द्रव्य -वैशेषिक दर्शन

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  • महर्षि कणाद ने वैशेषिकसूत्र में द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय नामक छ: पदार्थों का निर्देश किया और प्रशस्तपाद प्रभृति भाष्यकारों ने प्राय: कणाद के मन्तव्य का अनुसरण करते हुए पदार्थों का विश्लेषण किया।
  • वैशेषिकों ने पूर्वोक्त प्रकार से सात पदार्थों का उल्लेख किया है और ब्रह्माण्ड की समस्त वस्तुओं को सात वर्गों में वर्गीकृत किया है। पदार्थों की संख्या के सम्बन्ध में वैशेषिक के विभिन्न आचार्यों और विभिन्न दार्शनिकों में मतभेद हैं, द्रव्य का सामान्य स्वरूप, द्रव्यों के लक्षण और उनके प्रमुख भेदों का संक्षेप में उल्लेख करेंगे।

द्रव्य का लक्षण

  • वैशेषिक दर्शन में मुख्यत: इस दृष्टिकोण के आधार पर पदार्थों का विवेचन किया गया कि पदार्थों में समानत: साधर्म्य है और आन्तरिक विभिन्नता उनका निजी वैशिष्ट्य है, जो उन्हें उनके वर्ग की अन्य वस्तुओं से पृथक् करती है। कणाद ने द्रव्य के लक्षण का निरूपण करते हुए यह प्रतिपादित किया कि कार्य का समवायिकारण और गुण एवं क्रिया का आश्रयभूत पदार्थ ही

द्रव्य है।[1] पृथ्वी आदि नौ द्रव्यों का इस लक्षण से युक्त होना ही उनका साधर्म्य है। इस लक्षण को कणादोत्तरवर्ती प्राय: सभी वैशेषिकों ने अपने द्रव्यपरक चिन्तन का आधार बनाया, किन्तु उनके विचारों में कहीं-कहीं कुछ अन्तर भी दिखाई देता है।

