वास्तु शास्त्र

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हमारे ग्रंथ पुराणों आदि में वास्तु एवं ज्योतिष से संबंधित गूढ़ रहस्यों तथा उसके सदुपयोग सम्बंधी ज्ञान का अथाह समुद्र व्याप्त है जिसके सिद्धान्तों पर चलकर मनुष्य अपने जीवन को सुखी, समृद्ध, शक्तिशाली और निरोगी बना सकता है। प्रभु की भक्ति में लीन रहते हुए उसके बताये मार्ग पर चलकर वास्तुसम्मत निर्माण में रहकर और वास्तुविषयक ज़रूरी बातों को जीवन में अपनाकर मनुष्य अपने जीवन को सुखी व सम्पन्न बना सकता है। सुखी परिवार अभियान में वास्तु एक स्वतंत्र इकाई के रूप में गठित की गयी है और उस पर गहन अनुसंधान जारी है। असल में वास्तु से वस्तु विशेष की क्या स्थित होनी चाहिए। उसका विवरण प्राप्त होता है। श्रेष्ठ वातावरण और श्रेष्ठ परिणाम के लिए श्रेष्ठ वास्तु के अनुसार जीवनशैली और ग्रह का निर्माण अतिआवश्यक है। इस विद्या में विविधताओं के बावजूद वास्तु सम्यक उस भवन को बना सकते हैं। जिसमें कि कोई व्यक्ति पहले से निवास करता चला आ रहा है। वास्तु ज्ञान वस्तुतः भूमि व दिशाओं का ज्ञान है।

वास्तु के प्रादुर्भाव की कथा

भृगु, अत्रि, वसिष्ठ, विश्वकर्मा, मय, नारद, नग्नजित, भगवान शंकर, इन्द्र, ब्रह्मा, कुमार, नन्दीश्वर, शौनक, गर्ग, वासुदेव, अनिरुद्ध, शुक्र तथा बृहस्पति- ये अठारह वास्तुशास्त्र के [1] उपदेष्टा माने गये हैं जिसे मत्स्य रूपधारी भगवान ने संक्षेप में मनु के प्रति उपदेश किया था। प्राचीन काल में भयंकर अन्धक-वध के समय विकराल रूपधारी भगवान शंकर के ललाट से पृथ्वी पर स्वेदबिन्दु गिरे थे। उससे एक भीषण एवं विकराल मुखवाला उत्कट प्राणी उत्पन्न हुआ। वह ऐसा प्रतीत होता था मानो सातों द्वीपों सहित वसुंधरा तथा आकाश को निगल जायगा। तत्पश्चात् वह पृथ्वी पर गिरे हुए अन्धकों के रक्त का पान करने लगा। इस प्रकार वह उस युद्ध में पृथ्वी पर गिरे हुए सारे रक्त का पान कर गया। किंतु इतने पर भी जब वह तृप्त न हुआ, तब भगवान सदाशिव के सम्मुख अत्यन्त घोर तपस्या में संलग्न हो गया। भूख से व्याकुल होने पर जब वह पुन: त्रिलोकी को भक्षण करने के लिये उद्यत हुआ, तब उसकी तपस्या से संतुष्ट होकर भगवान शंकर उससे बोले-[2]

' निष्पाप! तुम्हारा कल्याण हो, अब तुम्हारी जो अभिलाषा हो, वह वर माँग लो'[3]

उस प्राणी ने शिव जी से कहा-

'देव देवेश! मैं तीनों लोकों को ग्रस लेने के लिये समर्थ होना चाहता हूँ।'

इस पर त्रिशूलधारी शिव जी ने कहा-'ऐसा ही होगा'। फिर तो वह प्राणी अपने विशाल शरीर से स्वर्ग, सम्पूर्ण भूमण्डल और आकाश को अवरुद्ध करता हुआ पृथ्वी पर आ गिरा, तब भयभीत हुए देवताओं तथा ब्रह्मा, शिव, दानव, दैत्य और राक्षसों द्वारा वह स्तम्भित कर दिया गया। उस समय जिसने उसे जहाँ पर आक्रान्त कर रखा था, वह वहीं निवास करने लगा। इस प्रकार सभी देवताओं के निवास करने के कारण वह वास्तु नाम से विख्यात हुआ। तब उस दबे हुए प्राणी ने भी सभी देवताओं से निवेदन किया-

'देवगण! आप लोग मुझ पर प्रसन्न हों। आप लोगों द्वारा मैं दबाकर निश्चल बना दिया गया हूँ। भला इस प्रकार अवरुद्ध कर दिये जाने पर नीचे मुख किये हुए मैं किस तरह कब तक स्थित रह सकूँगा।'

उसके ऐसा निवेदन करने पर ब्रह्मा आदि देवताओं ने कहा-

'वास्तु के प्रसंग में तथा वैश्वदेव के अन्त में जो बलि दी जायगी, वह निश्चय ही तुम्हारा आहार होगी। वास्तु-शान्ति के लिये जो यज्ञ होगा, वह भी तुम्हें आहार के रूप में प्राप्त होगा। यज्ञोत्सव में दी गयी बलि भी तुम्हें आहार रूप में प्राप्त होगी। वास्तु-पूजा न करने वाले भी तुम्हारे आहार होंगे। अज्ञान से किया गया यज्ञ भी तुम्हें आहार रूप में प्राप्त होगा।' ऐसा कहे जाने पर वह वास्तु नामक प्राणी प्रसन्न हो गया। इसी कारण तब से शान्ति के लिये वास्तु-यज्ञ का प्रवर्तन हुआ [4]

