ब्रज का उत्तर मध्य काल

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ब्रज का उत्तर मध्य काल
ब्रज के विभिन्न दृश्य
विवरण भागवत में ‘ब्रज’ क्षेत्र विशेष को इंगित करते हुए ही प्रयुक्त हुआ है। वहाँ इसे एक छोटे ग्राम की संज्ञा दी गई है। उसमें ‘पुर’ से छोटा ‘ग्राम’ और उससे भी छोटी बस्ती को ‘ब्रज’ कहा गया है। 16वीं शताब्दी में ‘ब्रज’ प्रदेश के अर्थ में होकर ‘ब्रजमंडल’ हो गया और तब उसका आकार 84 कोस का माना जाने लगा था।
ब्रज क्षेत्र आज जिसे हम ब्रज क्षेत्र मानते हैं उसकी दिशाऐं, उत्तर दिशा में पलवल (हरियाणा), दक्षिण में ग्वालियर (मध्य प्रदेश), पश्चिम में भरतपुर (राजस्थान) और पूर्व में एटा (उत्तर प्रदेश) को छूती हैं।
ब्रज के केंद्र मथुरा एवं वृन्दावन
ब्रज के वन कोटवन, काम्यवन, कुमुदवन, कोकिलावन, खदिरवन, तालवन, बहुलावन, बिहारवन, बेलवन, भद्रवन, भांडीरवन, मधुवन, महावन, लौहजंघवन एवं वृन्दावन
भाषा हिंदी और ब्रजभाषा
प्रमुख पर्व एवं त्योहार होली, कृष्ण जन्माष्टमी, यम द्वितीया, गुरु पूर्णिमा, राधाष्टमी, गोवर्धन पूजा, गोपाष्टमी, नन्दोत्सव एवं कंस मेला
प्रमुख दर्शनीय स्थल कृष्ण जन्मभूमि, द्वारिकाधीश मन्दिर, राजकीय संग्रहालय, बांके बिहारी मन्दिर, रंग नाथ जी मन्दिर, गोविन्द देव मन्दिर, इस्कॉन मन्दिर, मदन मोहन मन्दिर, दानघाटी मंदिर, मानसी गंगा, कुसुम सरोवर, जयगुरुदेव मन्दिर, राधा रानी मंदिर, नन्द जी मंदिर, विश्राम घाट , दाऊजी मंदिर
संबंधित लेख ब्रज का पौराणिक इतिहास, ब्रज चौरासी कोस की यात्रा, मूर्ति कला मथुरा
अन्य जानकारी ब्रज के वन–उपवन, कुन्ज–निकुन्ज, श्री यमुना व गिरिराज अत्यन्त मोहक हैं। पक्षियों का मधुर स्वर एकांकी स्थली को मादक एवं मनोहर बनाता है। मोरों की बहुतायत तथा उनकी पिऊ–पिऊ की आवाज़ से वातावरण गुन्जायमान रहता है।
उत्तर मध्य काल (सन 1206 से 1576 तक)
मुस्लिम साम्राज्य

पृथ्वीराज और जयचंद्र को सन 1191 एवं सन 1194 वि. में हराने के बाद मुहम्मद ग़ोरी‎ ने भारत में मुस्लिम साम्राज्य की नींव डाली और अपने जीते गये राज्य की व्यवस्था अपने सेनापति क़ुतुबुद्दीन को सौंपकर ख़ुद वापस चला गया। मोहम्मद ग़ोरी के जीवन काल तक क़ुतुबुद्दीन उसका अधीनस्थ शासक बन कर मुस्लिम साम्राज्य को व्यवस्थित करता रहा। सन 1206 में ग़ोरी की मृत्यु के बाद क़ुतुबुद्दीन भारत के मुस्लिम साम्राज्य का प्रथम स्वतंत्र शासक बना; उसने दिल्ली को राजधानी बनाया। शुरू से ही दिल्ली मुस्लिम साम्राज्य की राजधानी रही और बाद तक बनी रही। मुग़ल काल में अकबर ने आगरा को राजधानी बनाया; फिर उसके पौत्र शाहजहाँ ने दोबारा दिल्ली को राजधानी बना दिया।

सल्तनत काल (सन 1206 से सन 1526 तक)

