वास्तुकला का इतिहास
वास्तुकला किसी स्थान को मानव के लिए वासयोग्य बनाने की कला है। अत: यह कला कालांतर में चाहे जितनी भी जटिल हो गई हो, लेकिन इसका आरंभ मौसम की उग्रता, वन्य पशुओं के भय और शत्रुओं के आक्रमण से बचने के प्रारंभिक उपायों में ही हुआ होगा। मानव सभ्यता के इतिहास का भी कुछ ऐसा ही आरंभ है। इसीलिए विद्वानों ने इसे मानव सभ्यता का 'योजक मसाला' कहा है। आठवीं शताब्दी के बाद और विशेषकर दसवीं से बारहवीं शताब्दी के बीच का काल मन्दिर निर्माण कला का चरमोत्कर्ष माना जा सकता है। आज हम जिन भव्यों मन्दिरों को देखते हैं, उनमें से अधिकतर उसी काल में बनाये गए थे। इस काल की मन्दिर निर्माण कला की मुख्य शैली 'नागर' नाम से जानी जाती है। यद्यपि इस शैली के मन्दिर सारे भारत में पाए जाते हैं तथापि इनके मुख्य केन्द्र उत्तर भारत और दक्कन में थे।
इन्हें भी देखें: वास्तु शास्त्र एवं वास्तुकला
आदिकालीन वास्तु
आदिकाल में शिकारियों और मछुओं ने पहाड़ी गुफाओं में शरण ली होगी। ये गुफाएँ ही शायद मानव निवास के प्राचीनतम रूप रहे होंगे। किसान वृक्षों के झुरमुटों में रहते और सरकंड़े, घास आदि के झोंपड़े बनाते रहे होंगे। अपने पशुओं के साथ घूमने वाले चरवाहे चमड़े के खोलों में रहते रहे होंगे और उन्हें बांसों या लट्ठों से ऊँचा करके डेरे बनाते रहे होंगे। इन्हीं गुफाओं और डेरों में बाद के वास्तुविकास के बीज मिलते हैं। मिस्र के पुराने मकानों के नमूने साक्षी हैं कि अनगढ़ द्वारों चट्टानी दीवारों और छतों वाली प्राकृतिक गुफाओं से ही पत्थर की दीवारें उठाने और उन पर पटियों की छत रखने का विचार उत्पन्न हुआ। झुरमुटों के अनुरूप झोंपड़े बने, जिनकी दीवारें परस्पर सटाकर गाड़ी हुई शाखाओं से और छत घास से बनाई गई। इस प्रकार के एकमंजिले और दुमंजिले झोंपड़े अब भी आदिवासी बनाते हैं। चमड़े के डेरे भी अरब के बद्दू और अन्य घुमंतू जातियाँ काम में लाती हैं। प्रागैतिहासिक अवशेष, जिनका वास्तुकीय की अपेक्षा पुरातात्विक महत्व ही अधिक है, प्राय: एकाश्मक[1], स्तूप[2] तथा स्विट्जरलैंड, इटली या आयरलैंड में मिले सरोवरनिवासों के रूप में हैं। बाद में धीरे-धीरे इनका विकास होता गया।[3]
प्राच्य और पाश्चात्य वास्तु
विकसित वास्तु को दो स्थूल वर्गों में बाँटा जा सकता है: एक तो प्राच्य, जैसे- भारतीय, चीनी और जापानी वास्तु, जो प्राय: स्वतंत्र शैलियाँ हैं और जिनका वास्तुविकास में विशेष प्रभाव नहीं पड़ा; और दूसरा पाश्चात्य वास्तु, जिसका आरंभ मिस्र और सीरिया में हुआ और चरम विकास यूरोप में हुआ। प्राचीन अमरीकी और इस्लामी वास्तु भी स्वतंत्र शैलियाँ हैं। यद्यपि इस्लामी वास्तु का अमिट प्रभाव स्पेन तक पड़ा। मिस्र और पश्चिमी एशिया का प्रभाव यूनान पर और फलत: सारी पाश्चात्य शैलियों पर पड़ा, इसलिए वे पाश्चात्य वास्तु के अंतर्गत ही आ सकते हैं।
