"मेवाड़ की जातिगत सामाजिक व्यवस्था" के अवतरणों में अंतर

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[[जैन]] अपना स्वतंत्र अस्तित्व रखते हुए भी स्वंय को [[हिन्दू]] समाज के वैश्य वर्ग का ही मानते थे। ब्राह्मण, राजपूत, महाजन आदि जातियों को राज्य द्वारा जो परम्परागत सुविधाएँ प्राप्त थीं, शासक का कर्तव्य था कि वह उन्हें शाश्वत रूप से प्रचलित रखे। इस प्रकार 18वीं शताब्दी तक मेवाड़ में जाति प्रथा पर आधारित परम्परागत सामाजिक ढाँचे का अस्तित्व बना रहा।
 
[[जैन]] अपना स्वतंत्र अस्तित्व रखते हुए भी स्वंय को [[हिन्दू]] समाज के वैश्य वर्ग का ही मानते थे। ब्राह्मण, राजपूत, महाजन आदि जातियों को राज्य द्वारा जो परम्परागत सुविधाएँ प्राप्त थीं, शासक का कर्तव्य था कि वह उन्हें शाश्वत रूप से प्रचलित रखे। इस प्रकार 18वीं शताब्दी तक मेवाड़ में जाति प्रथा पर आधारित परम्परागत सामाजिक ढाँचे का अस्तित्व बना रहा।
====ब्रिटिश संरक्षण की स्थापना====
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====ब्रिटिश नियंत्रण====
 
18वीं शाताब्दी के पूर्वार्द्ध से ब्रिटिश संरक्षण की स्थापना तक अन्तरराज्यीय युद्धों, उत्तराधिकार का संघर्ष महाराणा और उसके सामन्तों के पारस्परिक संघर्षों तथा [[मराठा]] व [[पिण्डारी|पिण्डारियों]] की लूटमार के परिणामस्वरूप राज्य की आर्थिक स्थिति अस्त-व्यस्त हो गयी और अब परम्परागत जातीय व्यवस्थाओं का पालन करने की पहले जैसी मर्यादा नहीं रही। 'आंग्ल-मेवाड़ संधि' (1818 ई.) के बाद राज्य पर ब्रिटिश नियंत्रण स्थापित हो गया। सामन्तों की चाकरी को नकद रकम की अदायगी में परिवर्तित कर दिया गया, जिसके फलस्वरूप सामन्तों की सेनाओं का विघटन, आधुनिक शिक्षा का प्रसार, प्रशासनिक संस्थाओं का अंग्रेज़ीकरण, भूमि-बन्दोबस्त, यातायात के नये साधन आदि ने लोगों को अपने जीवन-यापन हेतु अपने परम्परागत जातिगत व्यवसाय के अतिरिक्त कुछ अन्य व्यवसायों को अपनाने के लिए प्रोत्साहित किया।
 
18वीं शाताब्दी के पूर्वार्द्ध से ब्रिटिश संरक्षण की स्थापना तक अन्तरराज्यीय युद्धों, उत्तराधिकार का संघर्ष महाराणा और उसके सामन्तों के पारस्परिक संघर्षों तथा [[मराठा]] व [[पिण्डारी|पिण्डारियों]] की लूटमार के परिणामस्वरूप राज्य की आर्थिक स्थिति अस्त-व्यस्त हो गयी और अब परम्परागत जातीय व्यवस्थाओं का पालन करने की पहले जैसी मर्यादा नहीं रही। 'आंग्ल-मेवाड़ संधि' (1818 ई.) के बाद राज्य पर ब्रिटिश नियंत्रण स्थापित हो गया। सामन्तों की चाकरी को नकद रकम की अदायगी में परिवर्तित कर दिया गया, जिसके फलस्वरूप सामन्तों की सेनाओं का विघटन, आधुनिक शिक्षा का प्रसार, प्रशासनिक संस्थाओं का अंग्रेज़ीकरण, भूमि-बन्दोबस्त, यातायात के नये साधन आदि ने लोगों को अपने जीवन-यापन हेतु अपने परम्परागत जातिगत व्यवसाय के अतिरिक्त कुछ अन्य व्यवसायों को अपनाने के लिए प्रोत्साहित किया।
 
