वास्तुशास्त्र वेध

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Warning-sign-small.png यह लेख पौराणिक ग्रंथों अथवा मान्यताओं पर आधारित है अत: इसमें वर्णित सामग्री के वैज्ञानिक प्रमाण होने का आश्वासन नहीं दिया जा सकता। विस्तार में देखें अस्वीकरण

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सूतजी कहते हैं-

ऋषियो! अब मैं स्तम्भ के परिमाण के विषय में बतला रहा हूँ। बुद्धिमान पुरुषों को चाहिये कि वे अपने गृह के ऊँचाई के मान को सात से गुणाकर उसके अस्सीवें भाग के बराबर खम्भे की मोटाई रखें। उसकी मोटाई में नौ से गुणा कर अस्सीवें भाग के बराबर खम्भे का मूल भाग रखना चाहिये। चार कोण वाला स्तम्भ 'रूचक', आठ कोणवाला 'प्रलीनक' कहा जाता है। मध्य प्रदेश में जो खम्भा वृत्ताकार रहता है, उसे 'वृत्त' कहा गया है। ये पाँच प्रकार के स्तम्भ सभी प्रकार के वास्तु-कार्य में प्रशंसनीय कहे गये हैं। ये सभी स्तम्भ पद्म, वल्ली, लता, कुम्भ, पत्र एवं दर्पण से चित्रित रहने चाहिये।

इन कमलों तथा कुम्भों में स्तम्भ के नवें अंश के बराबर अन्तर रहना चाहिये। स्तम्भ के बराबर ऊँचाई को 'तुला' तथा उससे न्यून को 'उपतुला' कहते हैं। मान के तृतीय या चतुर्थ भाग से हीन जो तुला है, वही 'उपतुला' है। यह उपतुला सभी भूमियों में रहती है। सभी वास-गृहों में दाहिनी ओर प्रवेश द्वार रखना चाहिये। अब मैं गृह के जो प्रशस्त द्वार हैं, उन्हें बतला रहा हूँ। पूर्व दिशा में इन्द्र और जयन्त द्वार सभी गृहों में श्रेष्ठ माने गये हैं। बुद्धिमान लोग दक्षिण द्वारों में याम्य और वितथको श्रेष्ठ मानते हैं। पश्चिम द्वारों में पुष्पदन्त और वरुण प्रशंसित हैं। उत्तर द्वारों में भल्लाट तथा सौम्य शुभदायक होते हैं। सभी वास्तुओं में द्वारवेध को बचाना चाहिये। गली, सड़क या मार्ग द्वारा द्वार-वेध होने पर पूरे कुल का क्षय हो जाता है। वृक्ष के द्वारा वेध होने पर द्वेष की अधिकता होती है। कीचड़ से वेध होने पर शोक होता है और कूप द्वारा वेध होने पर अवश्य ही सदा के लिये मिरगी का रोग होता है। नाबदान या जलप्रवाह से वेध होने पर व्यथा होती है, कील से वेध होने पर अग्नि भय होता है, देवता से विद्ध होने पर विनाश तथा स्तम्भ से विद्ध होने पर स्त्री द्वारा क्लेश की प्राप्ति होती है।[1] एक घर से दूसरे घर में वेध पड़ने पर गृहपति का विनाश होता है तथा अपवित्र द्रव्यादि द्वारा वेध होने पर घर की स्वामिनी बन्ध्या हो जाती है। अन्त्यज के घर के द्वारा वेध होने पर हथियार से भय प्राप्त होता हें गृह की ऊँचाई से दुगुनी भूमि की दूरी पर वेध का दोष नहीं होता। जिस घर के निवासियों को उन्माद का रोग होता है। इसी प्रकार स्वयं बंद हो जाने पर कुल का नाश हो जाता है- ऐसा विद्वान लोग बतलाते हैं गृह के द्वार यदि अपने मान से अधिक ऊँचे हैं तो राजभय तथा यदि नीचे हैं तो चोरों का भय होता है।

द्वार के ऊपर जो द्वार बनता है, वह यमराज का मुख कहा जाता हैं मार्ग के बीच में बने हुए जिस गृह की चौड़ाई बहुत अधिक होती है, वह वज्र के समान शीघ्र ही गृहपति के विनाश का कारण होता है। यदि मुख्यद्वार अन्य द्वारों से निकृष्ट हो तो वह बहुत बड़ा दोषकारक होता है। अत: मुख्यद्वार की अपेक्षा अन्य द्वारों का बड़ा होना शुभकारक नहीं है। घट, श्रीपर्णी और लताओं से मूलद्वार को सुशोभित रखना चाहिये और उसकी नित्य बलि, अक्षत और जल से पूजा करनी चाहिये। घर की पूर्व दिशा में बरगद का वृक्ष सभी प्रकार की कामनाओं को पूर्ण करने वाला होता है। दक्षिण में गूलर और पश्चिम में पीपल का पेड़ शुभकारक होता है। इसी तरह उत्तर में पाकड़ का पेड़ मंगलकारी है। इससे विपरीत दिशा में रहने पर ये वृक्ष विपरीत फल देने वाले होते हैं। घर के समीप यदि काँटे या दूध वाले वृक्ष, असना का वृक्ष एवं फलदार वृक्ष हों तो उनसे क्रमश: स्त्री और संतान की हानि होती है। यदि कोई उन्हें काट न सके तो उनके समीप अन्य शुभदायक वृक्षों को लगा दे। पुंनाग, अशोक, मौलसिरी, शमी, तिलक, चम्पा, अनार, पीपली, दाख, अर्जुन, जंबीर, सुपारी, कटहल, केतकी, मालती, कमल, चमेली, मल्लिका, नारियल, केला एवं पाटल- इन वृक्षों से सुशोभित घर लक्ष्मी का विस्तार करता है।[2]



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मत्स्य पुराण॥1-12॥
  2. मत्स्य पुराण॥13-24॥

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