भारत में मुस्लिम साम्राज्य का प्रथम स्वतंत्र शासक क़ुतुबुद्दीन ऐबक था। उसने सन 1206 में पहले 'मलिक' और फिर 'सुल्तान' की पदवी धारण की। उसने दिल्ली को राजधानी बनाया। कुतुबुद्दीन से लेकर इब्राहीम लोदी तक दिल्ली में अनेक सुल्तान हुए, इस कारण सन 1206 से सन 1526 तक का 320 साल का वक़्त 'सल्तनत काल' कहलाता है। दिल्ली के ये सुलतान कई वंशों से थे। इतिहास में वे ग़ुलाम वंश, ख़िलजी वंश, तुग़लक़ वंश, सैयद वंश और लोदी वंश के नाम से जाने जाते हैं। लगभग सभी वंश तुर्क जाति के थे, केवल लोदी वंश पठान जाति का था।

ग़ुलाम वंश (सन 1206 से सन 1290 तक)

क़ुतुबुद्दीन (सन 1206 − सन 1210)

इस वंश का संस्थापक क़ुतुबुद्दीन ऐबक था। जीवन के शुरू में वह मुहम्मद ग़ोरी का ग़ुलाम था, इसी कारण यह वंश ग़ुलाम वंश के नाम से इतिहास में जाना जाता है। क़ुतुबुद्दीन के बाद इल्तुतमिश और बलवन नामक नामी शासक हुए; अपने जीवन में ये सभी ग़ुलाम थे। क़ुतुबुद्दीन साहसी योद्धा और काबिल शासक था। योग्य होने से ही वह ग़ुलाम से सुल्तान बना। क़ुतुबुद्दीन ने 2 मस्जिदें बनवाकर भारत में इस्लामिक इमारतों को बनवाना शुरू किया था। ये मस्जिद हिन्दू मदिंरों को नष्ट कर एक दिल्ली में और दूसरी अजमेर में बनवाई गई। दिल्ली की 'क़ुतुब मीनार' उसी के नाम से जानी जाती है; पर कहते हैं कि उसका निर्माण बाद में हुआ।

ख़िलजी वंश (सन 1290 से सन 1319 तक)

अलाउद्दीन (सन 1296 से सन 1316) अलाउद्दीन ख़िलजी वंश का सबसे मशहूर सुल्तान था। अपने चाचा की हत्या करा कर वह शासक बना और पूरे अपने जीवन काल में वह युद्ध कर राज्य का विस्तार करता रहा। वह कुटिल क्रूर और हिंसक प्रवृत्ति का बहुत ही महत्त्वाकांक्षी और होशियार सेना प्रधान था 20 वर्ष के अपने शासन काल में उसने लगभग सारे भारत को अपने शासन में कर लिया था। उसने ही देवगिरि, गुजरात, राजस्थान, मालवा और दक्षिण के अधिकतर राज्यों पर सबसे पहले मुस्लिम शासन स्थापित किया। चित्तौड़ की रानी पद्मिनी के लिए राजपूतों से युद्ध किया, इस युद्ध में बहुत से राजपूत नर−नारियों ने बलिदान दिया। शासक बनते ही उसकी कुदृष्टि मथुरा की तरफ हुई। उसने सन 1297 में मथुरा के असिकुण्डा घाट के पास के पुराने मंदिर को तोड़ कर एक मस्जिद बनवाई ,कालान्तर में यमुना नदी की बाढ़ से यह मस्जिद नष्ट हो गई। अलाउद्दीन पढ़ा−लिखा नहीं था किन्तु साहित्य और कला का कद्रदान था। उसके दरबार में बहुत से विद्वान् और कलाकार थे। अमीर खुसरो जैसा प्रसिद्ध विद्वान् और कला−मर्मज्ञ अलाउद्दीन के दरबार में था। इसी के शासन काल में अमीर खुसरो और गोपाल नायक के बीच संगीत प्रतियोगिता हुई, इसमें भारतीय कला का पहली बार विदेशी कला से मुक़ाबला हुआ।

