पृथ्वी -वैशेषिक दर्शन
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- महर्षि कणाद ने वैशेषिकसूत्र में द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय नामक छ: पदार्थों का निर्देश किया और प्रशस्तपाद प्रभृति भाष्यकारों ने प्राय: कणाद के मन्तव्य का अनुसरण करते हुए पदार्थों का विश्लेषण किया।
- कणाद के अनुसार रूप, रस, गन्ध और स्पर्श ये चारों गुण जिसमें समवाय सम्बन्ध से रहते हों वह पृथ्वी है।[1]
- प्रशस्तपाद ने इन चारों गुणों में दस अन्य गुण यानी संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, गुरुत्व, द्रवत्व और संस्कार जोड़ते हुए यह बताया कि पृथ्वी में चौदह गुण पाये जाते हैं। इनमें से गन्ध पृथ्वी का व्यावर्तक गुण हैं।[2]
- रूप, रस और स्पर्श विशेष गुण हैं और शेष दस सामान्य गुण हैं। पृथ्वी दो प्रकार की है।
- नित्य- परमाणुरूप और
- अनित्य परमाणुजन्य कार्यरूप।
- पृथ्वी के कार्यरूप परमाणुओं में
- शरीर
- इन्द्रिय और विषय के भेद से तीन प्रकार का द्रव्यारम्भकत्व माना जाता है।
- पार्थिव शरीर भोगायतन होता है। शरीर मुख्यत: पृथ्वी के परमाणुओं से निर्मित और गन्धवान होता है, अत: वैशेषिकों ने शरीर को पार्थिव ही माना है, पांचभौतिक नहीं।
- वैशेषिकों के अनुसार पार्थिव परमाणु शरीर के उपादान कारण और अन्य भूतों के परमाणु उनके निमित्त कारण होते हैं, किन्तु लोकप्रसिद्ध के कारण पाँचों भूतों के परमाणुओं को शरीर का उपादान कारण माना जाता है।
- अत: शरीर का पांचभौतिकत्व प्रख्यात हो गया, जिस पर वैशेषिक मत का काई ख़ास प्रभाव नहीं पड़ा। शरीर से संयुक्त, अपरोक्ष प्रतीति के साधन तथा अतीन्द्रिय द्रव्य को इन्द्रिय कहा जाता है। इन्द्रियों में से घ्राणेन्द्रिय ही गन्ध को ग्रहण करती है अत: घ्राणेन्द्रिय ही मुख्यत: पार्थिव इन्द्रिय हैं।[3]
- पार्थिव द्रव्य के तृतीय भेद के अन्तर्गत सभी शरीररहित और इन्द्रियरहित विषय आते हैं।[4]
- पृथ्वी की परिभाषा में कणाद और प्रशस्तपाद ने अनेक गुणों का उल्लेख किया था; किन्तु वैशेषिक चिन्तन के विकास क्रम के साथ अन्तत: यह बात मान्य हो गई कि जो गन्धवती हो, वह पृथ्वी है।[5]
- पृथ्वी का ज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण से होता है।
इन्हें भी देखें: वैशेषिक दर्शन की तत्त्व मीमांसा एवं कणाद
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