वास्तु-चक्र का वर्णन

सूतजी कहते हैं— ऋषियो! अब मैं गृह निर्माण के उस समय का निर्णय बतला रहा हूँ, जिस शुभ समय को जानकर मनुष्य को सर्वदा भवन का आरम्भ करना चाहिये। जो मनुष्य

  1. चैत्र मास में घर बनाता है, वह व्याधि,
  2. वैशाख में घर बनाने वाला धेनु और रत्न तथा
  3. ज्येष्ठ में मृत्यु को प्राप्त होता है।
  4. आषाढ़ में नौकर, रत्न और पशु समूह की और
  5. श्रावण में नौकरों की प्राप्ति तथा
  6. भाद्रपद में हानि होती है।
  7. आश्विन में घर बनाने से पत्नी का नाश होता है।
  8. कार्तिक मास में धन-धान्यादि की तथा
  9. मार्गशीर्ष में श्रेष्ठ भोज्यपदार्थों की प्राप्ति होती है।
  10. पौष में चोरों का भय और
  11. माघ मास में अनेक प्रकार के लाभ होते हैं, किन्तु अग्नि का भी भय रहता है।
  12. फाल्गुन में सुवर्ण तथा अनेक पुत्रों की प्राप्ति होती है। इस प्रकार समय का फल एवं बल बतलाया जाता है।

गृहारम्भ

  • गृहारम्भ में अश्विनी, रोहिणी, मूल, तीनों उत्तरा, मृगशिरा, स्वाती, हस्त और अनुराधा- ये नक्षत्र प्रशस्त कहे गये हैं।
  • रविवार और मंगलवार को छोड़कर शेष सभी दिन शुभदायक हैं।
  • व्याघात, शूल, व्यतीपात; अतिगण्ड, विष्कम्भ, गण्ड, परिघ और वज्र-इन योगों में गृहारम्भ नहीं करना चाहिये।
  • श्वेत, मैत्र, माहेन्द्र, गान्धव, अभिजित, रौहिण, वैराज और सावित्र- इन मुहूर्तों में गृहारम्भ करना चाहिये।
  • चन्द्रमा और सूर्य के बल के साथ-ही-साथ शुभ लग्न का भी निरीक्षण करना चाहिये।
  • सर्वप्रथम अन्य कार्यों को छोड़कर स्तम्भरोपण करना चाहिये। यही विधि प्रासाद, कूप एवं बावलियों के लिये भी मानी गयी है। [5]

भूमि की परीक्षा

  • पहले भूमि की परीक्षा कर फिर बाद में वहाँ गृह का निर्माण करना चाहिये। श्वेत, लाल, पीली और काली- इन चार वर्णों वाली पृथिवी क्रमश: ब्राह्मणादि चारों वर्णों के लिये प्रशंसित मानी गयी है।
  • इसके बाद उसके स्वाद की परीक्षा करनी चाहिये। ब्राह्मण के लिये मधुर स्वाद वाली, क्षत्रिय के लिये कड़वी, वैश्य के लिये तिक्त तथा शूद्र के लिये कसैली स्वाद वाली पृथ्वी उत्तम मानी गयी है। तत्त्पश्चात् भूमि की पुन: परीक्षा के लिये एक हाथ गहरा गड्ढा खोदकर उसे सब ओर से भली-भाँति लीप-पोतकर स्वच्छ कर दे। फिर एक कच्चे पुरवे में घी भरकर उसमें चार बत्तियाँ जला दे और उसे उसी गड्ढे में रख दे। उन बत्तियों की लौ क्रमश: चारों दिशाओं की ओर हों यदि पूर्व दिशा की बत्ती अधिक काल तक जलती रहे तो ब्राह्मण के लिये उसका फल शुभ होता है।

इसी प्रकार क्रमश: उत्तर, पश्चिम और दक्षिण की बत्तियों को क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्रों के लिये कल्याणकारक समझना चाहिये। यदि वह वास्तु दीपक चारों दिशाओं में जलता रहे तो प्रासाद एवं साधारण गृह-निर्माण के लिये वहाँ की भूमि सभी वर्णों के लिये शुभदायिनी है। एक हाथ गहरा गड्ढा खोदकर उसे उसी मिट्टी से पूर्ण करते समय इस प्रकार परीक्षा करे कि यदि मिट्टी शेष रह जाये तो श्री की प्राप्ति होती है, न्यून हो जाय तो हानि होती है तथा सम रहने से समभाव होता है। अथवा भूमि को हल द्वारा जुतवाकर उसमें सभी प्रकार के बीज बो दे। यदि वे बीज तीन, पाँच तथा सात रातों में अंकुरित हो जाते हैं तो उनके फल इस प्रकार जानने चाहिये। तीन रात वाली भूमि उत्तम, पाँच रात वाली भूमि मध्यम तथा सात रात वाली कनिष्ठ है। कनिष्ठ भूमि को सर्वथा त्याग देना चाहिये। इस प्रकार भूमि परीक्षा कर पंचगव्य और औषधियों के जल से भूमि को सींच दे और सुवर्ण की सलाई द्वारा रेखा खींचकर इक्यासी कोष्ठ बनावे।

कोष्ठ बनाने का ढंग इस प्रकार है- पिष्टक से चुपड़े हुए सूत से दस रेखाएँ पूर्व से पश्चिम तथा दस रेखाएँ उत्तर से दक्षिण की ओर खींचे। सभी प्रकार के वास्तु-विभागों में इस नव-नव (9x9=81) अर्थात इक्यासी[6] कोष्ठ का वास्तु बनाना चाहिये। वास्तुशास्त्र को जानने वाला सभी प्रकार के वास्तु सम्बन्धी कार्यों में इसका उपयोग करे।[7]