  • कणाद के उपर्युक्त लक्षण का आशय यह है कि द्रव्य
  1. कर्म का आश्रय है,
  2. गुणों का आश्रय है और
  3. कार्यों का समवायिकारण है।
  • कतिपय उत्तरवर्ती आचार्यों ने इन तीनों घटकों में से किसी एक को ही द्रव्य का लक्षण मानने की अवधारणाओं का भी विश्लेषण किया। उनमें से कतिपय ने इस आशंका का भी उद्भावन किया कि 'जो कर्म का आश्रय हो वह द्रव्य है'- यदि कणाद सूत्र का केवल यही एक घटक द्रव्य का लक्षण माना जाएगा, तो इसमें अव्याप्ति दोष आ जायेगा, क्योंकि आकाश, काल और दिक भी पदार्थ हैं जबकि वे निष्क्रिय हैं, उनमें कर्म होता ही नहीं है। यद्यपि प्रत्येक क्रियाशील पदार्थ द्रव्य माना जा सकता है, किन्तु प्रत्येक द्रव्य को क्रियाशील नहीं माना जा सकता। 'जो गुणों का आश्रय हो वह द्रव्य है' केवल इस घटक को भी कुछ आचार्यों ने द्रव्य का पूर्ण लक्षण मान लिया।[2] किन्तु इस संदर्भ में यह आपत्ति की जाती है कि 'उत्पत्ति के प्रथम क्षण में पदार्थ गुणरहित होता है।' अत: यह लक्षण अव्याप्त है।
  • परन्तु इस आपत्ति का उत्तर देते हुए उदयनाचार्य ने कहा कि द्रव्य कभी भी गुणों के अत्यन्ताभाव का अधिकरण नहीं होता। इस कथन का यह आशय है कि उत्पत्ति के प्रथम क्षण में भले ही द्रव्य में गुणाश्रयता न हो, किन्तु उस समय भी उसमें गुणों का आश्रय बनने की शक्ति तो रहती ही है और इस प्रकार द्रव्य गुणों के अत्यन्ताभाव का अनधिकरण है।[3]
  • चित्सुखाचार्य आदि आचार्यों ने केवल इस घटक को ही पूर्ण लक्षण मानने पर आपत्ति की, अत: इस लक्षण को भी निर्विवाद नहीं कहा जा सकता। बौद्ध दर्शन में धर्मों को क्षण रूप में सत माना गया है तथा धर्मी या द्रव्य को असत। पुञ्ज (समुदाय) के अतिरिक्त अवयवी नाम की कोइर वस्तु नहीं है। सारे तन्तु अलग कर दिये जाएँ तो पट का कोइर अस्तित्व नहीं रहता। अत: द्रव्य की संकल्पना मात्र पर भी विप्रतिपत्ति करते हुए बौद्धों ने यह तर्क दिया कि गुणों से पृथक् द्रव्य की कोई सत्ता नहीं है, जैसे कि चक्षु आदि इन्द्रियों के द्वारा रूप आदि का ही ग्रहण होता है। रूप के बिना किसी ऐसी वस्तु का हमें अलग से प्रत्यक्ष नहीं होता, जिसमें वह रूप, गुण रहता हो, जो वस्तुओं को संश्लिष्ट रूप में प्रस्तुत कर देती है। अत: बौद्ध मतानुसार गुणों से पृथक् द्रव्य का कोई अस्तित्व नहीं है।[4]
  • बौद्धों के इस आक्षेप का उत्तर न्याय-वैशेषिक में इस प्रकार दिया गया है कि यदि द्रव्य जैसे घट केवल रूप (नील) स्पर्श आदि गुणों का समुदायमात्र होता तो एक ही आश्रय द्रव्य के सम्बन्ध में दो भिन्न-भिन्न गुणों जैसे देखने (रूप) और छूने (स्पर्श) का निर्देश नहीं हो सकता था।[5] अत: यह सिद्ध होता है कि आश्रयभूत द्रव्य (घट) रूप और स्पर्श का समुदाय मात्र नहीं, अपितु उनसे पृथक् एवं स्वतंत्र अवयवी है।
  • यह ज्ञातव्य है कि सांख्य में धर्मी और धर्मों का तत्त्वत: अभिन्न माना गया है। वेदान्त में तत्त्वत: धर्मों को असत और धर्मी को सत माना गया है।
  • वैशेषिक में धर्म और धर्मी दोनों को वस्तुसत माना गया है। 'जो समवायिकारण हो वही द्रव्य है' कणादसूत्र के केवल इस तृतीय घटक को ही द्रव्य की पूर्ण परिभाषा मानने की अवधारणा का भी अनेक उत्तरवर्ती आचार्यों ने समर्थन किया है।[6]
  • इन आचार्यो के कथनों का सार यह है कि समवायिकारण वह होता है, जिसमें समवेत रहकर ही कार्य उत्पन्न होता है। प्रत्येक कार्य की समवेतता द्रव्य पर आश्रित है। संयोग और विभाग नामक कार्य विभु द्रव्यों से भी सम्बद्ध है।[7] इन आचार्यों का यह मत है कि इस आंशिक घटक को ही पूरा लक्षण मानने में कोई दोष नहीं है। कणादसूत्र के तीन घटकों पर आधारित उपर्युक्त तीन पृथक्-पृथक् परिभाषाओं की स्वत:पूर्ण स्वतन्त्र अवधारणाओं के प्रवर्तन के बावजूद सामान्यत: इन तीनों घटकों को एक साथ रखकर तथा तीनों के समन्वित आशय को ध्यान में रखते हुए यह कहना उपयुक्त होगा कि कणाद के अनुसार द्रव्य वह है जो क्रिया का समवायिकारण तथा गुण और कर्म का आश्रय हो। 'द्रव्यत्व जाति से युक्त एवं गुण का जो आश्रय हो, वह द्रव्य है'[8] – इस जातिघटित लक्षण की रीति से भी द्रव्य के लक्षण का उल्लेख प्रशस्तपादभाष्य, व्योमवती, किरणावली, सप्तपदार्थी आदि ग्रन्थों में मिलता है, किन्तु चित्सुख ने इस मत की आलोचना करते हुए इस संदर्भ में यह कहा कि द्रव्यत्व जाति में कोई प्रमाण नहीं है। किन्तु सिद्धान्त चन्द्रोदय आदि ग्रन्थों में यह बताया गया है कि द्रव्यत्व जाति की स्वतंत्र सत्ता है और वह प्रत्यक्ष अथवा अनुमान प्रमाण से ज्ञात होती है।
  • श्रीधराचार्य ने पूर्व पक्ष के रूप में यह शंका उठाई कि जल को देखने के अनन्तर अग्नि को देखने पर 'यह वही है'- ऐसी अनुगत प्रतीति नहीं होती। अत: द्रव्यत्व नाम की कोइर जाति कैसे मानी जा सकती है और न्यायकन्दली में इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया कि गुण और कर्म का आश्रय होने के अतिरिक्त द्रव्य की अपनी स्वतन्त्र सत्ता है। अत: द्रव्य उसको कहते हैं, जिसकी स्वप्राधान्य रूप से स्वतन्त्र प्रतीति हो। इसका आशय यह हुआ कि द्रव्य वह है, जिसकी अपनी प्रतीति के लिए किसी अन्य आश्रय की आवश्यकता नहीं होती। यही स्वातन्त्र्य द्रव्य का द्रव्यत्व है, जो जल और आग को एक ही वर्ग में रख सकता है। यद्यपि चित्सुख जैसे आचार्यों ने स्वातन्त्र्य को द्रव्य की जाति के रूप में स्वीकार नहीं किया, तथापि वैशेषिक नय में श्रीधर के इस मत को उत्तरवर्ती आचार्यों से अत्यधिक आदर प्राप्त हुआ। संक्षेपत: उपर्युक्त कथनों को यदि एक साथ रखा जा सके तो हम यह कह सकते हैं कि पदार्थ वह है, जो किसी कार्य का समवायिकारण हो, गुण और कर्म का आश्रय हो, द्रव्यत्व जाति से युक्त हो, और जिसकी स्वप्राधान्य रूप से स्वतन्त्र प्रतीति हो।[9]

