुम्बन आदि का उन्मुक्त वातावरण, जिसकी उन्हें ध्यान में स्फूर्ति हुआ करती।

"एक दिन नारद मुनि ने उनकी अवस्था जानकर उपदेश किया-तुम्हारी पूर्ण तृप्ति गोलोक में ही सम्भव है। तुम ब्रज भूमि में जाकर स्मरण-कीर्तनादि साधन द्वारा गोलोक प्राप्ति का उद्योग करो। वहीं तुम्हारा साधन सुचारू रूप से सम्पन्न हो सकेगा, क्योंकि वह पृथ्वी पर स्थित होते हुए भी वैकुण्ठ के ऊपर स्थित गोलोक से अभिन्न है। द्वारकानाथ तुम्हारी अवस्था से अवगत है। वे स्वयं तुम्हें वहाँ पहुँचा देंगे।"

नारद मुनि के वचनामृत सुन गोपकुमार मोहदशाको प्राप्त हुए उनके नेत्र मुद्रित हो गये। उन्होंने अनुभव किया कि उन्हें कोई कहीं ले जा रहा है। कुछ देर में नेत्र-खोले तो देखा कि वे गोलोक में उपस्थित हैं। गोलोक में गोलोक-स्थित मथुरा-वृन्दावन में श्रीकृष्ण का अन्वेषण करते हुए वे गोपराज नन्द की पुरी पहुँचे। श्रीकृष्ण उस समय गोचारण को गये हुए थे। इसलिए सन्ध्या समय वे जमुना के किनारे उनके आगमन-पथ पर जा खड़े हुए और उत्काण्ठा सहित उस ओर दृष्टि लगाए खड़े रहे, जिस ओर से नन्दनन्दन आने वाले थे। थोड़ी देर में गायों का हम्बारव और प्राण-आकर्षिणी मुरली की मधुर ध्वनि सुनाई दी। एक स्निग्ध श्यामल कान्ति से दसों दिशाये उज्ज्वल हो गयी। मनोरम अंग-गन्धने वातावरण को उन्मत्त कर दिया। फिर एक ही क्षण में वन्य-वेष में मोरमुकुट बंसीधारी श्रीकृष्ण के मृदुमन्द-हास्ययुक्त प्रफुल्ल मुख कमल की अपूर्व सौन्दर्यराशि के दर्शन कर वे मोह दशा को प्राप्त हुए। श्रीकृष्ण ने उन्हें देख श्रीदाम से कहा-

"वह देख! मेरा प्यारा सखा आ गया,"और कहते-कहते उनकी ओर दौड़ पड़े।

गोपकुमार को जब चेतना आई तो उन्होंने देखा कि नन्दनन्दन के साथ वे भूमि पर पड़े हैं। नन्दनन्दन प्रेम के आवेश में उन्हें अपने बाहुपाश में कसे हुए मूर्च्छित अवस्था को प्राप्त हो गये है। उनके दोनों नेत्रों से प्रवाहित अश्रुधारा के वेग से रजोमय पथ पंकिल हो गया हैं। गोपियाँ उन्हें देखकर लज्जाहीन हो रोदन करती हुई कह रही हैं-"हाय! हमारे प्राणनाथ को यह क्या हुआ? क्या यह व्यक्ति कंस का कोई मायावी अनुचर है, जिसके आते ही उनकी ऐसी दशा हो गयी?" कृष्ण के साथी गोपगण भी उच्च स्वर से रोदन कर रहे हैं। उस क्रन्दनध्वनि को दूर से सुन नन्दादि गोपगण और पुत्रवत्सला यशोदा आदि वृद्धा गोपियाँ भी वहाँ आ गये हैं और कृष्ण को मूर्च्छित देख हा-हा खा रहे है। पशुगण कतरतासूचक शब्द करते-करते उनके निकट आकर उनके श्रीअंग को सूंघ-सूंघकर उसे चाट रहे हैं। पक्षी उनके ऊपर आकाश में मँडराते हुए शोक-सूचक कोलाहल कर रहे हैं।