अमीर ख़ुसरो

अमीर ख़ुसरो का पिता सैफ़ुद्दीन महमूद मध्य एशिया का एक तुर्क जाति का मुसलमान था। किसी कारण वह अपने देश को छोड़ कर भारत आ गया था। वह ब्रज क्षेत्र के पटियाली ग्राम (ज़िला−एटा) में बस गया था। वहाँ उसने एक हिन्दू महिला से निक़ाह कर लिया था; जिससे लगभग सन 1253 में एक बच्चा पैदा हुआ, उस बच्चे का नाम अबुल हसन रखा गया, वही बच्चा बड़ा हो कर 'अमीर ख़ुसरो' के नाम से प्रसिद्ध हुआ। दिल्ली के ग़ुलाम वंश के शासक सुल्तान ग़यासुद्दीन बलबन के समय में ख़ुसरो राजा के दरबार में था। अमीर ख़ुसरो ने ग़ुलाम, ख़िलजी और तुग़लक़ वंश के 11 सुल्तानों का शासन देखा इनमें से सात शासकों के दरबार में वह रहा। उसके जीवन में बड़े चढ़ाव−उतार रहे। अमीर ख़ुसरो सूफ़ी विचारधारा को मानता था। सूफ़ी संत हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया अमीर ख़ुसरो के गुरु थे। ख़ुसरो बड़ा बुद्धिमान, प्रतिभाशाली, विद्वान् और कई भाषाओं का ज्ञाता था और साथ ही वह महान् कवि और संगीतज्ञ भी था।


ख़ुसरो ने भारत के संगीत में ईरानी संगीत को मिला कर नई पद्धति 'मुक़ाम' को बनाया और उसके हिसाब से ही नये राग, नये गीत और नये-नये वाद्य यंत्रों का आविष्कार किया एवं उन्हें प्रचलित किया। अमीर ख़ुसरो द्वारा बनाये गये संगीत के रागों में 'फ़कीरूल्ला' के वर्णनानुसार, 'ज़ैल्फ़, उष्षाक, सरपर्दा, फ़रोदस्त, ऐमनी, साज़गिरी, आहंग और शनम' प्रमुख थे। ये सब भारतीय और ईरानी रागों को मिलाकर बनाये थे। अमीर ख़ुसरों ने जिस गायन−शैली को प्रचलित किया उसे उस समय 'कौल' कहा गया; और उस शैली के लिए लिखे गये मज़हबी गीत 'क़व्वाली' कहे गये। इस प्रकार ख़ुसरो ने भारतीय संगीत को हिन्दुस्तानी संगीत में ढाल कर संगीत में अद्भुत और कला की दृष्टि से क्रांतिकारी बदलाव किया था।

नायक गोपाल

नायक गोपाल दक्षिण का सुप्रसिद्ध संगीतज्ञ और प्रसिद्ध गायक था, जो सुल्तान अलाउद्दीन ख़िलजी के शासन के समय में (सन 1296 − सन 1316 ) में उसके दरबार में था। संभवत: उसका जन्म सन 1243 के आसपास हुआ होगा। वह भारतीय संगीत की उस समय प्रचलित शैलियों का महान् गायक था। सुल्तान अलाउद्दीन के सेनापति मलिक काफ़ूर ने दक्षिण के देवगिरि राज्य पर हमला किया और वहाँ के यादव राजा रामंचद्र राय को हरा दिया। यादव राजा रामंचद्र राय ने दिल्ली आ कर अलाउद्दीन की परतत्रंता स्वीकार कर ली थी। तभी देवगिरि राज्य के अनेक विद्वान, गुणीजन और कलाकारों ने भी दिल्ली आ कर सुल्तान की सेवा करना स्वीकार किया था। ऐसा कहा जाता है कि गोपाल नायक भी उसी समय में दिल्ली आया था। वह सुल्तान अलाउद्दीन के दरबार में उपस्थित हुआ था।