कोणों का ज्ञान

मनुष्य को ईशान आदि कोणों में हविष्य द्वारा देवताओं की पूजा करनी चाहिये।

शिखी, पर्जन्य, जयन्त, इन्द्र, सूर्य, सत्य, भृश, अन्तरिक्ष, वायु, पूषा, वितथ, बृहत्क्षत, यम, गन्धर्व, भृंगराज, मृग, पितृगण, दौवारिक, सुग्रीव, पुष्पदन्त, जलाधिप, असुर, शोष, पाप, रोग, अहि, मुख्य, भल्लाट, सोम, सर्प, अतिदि और दिति

ये बत्तीस बाह्य देवता हैं। बुद्धिमान पुरुष को ईशान आदि चारों कोणों में स्थित इन देवताओं की पूजा करनी चाहिये। अब वास्तु चक्र के भीतरी देवताओं के नाम सुनिये-आप, सावित्र, जय, रुद्र- ये चार चारों ओर से तथा मध्य के नौ कोष्ठों में ब्रह्मा और उनके समीप अन्य आठ देवताओं की भी पूजा करनी चाहिये। (ये सब मिलकर मध्य के तेरह देवता होते हैं।) ब्रह्मा के चारों ओर स्थित ये आठ देवता, जो क्रमश: पूर्वादि दिशाओं में दो-दो के क्रम से स्थित रहते हैं, साध्य नाम से कहे जाते हैं। उनके नाम सुनिये—

अर्यमा, सविता, विवस्वान, विबुधाधिप, मित्र, राजयक्ष्मा, पृथ्वीधर तथा आठवें आपवत्स। आप, आपवत्स, पर्जन्य, अग्नि तथा दिति- ये पाँच देवताओं के वर्ग हैं। [8] उनके बाहर बीस देवता हैं जो दो पदों में रहते हैं। अर्यमा, विवस्वान, मित्र और पृथ्वीधर-ये चार ब्रह्मा के चारों ओर तीन-तीन पदों में स्थित रहते हैं। [9]

देवों के वंशों का विवरण

अब मैं उनके वंशों को पृथक्-पृथक् संक्षेप में कह रहा हूँ। वायु से लेकर रोगपर्यन्त, पितृगण से शिखीपर्यन्त, मुख्य से भृशपर्यन्त, शोष से वितथपर्यन्त, सुग्रीव से अदितिपर्यन्त तथा मृग से पर्जन्यपर्यन्त- ये ही वंश कहे जाते हैं। कहीं-कहीं मृग से लेकर जयपर्यन्त वंश कहा गया है। पद के मध्य में इनका जो सम्पात है, वह पद, मध्य तथा सम नाम से प्रसिद्ध है। त्रिशूल और कोणगामी मर्मस्थल कहे जाते हैं, जो सर्वदा स्तम्भजन्यास और तुला की विधि में वर्जित माने गये हैं। मनुष्य के लिये यत्नपूर्वक देवता के पदों पर कीलें गाड़ना, जूँठन फैंकना तथा चोटें पहुँचाना वर्जित है। यह वास्तु-चक्र, सर्वत्र पितृवर्गीय वैश्वानर के अधीर माना गया है। उसके मस्तक पर अग्नि और मुख में जल का निवास है, दोनों स्कन्धों पर पृथ्वीधर तथा अर्यमा अधिष्ठित हैं। बुद्धिमान को वक्ष:स्थल पर आपवत्स की पूजा करनी चाहिये। नेत्रों में दिति और पर्जन्य तथा कानों में अदिति और जयन्त हैं। कंधों पर सर्प और इन्द्र की प्रयत्नपूर्वक पूजा करनी चाहिये।

इसी प्रकार बाहुओं में सूर्य और चन्द्रमा से लेकर पाँच-पाँच देवता स्थित हैं। रुद्र और राजयक्ष्मा- ये दोनों बायें हाथ पर अवस्थित हैं। उसी प्रकार सावित्र और सविता दाहिने हाथ पर स्थित हैं। विवस्वान और मित्र- ये उदर में तथा पूषा और पापयक्ष्मा- ये हाथों के मणिबन्धों में स्थित हैं। उसी प्रकार असुर और शोष- ये बायें पार्श्व में तथा दाहिने पार्श्व में वितथ और बृहत्क्षत स्थित हैं। ऊरू भागों पर यम और वरुण, घुटनों पर गन्धर्व, और पुष्पक, दोनों जंघों पर क्रमश: भृंग और सुग्रीव, दोनों नितम्बों पर दौवारिक और मृग, लिंग स्थान पर जय और शक्र तथा पैरों पर पितृगण स्थित हैं मध्य के नौ पदों में, जो हृदय कहलाता है, ब्रह्मा की पूजा होती है। [10]

ब्रह्मा ने प्रासाद के निर्माण में चौंसठ पदों वाले वास्तु को श्रेष्ठ बतलाया हैं उसके चार पदों में ब्रह्मा तथा उनके कोणों में आपवत्स, सविता आदि आठ देवगण स्थित हैं। वास्तु के बाहर वाले कोणों में भी अग्नि आदि आठ देवताओं का निवास है तथा दो पदों में जयन्त आदि बीस देवता स्थित हैं। इस प्रकार चौंसठ पद वाले वास्तु चक्र में देवताओं की स्थिति बतलायी गयी हैं गृहारम्भ के समय गृहपति के जिस अंग में खुजली जान पड़े, महल तथा भवन में वास्तु के उसी अंग पर गड़ी हुई शल्य या कील को निकाल देना चाहिये; क्योंकि शल्य सहित गृह भयदायक और शल्यरहित कल्याणकारक होता है। वास्तु का अधिक एवं हीन अंग का होना सर्वथा त्याज्य है। इसी प्रकार नगर, ग्राम और देश- सभी जगह पर इन दोषों का परित्याग करना चाहिये।