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मेवाड़ी समाज में विभिन्न धर्मावलम्बियों के एक साथ होने के बावजूद भी व्यवहारिक तौर पर कोई धार्मिक भेदभाव नहीं था। प्रत्येक धर्मावलम्बी व्यक्ति दूसरे धर्म को उतने ही आदर की दृष्टि से देखता था, जितना कि अपने धर्म को। यहाँ तक कि यहाँ के राणाओं ने भी धार्मिक भावनाओं व मान्यताओं का सम्मान कर धर्म के प्रति अपनी सहिष्णुता व तटस्थता को दिखाया। राणा जनत सिंह द्वितीय ने रामला, कटड़ी, अर्णेटा और कान्या गाँवों को [[अजमेर]] की दरगाह को भेंट कर दिया। जैन मतावलम्बी जो एक स्वतंत्र अस्तित्व रखते थे, लिंगजी, लक्ष्मीजी, कालिका देवी आदि [[हिन्दू धर्म]] के प्रतीकों में आस्था रखते थे। राज्य में जनता द्वारा बनाये गये वर्तमान [[हिन्दू]]-[[जैन]] मन्दिर इसके उदाहरण हैं। आत्मवादी लोग एकलिंग ([[शिव]]), कालिका देवी (शक्त), श्रीनाथ जी (वैष्णव) तथा कालिया जी ([[ऋषभदेव]]) की [[पूजा]] में विश्वास रखते थे। '[[शिवरात्रि]]' के महापर्व पर [[भील]] लोगों का एकलिंगजी के दर्शन करने आना, उनके [[लोक नृत्य]] 'गवरी' में 'राई' ([[पार्वती]]), और 'बुडया' (शिव) की उपस्थिति, [[दीपावली]] के दिनों में श्रीनाथ जी के [[चावल]] लूटना तथा धुलेव धाम के ऋषभदेव को अपना इष्ट मानना, इसका प्रमाण हैं। मुस्लिम समुदाय तथा हिन्दू समुदाय में पारस्परिक धार्मिक भावना का आदर किया जाता था। मुस्लिम लोग हिन्दुओं के सामाजिक-धार्मिक उत्सवों में बिना किसी भेद-भाव के भाग लेते थे। [[होली]] के अवसर पर गले मिलना, [[गुलाल]] लगाना, जादू-टोनों में विश्वास करना, झाड़-फूँक, नज़र आदि में श्रद्धा रखना आदि [[इस्लाम]] के विरुद्ध कार्य होते हुए भी इन्हें अपनाये हुए थे। इसी प्रकार हिन्दुओं द्वारा [[मुहर्रम]] के ताजियों के नीचे से बच्चों को निकालना, मुस्लिम पीरों में विश्वास करना आदि हिन्दू-मुस्लिम धार्मिक सहिष्णुता को दर्शाता है।
 
मेवाड़ी समाज में विभिन्न धर्मावलम्बियों के एक साथ होने के बावजूद भी व्यवहारिक तौर पर कोई धार्मिक भेदभाव नहीं था। प्रत्येक धर्मावलम्बी व्यक्ति दूसरे धर्म को उतने ही आदर की दृष्टि से देखता था, जितना कि अपने धर्म को। यहाँ तक कि यहाँ के राणाओं ने भी धार्मिक भावनाओं व मान्यताओं का सम्मान कर धर्म के प्रति अपनी सहिष्णुता व तटस्थता को दिखाया। राणा जनत सिंह द्वितीय ने रामला, कटड़ी, अर्णेटा और कान्या गाँवों को [[अजमेर]] की दरगाह को भेंट कर दिया। जैन मतावलम्बी जो एक स्वतंत्र अस्तित्व रखते थे, लिंगजी, लक्ष्मीजी, कालिका देवी आदि [[हिन्दू धर्म]] के प्रतीकों में आस्था रखते थे। राज्य में जनता द्वारा बनाये गये वर्तमान [[हिन्दू]]-[[जैन]] मन्दिर इसके उदाहरण हैं। आत्मवादी लोग एकलिंग ([[शिव]]), कालिका देवी (शक्त), श्रीनाथ जी (वैष्णव) तथा कालिया जी ([[ऋषभदेव]]) की [[पूजा]] में विश्वास रखते थे। '[[शिवरात्रि]]' के महापर्व पर [[भील]] लोगों का एकलिंगजी के दर्शन करने आना, उनके [[लोक नृत्य]] 'गवरी' में 'राई' ([[पार्वती]]), और 'बुडया' (शिव) की उपस्थिति, [[दीपावली]] के दिनों में श्रीनाथ जी के [[चावल]] लूटना तथा धुलेव धाम के ऋषभदेव को अपना इष्ट मानना, इसका प्रमाण हैं। मुस्लिम समुदाय तथा हिन्दू समुदाय में पारस्परिक धार्मिक भावना का आदर किया जाता था। मुस्लिम लोग हिन्दुओं के सामाजिक-धार्मिक उत्सवों में बिना किसी भेद-भाव के भाग लेते थे। [[होली]] के अवसर पर गले मिलना, [[गुलाल]] लगाना, जादू-टोनों में विश्वास करना, झाड़-फूँक, नज़र आदि में श्रद्धा रखना आदि [[इस्लाम]] के विरुद्ध कार्य होते हुए भी इन्हें अपनाये हुए थे। इसी प्रकार हिन्दुओं द्वारा [[मुहर्रम]] के ताजियों के नीचे से बच्चों को निकालना, मुस्लिम पीरों में विश्वास करना आदि हिन्दू-मुस्लिम धार्मिक सहिष्णुता को दर्शाता है।
  
