"ज़ेबुन्निसा": अवतरणों में अंतर
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''' | {{सूचना बक्सा ऐतिहासिक पात्र | ||
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'''ज़ेबुन्निसा''' ([[अंग्रेजी]]:''Zeb-un-Nisa'', जन्म- [[5 फ़रवरी]], 1639, [[दौलताबाद]]; मृत्यु- 1702, [[सलीमगढ़]]) [[मुग़ल]] [[औरंगज़ेब|बादशाह औरंगज़ेब]] की संतानों में उसकी सबसे बड़ी पुत्री थी। वह काफ़ी प्रतिभाशाली तथा गुणों से सम्पन्न थी। ज़ेबुन्निसा का निकाह उसके चाचा [[दारा शिकोह]] के पुत्र सुलेमान शिकोह से तय हुआ था, किंतु सुलेमान की मृत्यु हो जाने से यह निकाह नहीं हो सका। विद्रोही [[शाहज़ादा अकबर]] के साथ गुप्त पत्र व्यवहार के कारण [[वर्ष]] 1691 ई. में ज़ेबुन्निसा को [[सलीमगढ़|सलीमगढ़ के क़िले]] में बंद कर दिया गया और 1702 ई. में उसकी मृत्यु हो गई। | |||
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==जन्म तथा शिक्षा== | ==जन्म तथा शिक्षा== | ||
[[औरंगज़ेब|बादशाह औरंगज़ेब]] की सबसे बड़ी संतान | [[औरंगज़ेब|बादशाह औरंगज़ेब]] की सबसे बड़ी संतान ज़ेबुन्निसा का जन्म [[5 फ़रवरी]], 1639 ई. को [[दक्षिण भारत]] के [[दौलताबाद]] स्थान पर [[फ़ारस]] के शाहनवाज ख़ाँ की पुत्री बेगम दिलरस बानो ([[रबिया दुर्रानी]]) के गर्भ से हुआ था। बचपन से ही ज़ेबुन्निसा बहुत प्रतिभाशाली और होनहार थी। हफीजा मरियम नामक एक शिक्षिका से उसने शिक्षा प्राप्त की और अल्प समय में ही सारा '[[क़ुरान]] कंठस्थ कर लिया। विभिन्न [[लिपि|लिपियों]] की बहुत सुंदर और साफ लिखावट की कला में वह दक्ष थी।<ref name="aa">{{cite web |url=http://bharatkhoj.org/india/%E0%A4%9C%E0%A5%87%E0%A4%AC%E0%A5%81%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%B8%E0%A4%BE |title=ज़ेबुन्निसा |accessmonthday=21 मार्च|accessyear= 2014|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिन्दी}}</ref> | ||
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ज़ेबुन्निसा अपनी बाल्यावस्था से ही पहले [[अरबी भाषा|अरबी]] और फिर [[फ़ारसी भाषा|फ़ारसी]] में 'मखफी', अर्थात् 'गुप्त' उपनाम से [[कविता]] लिखने लगी थी। उसकी मँगनी [[शाहजहाँ]] की इच्छा के अनुसार उसके चाचा [[दारा शिकोह]] के पुत्र तथा अपने चचेरे भाई [[सुलेमान शिकोह]] से हुई, किंतु सुलेमान शिकोह की असमय ही मृत्यु हो जाने से यह [[विवाह]] नहीं हो सका। | |||