वास्तु शास्त्र के अन्तर्गत राजप्रासाद आदि की निर्माण-विधि

सूत जी कहते हैं—

ऋषियो! अब मैं चतु:शाल [11]त्रिशाल, द्विशाल आदि) भवनों के स्वरूप, उनके विशिष्ट नामों के साथ बतला रहा हूँ। जो चतु:शाल चारों ओर भवन, द्वार तथा बरामदों से युक्त हो, उसे 'सर्वतोभद्र' कहा जाता है। वह देव-मन्दिर तथा राजभवन के लिये मंगलकारक होता है। वह चतु:शाल यदि पश्चिम द्वार से हीन हो तो 'नन्द्यावर्त', दक्षिण द्वार से हीन हो तो 'वर्धमान', पूर्व द्वार से रहित हो तो 'स्वस्तिक' , उत्तर द्वार से विहीन हो तो 'रूचक' कहा जाता है।

अब त्रिशाल भवनों के भेद बतलाते हैं।:-

उत्तर दिशा की शाला से रहित जो त्रिशाल भवन होता है, उसे 'धान्यक' कहते हैं। वह मनुष्यों के लिये कल्याण एवं वृद्धि करने वाला तथा अनेक पुत्र रूप फल देने वाला होता है। पूर्व की शाला से विहीन त्रिशाल भवन को 'सुक्षेत्र' कहते हैं। वह धन, यश और आयु प्रदान करने वाला तथा शोक-मोह का विनाशक होता है। जो दक्षिण की शाला से विहीन होता है, उसे 'विशाल' कहते हैं। वह मनुष्यों के कुल का क्षय करने वाला तथा सब प्रकार की व्याधि और भय देने वाला होता है। जो पश्चिमशाला से हीन होता है, उसका नाम 'पक्षघ्न' है, वह मित्र, बन्धु और पुत्रों का विनाशक तथा सब प्रकार का भय उत्पन्न करने वाला होता है।

अब 'द्विशालों' के भेद कहते हैं:-

दक्षिण एवं पश्चिम- दो शालाओं से युक्त भवन को धनधान्यप्रद कहते हैं। वह मनुष्यों के लिये कल्याण का वर्धक तथा पुत्र प्रद कहा गया है। पश्चिम और उत्तरशाला वाले भवन को 'यमसूर्य' नामक शाल जानना चाहिये। वह मनुष्यों के लिये राजा और अग्नि से भयदायक और कुल का विनाशक होता है। जिस भवन में केवल पूर्व और उत्तर की ही दो शालाएँ हों, उसे 'दण्ड' कहते हैं। वह अकालमृत्यु तथा शत्रुपक्ष से भय उत्पन्न करने वाला होता है। जो पूर्व और दक्षिण की शालाओं से युक्त द्विशाल भवन हो, उसे 'धन' कहते हैं। वह मनुष्यों के लिये शस्त्र तथा पराजय का भय उत्पन्न करने वाला होता है। इसी प्रकार केवल पूर्व तथा पश्चिम की ओर बना हुआ 'चुल्ली' नामक द्विशालभवन मृत्यु सूचक है। वह स्त्रियों को विधवा करने वाला तथा अनेकों प्रकार का भय उत्पन्न करने वाला होता है। केवल उत्तर एवं दक्षिण की शालाओं से युक्त द्विशाल भवन मनुष्यों के लिये भयदायक होता है। अत: ऐसे भवन को नहीं बनवाना चाहिये। बुद्धिमानों को सदा सिद्धार्थ[12] और वज्र से[13] भिन्न द्विशाल भवन बनवाना चाहिये।[14]

राजभवन के भेद

राजभवन उत्तम आदि भेद से पाँच प्रकार का कहा गया है। एक सौ आठ हाथ के विस्तार वाला राजभवन उत्तम माना गया है। अन्य चार प्रकार के भवनों में विस्तार क्रमश: आठ-आठ हाथ कम होता जाता है; किंतु पाँचों प्रकार के भवनों में लम्बाई विस्तार के चतुर्थांश से अधिक होती है। अब मैं युवराज के पाँच प्रकार के भवनों का वर्णन कर रहा हूँ। उसमें उत्तम भवन की चौड़ाई क्रमश: छ:-छ: हाथ कम होती जाती है। इन पाँचों भवनों की लम्बाई चौड़ाई से एक तिहाई अधिक कही गयी है। इसी प्रकार अब मैं सेनापति के पाँच प्रकार के भवनों का वर्णन कर रहा हूँ। उसके उत्तम भवन की चौड़ाई चौंसठ हाथ की मानी गयी है। अन्य चार भवनों की चौड़ाई क्रमश: छ:-छ: हाथ कम होती जाती है। इन पाँचों की लम्बाई चौड़ाई के षष्ठंश से अधिक होनी चाहिये। अब मैं मन्त्रियों के भी पाँच प्रकार के भवन बतला रहा हूँ। उनमें उत्तम भवन का विस्तार साठ हाथ होता है तथा अन्य चार क्रमश: चार-चार हाथ कम चौड़े होते हैं। इन पाँचों की लम्बाई चौड़ाई के अष्टांश से अधिक कही गयी है।