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यद्यपि मेवाड़ी समाज में ईसाई समुदाय अपना धर्म सहिष्णु स्थान नहीं बना पाया था और अपने धार्मिक प्रचार द्वारा जनजाति के कुछ लोगों को इसाई धर्मानुयायी बनाने में वह सफल हो गया था, फिर भी जनता द्वारा इसका कोई तीव्र विरोध नहीं किया गया। अत: मेवाड़ी समाज में ईसाइयों के प्रति भी कोई द्वेष नही था और समाज धर्म सहिष्णु व साम्प्रदायिक भावना-मुक्त था। भारत में वर्ग स्तरण वंशानुक्रमण पर आधारित पैतृक और जन्मगत है, जिसे जाति के रूप में जाना जाता है। आलोच्यकाल में वर्गस्तरण जाति समाज, जातियों की स्थिति, उनका सामाजिक अन्तराल तथा पैतृक परम्परागत व्यवसायों के आधार पर वर्गीकृत था।
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==ब्राह्मण जातियाँ==
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जाति की संरचना को विस्तृत स्वरूप में वर्ण व्यवस्था के साथ जोड़ा जा सकता है। परम्परागत सामाजिक ढाँचे में सर्वोच्च स्थान [[ब्राह्मण]] जातियों को प्राप्त था, परन्तु ब्राह्मण जातियाँ भी विभिन्न उपजातियों में विभाजित थी। 18वीं शताब्दी के पूर्व अनेक ब्राह्मण उपजातियाँ [[मेवाड़]] में विद्यमान थीं, तथापि 19वीं शताब्दी में अनेक ब्राह्मण परिवार जीविका की खोज में अन्य राज्यों व प्रान्तों से आकर मेवाड़ में बस गये थे। इसमें बागड़ से बागड़िया, [[जोधपुर]] से जोधपुरिया, [[सिरोही]] से सिरोहिया आदि मुख्य रहे थे। इसके अतिरिक्त मेवाड़ के महाराणाओं ने भी अनेक ब्राह्मण परिवारों को उनके व्यवसायात्मक कौशल व सामाजिक धार्मिक कर्म कराने हेतु आमंत्रित कर मेवाड़ में बसाया था। [[गुजरात]] राज्य से पारख और मेवाड़ा ब्राह्मण, [[उत्तर प्रदेश]] से कन्नौजिया, सास्वत गौड़, श्री गौड़ आदि इनके उदाहरण हैं। ब्राह्मणों की इन उपजातियों में पारख, भट्ट, कन्नौजिया, सारस्वत, गौड़, मेनारिया, पालीवाल आदि मुख्य मानी जाती थीं। यह सभी उपजातियाँ मूल में ब्राह्मण जाति होते हुए भी उनके खान-पान तथा वैवाहिक सम्बन्ध न रखने के कारण अलग-अलग जातियाँ कहलाती थीं। इन सभी ब्राह्मण जातियों में पारस्परिक खान-पान सम्बन्ध कच्चे और पक्के भोजन करने वाली जातियों की श्रेणी में विभक्त था। पक्का भोजन करने वाले ब्राह्मणों की श्रेणी उच्च मानी जाती थी। पक्के पाकी ब्राह्मण अन्य जातियों के यहाँ बना भोजन नहीं खाते थे और कच्चा भोजन करने वाले ब्राह्मण द्विज जातियों (ब्राह्मण, [[राजपूत]] तथा [[वैश्य]]) के यहाँ बना हुआ भोजन ग्रहण कर सकते थे। ब्राह्मण जातियों में मांस-मदिरा सेवन करने वाले जाति-भ्रष्ट माने जाते थे, किन्तु इनकी संख्या नगण्य थी। ब्राह्मण जाति की आन्तरिक रचना अवंटक, गौत्र तथा प्रवरों में विभक्त थी। वैवाहिक सम्बन्धों के लिए जाति के अन्दर भी गौत्र एवं प्रवर का ध्यान रखा जाता था। एक ही गौत्र व प्रवर के स्त्री-पुरुष पारस्परिक [[विवाह]] नहीं कर सकते थे। किन्तु धीरे-धीरे ब्राह्मणों के आचार-व्यवहारों में विकृतियाँ आने लगीं। खंडित व्यवहारों के कारण सामाजिक राजनीतिक शक्ति को प्राप्त करने मैं यह जाति असमर्थ रही अथवा उनकी अन्तर्नियंत्रण प्रणाली ने सामाजिक नेतृत्व में पछाड़ दिया। फिर भी समाज में प्रतिष्ठा और सम्मान की दृष्टि से ब्राह्मणों का महत्व था।
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====आजीविका====
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अध्ययन-अध्यापन, पौरोहित्य, धार्मिक कर्मकाण्डों का सम्पादन, [[पूजा]]-पाठ, ज्योतिष कार्य इत्यादि व्यवसाय ब्राह्मणों की परम्परागत वृत्तियाँ मानी जाती थीं। शिक्षा का काम करने वाले ब्राह्मणों को सामान्यत: राज्य से वेतन अथवा भूमि दी जाती थी। अधिकांश ब्राह्मणों की अजीविका का मुख्य साधन मंदिरों में देवार्चन व पूजा-पाठ का परम्परागत व्यवसाय था। अधिकांश मंदिरों के साथ, राज्य अथवा सामन्तों द्वारा प्रदान की गई जागीर अथवा भूमि जुड़ी हुई थी, जिसका उपयोग ब्राह्मण पुजारी करते थे। इसके अतिरिक्त उन्हें राज्य तथा जनता से नकद चढ़ावा भी मिलता रहता था। वेदाभ्यासी व शास्त्रपाठी ब्राह्मण सम्पूर्ण राज्य में गिने-चुने रहे थे। ज्यादातर ब्राह्मण निरक्षर श्रेणी में थे और व्यवहारों व नियमों में रुढिवादी थे। समाज के सामाजिक और धार्मिक संस्कारों का सम्पादन कराने के लिए प्रत्येक जाति और कुटुम्ब के [[पुरोहित]] हुआ करते थे। 