अमीर खुसरो और नायक गोपाल की संगीत-प्रतियोगिता

आज भी संगीत जगत् में खुसरो और गोपाल की संगीत−प्रतियोगिता प्रसिद्ध है। इसका विवरण फ़कीरूल्ला, विलर्ड और भातखंडे जैसे जाने-माने संगीतज्ञों के ग्रंथों में भी मिलता है। नायक गोपाल दक्षिण से दिल्ली आया था और उसने अलाउद्दीन ख़िलजी के दरबार में जाकर दरबारी संगीतज्ञों को गायन−प्रतियोगिता के लिए चुनौती दी थी। अमीर ख़ुसरो उस समय में ख़िलजी दरबार का सर्वश्रेष्ठ संगीतज्ञ था। अमीर ख़ुसरो की गोपाल से संगीत−प्रतियोगिता हुई थी, जिसमें ख़ुसरो ने छलपूर्वक नायक गोपाल को हरा दिया था, लेकिन नायक गोपाल के प्रकांड संगीत के ज्ञान का लोहा स्वंय अमीर ख़ुसरो ने और साथ ही पूरे दिल्ली दरबार के सभी संगीतज्ञों ने माना था। संगीत की इस गायन−प्रतियोगिता का उल्लेख मुग़ल शासक औरंगज़ेब के काश्मीरी सूबेदार 'फ़कीरूल्ला' द्वारा लिखे गये 'राग दर्पण' में किया गया है। आचार्य बृहस्पति ने उसके कथन को उल्लिखित करते हुए लिखा है,−'ख़ुसरो ने ईरानी स्वर शास्त्र के आधार पर भारतीय रागों का वर्गीकरण जिस 'मुक़ाम' पद्धति से किया था, उसे भारतीय कलाकारों ने चुपचाप स्वीकार कर लिया; क्योंकि भारतीय पद्धति को 'गुप्त' रखना ही वे उसे विकृत होने से बचाने का उपाय समझते थे। उसी प्रवृत्ति के परिणाम स्वरूप अमीर ख़ुसरो से हार मान कर गोपाल नायक ने झगड़ा जीत लिया था। अपने आश्रयदाता देवगिरि नरेश की दुर्दशा देख कर वे पराजय स्वीकार न करते, तो क्या करते। गोपाल नायक के झुकने पर सारे दक्षिण ने हथियार डाल लिये।


ख़ुसरो का निधन लगभग 72 वर्ष की उम्र में सन 1325 के आसपास दिल्ली में हुआ था। अमीर ख़ुसरो को उसके गुरु हज़रत निज़ामुद्दीन की क़ब्र के पास ही दफ़नाया गया था। वहाँ उन दोनों के मक़बरे बने हुए हैं।

तुग़लक़ वंश (सन 1320 से सन 1413 तक)

मुहम्मद तुग़लक़ (सन 1320 से सन 1351)

प्रयोगात्मक क्रांतिकारी कार्यों के लिए इस वंश के सुलतानों में मुहमम्द तुग़लक का नाम मशहूर है। पहले सुल्तानों की वित्त, खेती और सिक्कों सम्बन्धी नीति में बदलाव करने का साहस इस शासक ने किया और साथ ही अपनी राजधानी को देवगिरि ले जाने का उसने क़दम उठाया , इन सब वजहों से वह जनता के क्रोध का पात्र बना और अलोकप्रिय हो गया था। हालाँकि मुहमम्द तुग़लक़ बहुत विद्वान, बुद्धिमान और समझदार व्यक्ति था; फिर भी व्यावहारिक ज्ञान ना होने की वजह से उसका शासकीय योग्यता में नाकाम माना जाता है। बहुत से इतिहासकारों ने उसका मूल्यांकन किया है; पर उनका मत आपस में एक−दूसरे से नहीं मिलता है। दिल्ली के सुलतानों में मुहमम्द तुग़लक़ का चरित्र बहुत विवादग्रस्त और मनोरंजन से भरा मिलता है ऐसा वृतांत किसी और शासक का नहीं मिलता। कुछ इतिहासकारों ने तो उसे विक्षिप्त भी बतलाया है,पर वह पागल नहीं था ,हाँ उसने अपने शासन में अनेक प्रयोग किये थे। मुहमम्द तुग़लक़ के शासन के समय में 'इब्नबतूता' नाम का एक मुस्लिम यात्री भारत यात्रा पर आया था। वह सन 1333 में दिल्ली पहुँचा और कई वर्ष तक दिल्ली रहा। उसने अपनी यात्रा के वृतांत में मुहम्मद तुग़लक़ के शासन सम्बन्धी विस्तृत विवरण किया है।:−