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ज़ेबुन्निसा को उसका [[दारा शिकोह]] बहुत प्यार करता था और वह [[सूफ़ी मत|सूफ़ी]] प्रवृत्ति की धर्मपरायण स्त्री थी। ज़ेबुन्निसा को चार लाख [[रुपया|रुपये]] का जो वार्षिक भत्ता मिलता था, उसका अधिकांश भाग वह विद्वानों को प्रोत्साहन देने, विधवाओं तथा अनाथों की सहायता करने और प्रतिवर्ष '[[मक्का (अरब)|मक्का मदीना]]' के लिये तीर्थयात्री भेजने में खर्च करती थी। उसने बहुत सुंदर पुस्तकालय तैयार किया था और सुंदर अक्षर लिखने वालों से दुर्लभ तथा बहुमूल्य पुस्तकों की नकल करावायी। | |||
====अनुवाद कार्य==== | ====अनुवाद कार्य==== | ||
ज़ेबुन्निसा ने प्रस्ताव के अनुसार साहित्यिक कृतियाँ तैयार करने वाले बहुत-से विद्वानों को अच्छे वेतन पर रखा और अपने अनुग्रहपात्र मुल्ला सैफुद्दीन अर्दबेली की सहायता से [[अरबी भाषा|अरबी]] के [[ग्रंथ]] तफ़सीरे कबीर (महत् टीका) का 'जेबुन तफ़ासिर' नाम से [[फ़ारसी भाषा|फ़ारसी]] में अनुवाद किया।<ref name="aa"/> | |||
===कवियित्री=== | |||
सत्रहवीं सदी की बेहतरीन कवियित्री जेबुन्निसा उर्फ मखफी की कहानी [[मध्यकाल]] की सबसे त्रासद कहानियों में एक रही है। ज़ेबुन्निसा को अपने पिता के परस्पर-विरोधी कई व्यक्तित्वों में से उसका शायराना व्यक्तित्व विरासत में मिला था। 14 साल की उम्र में ही उसने मखफी उपनाम से [[फ़ारसी भाषा|फ़ारसी]] में शेर, [[ग़ज़ल]] और रुबाइयां कहनी शुरू कर दी थीं। [[औरंगजेब]] के दरबार में मुशायरों पर प्रतिबंध की वज़ह से ज़ेबुन्निसा चुपके-चुपके अदब की गोपनीय महफ़िलों में शिरक़त करती थी। उन महफ़िलों में उस दौर के प्रसिद्ध शायर अक़ील खां रज़ी, नेमतुल्लाह खां, गनी कश्मीरी आदि शामिल होते थे। मुशायरों के दौरान शायर अक़ील खां रज़ी से उसकी बेपनाह मुहब्बत चर्चा का विषय बनी तो अनुशासन के पाबन्द औरंगजेब ने उसे [[दिल्ली]] के [[सलीमगढ़]] के क़िले में क़ैद कर दिया। | |||
जेबुन्निसा आजीवन अविवाहित रही। उसकी ज़िन्दगी के आखिरी बीस साल क़ैद की तन्हाई में ही गुज़रे और क़ैद में ही उसकी मौत हुई। क़ैद के मुश्किल दिनों में ही उसके [[कविता]] संकलन ‘दीवान-ए-मखफी‘ की [[पांडुलिपि]] तैयार हुई, जिसमें उसकी 5000 से ज्यादा ग़ज़लें, शेर और [[रुबाई|रुबाईयां]] संकलित हैं। इस दीवान की पांडुलिपियां पेरिस और [[लंदन]] की नेशनल लाइब्रेरियों में आज भी सुरक्षित हैं। पहली बार [[1929]] में दिल्ली से और [[2001]] में तेहरान से इसका प्रकाशन हुआ। [[मिर्ज़ा ग़ालिब]] के पहले ज़ेबुन्निसा ऐसी अकेली शायरा थी, जिसकी ग़ज़लों और रुबाईयों के अनुवाद [[उर्दू]], [[अंग्रेज़ी]] और फ्रेंच समेत कई भाषाओं में हुए थे। उसकी एक रुबाई का अंग्रेज़ी अनुवाद इस प्रकार है-<ref>{{cite web |url=http://www.livevns.com/2013/10/08/%E0%A4%8F%E0%A4%95-%E0%A4%A5%E0%A5%80-%E0%A4%9C%E0%A5%87%E0%A4%AC%E0%A5%81%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%B8%E0%A4%BE/ |title=एक थी जेबुन्निसा|accessmonthday=16 अगस्त|accessyear=2016 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=livevns.com |language=हिन्दी}}</ref> | |||