'बख्शीखाना' के ठनाम-बहियों से ज्ञात होता है कि ये पुरोहित लोग अपने यजमानों से भेंट, द्रव्य तथा वार्षिक यजमानी प्राप्त करते थे। राज्य अथवा राज्य के सभी ठिकानों के पुरोहित ठबड़ा पालीवाल ब्राह्मण रहे थे, जिन्हें राज्य अथवा ठिकाने की ओर से भूमि का अनुदान मिलता रहता था। महाराणा के पुरोहित राज्य में बड़े पुरोहित कहलाते थे, जिन्हें धार्मिक स्तर पर उच्च एवं प्रथम श्रेणी के सामन्तों के समान प्रतिष्ठा प्राप्त थी। ब्राह्मणों की एक अन्य श्रेणी मृतक संस्कार और क्रिया-कर्म करवाती थी, जिन्हें मेवाड़ में 'ठकर्मान्त्री ब्राह्मण' कहा जाता था। कर्मान्त्री ब्राह्मण, पुरोहितों की श्रेणी से निम्न माने जाते थे। औदिच्य, भट्ट, आमेटा आदि ब्राह्मण ज्योतिष और कथा-वाचक का कार्य करते थे। राज्य द्वारा इस कार्य के लिए द्रव्य और भूमि के साथ-साथ राज ज्योतिष, कथा-भट्ट, कथा-व्यास आदि का सम्मान भी दिया जाता था। इसके पश्चात् तृतीय श्रेणी पुजारी और पंचागपाठी ब्राह्मणों की थी।
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====पैतृक व्यवसाय====
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राज्य के प्रत्येक मंदिर का पुजारी ब्राह्मण होता था। पंचागपाठी ब्राह्मण ग्राम, बस्तियों व शहरों में बस्ती-कार्य करते थे। आचार्य लोग वैद्यक का कार्य करते थे। मेवाड़ के कुछ ब्राह्मणों ने व्यापार-वाणिज्य को पैतृक व्यवसाय के रूप में अपना रखा था। सामान्यत: श्रीमाली ब्राह्मण [[दूध]] बेचने तथा हलवाई का धन्धा करते थे तथा पारख व नागर ब्राह्मण [[हीरा|हीरे]]-जवाहरात परखने व गोटा किनारी बेचने का काम करते थे। [[भीलवाड़ा]] के खण्डेलवाल ब्राह्मण व [[उदयपुर]] में नागर, पारख व श्रीमालियों के अनेक परिवार अभी भी अपना पैतृक कार्य करते थे। किन्तु वर्तमान शताब्दी के प्रथम दो-तीन दशकों तक ब्राह्मणों द्वारा व्यापार-वाणिज्य का कार्य उत्तम नहीं माना जाता था। ग्रामीण ब्राह्मण [[कृषि]] के व्यवसाय को भी अपना चुके थे। धार्मिक और राज्य सेवा के बदले भूमि दी जाती थी, उस भूमि को प्राप्त कर कालान्तर में ये ब्राह्मण लघु कृषक बन जाते थे। कृषि करने वाले ब्राह्मणों को भूमि-कर के मामले में सुविधाएँ प्रदान की जाती थीं।
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==राजपूत==
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{{main|राजपूत}}
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मेवाड़ में सामन्ती व्यवस्था पर आधारित समाज में राजपूत जाति का एक विशिष्ट स्थान था। राज परिवार तथा शासक जाति से सम्बंधित होने के कारण ब्राह्मणों के बाद समाज में राजपूतों का काफ़ी उच्च स्थान था। राजपूत अपने को तीन वंश में से किसी एक से सम्बंधित करता था-
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#[[अयोध्या]] के राजा [[राम]] से उत्पन्न [[सूर्य वंश]]
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#[[द्वारिका]] के राजा [[श्रीकृष्ण]] से उत्पन्न [[चन्द्र वंश]]
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#[[वशिष्ठ|वशिष्ठ ऋषि]] द्वारा [[आबू पर्वत]] पर [[यज्ञ]] से उत्पन्न अग्निवंश
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इन तीन [[राजपूत]] वंशों में, जिसमें 16 सूर्यवंशीय, 16 चन्द्रवंशीय और 4 अग्निवंशीय थे, सम्पूर्ण जाति वर्गीकृत थी। सामूहिक रूप से ये छत्तीस-कुल कहलाते थे। लेकिन मेवाड़ में केवल 13 कुल ही विद्यमान थे। यह कुल व्यवस्था पुन: खापों और खापों से पैतृक जागीर के मुखिया के नाम पर उप-खापों में विभाजित थी। मेवाड़ के महाराणा के [[सिसोदिया वंश|सिसोदिया कुल]] के सदस्य होने के कारण राजपूत जातियों में सिसोदिया कुल का विशेष महत्व था। यदि कहीं राजपूत-जातीयता का संशय उत्पन्न हो जाता तो राणा के निर्णय को अंतिम मान लिया जाता था। राज्य के शेष राजपूत कुलों की प्रतिष्ठा का स्तर उनकी जागीरों तथा महाराणा द्वारा दिये जाने वाले सम्मान द्वारा निर्धारित होता था। राजपूतों में [[विवाह]] सम्बन्ध की दृष्टि से उच्च परम्परा विद्यमान थी। एक ही वंश के राजपूत-कुल परम्पर विवाह कर सकते थे। अग्निवंशीय राजपूत का पुत्र सूर्य और चन्द्र की कन्या से विवाह नहीं कर सकता था, जबकि सूर्य वंशीय राजपूत पुत्र के लिए अन्य दोनों वंश से सम्बन्ध हो सकते थे। खान-पान व्यवहार में वंश भेद व्याप्त नहीं था।
  