प्राचीन कला में अनेक ऐसी बातें हैं जिनके अभ्यस्त यूरोपीय लोग नहीं हैं, इसलिए वे उन्हें अप्रिय और विरूप लगती हैं। किंतु प्रयोग ही धीरे-धीरे प्रकृति बन जाता है। इसलिए पूर्वी और पश्चिमी वास्तु में अनिवार्यत: कुछ भेद है, जो विशुद्ध प्राच्य वास्तु में विशिष्ट धार्मिक कृत्यों और सामाजिक प्रथाओं के प्रभाव के रूप में उद्व्यक्त होता है। पूर्व में अलंकरण योजनाएँ ही प्रमुख रही हैं जबकि यूरोप में निर्माण संबंधी समस्याओं का दृढ़तापूर्वक सामना करते हुए उनके क्रमिक समाधान द्वारा वास्तु विकसित हुआ।
वास्तुकला के ऐतिहासिक विकास के प्रत्येक प्रमुख चरण के मूल में कोई न कोई विचारधारा स्पष्ट झलकती है। यूनानी वास्तु में परिष्कृत पूर्णता थी, रोमन इमारतें अपने वैज्ञानिक निर्माण के लिए प्रसिद्ध हैं, फ्रांसीसी गॉथि वास्तु उग्र क्रियाशीलता का द्योतक है, इतालवी पुनरुद्धार में उस युग का पांडित्य झलकता है और भारतीय वास्तु का प्रमुख गुण है उसका आध्यात्मिक विषय। इसमें संदेह नहीं, कि जनता की तत्कालीन धार्मिक चेतना मूर्त रूप में व्यक्त करना ही भारतीय वास्तु का मूल उद्देश्य रहा है, अर्थात् जनभावना ही ईंट पत्थर में मूर्त हुई है।[3]
पत्थर निर्मित वास्तुकला
अशोक के शासनकाल में दक्षिण एशिया की सबसे विशिष्ट और अतिमहत्त्वपूर्ण पत्थर निर्मित वास्तुकला परंपरा भी देखने को मिलती है। बिहार में गया के निकट बाराबार और नागार्जुनी पहाड़ियों में पत्थर निर्मित वास्तुकला की अनेक श्रंखलाएं परिलक्षित हैं। उनमें अभिचित्रित अनेक अभिलेखों से यह पता चलता है कि वे कुछ आजीवक सन्न्यासियों, संभवत: जैन धर्म के अनुयायियों को निवास हेतु दी गई थीं। पुरातात्विक दृष्टिकोण से वे भारत में पत्थर निर्मित वास्तुकला शैली का एक प्रारंभिक उदाहरण हैं। तत्कालीन युग में बनने वाले लकड़ी और घासफूस के ढांचों का वे प्रतीक हैं। सुदामा और लोभास ऋषि गुफाएं दो प्रसिद्ध ऋषि आश्रम थे। उन गुफाओं में प्रवेश द्वार के साथ-साथ वृत्ताकर कमरे, गोलाकार छत और गोलीय कोठरियाँ बनीं होती थीं।
भारतीय वास्तु
भारतीय वास्तु की विशेषता यहाँ की दीवारों के उत्कृष्ट और प्रचुर अलंकरण में है। भित्तिचित्रों और मूर्तियों की योजना, जिसमें अलंकरण के अतिरिक्त अपने विषय के गंभीर भाव भी व्यक्त होते हैं, भवन को बाहर से कभी कभी पूर्णतया लपेट लेती है। इनमें वास्तु का जीवन से संबंध क्या, वास्तव में आध्यात्मिक जीवन ही अंकित है। न्यूनाधिक उभार में उत्कीर्ण अपने अलौकिक कृत्यों में लगे हुए देश भर के देवी देवता तथा युगों पुराना पौराणिक गाथाएँ, मूर्तिकला को प्रतीक बनाकर दर्शकों के सम्मुख अत्यंत रोचक कथाओं और मनोहर चित्रों की एक पुस्तक सी खोल देती हैं।
