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'''चेहलुम''' अथवा '''चेहल्लुम''' एक [[मुस्लिम]] पर्व है। चेहलुम वस्तुत: इज़ादारी असत्य पर सत्य की जीत के रूप में भी मनाया जाता है। वास्तव में चेहलुम हज़रत हुसैन की शहादत का चालीसवां होता है। इस दिन न केवल [[भारत]], बल्कि संपूर्ण विश्व में चेहल्लुम का आयोजन किया जाता है। वैसे सफ़ेद [[ताज़िया]] इसलिए भी निकाला जाता है कि हज़रत इमाम मेंहदी के पिता हज़रत इमाम अस्करी की भी शहादत हुई थी। कुछ लोग इस बात का आरोप भी लगाते हैं कि चेहल्लुम हज़रत उमर की मृत्यु की खुशी में मनाया जाता है, जो सरासर अनुचित है। वास्तव में इसका रिश्ता तो ‘मरग-ए-यज़ीद’ से है। सुप्रसिद्ध [[उर्दू]] [[कवि]] व स्वतंत्रता सेनानी मौलाना मुहम्मद अली ने कहा है कि-
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12:42, 29 नवम्बर 2014 का अवतरण

चेहलुम
चेहलुम
अन्य नाम चेहल्लुम
अनुयायी मुस्लिम
उद्देश्य इस्लाम धर्म के लिए हज़रत मुहम्मद के निवासे इमाम हुसैन की सेवाओं और उनके बलिदानों को स्वीकार करना।
तिथि 20 सफ़र (हिजरी)
अन्य जानकारी मुहर्रम के ताज़िया दफ़नाए जाने के चालीसवें दिन 'चेहलुम' मनाया जाता है।

चेहलुम अथवा चेहल्लुम (अंग्रेज़ी:Chehelom) एक मुस्लिम पर्व है जिसे मुहर्रम के ताज़िया दफ़नाए जाने के चालीसवें दिन मनाया जाता है। चेहलुम वस्तुत: इज़ादारी असत्य पर सत्य की जीत के रूप में भी मनाया जाता है। वास्तव में चेहलुम हज़रत हुसैन की शहादत का चालीसवां होता है। इस दिन न केवल भारत, बल्कि संपूर्ण विश्व में चेहल्लुम का आयोजन किया जाता है। वैसे सफ़ेद ताज़िया इसलिए भी निकाला जाता है कि हज़रत इमाम मेंहदी के पिता हज़रत इमाम अस्करी की भी शहादत हुई थी। कुछ लोग इस बात का आरोप भी लगाते हैं कि चेहल्लुम हज़रत उमर की मृत्यु की खुशी में मनाया जाता है, जो सरासर अनुचित है। वास्तव में इसका रिश्ता तो ‘मरग-ए-यज़ीद’ से है। सुप्रसिद्ध उर्दू कवि व स्वतंत्रता सेनानी मौलाना मुहम्मद अली ने कहा है कि-

‘कत्ल-ए-हुसैन अस्ल में मरग-ए-यज़ीद है।
इस्लाम ज़िंदा होता है हर करबला के बाद॥’[1]

उद्देश्य

इसका आयोजन निस्संदेह इस्लाम धर्म के लिए हज़रत मुहम्मद के निवासे इमाम हुसैन की सेवाओं और उनके बलिदानों को स्वीकार करना है। इमाम हुसैन का व्यक्तित्व हमेशा से बलिदान का आदर्श रहा है। उससे बड़ा बलिदान इस नश्वर संसार में विरले ही मिलेगा। इमाम हुसैन का युग इस्लामी इतिहास में ऐसा युग था, जिसमें इस्लाम के विरुद्ध ऐसी शक्तियां उठ खड़ी हुई थीं, जो सीधे-साधे मुसलमानों को अपना निशाना बनाती थीं। ऐसे में हज़रत हुसैन ने इस्लाम की खोई हुई गरिमा को वापिस लाने और उसे सुदृढ़ करने का भरसक प्रयास किया, यहां तक कि इस पथ पर चलते हुए उन्होंने अपने जान की भी परवाह नहीं की।[1]



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 इमाम हुसैन की याद का पर्व चेहल्लुम (हिंदी) हिंदुस्तान लाइव। अभिगमन तिथि: 29 नवम्बर, 2014।

बाहरी कड़ियाँ

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