सुख -वैशेषिक दर्शन
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महर्षि कणाद ने वैशेषिकसूत्र में द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय नामक छ: पदार्थों का निर्देश किया और प्रशस्तपाद प्रभृति भाष्यकारों ने प्राय: कणाद के मन्तव्य का अनुसरण करते हुए पदार्थों का विश्लेषण किया।
सुख का स्वरूप
- जिसको सभी प्राणी चाहें या जो सब लोगों को अनुकूल लगे, वह सुख कहलाता है। सुख न्याय-वैशेषिक के अनुसार आत्मा का एक विशेष गुण है। कतिपय आचार्यों के मत में 'मैं सुखी हूँ' इस प्रकार के अनुव्यवसाय में जिस ज्ञान की प्रतीति होती है, वह सुख कहलाता है। आत्मा के उस गुण को भी कतिपय आचार्यों ने सुख कहा है, जिसका असाधारण कारण धर्म है।
- प्रशस्तपादभाष्य में कारण भेद से चार प्रकार के सुखों का उल्लेख किया गया है-
- सामान्यसुख, जो कि प्रिय वस्तुओं की उपलब्धि, अनुषंग आदि से प्राप्त होता है;
- स्मृतिसुख, जो कि भूतकाल के विषयों के स्मरण से होता है,
- संकल्पज, जो अनागत विषयों के संकल्प से होता है और
- विद्या शमसन्तोषादिजन्यसुख, जो कि पूर्वोक्त तीन प्रकार के कारणों से भिन्न विद्या आदि से जन्य एक विशिष्ट सुख होता है।
- सुख का वर्गीकरण (क) स्वकीय और (ख) परकीय भेद से भी किया जा सकता है। अपने सुख का तो अनुभव होता है, किन्तु परकीय सुख तो अनुमान द्वारा होता है। एक अन्य प्रकार का वर्गीकरण। (क) लौकिक और (ख) पारलौकिक रूप से भी हो सकता है। लौकिक सुख के भी निम्नलिखित भेद माने जा सकते हैं-
- वैषयिक, जो सांसारिक वस्तुओं के भोग से मिलता है;
- मानसिक, जो कि इच्छित विषयों के अनुसरण से प्राप्त होता है;
- आभ्यासिक, जो किसी क्रिया के लगातार करते रहने से प्राप्त होता है; और
- आभिमानिक, जो वैदुष्य आदि धर्मों के आरोप की अनुभूति से प्राप्त होता है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
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