किंतु इस व्यापक विशेषता के साथ यह भी एक आश्चर्यजनक तथ्य है कि भारत की प्राचीनतम कला, जैसी दो तीन हज़ार वर्ष ई.पू. विकसित सिंधु घाटी सभ्यता की खोज से प्रकाश में आई है, सौंदर्य की दृष्टि से ऐसी ही शून्य थी, जैसी आज कल की कोई भी सभ्यता जागरण की अँगड़ाई भी न ले पाई थी, भारत की यह कला इतनी विकसित थी, इन बस्तियों के निर्माताओं का नगर नियोजन संबंधी ज्ञान इतना परिपक्व था, उनके द्वारा प्रयुक्त सामग्री ऐसी उत्कृष्ट कोटि की थी और रचना इतनी सुदृढ़ थी कि उस सभ्यता का आरंभ बहुत पहले, लगभग चार पाँच हज़ार वर्ष, ईसा पूर्व, मानने को बाध्य हो पड़ता है। हड़प्पा और मोहन जोदड़ो की खुदाइयों से प्राप्त अवशेष तत्कालीन भौतिक समृद्धि के सूचक हैं और उनमें किसी मंदिर, देवालय आदि के अभाव से यह अनुमान होता है कि वहाँ धार्मिक विचारों का कुछ विशेष स्थान न था, अथवा यदि था तो वह निराकार था।[3]
मुग़ल काल
मुग़लों ने भव्य महलों, क़िलों, द्वारों, मस्जिदों, बावलियों आदि का निर्माण किया। उन्होंने बहते पानी तथा फ़व्वारों से सुसज्जित कई बाग़ लगवाये। वास्तव में महलों तथा अन्य विलास-भवनों में बहते पानी का उपयोग मुग़ल की विशेषता थी। बाबर स्वयं बाग़ों का बहुत शौकीन था और उसने आगरा तथा लाहौर के नज़दीक कई बाग़ भी लगवाए। जैसे काश्मीर का निशात बाग़, लाहौर का शालीमार बाग़ तथा पंजाब तराई में पिंजोर बाग़, आज भी देखे जा सकते हैं। शेरशाह ने वास्तुकला को नयी दिशा दी। सासाराम (बिहार) में उसका प्रसिद्ध मक़बरा तथा दिल्ली के पुराने क़िले में उसकी मस्जिद वास्तुकला के आश्चर्यजनक नमूने हैं। ये मुग़ल-पूर्वकाल के वास्तुकला के चर्मोंत्कर्ष तथा नई शैली के पाररंम्भिक नमूने हैं। अकबर पहला मुग़ल सम्राट था जिसके पास बड़े पैमान पर निर्माण करवाने के लिए समय और साधन थे। उसने कई क़िलों का निर्माण किया जिसमें सबसे प्रसिद्ध आगरे का क़िला है। लाल पत्थर से बने इस किले में कई भव्य द्वार हैं। क़िला निर्माण का चर्मोंत्कर्ष शाहजहाँ द्वारा निर्मित दिल्ली का लाल क़िला है।
मंदिरों की वास्तुकला
इसकी प्रमुख विशेषता 'प्रतिमा-कक्ष' (जिसे गर्भगृह कहा जाता है) के ऊपर की छत थी, जो गोल और बड़ी होती थी। यद्यपि इसके हर तरफ़ प्रक्षेप हो सकते थे। 'प्रतिमा कक्ष' से लगा एक और कमरा होता था जिसे 'मंडप' कहते थे और कभी-कभी मन्दिर के चारों ओर बड़ी-बड़ी दीवारें होती थीं जिनमें बड़े-बड़े फाटक थे। इस शैली के प्रमुख उदाहरण मध्य प्रदेश में खजुराहो तथा उड़ीसा में भुवनेश्वर के मन्दिर हैं। विश्वनाथ मन्दिर तथा खजुराहो का कन्दारिया महादेव का मन्दिर इस शैली के उत्कृष्ट और सुन्दरतम उदाहरण हैं। इन मन्दिरों पर बारीक खुदाइयों से पता चलता है कि इस काल में मूर्ति कला अपने शिखर पर थी। इनमें से अधिकतर मन्दिरों का निर्माण चंदेलों ने किया था जो इस क्षेत्र में नवीं शताब्दी के आरम्भ से लेकर तेरहवीं शताब्दी के अन्त तक राज्य करते रहे।
भव्य मन्दिरों का निर्माण
उड़ीसा में इस काल के मन्दिर निर्माण का सबसे उत्कृष्ट उदाहरण कोणार्क का सूर्य मन्दिर (13 वीं शताब्दी) तथा लिंगराज मन्दिर (11 वीं शताब्दी में निर्मित) हैं। पुरी का प्रसिद्ध जगन्नाथ मन्दिर भी इसी काल की देन है।
उत्तर भारत के और स्थानों में मथुरा, वाराणसी, दिलवाड़ा (आबू) आदि में भी बड़ी संख्या में मन्दिरों का निर्माण हुआ। दक्षिण भारत की तरह यहाँ भी मन्दिर और अधिक होते गए।