<poem> | |||
वो नज़र जब मुझ पर गिरी थीं पहली बार | |||
मैं सहसा अनुपस्थित हो गई थी | |||
वो तुम्हारी नज़र नहीं, खंज़र थी शायद | |||
जो मेरे जिस्म में समाई | |||
और लहू के धब्बे लिए बाहर निकल आई थी | |||
आप ग़लत हैं, दोस्त | |||
यह कोई दोज़ख नहीं, जन्नत है | |||
मत करो मुझसे अगले किसी जन्म का वादा | |||
वर्तमान के तमाम दर्द | |||
सभी बेचैनियां लिए जज़्ब हो जाओ मुझमें | |||
मत भटकाओ मुझे काबे के रास्तों में | |||
वहां नहीं, यहीं कहीं मिलेगा खुदा | |||
किसी चेहरे से झरते नूर | |||
किसी नशीले लम्हे की खूबसूरती में | |||
वहीं, वहीं कहीं होगी पाकीज़गी | |||
जहां तुम सौंप दोगे अपनी बेशुमार ख्वाहिशें | |||
अपनी ज़ेबुन्निसा को | |||
जो सदियों से तुम्हारा ही इंतज़ार कर रही है!</poem> | |||
==नज़रबंदी तथा मृत्यु== | ==नज़रबंदी तथा मृत्यु== | ||
अपने [[पिता]] [[औरंगज़ेब]] के विरुद्ध विद्रोह करने वाले शाहज़ादा अकबर के साथ गुप्त पत्र-व्यवहार का पता चल जाने पर | अपने [[पिता]] [[औरंगज़ेब]] के विरुद्ध विद्रोह करने वाले [[शाहज़ादा अकबर]] के साथ गुप्त पत्र-व्यवहार का पता चल जाने पर ज़ेबुन्निसा का निजी भत्ता बंद कर दिया, जमींदारी जब्त कर ली गई और उसे [[जनवरी]], 1691 में [[दिल्ली]] के [[सलीमगढ़|सलीमगढ़ क़िले]] में नजरबंद कर दिया गया। ज़ेबुन्निसा की मृत्यु 1702 में हुई। उसे काबुली गेट के बाहर 'तीस हज़ारा बाग़' में दफ़नाया गया। | ||
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12:25, 25 अक्टूबर 2017 के समय का अवतरण
ज़ेबुन्निसा
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पूरा नाम | ज़ेबुन्निसा |
जन्म | 5 फ़रवरी, 1639 ई. |
जन्म भूमि | दौलताबाद, दक्षिण भारत |
मृत्यु तिथि | 1702 ई. |
मृत्यु स्थान | सलीमगढ़ का क़िला, दिल्ली |
पिता/माता | पिता-औरंगज़ेब, माता-रबिया दुर्रानी |
धार्मिक मान्यता | वह सूफ़ी प्रवृत्ति की धर्मपरायण स्त्री थी। |
वंश | मुग़ल वंश |
संबंधित लेख | मुग़ल साम्राज्य, मुग़ल वंश, मुग़ल काल, औरंगज़ेब, रबिया दुर्रानी। |
विशेष | ज़ेबुन्निसा ने 14 वर्ष की उम्र से ही मखफी उपनाम से फ़ारसी में शेर, ग़ज़ल और रुबाईयां कहना शुरू कर दिया था और अल्प समय में ही सारा 'क़ुरान कंठस्थ कर लिया था। |
अन्य जानकारी | सत्रहवीं सदी की बेहतरीन कवियित्री ज़ेबुन्निसा उर्फ मखफी की कहानी मध्यकाल की सबसे त्रासद कहानियों में एक रही है। |