 
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08:53, 27 फ़रवरी 2013 का अवतरण

मेवाड़ की जातिगत सामाजिक व्यवस्था परम्परागत रूप से ऊँच-नीच, पद-प्रतिष्ठा तथा वंशोत्पन्न जातियों के आधार पर संगठित थी। सामाजिक संगठन में प्रत्येक जाति का महत्व उस जाति की वंशोत्पत्ति तथा उसके द्वारा अंगीकृत व्यवसाय पर निर्भर थी। जाति-व्यवस्था को स्थायित्व प्रदान करने तथा उसके अस्तित्व को अक्षुण बनाये रखने में जाति पंचायतों की भूमिका महत्वपूर्ण थी। जातिगत पंचायतें अपनी जातियों को व्यवस्थित रूप से संचालित करते हुए खान-पान, शादी-विवाह एवं रीति-रिवाजों से सम्बन्धित समय-समय पर नियम बनाती थीं और अपनी जाति के लोगों से जातीय विभागों एवं मर्यादाओं का पालन करवाती थीं। इस कार्य में जाति-पंचायतों को राजकीय संरक्षण भी प्राप्त था।

समाज विभाजन

सामान्यत: राज्य जाति पंचायतों के कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करता था। वस्तुत: मेवाड़ के महाराणाओं ने भी परम्परागत सामाजिक ढाँचे को बनाये रखनें में काफ़ी योगदान दिया था। जाति पंचायतों के नियमों को भंग करने वाले व्यक्तियों को दण्ड देने की व्यवस्था थी। सबसे कड़ा दण्ड जाति से बहिष्कृत करना था। समाज परम्परागत रूप से चार भागों में विभक्त था-

  1. ब्राह्मण
  2. क्षत्रिय
  3. वैश्य
  4. शूद्र

जैन अपना स्वतंत्र अस्तित्व रखते हुए भी स्वंय को हिन्दू समाज के वैश्य वर्ग का ही मानते थे। ब्राह्मण, राजपूत, महाजन आदि जातियों को राज्य द्वारा जो परम्परागत सुविधाएँ प्राप्त थीं, शासक का कर्तव्य था कि वह उन्हें शाश्वत रूप से प्रचलित रखे। इस प्रकार 18वीं शताब्दी तक मेवाड़ में जाति प्रथा पर आधारित परम्परागत सामाजिक ढाँचे का अस्तित्व बना रहा।

ब्रिटिश नियंत्रण

18वीं शाताब्दी के पूर्वार्द्ध से ब्रिटिश संरक्षण की स्थापना तक अन्तरराज्यीय युद्धों, उत्तराधिकार का संघर्ष महाराणा और उसके सामन्तों के पारस्परिक संघर्षों तथा मराठापिण्डारियों की लूटमार के परिणामस्वरूप राज्य की आर्थिक स्थिति अस्त-व्यस्त हो गयी और अब परम्परागत जातीय व्यवस्थाओं का पालन करने की पहले जैसी मर्यादा नहीं रही। 'आंग्ल-मेवाड़ संधि' (1818 ई.) के बाद राज्य पर ब्रिटिश नियंत्रण स्थापित हो गया। सामन्तों की चाकरी को नकद रकम की अदायगी में परिवर्तित कर दिया गया, जिसके फलस्वरूप सामन्तों की सेनाओं का विघटन, आधुनिक शिक्षा का प्रसार, प्रशासनिक संस्थाओं का अंग्रेज़ीकरण, भूमि-बन्दोबस्त, यातायात के नये साधन आदि ने लोगों को अपने जीवन-यापन हेतु अपने परम्परागत जातिगत व्यवसाय के अतिरिक्त कुछ अन्य व्यवसायों को अपनाने के लिए प्रोत्साहित किया।

धार्मिक समुदायों का संख्यात्मक प्रतिशत
समुदाय मतावलम्ब प्रतिशत
हिन्दु शैव, शाक्तवैष्णव 73.48%
आत्मवादी (आदिवासी) 13.34%
जैन 9.25%
सिक्ख 0.01%
आर्य 0.01
मुस्लिम सुन्नी 3.05%
शिया .40%
ईसाई कैथोलिक तथा प्रोटोस्टण्ट 0.02