ये सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन के केन्द्र भी थे। इनमें से सोमनाथ मन्दिर जैसे कुछ मन्दिरों ने अपार सम्पत्ति इकट्ठी कर ली। ये कई गाँव पर शासन करने लगे। उन्होंने व्यापार में भी भाग लिया।
मुस्लिम वास्तु
वास्तुकला पर मुसलमानों के आक्रमण का जितना प्रभाव भारत में पड़ा उतना अन्यत्र कहीं नहीं, क्योंकि जिस सभ्यता से मुस्लिम सभ्यता की टक्कर हुई, किसी से उसका इतना विरोध नहीं था जितना भारतीय सभ्यता से। चिर प्रतिष्ठित भारतीय सामाजिक और धार्मिक प्रवृत्तियों की तुलना में मुस्लिम सभ्यता बिलकुल नई तो थी ही, उसके मौलिक सिद्धात भी भिन्न थे। दोनों का संघर्ष यथार्थवाद का आदर्शवाद से, वास्तविकता का स्वप्नदर्शिता से और व्यक्त का अव्यक्त से संघर्ष था, जिसका प्रमाण मस्जिद और मंदिर के भेद में स्पष्ट है। मस्जिदें खुली हुई होती हैं, उनका केंद्र सुदूर मक्का की दिशा में होता है; जबकि मंदिर रहस्य का घर होता है, जिसका केंद्र अनेक दीवारों एवं गलियारों से घिरा हुआ बीच का देवस्थान या गर्भगृह होता है। मजिस्द की दीवारें प्राय: सादी या पवित्र आयतों से उत्कीर्ण होती हैं, उनमें मानव आकृतियों का चित्रण निषिद्ध होता है; जबकि मंदिरों की दीवारों में मूर्तिकला और मानवकृति चित्रण उच्चतम शिखर पर पहुँचा, पर लिखाई का नाम न था। पत्थरों के सहल रंगों में ही इस चित्रण द्वारा मंदिरों की सजीवता आई; जबकि मस्जिदों में रंगबिरंगे पत्थरों, संगमर्मर और चित्र विचित्र पलस्तर के द्वारा दीवारें मुखर की गई।
गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत पर एक ही प्रकार की भारी भरकम संरचनाएँ खड़ी करने में सिद्धहस्त, भारतीय कारीगरों की युगों युगों से एक ही लीक पर पड़ी, निष्प्रवाह प्रतिभा, विजेताओं द्वारा अन्य देशों से लाए हुए नए सिद्धांत, नई पद्धतियाँ और नई दिशा पाकर स्फूर्त हो उठी। फलस्वरूप धार्मिक इमारतों, जैसे मस्जिदों, मक़बरों, रौजों और दरगाहों के अतिरिक्त अन्य अनेक प्रकार की धर्मनिरपेक्ष इमारतें भी, जैसे महल, मंडप, नगरद्वार, कूप, उद्यान, और बड़े बड़े किले, यहाँ तक कि सारा शहर घेरने वाले परकोटे तक तैयार हुए। देश में उत्तर से दक्षिण तक जैसे जैसे मुस्लिम प्रभत्व बढ़ता गया, वास्तुकला का युग भी बदलता गया। मुस्लिम वास्तु के तीन क्रमिक चरण स्पष्ट हैं। पहला चरण, जो बहुत थोड़े समय रहा, विजयदर्प और धर्मांधता से प्रेरित 'निर्मूलन' का था, जिसके बारे में हसन निज़ामी लिखता है कि प्रत्येक किला जीतने के बाद उसके स्तंभ और नीव तक महाकाय हाथियों के पैरों तले रौंदवाकर धूल में मिला देने का रिवाज था। अनेक दुर्ग, नगर और मंदिर इसी प्रकार अस्तित्वहीन किए गए। तदनंतर दूसरा चरण सोद्देश्य और आंशिक विध्वंस का आया, जिसमें इमारतें इसलिए तोड़ी गई कि विजेताओं की मस्जिदों और मकबरों के लिए तैयार माल उपलब्ध हो सके। बड़ी-बड़ी धरने और स्तंभ अपने स्थान से हटाकर नई जगह ले जाने के लिए भी हाथियों का ही प्रयोग हुआ। प्राय: इसी काल में मंदिरों को विशेष क्षति पहुँची, जो विजित प्रांतों की नयी नयी राजधानियों के निर्माण के लिए तैयार माल की खान बन गए और उत्तर भारत से हिंदू वास्तु की प्राय: सफाई ही हो गई। अंतिम चरण तब आरंभ हुआ, जब आक्रांता अनेक भागों में भली भाँति जग गए थे और उन्होंने प्रत्यवस्थापन के बजाय योजनाबद्ध निर्माण द्वारा सुविन्यस्त और उत्कृष्ट वास्तुकृतियाँ वस्तुत कीं।