अब मैं सामन्त, छोटे राजा और अमात्य (छोटे मन्त्री) लोगों के पाँच प्रकार के भवनों को बतलाता हूँ। इनमें उत्तम भवन की चौड़ाई अड़तालीस हाथ की होनी चाहिये तथा अन्य चारों की चौड़ाई क्रमश: चार-चार हाथ कम कही गयी है। इन पाँचों भवनों की लम्बाई चौड़ाई की अपेक्षा सवाया अधिक कही गयी है। अब शिल्पकार, कंचुकी और वेश्याओं के पाँच प्रकार के भवनों को सुनिये। इन सभी भवनों की चौड़ाई अट्ठाईस हाथ कही गयी हैं अन्य चारों भवनों की चौड़ाई में क्रमश: दो-दो हाथ की न्यूनता होती है। लम्बाई चौड़ाई से दुगुनी कही गयी है।[15]

पाँच प्रकार के भवन

अब मैं दूती-कर्म करने वालों तथा परिवार के अन्य लोगों के पाँच प्रकार के भवनों को बतला रहा हूँ। उनकी चौड़ाई बारह हाथ की तथा लम्बाई उससे सवाया अधिक होती है। शेष चार गृहों की चौड़ाई क्रमश: आधा-आधा हाथ न्यून होती है। अब मैं ज्योतिषी, गुरु, वैद्य, सभापति और पुरोहित- इन सभी के पाँच यप्रकार के भवनों का वर्णन कर रहा हूँ। उनके उत्तम भवन की चौड़ाई चालीस हाथ की होती है। शेष की क्रम से चार-चार हाथ की कम होती है। इन पाँचों भवनों की लम्बाई चौड़ाई के षष्ठंश से अधिक होती है।

अब फिर साधारणतया चारों वर्णों के लिये पाँच प्रकार के गृहों का वर्णन करता हूँ। उनमें ब्राह्मण के घर की चौड़ाई बत्तीस हाथ की होनी चाहिये। अन्य जातियों के लिये क्रमश: चार-चार हाथ की कमी होनी चाहिये। [16] किन्तु सोलह हाथ से कम की चौड़ाई से दशांश, क्षत्रिय के घर की अष्टमांश, वैश्य के घर की तिहाई और शूद्र के घर की चौथाई भाग अधिक होनी चाहिये। यही विधि श्रेष्ठ मानी गयी है।

सेनापति और राजा के गृहों के बीच में राजा के रहने का गृह बनाना चाहिये। उसी स्थान पर भाण्डागार भी रहना चाहिये। सेनापति के तथा चारों वर्णों के गृहो के मध्य भाग में सर्वदा राजा के पूज्य लोगों के निवासार्थ गृह बनवाना चाहिये। इसके अतिरिक्त विभिन्न जातियों के लिये एवं वनेचरों के लिये शयन करने का घर पचास हाथ का बनवाना चाहिये। सेनापति और राजा के गृह के परिमाण में सत्तर का योग करके चौदह का भाग देने पर व्यास में शाला का न्यास कहा गया है। उसमें पैंतीस हाथ पर बरामदे का स्थान कहा गया है। छत्तीस हाथ सात अंगुल लम्बी ब्राह्मण की बड़ी शाला होनी चाहियें उसी प्रकार दस अंगुल अधिक क्षत्रिय की शाला होनी चाहिये। [17]

वैश्य के लिये पैंतीस हाथ तेरह अंगुल लम्बी शाला होनी चाहिये। उतने ही हाथ तथा पंद्रह अंगुल शूद्र की शाला का परिमाण है। शाला की लम्बाई के तीन भाग पर यदि सामने की ओर गली बनी हो तो वह 'सोष्णीष' नामक वास्तु है। पीछे की ओर गली हो तो वह 'श्रेयोच्छ्रय' कहलाता है। यदि दोनों पार्श्वों में वीथिका हो तो वह 'सावष्टम्भ' तथा चारों ओर वीथिका हो तो 'सुस्थित'नामक वास्तु कहा जाता है। ये चारों प्रकार की वीथियाँ चारों वर्णों के लिये मंगलदायी हैं। शाला के विस्तार का सोलहवाँ भाग तथा चार हाथ- यह पहले खण्ड की ऊँचाई का मान है। अधिक ऊँचा करने से हानि होती है। उसके बाद अन्य सभी खण्डों की ऊँचाई बारहवें भाग के बराबर रखनी चाहिये। यदि पक्की ईटों की दीवार बनायी जा रही हो तो गृह की चौड़ाई के सोलहवें भाग के परिमाण के बराबर मोटाई होनी चाहिये। वह दीवाल लकड़ी तथा मिट्टी से भी बनायी जा सकती है। सभी वास्तुओं में भीतर के मान के अनुसार लम्बाई-चौड़ाई का मान श्रेष्ठ माना गया है। गृह के व्यास से पचास अंगुल विस्तार तथा अठारह अंगुल वेध से युक्त द्वार की चौड़ाई रखनी चाहिये और उसकी ऊँचाई चौड़ाई जितने हाथों की हो उतने ही अंगुल उन शाखाओं की मोटाई होनी चाहिये- यही सभी वास्तुविद्या के ज्ञाताओं ने बताया हैं द्वार के ऊपर का कलश (बुर्ज) तथा नीचे की देहली (चौखट)- ये दोनों शाखाओं से आधे अधिक मोटे हों, अर्थात इन्हें शाखाओं से ड्योढ़ा मोटा रखना चाहिये।[18]