धार्मिक आधार पर जातीय वर्गीकरण

जब मेवाड़ की आलोच्यकालीन सामाजिक संरचना के स्वरूप का विश्लेषण करते हैं तो पाते हैं कि सामाजिक रचना में वर्ण-व्यवस्था केवल भावात्मक रूप में विद्यमान रह गई थी। जाति और धर्म ही इस काल के वर्ग तथा व्यवसाय को प्रभावित किये हुए थे। 18वीं शताब्दी तक का मेवाड़ी समाज धर्म के आधार पर दो भागों हिन्दू तथा मुस्लिम में वर्गीकृत था। हिन्दू समुदाय में वैदिक, जैन तथा आत्मवादी माने जा सकते हैं, वही मुस्लिम समुदाय में 'शिया' तथा 'सुन्नी' दो उपभाग विद्यमान थे। पुन: धार्मिक विभेदों के अनुसार वैदिक शैव, शाक्त तथा वैष्णव में तथा जैन 'श्वेताम्बर' व 'दिगम्बर' में उप विभाजित थे। आत्मवादी शुद्ध प्रकृति उपासक और वैदिक प्रभावालिप्त ईश्वरवादी के मतमतांतरों मे विभाजित थे। शैवों में सन्यासी, नाथ, गोसाई, आचार्य आदि रूपों में कई प्रकार के भेद व्याप्त रहे। वैष्णवों में रामावत नीमावत, माधवाचार्य तथा विष्णुस्वामी नामक चार सम्प्रदाय थे और फिर रामस्नेही, दादूपंथी, कबीरपंथी, नारायणपंथी आदि अनेक शाखाओं में फैले हुए थे, जिनके आचारों-विचारों में उपासना की दृष्टि से काफ़ी अन्तर था।

उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में मेवाड़ी समाज में ईसाइयों का प्रवेश भी हो चुका था। यह समुदाय स्थान भेद के अनुसार शुद्ध ईसाई तथा एंग्लो-इण्डियन की श्रेणियों में वर्गीकृत था। राणा सज्जन सिंह (1874-1884 ई.) के शासन-काल में हिन्दू समुदाय के अंत्तर्गत सिक्ख समाज के मतावलम्बी भी सम्मिलित होने लगे थे। इन सभी धार्मिक समुदायों का जन संख्यात्मक प्रतिशत उन्नीसवीं शती के अन्त तक रहा।

धर्म सहिष्णु समाज

मेवाड़ी समाज में विभिन्न धर्मावलम्बियों के एक साथ होने के बावजूद भी व्यवहारिक तौर पर कोई धार्मिक भेदभाव नहीं था। प्रत्येक धर्मावलम्बी व्यक्ति दूसरे धर्म को उतने ही आदर की दृष्टि से देखता था, जितना कि अपने धर्म को। यहाँ तक कि यहाँ के राणाओं ने भी धार्मिक भावनाओं व मान्यताओं का सम्मान कर धर्म के प्रति अपनी सहिष्णुता व तटस्थता को दिखाया। राणा जनत सिंह द्वितीय ने रामला, कटड़ी, अर्णेटा और कान्या गाँवों को अजमेर की दरगाह को भेंट कर दिया। जैन मतावलम्बी जो एक स्वतंत्र अस्तित्व रखते थे, लिंगजी, लक्ष्मीजी, कालिका देवी आदि हिन्दू धर्म के प्रतीकों में आस्था रखते थे। राज्य में जनता द्वारा बनाये गये वर्तमान हिन्दू-जैन मन्दिर इसके उदाहरण हैं। आत्मवादी लोग एकलिंग (शिव), कालिका देवी (शक्त), श्रीनाथ जी (वैष्णव) तथा कालिया जी (ऋषभदेव) की पूजा में विश्वास रखते थे। 'शिवरात्रि' के महापर्व पर भील लोगों का एकलिंगजी के दर्शन करने आना, उनके लोक नृत्य 'गवरी' में 'राई' (पार्वती), और 'बुडया' (शिव) की उपस्थिति, दीपावली के दिनों में श्रीनाथ जी के चावल लूटना तथा धुलेव धाम के ऋषभदेव को अपना इष्ट मानना, इसका प्रमाण हैं। मुस्लिम समुदाय तथा हिन्दू समुदाय में पारस्परिक धार्मिक भावना का आदर किया जाता था। मुस्लिम लोग हिन्दुओं के सामाजिक-धार्मिक उत्सवों में बिना किसी भेद-भाव के भाग लेते थे। होली के अवसर पर गले मिलना, गुलाल लगाना, जादू-टोनों में विश्वास करना, झाड़-फूँक, नज़र आदि में श्रद्धा रखना आदि इस्लाम के विरुद्ध कार्य होते हुए भी इन्हें अपनाये हुए थे। इसी प्रकार हिन्दुओं द्वारा मुहर्रम के ताजियों के नीचे से बच्चों को निकालना, मुस्लिम पीरों में विश्वास करना आदि हिन्दू-मुस्लिम धार्मिक सहिष्णुता को दर्शाता है।

यद्यपि मेवाड़ी समाज में ईसाई समुदाय अपना धर्म सहिष्णु स्थान नहीं बना पाया था और अपने धार्मिक प्रचार द्वारा जनजाति के कुछ लोगों को इसाई धर्मानुयायी बनाने में वह सफल हो गया था, फिर भी जनता द्वारा इसका कोई तीव्र विरोध नहीं किया गया। अत: मेवाड़ी समाज में ईसाइयों के प्रति भी कोई द्वेष नही था और समाज धर्म सहिष्णु व साम्प्रदायिक भावना-मुक्त था। भारत में वर्ग स्तरण वंशानुक्रमण पर आधारित पैतृक और जन्मगत है, जिसे जाति के रूप में जाना जाता है। आलोच्यकाल में वर्गस्तरण जाति समाज, जातियों की स्थिति, उनका सामाजिक अन्तराल तथा पैतृक परम्परागत व्यवसायों के आधार पर वर्गीकृत था।