गोपकुमार मर्माहत और किंकर्तव्यविमूढ़ से यत्नपूर्वक श्रीकृष्ण के बाहुपाश से अपने को मुक्त करते हुए उठे और उनके चरण युगल मस्तक पर धारण कर बहुत-कुछ विलाप करते हुए रोदन करने लगे। इतने में बलराम आये पीछे से भागते हुए। उन्हें गोपकुमार को देख श्रीकृष्ण को मूर्च्छा का रहस्य समझने में देर न लगी। उन्होंने गोपकुमार की बाँह श्रीकृष्ण के गले में डाल दी, उनके हाथ से श्रीकृष्ण के अंग का मार्जन करवाया, और दीन वाक्यों द्वारा उच्च स्वर से उन्हें बुलवाते हुए भूमि से उठवाया। तब उनके नेत्रों को, जो अश्रुधार के कारण मुद्रित हो रहे थे, खुलवाया। सखा के हाथ के स्पर्श से उन्हें कुछ बाह्य ज्ञान हुआ। विकसित नेत्रों से उन्हें देखते ही उन्होंने उनका आलिंगन-चुम्बन किया। जैसे बहुत दिनों के बिछुड़े अपने प्राणप्रिय सखा को प्राप्त कर कोई परमानन्दित होता है, उस प्रकार परमानन्दित हो अपने बायें हस्त कमल से उनका दाहिना हाथ पकड़ कर उनसे बहुत-से कुशल-प्रश्न किये।

तब झूमते-झूमते उनके साथ पुर में प्रवेश किया। गोदोहन के पश्चात् अन्त:पुर में उन्हें ले जा कर माता यशोदा की बन्दना करवाई। यशोदा माँ ने उनके प्रति कृष्ण का अतिशय प्रेम देख उनका भी अपने पुत्र के समान लालन-पालन किया। स्नानादि कर कृष्ण ने नन्दबाबा और बलराम के साथ भोजन गृह में प्रवेश किया। श्रीनन्द कनकासन पर विराजमान हुए। श्रीकृष्ण उनके बाई ओर बैठे, बलराम दाई ओर। गोपकुमार को श्रीकृष्ण ने आग्रहपूर्वक सामने बैठाया। यशोदा माँ ने परिवेशन प्रारम्भ किया। उसी समय ब्रजसुन्दरियाँ अपने-अपने घर से नाना प्रकार की भोज्य सामग्री लेकर आयीं। श्रीकृष्ण ने प्रशंसा सहित उन्हें आरोगा और अपने हाथ से गोपकुमार को खिलाया। जब श्री राधा द्वारा लाये गये लड्डू उनके सामने रखे गये, तो उनका एक कण जिह्वा से स्पर्श करते ही उन्होंने राधा की ओर देखते हुए ऐसा मुंह बनाया जैसे वह नीम की तरह कड़वा हो और यह कहते हुए कि 'हे राधे! यह लड्डू तुम्हारे वंश में जात इस व्यक्ति के ही योग्य हैं' गोपकुमार को उन्हें दे दिया। इस परिहास के छल से उन्होंने गोपकुमार को वह वस्तु प्रदान की जिससे अधिक और कुछ देने को उनके पास न था। गोलोक में गोपकुमार को अभीष्ट फल की पूर्ण रूप से प्राप्ति हुई। वे नित्य वहाँ रहकर युगल की नित्य नयी रूप-माधुरी, नित्य नयी लीला-माधुरी और उनकी प्रेम-सेवा के अनिर्वचनीय रस का आस्वादन करने लगे।

साध्य भगवान् नहीं, भगवत्प्रेम है

वृहद्भागवतामृत की आख्यायिका के बीच में गोपकुमार को समय-समय पर दिये गये नारदादि के उपदेशों के माध्यम से सनातन गोस्वामी ने साध्य-साधन तत्त्व का भी निरूपण किया है। साध्य मुक्ति नहीं, भगवान् भी नहीं, भगवत्प्रेम है। प्रेम प्राप्त हो जाने पर भगवान् स्वयं भक्त से वशीभूत हो जाते हैं और धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष में उसका तुच्छ भाव हो जाता है।[22] मुक्ति-सुख भक्ति-सुख का विरोधी हैं, क्योंकि मुक्ति-सुख सीमित और तृप्तिजनक है। भक्तिसुख असीम है, सदा वर्धनशील हैं, क्योकि भगवान् का स्वरूप सदा एक होते हुए भी नित्य नवीन है वे नित्य नयी रूप-माधुरी और नयी-नयी लीलाओ को प्रकट कर भक्तों को सुखी करते हैं। यही भक्तों के प्रति उनकी करुणा की पराकाष्ठा है।[23] मुक्ति की अवस्था में आत्माराम मुनियों को केवल एक ही सुख का अनुभव होता है। मन की वृत्ति के अभाव के कारण उसका विस्तार सम्भव नहीं होता। वह उत्कण्ठा-रहित और शून्य –सा प्रतीत होता हैं। भक्तों में वही सुख मन की वृत्ति के कारण कई गुना अधिक हो जाता है, उसी प्रकार जिस प्रकार आकाश स्थित सूर्य का प्रकाश स्फटिक मणि पर पड़ने से कई गुना अधिक हो जाता है।[24] मुक्ति भक्ति का गौण फल है, पर आत्मारामता भक्ति का गौण फल भी नहीं है। आत्मारामता प्रेम की विरोधी है, क्योंकि इससे उत्कण्ठा का नाश होता है। प्रेम का स्वरूप ही है सदा अतृप्त रहना अर्थात् आत्मारामता का न होनां आत्मारामता का न होना भक्ति का दूषण नहीं, भूषण है।[25] नारद मुनि ने भगवान् से वर मांगा कि भक्ति या प्रेम में किसी को कभी तृप्ति न हो, तो भगवान् ने उत्तर दिया-"यह तो मेरी भक्ति का स्वभाव ही है। आपने क्या मेरे किसी भक्त को कभी तृप्त देखा है?"[26]