वह मोरक्को निवासी एक प्रबुद्ध मुसलमान था, जो मुहम्मद तुग़लक़ के शासन काल में भारत की यात्रा करने को आया था। वह दिल्ली में मुहम्मद से मिला था। मुहम्मद इसकी विद्वत्ता से बड़ा प्रभावित हुआ और उसे दिल्ली का क़ाज़ी बना दिया। फिर किसी बात पर रुष्ट होकर शाह ने उसे कारागार में डाल दिया था; किंतु शीघ्र ही उसे बंधन मुक्त कर दिया। इब्नबतूता कई वर्ष तक भारत में रहा था। उसने सामान्यतः इस देश की और विशेषतया मुहम्मद तुग़लक़ के शासन−काल की परिस्थिति का सूक्ष्म अध्ययन किया था। उसने अपने अध्ययन का सार "किताब−उल−रहला" नामक पुस्तक में लिखा है। उस पुस्तक की रचना अरबी भाषा में हुई है। उसमें मुहम्मद तुग़लक़ के शासन काल की अनेक महत्त्वपूर्ण घटनाओं का उल्लेख किया गया है, जो ऐतिहासिक महत्त्व का है। उसने भारतीयों की उदारता, गुण−ग्राहकता और ईमादारी की बड़ी प्रशंसा की है।

फ़ीरोज तुग़लक़ (सन 1351 से सन 1388)

फ़ीरोज तुग़लक, मुहम्मद तुग़लक़ का चचेरा भाई था। इसकी माँ भट्टी राजपूत जाति की सुंदर स्त्री थी, उसके साथ उसके पिता ने बलपूर्वक निकाह किया था। एक हिंदू माता का पुत्र होने की वजह से उस समय के तुर्क सरदार उसे मुसलमान नहीं मानते थे। इसलिए फ़ीरोज ख़ुद को तुर्कों के समान सिध्द करने के लिए हिंदुओं के साथ बड़ी निर्ममता और बर्बरता से पेश आता था। हिंदुओं को बलपूर्वक मुसलमान बनाना और उनके मन्दिरों को तोड़ना वह अपना मज़हबी फर्ज समझता था। फ़ीरोज तुग़लक़ ने मथुरा के कृष्ण जन्मस्थान के मंदिर को तुड़वाया था जो लगभग दो शताब्दी पहले विजयपाल देव ने बनवाया था। सम्भवतः ये मंदिर बनवा दिया गया; क्योंकि सिकंदर लोदी के समय में भी इस मन्दिर को नष्ट किये जाने का विवरण मिलता है।

लोदी वंश (सन 1489 से सन 1526)

इस वंश के शासक जाति से पठान थे। इनमें सिकंदर लोदी सबसे अधिक धर्मांध शासक था। वह जाति से हिन्दू सुनारिन का बेटा था, इस कारण से वह हीन भावनाओं से भरा था। विदेशी मुसलमान सरदार के बराबर पक्का मुसलमान सिद्ध होने के लिए वह हिन्दुओं पर बहुत अत्याचार करता था। उसने अपने शासन काल में हिन्दू प्रजा को बलपूर्वक मुसलमान बनाने और हिन्दुओं के मंदिरों को तोड़ने का कार्य भी किया। सिकंदर का बाद का जीवन ग्वालियर के बहादुर राजा मानसिंह तोमर से युद्ध करने में व्यतीत हुआ। उसने राजा मानसिंह को हराने की कई बार कोशिश की, पर वह हर बार नाकाम रहा। सिकन्दर ने सन 1504 में आगरा को अपनी सैनिक छावनी बनाया। वहीं से उसने ग्वालियर पर आक्रमण किया। वर्तमान में जहाँ सिकंदरा है, वहाँ सिकंदर की सेना का पड़ाव था। उसी के नाम पर इस जगह का नाम 'सिकंदरा' पड़ा। सिकंदर से आक्रमण से पहले आगरा एक छोटा सा नगर था। किन्तु जब से वह लोदी सुलतान की सैनिक छावनी बना, तभी से उसका विकास होने लगा था। मथुरा के लिए सिकंदर का शासन विशेष रूप से कष्टदायक था। सिकंदर ने मथुरा के कृष्ण जन्मस्थान का विशाल मंदिर तुड़वाया और हिन्दुओं पर रोक लगा दी। कोई हिन्दू बाल भी नहीं बनवा सकता था; और न ही यमुना में स्नान कर सकता था।



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