मन -वैशेषिक दर्शन

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  • महर्षि कणाद ने वैशेषिकसूत्र में द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय नामक छ: पदार्थों का निर्देश किया और प्रशस्तपाद प्रभृति भाष्यकारों ने प्राय: कणाद के मन्तव्य का अनुसरण करते हुए पदार्थों का विश्लेषण किया।
  • न्याय-वैशेषिक का यह सिद्धान्त है कि गन्धादि विषयों का घ्राणादि इन्द्रियों से, इन्द्रियों का मन से, औ मन का आत्मा से संयोग होने पर ही प्रत्यक्ष ज्ञान होता है। विषय का इन्द्रिय के साथ और इन्द्रिय का आत्मा से अधिष्ठानमूलक सम्पर्क होने पर भी यदि इन्द्रिय और आत्मा के बीच मन संयुक्त या सन्निहित नहीं है तो ज्ञान नहीं होता, और संपृक्त या सन्निहित है तो ज्ञान होता है। गन्धादि एकाधिक विषयों के साथ घ्राणादि एकाधिक इन्द्रियों का युगपद संयोग हो जाने पर भी उनमें से केवल एक ही विषय का ज्ञान होता है, क्योंकि मन उनमें से केवल एक ही इन्द्रिय के साथ सम्बद्ध हो सकता है, एक ही समय एकाधिक के साथ नहीं। मन की अव्यापृतता या अन्यत्र व्यापृतता के कारण कभी-कभी इन्द्रियों से संयुक्त होने पर भी विषय का बोध नहीं होता। अत: कणाद यह कहते हैं कि विषयों और इन्द्रियों के युगपद संयोग की स्थिति में किसी एक विषय में ज्ञान के सद्भाव और अन्य विषय में ज्ञान के अभाव को हेतु मानकर जिस द्रव्य का अनुमान किया जाता है, वह मन कहलाता है। कणाद यह भी कहते हैं कि जैसे वायु स्पर्शादि गुणों का आश्रय होने के कारण द्रव्य और अवान्तर सृष्टि का समारम्भक न होने के कारण नित्य है, वैसे ही संयोगादि गुणों का आश्रय होने के कारण मन द्रव्य है और अपर सामान्य अर्थात् किसी सजातीय अवान्तर द्रव्य का समारम्भक द्रव्य न होने के कारण वह नित्य है। शरीर के प्रत्येक अवयव या अंग में ही अनेक युगपत प्रयत्न न होने तथा आत्मा में एक काल में ही अनेक युगपद ज्ञान उत्पन्न न होने के कारण यह सिद्ध होता है कि मन प्रति शरीर एक है अर्थात् भिन्न-भिन्न शरीरों में भिन्न-भिन्न है।[1]
  • प्रशस्तपाद आदि भाष्यकारों ने कणाद के कथनों को प्रकारात्नर से प्रस्तुत करते हुए यह बताया कि आत्मा, इन्द्रिय तथा विषय के सान्निध्य के होते हुए भी ज्ञान, सुख आदि कार्य कभी होते हैं, कभी नहीं होते हैं। अत: आत्मा, इन्द्रिय और विषय इन तीनों के अतिरिक्त किसी अन्य हेतु की अपेक्षा है, वही हेतु मन है। प्रशस्तपाद ने मन को संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व और संस्कार नामक आठ गुणों का अचेतन, परार्थक, मूर्त, अणुपरिमाण तथा आशु संचारी माना है।[2]
  • प्रशस्तपाद के अनुसार स्मृति भी किसी इन्द्रिय पर आधारित होती है। श्रोत्रेन्द्रिय स्मृति का हेतुभूत जो इन्द्रिय है, वही मन है। सुखादि की प्रतीति का कारण भी मन ही हे। इस प्रकार प्रशस्तपाद के अनुसार युगपदि ज्ञानानुत्पत्ति, स्मृति और सुखादि की प्रतीति इन तीन हेतुओं से मन का अनुमान होता है।
  • व्युत्पत्ति के अनुसार मन का अर्थ है- मनन का साधन -'मन्यते बुध्यतेऽनेनेति' (मन्-सर्वधातुभ्योऽसुन्)। किन्तु मन आन्तरिक अनुभवों में ही नहीं, अपितु बाह्य वस्तुओं के प्रत्यक्ष में भी सहायक होता है। अत: प्रशस्तपाद ने यह बताया कि मन वह द्रव्य है, जो मनस्त्वजाति से युक्त हो।
  • न्यायभाष्यकार वात्स्यायन के अनुसार भी सभी प्रकार के ज्ञान का हेतु जो इन्द्रिय है, वह मन है। मन ज्ञान का आश्रय नहीं, अपितु ज्ञान का कारण है।[3]
  • उदयनाचार्य के मत में मन एक मूर्त द्रव्य है और स्पर्शरहित है।
  • शिवादित्य का यह विचार है कि मन मनस्त्वजाति से युक्त, स्पर्शरहित, क्रिया का अधिकरण द्रव्य है।
  • वल्लभाचार्य विश्वनाथ आदि आचार्यों ने बताया कि सुख-दु:खादि का अनुभव कराने वाली अन्तरिन्द्रिय ही मन है। बाह्य इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों का तभी ग्रहण कर सकती हैं, जब मन भी उनके साथ हो। अत: मन सुख आदि का ग्राहक इन्द्रिय होने के साथ-साथ अन्य इन्द्रियों द्वारा उनके अर्थग्रहण में भी सहायक होता है। ज्ञान के अयोगपथ से यह सिद्ध होता है कि प्रति शरीर भिन्न-भिन्न है, अत: उसमें अनेकत्व है।
  • श्रीधर का यह कथन है कि दो विभु द्रव्यों के बीच संयोग संभव नहीं है। आत्मा विभु है अत: मन को भी विभु नहीं माना जा सकता, वह अणु है।[4] बाह्य इन्द्रियाँ मन को नहीं देख सकतीं, अत: मन एक अतीन्द्रिय द्रव्य है।[5]

इन्हें भी देखें: वैशेषिक दर्शन की तत्त्व मीमांसा एवं कणाद



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. वै.सू. 3.2.1.-3
  2. प्र.पा.भा. पृ. 69
  3. न्या.भा. 1.1.6
  4. न्या. क., पृ. 223
  5. वै.सू. 4.1.6

बाहरी कड़ियाँ

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