वास्तुशास्त्र- भवनों के प्रकार

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यह लेख पौराणिक ग्रंथों अथवा मान्यताओं पर आधारित है अत: इसमें वर्णित सामग्री के वैज्ञानिक प्रमाण होने का आश्वासन नहीं दिया जा सकता। विस्तार में देखें अस्वीकरण

सूतजी कहते हैं:- अब मैं दूती-कर्म करने वालों तथा परिवार के अन्य लोगों के पाँच प्रकार के भवनों को बतला रहा हूँ। उनकी चौड़ाई बारह हाथ की तथा लम्बाई उससे सवाया अधिक होती है। शेष चार गृहों की चौड़ाई क्रमश: आधा-आधा हाथ न्यून होती है। अब मैं ज्योतिषी, गुरु, वैद्य, सभापति और पुरोहित- इन सभी के पाँच यप्रकार के भवनों का वर्णन कर रहा हूँ। उनके उत्तम भवन की चौड़ाई चालीस हाथ की होती है। शेष की क्रम से चार-चार हाथ की कम होती है। इन पाँचों भवनों की लम्बाई चौड़ाई के षष्ठंश से अधिक होती है।

अब फिर साधारणतया चारों वर्णों के लिये पाँच प्रकार के गृहों का वर्णन करता हूँ। उनमें ब्राह्मण के घर की चौड़ाई बत्तीस हाथ की होनी चाहिये। अन्य जातियों के लिये क्रमश: चार-चार हाथ की कमी होनी चाहिये।[1] किन्तु सोलह हाथ से कम की चौड़ाई से दशांश, क्षत्रिय के घर की अष्टमांश, वैश्य के घर की तिहाई और शूद्र के घर की चौथाई भाग अधिक होनी चाहिये। यही विधि श्रेष्ठ मानी गयी है।

सेनापति और राजा के गृहों के बीच में राजा के रहने का गृह बनाना चाहिये। उसी स्थान पर भाण्डागार भी रहना चाहिये। सेनापति के तथा चारों वर्णों के गृहो के मध्य भाग में सर्वदा राजा के पूज्य लोगों के निवासार्थ गृह बनवाना चाहिये। इसके अतिरिक्त विभिन्न जातियों के लिये एवं वनेचरों के लिये शयन करने का घर पचास हाथ का बनवाना चाहिये। सेनापति और राजा के गृह के परिमाण में सत्तर का योग करके चौदह का भाग देने पर व्यास में शाला का न्यास कहा गया है। उसमें पैंतीस हाथ पर बरामदे का स्थान कहा गया है। छत्तीस हाथ सात अंगुल लम्बी ब्राह्मण की बड़ी शाला होनी चाहियें उसी प्रकार दस अंगुल अधिक क्षत्रिय की शाला होनी चाहिये।[2]

वैश्य के लिये पैंतीस हाथ तेरह अंगुल लम्बी शाला होनी चाहिये। उतने ही हाथ तथा पंद्रह अंगुल शूद्र की शाला का परिमाण है। शाला की लम्बाई के तीन भाग पर यदि सामने की ओर गली बनी हो तो वह 'सोष्णीष' नामक वास्तु है। पीछे की ओर गली हो तो वह 'श्रेयोच्छ्रय' कहलाता है। यदि दोनों पार्श्वों में वीथिका हो तो वह 'सावष्टम्भ' तथा चारों ओर वीथिका हो तो 'सुस्थित'नामक वास्तु कहा जाता है। ये चारों प्रकार की वीथियाँ चारों वर्णों के लिये मंगलदायी हैं। शाला के विस्तार का सोलहवाँ भाग तथा चार हाथ- यह पहले खण्ड की ऊँचाई का मान है। अधिक ऊँचा करने से हानि होती है। उसके बाद अन्य सभी खण्डों की ऊँचाई बारहवें भाग के बराबर रखनी चाहिये। यदि पक्की ईटों की दीवार बनायी जा रही हो तो गृह की चौड़ाई के सोलहवें भाग के परिमाण के बराबर मोटाई होनी चाहिये। वह दीवाल लकड़ी तथा मिट्टी से भी बनायी जा सकती है। सभी वास्तुओं में भीतर के मान के अनुसार लम्बाई-चौड़ाई का मान श्रेष्ठ माना गया है। गृह के व्यास से पचास अंगुल विस्तार तथा अठारह अंगुल वेध से युक्त द्वार की चौड़ाई रखनी चाहिये और उसकी ऊँचाई चौड़ाई जितने हाथों की हो उतने ही अंगुल उन शाखाओं की मोटाई होनी चाहिये- यही सभी वास्तुविद्या के ज्ञाताओं ने बताया हैं द्वार के ऊपर का कलश (बुर्ज) तथा नीचे की देहली (चौखट)- ये दोनों शाखाओं से आधे अधिक मोटे हों, अर्थात इन्हें शाखाओं से ड्योढ़ा मोटा रखना चाहिये।[3]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अर्थात ब्राह्मण के उत्तम गृह की चौड़ाई बत्तीस हाथ, क्षत्रिय के घर की अट्ठाईस हाथ, वैश्य के घर की चौबीस हाथ तथा सत्-शूद्र के घर की बीस हाथ और असत्-शूद्र के घर की सोलह हाथ होनी चाहिये।
  2. मत्स्य पुराण॥24-35॥
  3. मत्स्य पुराण ॥36-44॥

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