वास्तु विषयक वेध का विवरण

सूतजी कहते हैं- ऋषियो! अब मैं स्तम्भ के परिमाण के विषय में बतला रहा हूँ। बुद्धिमान पुरुषों को चाहिये कि वे अपने गृह के ऊँचाई के मान को सात से गुणाकर उसके अस्सीवें भाग के बराबर खम्भे की मोटाई रखें। उसकी मोटाई में नौ से गुणा कर अस्सीवें भाग के बराबर खम्भे का मूल भाग रखना चाहिये। चार कोण वाला स्तम्भ 'रूचक', आठ कोणवाला 'प्रलीनक' कहा जाता है। मध्य प्रदेश में जो खम्भा वृत्ताकार रहता है, उसे 'वृत्त' कहा गया है। ये पाँच प्रकार के स्तम्भ सभी प्रकार के वास्तु-कार्य में प्रशंसनीय कहे गये हैं। ये सभी स्तम्भ पद्म, वल्ली, लता, कुम्भ, पत्र एवं दर्पण से चित्रित रहने चाहिये।

इन कमलों तथा कुम्भों में स्तम्भ के नवें अंश के बराबर अन्तर रहना चाहिये। स्तम्भ के बराबर ऊँचाई को 'तुला' तथा उससे न्यून को 'उपतुला' कहते हैं। मान के तृतीय या चतुर्थ भाग से हीन जो तुला है, वही 'उपतुला' है। यह उपतुला सभी भूमियों में रहती है। सभी वास-गृहों में दाहिनी ओर प्रवेश द्वार रखना चाहिये। अब मैं गृह के जो प्रशस्त द्वार हैं, उन्हें बतला रहा हूँ। पूर्व दिशा में इन्द्र और जयन्त द्वार सभी गृहों में श्रेष्ठ माने गये हैं। बुद्धिमान लोग दक्षिण द्वारों में याम्य और वितथको श्रेष्ठ मानते हैं। पश्चिम द्वारों में पुष्पदन्त और वरुण प्रशंसित हैं। उत्तर द्वारों में भल्लाट तथा सौम्य शुभदायक होते हैं। सभी वास्तुओं में द्वारवेध को बचाना चाहिये। गली, सड़क या मार्ग द्वारा द्वार-वेध होने पर पूरे कुल का क्षय हो जाता है। वृक्ष के द्वारा वेध होने पर द्वेष की अधिकता होती है। कीचड़ से वेध होने पर शोक होता है और कूप द्वारा वेध होने पर अवश्य ही सदा के लिये मिरगी का रोग होता है। नाबदान या जलप्रवाह से वेध होने पर व्यथा होती है, कील से वेध होने पर अग्नि भय होता है, देवता से विद्ध होने पर विनाश तथा स्तम्भ से विद्ध होने पर स्त्री द्वारा क्लेश की प्राप्ति होती है।[19] एक घर से दूसरे घर में वेध पड़ने पर गृहपति का विनाश होता है तथा अपवित्र द्रव्यादि द्वारा वेध होने पर घर की स्वामिनी बन्ध्या हो जाती है। अन्त्यज के घर के द्वारा वेध होने पर हथियार से भय प्राप्त होता हें गृह की ऊँचाई से दुगुनी भूमि की दूरी पर वेध का दोष नहीं होता। जिस घर के निवासियों को उन्माद का रोग होता है। इसी प्रकार स्वयं बंद हो जाने पर कुल का नाश हो जाता है- ऐसा विद्वान लोग बतलाते हैं गृह के द्वार यदि अपने मान से अधिक ऊँचे हैं तो राजभय तथा यदि नीचे हैं तो चोरों का भय होता है।

द्वार के ऊपर जो द्वार बनता है, वह यमराज का मुख कहा जाता हैं मार्ग के बीच में बने हुए जिस गृह की चौड़ाई बहुत अधिक होती है, वह वज्र के समान शीघ्र ही गृहपति के विनाश का कारण होता है। यदि मुख्यद्वार अन्य द्वारों से निकृष्ट हो तो वह बहुत बड़ा दोषकारक होता है। अत: मुख्यद्वार की अपेक्षा अन्य द्वारों का बड़ा होना शुभकारक नहीं है। घट, श्रीपर्णी और लताओं से मूलद्वार को सुशोभित रखना चाहिये और उसकी नित्य बलि, अक्षत और जल से पूजा करनी चाहिये। घर की पूर्व दिशा में बरगद का वृक्ष सभी प्रकार की कामनाओं को पूर्ण करने वाला होता है। दक्षिण में गूलर और पश्चिम में पीपल का पेड़ शुभकारक होता है। इसी तरह उत्तर में पाकड़ का पेड़ मंगलकारी है। इससे विपरीत दिशा में रहने पर ये वृक्ष विपरीत फल देने वाले होते हैं। घर के समीप यदि काँटे या दूध वाले वृक्ष, असना का वृक्ष एवं फलदार वृक्ष हों तो उनसे क्रमश: स्त्री और संतान की हानि होती है। यदि कोई उन्हें काट न सके तो उनके समीप अन्य शुभदायक वृक्षों को लगा दे। पुंनाग, अशोक, मौलसिरी, शमी, तिलक, चम्पा, अनार, पीपली, दाख, अर्जुन, जंबीर, सुपारी, कटहल, केतकी, मालती, कमल, चमेली, मल्लिका, नारियल, केला एवं पाटल- इन वृक्षों से सुशोभित घर लक्ष्मी का विस्तार करता है। [20]