मुस्लिम वास्तु की शैलियाँ
शैलियों की दृष्टि से भी मुस्लिम वास्तु के तीन वर्ग हो सकते हैं।
- पहला दिल्ली, अथवा शहंशाही है, जिसे प्राय: 'पठान वास्तु' (1193-1554) कहते हैं। (यद्यपि इसके सभी पोषक 'पठान' नहीं थे) इस वर्ग में दिल्ली की कुतुबमीनार (1200), सुल्तान गढ़ी (1231), अल्तमश का मक़बरा (1236), अलाई दरवाज़ा (1305), निजामुद्दीन (1320), गयासुद्दीन तुगलक (1325) और फीरोजशाह तुगलक (1388) के मक़बरे, कोटला फीरोजशाह (1354-1490), मुबारकशाह का मक़बरा (1434), मेरठ की मस्जिद (1505), शेरशाह की मस्जिद (1540-45) सहसराम का शेरशाह का मक़बरा (1540-45), और अजमेर का अढ़ाई दिन का झोंपड़ा (1205) आदि उल्लेखनीय हैं।
- दूसरे वर्ग में प्रांतीय शैलियाँ हैं। इनमें पंजाब शैली (1150-1325 ई.); जैसे मुल्तान के श्रकने आलम (1320) और शाहयूसुफ गर्दिजी (1150), तब्रिजी (1276), बहाउलहक (1262) के मकबरे; बंगाल शैली (1203-1573): जैसे पंडुआ की अदीना मस्जिद (1364), गौर के फतेहखाँ का मक़बरा (1657), क़दम रसूल (1530), तांतीमारा मस्जिद (1475); गुजरात शैली (1300-1572) : जैसे खंबे (1325), अहमदाबाद (1423), भड़ोच और चमाने (1523) की जामा मस्जिदें, नगीना मस्जिद मक़बरा (1525); जौनपुर शैली (1376-1479 : जैसे अटाला मस्जिद (1408), लाल दरवाज़ा मस्जिद (1450), जामा मस्जिद (1470); मालवा शैली (1405-1569) : जैसे माडू के जहाजमहल (1460), होशंग का मक़बरा (1440), जामा मस्जिद (1440), हिंडोला महल (1425), धार की लाट मस्जिद (1405), चंदेरी का बदल महल फाटक (1460), कुशक महल (1445), शहज़ादी का रौजा (1450); दक्षिणी शैली (1347-1617): जैसे गुलबर्गा की जामा मस्जिद (1367) और हफ्त गुंबज (1378), बीदर का मदरसा (1481), हैदराबाद की चारमीनार (1591) आदि; बीजापुर खानदेश शैली (1425-1660), जैसे बीजापुर के गोलगुंबज (1660), रौजा इब्राहीम (1615) और जामा मस्जिद (1570), थालनेर खानदेश के फारूकी वंश के मकबरे (15 वीं शती); और कश्मीर शैली (15-17 वीं शती) : जैसे श्रीनगर की जामा मस्जिद (1400), शाह हमदन का मक़बरा (17 वीं शती) आदि, सम्मिलित हैं।
- तीसरे वर्ग में मुग़ल शैली आती है, जिसके उत्कृष्टतम नमूने दिल्ली, आगरा, फतेहपुर सीकरी, लखनऊ, लाहौर आदि में किलों, मकबरों, राजमहलों, उद्यान मंडपों आदि के रूप में मौजूद हैं। इसी काल में कला पत्थर से बढ़कर संगमरमर तक पहुँची और दिल्ली के दीवाने ख़ास, मोती मस्जिद, जामा मस्जिद और आगरा के ताजमहल जैसी विश्वविख्यात कृतियाँ तैयार हुई।
बृहत्तर भारत का वास्तु