अद्यतन | 13:31, 14 अगस्त 2016 (IST)
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ज़ेबुन्निसा (अंग्रेजी:Zeb-un-Nisa, जन्म- 5 फ़रवरी, 1639, दौलताबाद; मृत्यु- 1702, सलीमगढ़) मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब की संतानों में उसकी सबसे बड़ी पुत्री थी। वह काफ़ी प्रतिभाशाली तथा गुणों से सम्पन्न थी। ज़ेबुन्निसा का निकाह उसके चाचा दारा शिकोह के पुत्र सुलेमान शिकोह से तय हुआ था, किंतु सुलेमान की मृत्यु हो जाने से यह निकाह नहीं हो सका। विद्रोही शाहज़ादा अकबर के साथ गुप्त पत्र व्यवहार के कारण वर्ष 1691 ई. में ज़ेबुन्निसा को सलीमगढ़ के क़िले में बंद कर दिया गया और 1702 ई. में उसकी मृत्यु हो गई।
जन्म तथा शिक्षा
बादशाह औरंगज़ेब की सबसे बड़ी संतान ज़ेबुन्निसा का जन्म 5 फ़रवरी, 1639 ई. को दक्षिण भारत के दौलताबाद स्थान पर फ़ारस के शाहनवाज ख़ाँ की पुत्री बेगम दिलरस बानो (रबिया दुर्रानी) के गर्भ से हुआ था। बचपन से ही ज़ेबुन्निसा बहुत प्रतिभाशाली और होनहार थी। हफीजा मरियम नामक एक शिक्षिका से उसने शिक्षा प्राप्त की और अल्प समय में ही सारा 'क़ुरान कंठस्थ कर लिया। विभिन्न लिपियों की बहुत सुंदर और साफ लिखावट की कला में वह दक्ष थी।[1]
प्रतिभाशाली
ज़ेबुन्निसा अपनी बाल्यावस्था से ही पहले अरबी और फिर फ़ारसी में 'मखफी', अर्थात् 'गुप्त' उपनाम से कविता लिखने लगी थी। उसकी मँगनी शाहजहाँ की इच्छा के अनुसार उसके चाचा दारा शिकोह के पुत्र तथा अपने चचेरे भाई सुलेमान शिकोह से हुई, किंतु सुलेमान शिकोह की असमय ही मृत्यु हो जाने से यह विवाह नहीं हो सका।
धर्मपरायण
ज़ेबुन्निसा को उसका दारा शिकोह बहुत प्यार करता था और वह सूफ़ी प्रवृत्ति की धर्मपरायण स्त्री थी। ज़ेबुन्निसा को चार लाख रुपये का जो वार्षिक भत्ता मिलता था, उसका अधिकांश भाग वह विद्वानों को प्रोत्साहन देने, विधवाओं तथा अनाथों की सहायता करने और प्रतिवर्ष 'मक्का मदीना' के लिये तीर्थयात्री भेजने में खर्च करती थी। उसने बहुत सुंदर पुस्तकालय तैयार किया था और सुंदर अक्षर लिखने वालों से दुर्लभ तथा बहुमूल्य पुस्तकों की नकल करावायी।
अनुवाद कार्य
ज़ेबुन्निसा ने प्रस्ताव के अनुसार साहित्यिक कृतियाँ तैयार करने वाले बहुत-से विद्वानों को अच्छे वेतन पर रखा और अपने अनुग्रहपात्र मुल्ला सैफुद्दीन अर्दबेली की सहायता से अरबी के ग्रंथ तफ़सीरे कबीर (महत् टीका) का 'जेबुन तफ़ासिर' नाम से फ़ारसी में अनुवाद किया।[1]
कवियित्री