ब्राह्मण जातियाँ

जाति की संरचना को विस्तृत स्वरूप में वर्ण व्यवस्था के साथ जोड़ा जा सकता है। परम्परागत सामाजिक ढाँचे में सर्वोच्च स्थान ब्राह्मण जातियों को प्राप्त था, परन्तु ब्राह्मण जातियाँ भी विभिन्न उपजातियों में विभाजित थी। 18वीं शताब्दी के पूर्व अनेक ब्राह्मण उपजातियाँ मेवाड़ में विद्यमान थीं, तथापि 19वीं शताब्दी में अनेक ब्राह्मण परिवार जीविका की खोज में अन्य राज्यों व प्रान्तों से आकर मेवाड़ में बस गये थे। इसमें बागड़ से बागड़िया, जोधपुर से जोधपुरिया, सिरोही से सिरोहिया आदि मुख्य रहे थे। इसके अतिरिक्त मेवाड़ के महाराणाओं ने भी अनेक ब्राह्मण परिवारों को उनके व्यवसायात्मक कौशल व सामाजिक धार्मिक कर्म कराने हेतु आमंत्रित कर मेवाड़ में बसाया था। गुजरात राज्य से पारख और मेवाड़ा ब्राह्मण, उत्तर प्रदेश से कन्नौजिया, सास्वत गौड़, श्री गौड़ आदि इनके उदाहरण हैं। ब्राह्मणों की इन उपजातियों में पारख, भट्ट, कन्नौजिया, सारस्वत, गौड़, मेनारिया, पालीवाल आदि मुख्य मानी जाती थीं। यह सभी उपजातियाँ मूल में ब्राह्मण जाति होते हुए भी उनके खान-पान तथा वैवाहिक सम्बन्ध न रखने के कारण अलग-अलग जातियाँ कहलाती थीं। इन सभी ब्राह्मण जातियों में पारस्परिक खान-पान सम्बन्ध कच्चे और पक्के भोजन करने वाली जातियों की श्रेणी में विभक्त था। पक्का भोजन करने वाले ब्राह्मणों की श्रेणी उच्च मानी जाती थी। पक्के पाकी ब्राह्मण अन्य जातियों के यहाँ बना भोजन नहीं खाते थे और कच्चा भोजन करने वाले ब्राह्मण द्विज जातियों (ब्राह्मण, राजपूत तथा वैश्य) के यहाँ बना हुआ भोजन ग्रहण कर सकते थे। ब्राह्मण जातियों में मांस-मदिरा सेवन करने वाले जाति-भ्रष्ट माने जाते थे, किन्तु इनकी संख्या नगण्य थी। ब्राह्मण जाति की आन्तरिक रचना अवंटक, गौत्र तथा प्रवरों में विभक्त थी। वैवाहिक सम्बन्धों के लिए जाति के अन्दर भी गौत्र एवं प्रवर का ध्यान रखा जाता था। एक ही गौत्र व प्रवर के स्त्री-पुरुष पारस्परिक विवाह नहीं कर सकते थे। किन्तु धीरे-धीरे ब्राह्मणों के आचार-व्यवहारों में विकृतियाँ आने लगीं। खंडित व्यवहारों के कारण सामाजिक राजनीतिक शक्ति को प्राप्त करने मैं यह जाति असमर्थ रही अथवा उनकी अन्तर्नियंत्रण प्रणाली ने सामाजिक नेतृत्व में पछाड़ दिया। फिर भी समाज में प्रतिष्ठा और सम्मान की दृष्टि से ब्राह्मणों का महत्व था।

आजीविका

अध्ययन-अध्यापन, पौरोहित्य, धार्मिक कर्मकाण्डों का सम्पादन, पूजा-पाठ, ज्योतिष कार्य इत्यादि व्यवसाय ब्राह्मणों की परम्परागत वृत्तियाँ मानी जाती थीं। शिक्षा का काम करने वाले ब्राह्मणों को सामान्यत: राज्य से वेतन अथवा भूमि दी जाती थी। अधिकांश ब्राह्मणों की अजीविका का मुख्य साधन मंदिरों में देवार्चन व पूजा-पाठ का परम्परागत व्यवसाय था। अधिकांश मंदिरों के साथ, राज्य अथवा सामन्तों द्वारा प्रदान की गई जागीर अथवा भूमि जुड़ी हुई थी, जिसका उपयोग ब्राह्मण पुजारी करते थे। इसके अतिरिक्त उन्हें राज्य तथा जनता से नकद चढ़ावा भी मिलता रहता था। वेदाभ्यासी व शास्त्रपाठी ब्राह्मण सम्पूर्ण राज्य में गिने-चुने रहे थे। ज्यादातर ब्राह्मण निरक्षर श्रेणी में थे और व्यवहारों व नियमों में रुढिवादी थे। समाज के सामाजिक और धार्मिक संस्कारों का सम्पादन कराने के लिए प्रत्येक जाति और कुटुम्ब के पुरोहित हुआ करते थे। 'बख्शीखाना' के ठनाम-बहियों से ज्ञात होता है कि ये पुरोहित लोग अपने यजमानों से भेंट, द्रव्य तथा वार्षिक यजमानी प्राप्त करते थे। राज्य अथवा राज्य के सभी ठिकानों के पुरोहित ठबड़ा पालीवाल ब्राह्मण रहे थे, जिन्हें राज्य अथवा ठिकाने की ओर से भूमि का अनुदान मिलता रहता था। महाराणा के पुरोहित राज्य में बड़े पुरोहित कहलाते थे, जिन्हें धार्मिक स्तर पर उच्च एवं प्रथम श्रेणी के सामन्तों के समान प्रतिष्ठा प्राप्त थी। ब्राह्मणों की एक अन्य श्रेणी मृतक संस्कार और क्रिया-कर्म करवाती थी, जिन्हें मेवाड़ में 'ठकर्मान्त्री ब्राह्मण' कहा जाता था। कर्मान्त्री ब्राह्मण, पुरोहितों की श्रेणी से निम्न माने जाते थे। औदिच्य, भट्ट, आमेटा आदि ब्राह्मण ज्योतिष और कथा-वाचक का कार्य करते थे। राज्य द्वारा इस कार्य के लिए द्रव्य और भूमि के साथ-साथ राज ज्योतिष, कथा-भट्ट, कथा-व्यास आदि का सम्मान भी दिया जाता था। इसके पश्चात् तृतीय श्रेणी पुजारी और पंचागपाठी ब्राह्मणों की थी।