प्रेम-प्राप्ति का साधन

प्रेम-प्राप्ति का मुख्य कारण श्रीकृष्ण की कृपा हैं। किसी-किसी पर यह कृपा अकस्मात् हो जाती है; कोई इसे साधन द्वारा क्रम से लाभ करते हैं, जैसे कोई उदार दाता किसी की बना हुआ भोजन दानं कर देता है, किसी को सीधा दे देता है, जिससे उसे भोजन स्वयं तैयार करना पड़ता है।[27]

प्रेम-प्राप्ति के साधक को पहले उसे भय को दूर कर देना चाहिए, जो उसे श्रीकृष्ण को ईश्वर जानने के कारण लगता है। उसे श्रीकृष्ण में बन्धु-भाव रखना चाहिए। उनसे दास, सखा, माता-पिता या कान्ता का लौकिक नाता जोड़कर उस भाव के व्रज गोप-गोपी के आनुगत्य में भजन करना चाहिएं भजन नवधा-भक्ति के अनुरूप होना चाहिए। उसमें श्रीकृष्ण की व्रज-लीलाओं का ध्यान-गन और उसमें भी प्रभुका नाम- संकीर्तन मुख्य होना चाहिए। यह साधन श्रीकृष्ण की प्रिय क्रीड़ाभूमि व्रज में रहकर करना चाहिए, क्योंकि वहाँ रहकर करने से निश्चित रूप से प्रेम की प्राप्ति शीघ्र हो जाती हैं।[28]

कीर्तन-भक्ति स्मरण-भक्ति से श्रेष्ठ है, क्योकि स्मरण-भक्ति एकमात्र चंचल मन में ही प्रकाशित होती है और कीर्तन-भक्ति जिह्वा, कान तथा मन में प्रकाशित होती हैं और आस-पास रहने वाले दूसरे जीवों को भी प्रभावित करती है।[29]

श्रीकृष्ण की प्रेम रूप सम्पत्ति प्राप्त करने के लिए नाम-संकीर्तन ही बलवान तथा श्रेष्ठ साधन है, क्योंकि यह आकर्षण-मन्त्री की तरह श्रीकृष्ण को साधक के पास खींच लाने की सामर्थ्य रखता है।[30] पर यदि ध्यान के प्रभाव से समस्त इन्द्रियों की वृत्तियाँ अन्तर्मुख होकर मन की वृत्ति में प्रकाशित हो जायें, अर्थात् ध्यान अवस्था में श्रवण-कीर्तन-दर्शन आदि मन में बाहर की तरह प्रकाश पाने लगें, तो इस प्रकाश का ध्यान बाह्य कीर्तनादि की अपेक्षा श्रेष्ठ है।[31]

वैसे कीर्तन और ध्यान को एक-दूसरे से बिल्कुल प्रथक नहीं समझना चाहिए, क्योंकि कीर्तन से ध्यान का सुख बढ़ता है, ध्यान से कीर्तन का।[32]

साथ ही यह भी ध्यान रखना चाहिए कि साधारण रूप से कीर्तन को सब साधनों से श्रेष्ठ माना गया हैं, तो भी जिसकी जिस साधन में सम्यक प्रीति हो, जिससे उसे पूर्णरूप से सुख प्राप्त होता हो, उसके लिए वही साधन सर्वश्रेष्ठ हैं। उसे उसी का अनुष्ठान करना चाहिए, क्योंकि उसके लिए वह साधन फलरूपी ही है।[33]