सत्रहवीं सदी की बेहतरीन कवियित्री जेबुन्निसा उर्फ मखफी की कहानी मध्यकाल की सबसे त्रासद कहानियों में एक रही है। ज़ेबुन्निसा को अपने पिता के परस्पर-विरोधी कई व्यक्तित्वों में से उसका शायराना व्यक्तित्व विरासत में मिला था। 14 साल की उम्र में ही उसने मखफी उपनाम से फ़ारसी में शेर, ग़ज़ल और रुबाइयां कहनी शुरू कर दी थीं। औरंगजेब के दरबार में मुशायरों पर प्रतिबंध की वज़ह से ज़ेबुन्निसा चुपके-चुपके अदब की गोपनीय महफ़िलों में शिरक़त करती थी। उन महफ़िलों में उस दौर के प्रसिद्ध शायर अक़ील खां रज़ी, नेमतुल्लाह खां, गनी कश्मीरी आदि शामिल होते थे। मुशायरों के दौरान शायर अक़ील खां रज़ी से उसकी बेपनाह मुहब्बत चर्चा का विषय बनी तो अनुशासन के पाबन्द औरंगजेब ने उसे दिल्ली के सलीमगढ़ के क़िले में क़ैद कर दिया।
जेबुन्निसा आजीवन अविवाहित रही। उसकी ज़िन्दगी के आखिरी बीस साल क़ैद की तन्हाई में ही गुज़रे और क़ैद में ही उसकी मौत हुई। क़ैद के मुश्किल दिनों में ही उसके कविता संकलन ‘दीवान-ए-मखफी‘ की पांडुलिपि तैयार हुई, जिसमें उसकी 5000 से ज्यादा ग़ज़लें, शेर और रुबाईयां संकलित हैं। इस दीवान की पांडुलिपियां पेरिस और लंदन की नेशनल लाइब्रेरियों में आज भी सुरक्षित हैं। पहली बार 1929 में दिल्ली से और 2001 में तेहरान से इसका प्रकाशन हुआ। मिर्ज़ा ग़ालिब के पहले ज़ेबुन्निसा ऐसी अकेली शायरा थी, जिसकी ग़ज़लों और रुबाईयों के अनुवाद उर्दू, अंग्रेज़ी और फ्रेंच समेत कई भाषाओं में हुए थे। उसकी एक रुबाई का अंग्रेज़ी अनुवाद इस प्रकार है-[2]
वो नज़र जब मुझ पर गिरी थीं पहली बार
मैं सहसा अनुपस्थित हो गई थी
वो तुम्हारी नज़र नहीं, खंज़र थी शायद
जो मेरे जिस्म में समाई
और लहू के धब्बे लिए बाहर निकल आई थी
आप ग़लत हैं, दोस्त
यह कोई दोज़ख नहीं, जन्नत है
मत करो मुझसे अगले किसी जन्म का वादा
वर्तमान के तमाम दर्द
सभी बेचैनियां लिए जज़्ब हो जाओ मुझमें
मत भटकाओ मुझे काबे के रास्तों में
वहां नहीं, यहीं कहीं मिलेगा खुदा
किसी चेहरे से झरते नूर
किसी नशीले लम्हे की खूबसूरती में
वहीं, वहीं कहीं होगी पाकीज़गी
जहां तुम सौंप दोगे अपनी बेशुमार ख्वाहिशें
अपनी ज़ेबुन्निसा को
जो सदियों से तुम्हारा ही इंतज़ार कर रही है!
नज़रबंदी तथा मृत्यु
अपने पिता औरंगज़ेब के विरुद्ध विद्रोह करने वाले शाहज़ादा अकबर के साथ गुप्त पत्र-व्यवहार का पता चल जाने पर ज़ेबुन्निसा का निजी भत्ता बंद कर दिया, जमींदारी जब्त कर ली गई और उसे जनवरी, 1691 में दिल्ली के सलीमगढ़ क़िले में नजरबंद कर दिया गया। ज़ेबुन्निसा की मृत्यु 1702 में हुई। उसे काबुली गेट के बाहर 'तीस हज़ारा बाग़' में दफ़नाया गया।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 ज़ेबुन्निसा (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 21 मार्च, 2014।
- ↑ एक थी जेबुन्निसा (हिन्दी) livevns.com। अभिगमन तिथि: 16 अगस्त, 2016।