भारतीय कला के उत्कृष्ट नमूने भारत के बाहर लंका, नेपाल, बर्मा (वर्तमान म्यांमार), स्याम, जावा, बाली, हिंदचीन और कंबोडिया में भी मिलते हैं। नेपाल के शंभुनाथ, बोधनाथ, मामनाथ मंदिर, लंका में अनुराधापुर का स्तूप और लंकातिलक मंदिर, बरमा के बौद्ध मठ और पगोडा, कंबोडिया में अंकोर के मंदिर, स्याम में बैंकॉक के मंदिर, जावा में प्रांबनाम का बिहार, कलासन मंदिर और बोरोबंदर स्तूप आदि हिंदू और बौद्ध वास्तु के व्यपक प्रसार के प्रमाण हैं। जावा में भारतीय संस्कृति के प्रवेश के कुछ प्रमाण 4वीं शती ईसवी के मिलते हैं। वहाँ के अनेक स्मारकों से पता लगता है कि मध्य जावा में 625 से 928 ई. तक वास्तुकला का स्वर्णकाल और पूर्वी जावा में 928 से 1478 ई. तक रजतकाल था।
बीसवीं सदी का वास्तु
सन् 1911 ई. में ब्रिटिश राज्य उन्नति के शिखर पर था। उसी समय दिल्ली दरबार में घोषणा की गई और साम्राज्य की राजधानी के अनुरूप एक नई दिल्ली में और सारे भारत के ज़िला सदर स्थानों तक में, सुंदर इमारतें बनवाई, जिनमें अनेक कार्यालय भवन, गिरजे और ईसाई क़ब्रिस्तान कला की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं। सरकारी प्रयास से नई दिल्ली में राजभवन (अब राष्ट्रपति भवन), सचिवालय भवन, संसद भवन जैसी भव्य इमारतें बनीं, जिनमें पाश्चात्य कला के साथ हिंदू, बौद्ध और मुस्लिम कला का सुखद सम्मिश्रण दिखाई देता है।
मंदिर वास्तु भी, जो केवल व्यक्तिगत प्रयास से अपना अस्तित्व बनाए रहा, कुछ कुछ इसी दिशा में झुका। मुस्लिम वास्तु के अनुकरण पर अशोककालीन शिलालेखों की प्रथा पुन: प्रतिष्ठित हुई और मंदिरों मे भीतर बाहर, मूर्तियों और चित्रों के साथ लेखों को भी स्थान मिलने लगा। दिल्ली का लक्ष्मीनारायण मंदिर और हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी का शिवमंदिर बीसवीं शती के मंदिरवास्तु की उत्कृष्ट कृतियाँ हैं। मंदिरों के अतिरिक्त राजाओं के महल और विद्यालय आदि भी कला को प्रश्रय देते रहे। काशी हिंदू विश्वविद्यालय की सभी इमारतें और वाराणसी का भारतमाता मंदिर, काशी विश्वनाथ की मंदिरों वाली नगरी में दर्शकों के लिए विशेष आकर्षण के केंद्र हैं। कुशीनगर में बने निर्वाण विहार, बुद्ध मंदिर और सरकारी विश्रामगृह में बौद्ध कला को पुनर्जीवन मिला है। दिल्ली में लक्ष्मीनारायण मंदिर के साथ भी एक बुद्ध मंदिर है। इस प्रकार किसी शैली विशेष के पति अनाग्रह और उत्कृष्टता के लिए समन्वय 20वीं सदी की विशेषता समझी जा सकती है।
गुहा वास्तु
गुहा वास्तु भारतीय प्राचीन वास्तुकला का एक बहुत ही सुन्दर नमूना है। अशोक के शासनकाल से गुहाओं का उपयोग आवास के रूप में होने लगा था। गया के निकट बराबर पहाड़ी पर ऐसी अनेक गुफ़ाएँ विद्यमान हैं, जिन्हें सम्राट अशोक ने आवास योग्य बनवाकर आजीवकों को दे दिया था। अशोककालीन गुहायें सादे कमरों के रूप में होती थीं, लेकिन बाद में उन्हें आवास एवं उपासनागृह के रूप में स्तम्भों एवं मूर्तियों से अलंकृत किया जाने लगा। यह कार्य विशेष रूप से बौद्धों द्वारा किया गया।
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