वैशेषिक में द्रव्य के भेद

निम्नाकित नौ भेद माने गये हैं।[10]
  1. पृथ्वी
  2. अप
  3. तेज
  4. वायु
  5. आकाश
  6. काल
  7. दिक
  8. आत्मा
  9. मन
  • इन नौ द्रव्यों में पृथ्वी, जल, तेज- ये तीन अनित्य द्रव्य हैं,
  • वायु, आकाश, काल, दिशा, आत्मा और मन- ये छ: नित्य द्रव्य हैं।
  • कुछ आचार्य वायु को भी अनित्य द्रव्य मानते हैं।
  • भाट्ट मीमांसकों के मतानुसार तमस और शब्द भी अतिरिक्त द्रव्य हैं।
  • किन्तु वैशेषिकों के अनुसार तमस प्रकाश का अभावमात्र है और शब्द भी पृथक् द्रव्य नहीं है।
  • कन्दलीकार के अनुसार आत्मा नामक द्रव्य में ईश्वर का समावेश भी हो जाता है। अत: प्रशस्तपाद आरम्भ में ही यह कह देते हैं कि वैशेषिक नय में द्रव्य केवल नौ ही मान्य हैं। अन्य दर्शनों में इन नौ से अतिरिक्त जो द्रव्य माने गये हैं, वे वैशेषिकों के अनुसार पृथक् द्रव्यों के रूप में स्वीकार करने योग्य नहीं हैं।[11]
  • रघुनाथ शिरोमणि ने दिक, काल और आकाश को ईश्वर (आत्मा) में अन्तर्भूत मानकर तथा मन को असमवेत भूत कहकर द्रव्यों की संख्या पाँच तक ही सीमित करने की अवधारणा प्रवर्तित की।[12] किन्तु इस बात का वैशेषिक नय पर कोई प्रभाव नहीं दिखाई पड़ता।
  • वेणीदत्त ने पदार्थमण्डन नामक ग्रन्थ में रघुनाथ शिरोमणि की मान्यताओं का प्रबल रूप से खण्डन किया।[13] अत: यही मानना ही तर्कसंगत है कि वैशेषिक दर्शन में नौ ही द्रव्य माने गये हैं।
  • परिगणित नौ द्रव्यों में से प्रथम पाँच, पंचमहाभूत संज्ञा से अधिक विख्यात हैं।

इन्हें भी देखें: वैशेषिक दर्शन की तत्त्व मीमांसा एवं कणाद


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. क्रियागुणवत् समवायिकारणमिति द्रव्यलक्षणम्, वैशेषिक सूत्र 1.1.5
  2. गुणाश्रयो द्रव्यम्, न्या. ली., पृ. 7; त. भा. पृ. 5
  3. तत्र गुणात्यन्ताभावानधिकरणं द्रव्यम् ल.व., पृ. 2
  4. तत्त्वसंग्रह:, श्लो. 564-574
  5. न च द्वाभ्याम् इन्द्रियाभ्याम् एकार्थग्रहणम् विना प्रतिसन्धानं न्याय्यम्; व्यो. पृ. 44
  6. तत्र समवायिकारणं द्रव्यम्, त.भा.पृ. 239
  7. कालाकाशादीनां संयोगविभागजनकत्वेन कर्मवत् सत्तेतरजातिमत्त्वसिद्धे:, न्या.ली. पृ. 94-97
  8. द्रव्यत्वजातिमत्त्वं गुणवत्त्वं वा द्रव्यसामान्यलक्षणम्, त.दी. पृ. 4
  9. चित्सुखी, पृ. 302
  10. वैशेषिकसूत्र 1.1.5
  11. प्र. भा. पृ. 4
  12. पृथिव्यप्तेजोवाय्यवात्मान इति पञ्चैव द्रव्याणि, व्योमादेरीश्वरात्मन्येवान्तर्भूतत्वात् मनसश्चासमवेतभूतेऽन्तर्भावादित्याहुर्नवीना:, दिनकरी न्या.सि.मु. पृ.46
  13. पदार्थमण्डन

बाहरी कड़ियाँ

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