वास्तु प्रकरण में गृह-निर्माण विधि

सूतजी कहते हैं— ऋषियो! बुद्धिमान पुरुष उत्तर की ओर झुकी हुई या समान भाग वाली भूमि की परीक्षा कर पूर्व कही गयी रीति से स्तम्भ की ऊँचाई आदि का निर्माण करायें। बुद्धिमान पुरुष को देवालय, धूर्त, सचिव या चौराहे के समीप अपना घर नहीं बनवाना चाहिये; क्योंकि इससे दु:ख शोक और भय बना रहता है। घर के चारों ओर तथा द्वार के सम्मुख और पीछे कुछ भुमि को छोड़ देना शुभकारक है। पिछला भाग दक्षिणावर्त रहना ठीक है; क्योंकि वामावर्त विनाशकारक होता है। दक्षिण भाग में ऊँचा रहने वाला घर 'सम्पूर्ण' वास्तु के नाम से अभिहित किया जाता है। वह मनुष्यों की सभी कामनाओं को पूर्ण करता है। इस प्रकार के प्रदेश को देखकर प्रयत्नपूर्वक गृह आरम्भ करना चाहिये। सर्वप्रथम वेदज्ञ पुरोहित श्वेत वस्त्र धारण कर कारीगर के साथ ज्योतिषी के कथनानुसार शुभ मुहूर्त में सभी बीजों से युक्त आधार-शिला को रत्न के ऊपर स्थापित करे। पुन: चार ब्राह्मणों द्वारा उस स्तम्भ की भली-भाँति पूजा कराकर उसे धो-पोंछकर अक्षत, वस्त्र, अलंकार औ सर्वौषधि से पूजित कर पूर्ववत मन्त्रोच्चारण, बाजा और मांगलिक गीत आदि के शब्द के साथ स्थापित कर दे। ब्राह्मणों को खीर का भोजन करायें और 'वास्तोष्पते प्रतिजानीहि' [21] इस मन्त्र के द्वारा मधु और घी से हवन करे। वास्तु यज्ञ पाँच प्रकार के हैं-

  1. सूत्रपात,
  2. स्तम्भारोपण,
  3. द्वारवंशोच्छ्रय (चौखट-स्थापन),
  4. गृहप्रवेश और
  5. वास्तु-शान्ति।

इन सभी में पूर्ववत कार्य करने का विधान है। ईशानकोण में सूत्रपात और अग्निकोण में स्तम्भारोपण होता है। वास्तु के पदचिह्नों को बनाकर उसकी प्रदक्षिणा करनी चाहिये। सभी वास्तु-विभागों में दाहिने हाथ की तर्जनी, मध्यमा और अंगूठे से मूँगा, रत्न और सुवर्ण के चूर्ण से मिश्रित जल द्वारा पद-चिह्न बनाना श्रेष्ठ माना गया है। [22] राख, अंगार, काष्ठ, नख, शास्त्र, चर्म, सींग, हड्डी, कपाल- इन वस्तुओं द्वारा कहीं भी वास्तु के चिह्न नहीं बनाना चाहिये; क्योंकि इनके द्वारा बनाया गया चिह्न दु:ख, शोक और भय आदि उत्पन्न करता है। जिस समय गृहप्रवेश हो, उस समय कारीगर का भी रहना उचित है। स्तम्भरोपण और सूत्रपात के समय पूर्ववत शुभ एवं अशुभ फल देने वाले शुक होते हैं। यदि ऐसे अवसरों पर कोई पक्षी सूर्य की ओर मुख कर कठोर वाणी बोलता है या उस समय गृहपति अपने शरीर के किसी अंग पर हाथ रखता है तो समझ लेना चाहिये कि वास्तु के उसी पर भय प्रदान करने वाली मुनष्य की हड्डी पड़ी हुई है।

सूत्र अंकित कर देने के बाद यदि गृहपति अपने किसी अंग का स्पर्श करता है तो वास्तु के उसी अंग में हाथी, अश्व तथा कुत्ते की हड्डियाँ हैं, ऐसा बुद्धिमान पुरुष को समझ लेना चाहिये। सूत्र को फैलाते समय उसे श्रृगाल या कुत्ता लाँघ जाता है और गदहा अत्यन्त भयंकर चीत्कार करता है तो ठीक उस स्थान पर हड्डी जाननी चाहिये। यदि सूत्रपात के समय ईशान कोण में कौआ मीठे स्वर से बोलता हो तो वास्तु के उस भाग में या जहाँ गृहपति खड़ा है, वहाँ धन है- ऐसा जानना चाहिये। सूत्रपात के समय यदि सूत्र टूट जाता है तो गृहपति की मृत्यु होती है। वास्तुवेत्ता को ऐसा समझना चाहिये कि कील के नीचे की ओर झुक जाने पर व्याधि, अंगार दिखायी पड़ने पर उन्माद, कपाल दीख पड़ने पर भय और शंख या घोंघे की हड्डी मिलने पर कुलांगनाओं में व्याभिचार की सम्भावना रहती है।

भवन-निर्माण के समय कारीगर के पागल हो जाने पर गृहपति और घर का विनाश हो जाता है। स्थापित किये हुए स्तम्भ या कुम्भ के कंधे पर गिर जाने से गृहपति के सिर में रोग होता है तथा कलश की चोरी हो जाने पर समूचे कुल का विनाश हो जाता है। कुम्भ के अपने स्थान से च्युत हो जाने पर गृहस्वामी की मृत्यु होती हैं तथा फूट जाने पर वह बन्धन में पड़ता है- ऐसा पण्डितों ने कहा है। गृहारम्भ के समय हाथों की परिमाण-संख्या नष्ट हो जाने पर गृहपति का नाश समझना चाहिये। बीज और ओषधियों से विहीन होने पर भूतों से भय होता हैं अत: विचारवान पुरुष प्रदक्षिण-क्रम से अन्य स्तम्भों की स्थापना करे; क्योंकि प्रदक्षिण-क्रम के बिना स्थापित किये गये स्तम्भ मनुष्यों के लिये भयदायक होते हैं। [23]स्तम्भ के उपद्रवों का विनाश करने वाली रक्षा-विधि भी यत्नपूर्वक सम्पन्न करनी चाहिये। इसके लिये स्तम्भ के ऊपर फलों से युक्त वृक्ष की शाखा डाल देनी चाहिये। स्तम्भ उत्तर या पूर्व की ओर ढालू होना चाहिये, अस्पष्ट दिशा में नहीं कराना चाहिये। इस बात का ध्यान भवन, स्तम्भ, निवासगृह तथा द्वार निर्माण के समय भी स्थापन रखना चाहिये; क्योंकि दिशा की अस्पता से कुल का नाश हो जाता है।