इसका यह अर्थ नहीं कि निष्काम भक्ति के अनुष्ठानों के अतिरिक्त कर्म, ज्ञानादि और किसी साधन से प्रेम की प्राप्ति हो सकती है। कर्म, ज्ञानादि साधनों की प्राप्ति और निष्काम भक्ति की प्राप्ति में बहुत अन्तर है। सकाम पुण्यकर्म करने वाले गृहस्थियों को भू: भुव: स्व: इन तीनों लोकों की प्राप्ति होती है। निष्काम-कर्म करने वाले गृहस्थी, नैष्ठिक ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ तथा सन्न्यासियों को, इनसे ऊपर मह: जन: तपं, सत्यं इन चार लोकों की प्राप्ति होती है। भोग समाप्त होने पर यह सब फिर भूमण्डल पर आकर जन्म ग्रहण करते हैं। जो महर्लोकादिकों को प्राप्त होते हैं, उनमें से कोई-कोई ब्रह्मा जी के साथ मुक्त हो जाते हैं। जो भगवान् के सकाम भक्त हैं वे अपनी इच्छा से सब सुख भागों को भोगते हुए, विशुद्ध होकर भगवद्धाम को प्राप्त होते हैं। पर जो भगवान् के निष्काम भक्त हैं, वे तत्क्षण उस वैकुण्ठ को प्राप्त होते हैं, जो सच्चिदानन्द-स्वरूप हैं, और मुक्त पुरुषों को भी दुर्लभ है।[34]

निष्काम भक्ति कर्म-ज्ञानादि के संस्पर्श से मुक्त होनी चाहिए, क्योंकि कर्म से भक्ति में विक्षेप होता हैं, वैराग्य से उसका रस सूख जाता है और ज्ञान से वह नष्ट हो जाता है। इन तीनों से दूर हो जाना ही भक्ति की प्रथम कक्षा है।[35]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. "आमा के ओ बुझाइते तुमि धर शक्ति।
    कत गञि बुझायाछ व्यवहार-भक्ति॥"(चैतन्य चरित 3/4/163
  2. चैतन्य चरित 3/4/73
  3. "शरीरे साधिब आमि बहु प्रयोजन।
    भक्त, भक्ति, कृष्ण-प्रेम तत्वेर निर्धार।
    वैष्णेवेर कृत्य, आर वैष्णव आचार॥
    कृष्ण-भाक्ति, कृष्ण-प्रेम-सेवा प्रवर्तन।
    लुप्त-तीर्थ-उद्धार आर वैराग्य-शिक्षण॥
    निज-प्रिय स्थान मोर मथुरा-वृन्दावन।
    ताहाँ एत धर्म चाहि करिते प्रचारन॥
    (चैतन्य चरित 3/4/73-76
  4. भक्ति रत्नाकर, 5म तरंग, 1305-6
  5. भक्ति रत्नाकर, पंचम तरंग, 1307
  6. "नाभिनन्दामि मरणं नाभिनन्दामि जीवितं।
    कालमेव प्रतीक्षेऽहं निदेशं भृतको यथा॥
  7. व्यासवाणी, 22
  8. 2/1/30-31
  9. 1/806-808
  10. 2/1/30-31
  11. 1/606-608
  12. Dr. D. Sen : The Vaisnava Leterature of Medieval Bengal. hh. 37-38.
  13. भक्ति रत्नाकर 1/198
  14. डॉ. जाना: वृन्दावनेर छय गोस्वामी, पृ0 75।
  15. 1म मंजरी
  16. चैतन्य चरित 2।1।30
  17. भक्ति रत्नाकर 1।807-808
  18. जाना: छय गोस्वामी, पृ0 73
  19. श्री सतीशचन्द्र मित्र द्वारा श्रीजयगोविन्ददास के वृहद्भागवतामृत के बंगला पद्मानुवाद में श्री अतुलचन्द्र गोस्वामी के सम्पादकीय लेख से उद्धृत (सप्त गोस्वामी, पृ0 125
  20. गीता के"ये यथा माँ प्रपद्यन्ते, तांस्तथैच भजाम्यहम्" वाक्य का आशय कुछ लोग यह समझते हैं कि भगवान् उन्हीं का भजन करते हैं, जो उनका भजन करते हैं। पर सनातन गोस्वामी ने इस रहस्य का उद्घाटन किया है कि वे अपने स्वाभाव से उनका भी भजन करने को, (उनकी चिंता करने को) बाध्य हैं, जो उनका भजन नहीं करते।
  21. वृहद्भागवतामृत 2।4।81-87
  22. वृहद्भागवतामृत 2/7/106
  23. वृहद्भागवतामृत 2/2/217-219
  24. वृहद्भागवतामृत 2/2/215
  25. वृहद्भागवतामृत 2/2/209-211
  26. वृहद्भागवतामृत 1/7/135-139
  27. वृहद्भागवतामृत 2/5/215-216
  28. वृहद्भागवतामृत 2/5/215-220
  29. वृहद्भागवतामृत 2/3/148
  30. वृहद्भागवतामृत 2/3/164
  31. वृहद्भागवतामृत 2/3/151
  32. वृहद्भागवतामृत 2/3/153
  33. वृहद्भागवतामृत 2/3/152
  34. वृहद्भागवतामृत 2/1/10-15
  35. वृहद्भागवतामृत 2/2/205

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