पैतृक व्यवसाय

राज्य के प्रत्येक मंदिर का पुजारी ब्राह्मण होता था। पंचागपाठी ब्राह्मण ग्राम, बस्तियों व शहरों में बस्ती-कार्य करते थे। आचार्य लोग वैद्यक का कार्य करते थे। मेवाड़ के कुछ ब्राह्मणों ने व्यापार-वाणिज्य को पैतृक व्यवसाय के रूप में अपना रखा था। सामान्यत: श्रीमाली ब्राह्मण दूध बेचने तथा हलवाई का धन्धा करते थे तथा पारख व नागर ब्राह्मण हीरे-जवाहरात परखने व गोटा किनारी बेचने का काम करते थे। भीलवाड़ा के खण्डेलवाल ब्राह्मण व उदयपुर में नागर, पारख व श्रीमालियों के अनेक परिवार अभी भी अपना पैतृक कार्य करते थे। किन्तु वर्तमान शताब्दी के प्रथम दो-तीन दशकों तक ब्राह्मणों द्वारा व्यापार-वाणिज्य का कार्य उत्तम नहीं माना जाता था। ग्रामीण ब्राह्मण कृषि के व्यवसाय को भी अपना चुके थे। धार्मिक और राज्य सेवा के बदले भूमि दी जाती थी, उस भूमि को प्राप्त कर कालान्तर में ये ब्राह्मण लघु कृषक बन जाते थे। कृषि करने वाले ब्राह्मणों को भूमि-कर के मामले में सुविधाएँ प्रदान की जाती थीं।

राजपूत

मेवाड़ में सामन्ती व्यवस्था पर आधारित समाज में राजपूत जाति का एक विशिष्ट स्थान था। राज परिवार तथा शासक जाति से सम्बंधित होने के कारण ब्राह्मणों के बाद समाज में राजपूतों का काफ़ी उच्च स्थान था। राजपूत अपने को तीन वंश में से किसी एक से सम्बंधित करता था-

  1. अयोध्या के राजा राम से उत्पन्न सूर्य वंश
  2. द्वारिका के राजा श्रीकृष्ण से उत्पन्न चन्द्र वंश
  3. वशिष्ठ ऋषि द्वारा आबू पर्वत पर यज्ञ से उत्पन्न अग्निवंश

इन तीन राजपूत वंशों में, जिसमें 16 सूर्यवंशीय, 16 चन्द्रवंशीय और 4 अग्निवंशीय थे, सम्पूर्ण जाति वर्गीकृत थी। सामूहिक रूप से ये छत्तीस-कुल कहलाते थे। लेकिन मेवाड़ में केवल 13 कुल ही विद्यमान थे। यह कुल व्यवस्था पुन: खापों और खापों से पैतृक जागीर के मुखिया के नाम पर उप-खापों में विभाजित थी। मेवाड़ के महाराणा के सिसोदिया कुल के सदस्य होने के कारण राजपूत जातियों में सिसोदिया कुल का विशेष महत्व था। यदि कहीं राजपूत-जातीयता का संशय उत्पन्न हो जाता तो राणा के निर्णय को अंतिम मान लिया जाता था। राज्य के शेष राजपूत कुलों की प्रतिष्ठा का स्तर उनकी जागीरों तथा महाराणा द्वारा दिये जाने वाले सम्मान द्वारा निर्धारित होता था। राजपूतों में विवाह सम्बन्ध की दृष्टि से उच्च परम्परा विद्यमान थी। एक ही वंश के राजपूत-कुल परम्पर विवाह कर सकते थे। अग्निवंशीय राजपूत का पुत्र सूर्य और चन्द्र की कन्या से विवाह नहीं कर सकता था, जबकि सूर्य वंशीय राजपूत पुत्र के लिए अन्य दोनों वंश से सम्बन्ध हो सकते थे। खान-पान व्यवहार में वंश भेद व्याप्त नहीं था।


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