घर के किसी अंश को पिण्ड से आगे नहीं बढ़ाना चाहिये। यदि बढ़ाना ही हो तो सभी दिशा में बढ़ावे। पूर्व दिशा में बढ़ाया गया वास्तु सर्वदा वैर पैदा करता है, दक्षिण दिशा की ओर बढ़ाया हुआ वास्तु मृत्युकारी होता है, इसमें संदेह नहीं है। जो वास्तु पश्चिम की ओर बढ़ाया जाता है, वह धनक्षयकारी होता है तथा उत्तर की ओर बढ़ाया हुआ दु:ख एवं सन्ताप की वृद्धि करता है। जहाँ अग्निकोण में वृद्धि होती है, वहाँ वह अग्नि का भय देने वाला नैर्ऋत्यकोण बढ़ाने पर शिशुओं का विनाशक, वायव्य कोण में बढ़ाने पर वात-व्याधि- उत्पादक, ईशान कोण में बढ़ाने पर अन्न के लिये हानिकारक होता है। गृह के ईशान कोण में देवता का स्थान और शान्तिगृह, अग्निकोण में रसोई घर और उसके बगल में उत्तर दिशा में जलस्थान होना चाहिये। बुद्धमान पुरुष सभी घरेलू सामग्रियों को नैर्ऋत्य कोण में करे। पशुओं आदि के बाँधने का स्थान और स्नानागार गृह के बाहर बनाये। वायव्य कोण में अन्नादिका स्थान बनाये। इसी प्रकार कार्यशाला भी निवास-स्थान से बाहर बनानी चाहिये। इस ढंग से बना हुआ भवन गृहपति के लिये मंगलकारी होता है। [24]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. वास्तु के अर्थ बसने की जगह, घर, गाँव, नींव आदि हैं। इस पर समरांगणसूत्रधार, वास्तुराजवल्लभ, बृहत्संहिता, शिल्परत्न, गृहरत्नभूषण आदि ग्रन्थों में पूर्ण विचार है। पुराणों में अग्नि, विष्णुधर्म आदि में ऐसी ही चर्चा है। इस विद्या का संक्षिप्त उल्लेख ऋग्वेद, शतपथ ब्राह्मण, श्रौतसूत्रों एवं मनुस्मृति 3।89 आदि में भी है। इसके मुख्य प्रवर्तक एवं ज्ञाता-कर्ता विश्वकर्मा एवं मयदानव हैं।
  2. मत्स्य पुराण 252,253,254,255,256वें अध्याय पर आधारित
  3. मत्स्य पुराण॥2-10॥
  4. मत्स्य पुराण॥11-19॥
  5. मत्स्य पुराण॥1-10॥
  6. वास्तुचक्र तीन प्रकार के होते हैं- एक सौ पद का, दूसरा 81 पद का और तीसरा 64 पद कां यहाँ 81 पद का ही वर्णन है।
  7. मत्स्य पुराण॥11-21॥
  8. इनकी पूजा अग्निकोण में करनी चाहिये
  9. मत्स्य पुराण॥22-33॥
  10. मत्स्य पुराण॥34-46॥
  11. रावणदि के ऐसे चतु:शाल, त्रिशाल आदि भवनों का उल्लेख वाल्मीकीय रामायण, सुन्दरकाण्ड, राजतरंगिणी 3।12, मृच्छ्रकटिकनाटक 3।7 तथा बृहत्संहिता अ0 53 आदि में आता है। शिल्परत्न, समरांगण, काश्यपशिल्पादि में इनकी रचना का विस्तृत विधान है।
  12. एक प्रकार का स्तम्भ जिसमें 8 पहल या कोण होते हैं।
  13. जिस द्विशाल में केवल दक्षिण और पश्चिम की ओर भवन हों (बृहत्संहिता 53।39)।
  14. मत्स्य पुराण॥1-13.5
  15. मत्स्य पुराण॥14-23.5
  16. अर्थात ब्राह्मण के उत्तम गृह की चौड़ाई बत्तीस हाथ, क्षत्रिय के घर की अट्ठाईस हाथ, वैश्य के घर की चौबीस हाथ तथा सत्-शूद्र के घर की बीस हाथ और असत्-शूद्र के घर की सोलह हाथ होनी चाहिये।
  17. मत्स्य पुराण॥24-35॥
  18. मत्स्य पुराण ॥36-44॥
  19. मत्स्य पुराण॥1-12॥
  20. मत्स्य पुराण॥13-24॥
  21. यह पूरा मन्त्र इस प्रकार है- वास्तोष्पते प्रतिजानीह्यस्मान्त्स्वावेशो अनमीवो भवा न:। यत् त्वेमहे प्रति तन्नो जुषस्व शं नो भव द्विपदे शं चतुष्पदे॥ (ऋ0 7।54।1, तैत्ति0 सं0 3।4।10।1))(ऋक्संहिता 7।54।1
  22. मत्स्य पुराण॥1-13॥
  23. मत्स्य पुराण॥14-25.5॥
  24. मत्स्य पुराण॥26-35॥

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