गुण -वैशेषिक दर्शन

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  • कणाद के अनुसार समवाय सम्बन्ध से द्रव्य में आश्रय लेने का जिसका स्वभाव हो, जो स्वयं गुण का आश्रय न हो, संयोग और विभाग का कारण न हो और अन्य किसी की अपेक्षा न रखता हो, वह गुण नामक पदार्थ है।[1]
  • प्रशस्तपाद ने यह बताया कि गुणत्व का समवायी होना, द्रव्य में आश्रित होना, गुणरहित होना, क्रियारहित होना सभी गुणों का साधर्म्य है।[2]
  • केशवमिश्र के मत में जो सामान्य जाति से असमवायिकारण बनने वाला हो, स्पन्दन रहित क्रियावान न हो और द्रव्य पर आश्रित हो, वह गुण कहलाता है।[3]
  • विश्वनाथ ने द्रव्याश्रित निर्गुण और निष्क्रिय हो गुण कहा है।[4]
  • कणाद ने निम्नलिखित सत्रह गुणों का उल्लेख किया है-
  1. रूप
  2. रस
  3. गन्ध
  4. स्पर्श
  5. संख्या
  6. परिमाण
  7. संयोग
  8. विभाग
  9. परत्व और अपरत्व
  10. बुद्धि
  11. सुख
  12. दु:ख
  13. इच्छा
  14. द्वेष
  15. प्रयत्न
  • प्रशस्तपाद ने वैशेषिकसूत्र (1-1-6) में उल्लिखित 'च' पद को आधार बनाकर निम्नलिखित सात गुणों को जोड़कर गुणों की संख्या 24 तक पहुँचा दी-
  1. गुरुत्व
  2. द्रवत्व
  3. स्नेह
  4. संस्कार
  5. धर्म और अधर्म
  6. शब्द
  • शंकर मिश्र के मतानुसार कणाद ने इन सात गुणों का परिगणन नहीं किया क्योंकि ये तो प्रसिद्ध हैं ही।
  • कुछ विद्वानों ने
  1. लघुत्व
  2. मृदुत्व
  3. कठिनत्व
  4. आलस्य

उक्त को जोड़कर गुणों की संख्या 28 करने का प्रयत्न किया है।

  • कई आचार्यों ने परत्व, अपरत्व और पृथकत्व को अनावश्यक मानकर गुणों की संख्या 21 बताई है। किन्तु सामान्यतया यही माना जाता है कि वैशेषिक दर्शन में गुणों की संख्या 24 है। नव्यन्याय में परत्व, अपरत्व को विप्रकृष्टत्व और सन्निकृष्टत्व या ज्येष्ठत्व और कनिष्ठत्व में अन्तर्निहित मान लिया गया है और पृथक्त्व को अन्योन्याभाव का ही एक रूप बताया गया है। अत: नव्यनैयायिक 21 गुण मानते हैं। विश्वनाथ ने उपर्युक्त चौबीस गुणों का वर्गीकरण निम्नलिखित रूप से किया है-

आश्रयद्रव्यों की मूर्तामूर्तपरक

  • केवल मूर्त द्रव्यों में रहने वाले जैसे रूप, रस आदि।
  • केवल अमूर्त द्रव्यों में रहने वाले, जैसे- बुद्धि, सुख आदि।
  • मूर्त और अमूर्त दोनों प्रकार के द्रव्यों में रहने वाले, जैसे- संख्या, परिमाण आदि।

आश्रय-संख्यापरक
इन गुणों में से कुछ एक-एक द्रव्य में रहते हैं और कुछ एकाधिक द्रव्यों में। संयोग, विभाग, संख्या, अनेकाश्रित गुण हैं और अन्य एकाश्रित।
सामान्य-विशेषपरक
विश्वनाथ ने गुणों का वर्गीकरण सामान्य और विशेष रूप में भी किया है।

  • उनके मतानुसार सामान्य गुण हैं- संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, असांसिद्धिक द्रवत्व, गुरुत्व तथा वेग-संस्कार।
  • विशेष गुण हैं- बुद्धि, सुख, दु:ख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, स्नेह, सांसिद्धिक द्रवत्व, धर्म, अधर्म, भावना, संस्कार तथा शब्द।

इन्द्रियग्राह्यतापरक
विश्वनाथ ने यह भी बताया है कि इन्द्रियग्राह्यता के आधार पर भी गुणों का निम्नलिखित रूप से वर्गीकरण किया जा सकता है-

  1. एकेन्द्रियग्राह्य- रूप, रस, गन्ध, स्पर्श तथा शब्द।
  2. द्वीन्द्रियग्राह्य- (चक्षु और त्वक् से) संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, द्रवत्व, स्नेह, वेग-संस्कार।
  3. अतीन्दिय- गुरुत्व, बुद्धि, सुख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म तथा भावना-संस्कार।
  • गुणों का संक्षिप्त विवरण अन्नंभट्ट द्वारा उल्लिखित क्रमानुसार निम्नलिखित है-



टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. द्रव्याश्रय्यगुणवान् संयोगाविभागेष्वकारणमनपेक्ष इति गुणलक्षणम्, वै.से. 1.1.16
  2. रूपादीनां गुणानां सर्वेषां गुणत्वाभिसम्बन्धों द्रव्याश्रितत्वं निर्गुणत्वं निष्क्रियत्वम्, प्र.पा.भा., पृ. 69
  3. सामान्यवान् असमवायिकारणम् अस्पन्दात्मा गुण: स च द्रव्याश्रित एव, त.भा. पृ. 260
  4. तर्कदीपिका, पृ. 16

बाहरी कड़ियाँ

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