प्राचीन कुशीनगर के पुरावशेष

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कुशीनगर भगवान गौतम बुद्ध के 'महापरिनिर्वाण' का स्थान है। पूर्वी उत्तर प्रदेश के गोरखपुर ज़िले से 51 कि.मी. की दूरी पर यह स्थित है।

किंवदंती

एक किंवदंती के अनुसार यह नगर श्री रामचन्द्र के ज्येष्ठ पुत्र कुश द्वारा बसाया गया था। बौद्ध ग्रंथ 'महावंश' में कुशीनगर का नाम इसी कारण 'कुशावती' भी कहा गया है। बौद्ध काल में यही नाम 'कुशीनगर' या पाली में 'कुसीनारा' हो गया। एक अन्य बौद्ध किंवदंती के अनुसार तक्षशिला के इक्ष्वाकु वंशी राजा तालेश्वर का पुत्र तक्षशिला से अपनी राजधानी हटाकर कुशीनगर ले आया था। उसकी वंश परम्परा में बारहवें राजा सुदिन्न के समय तक यहाँ राजधानी रही। इनके बीच में कुश और महादर्शन नामक दो प्रतापी राजा हुए, जिनका उल्लेख गौतम बुद्ध ने किया था।

प्राचीन नगर के अवशेष

कुशीनगर के बौद्ध स्मरण वस्तुत: दो स्थानों में केंद्रित हैं। शालवन, जहाँ बुद्ध को परिनिर्वाण प्राप्त हुआ था और मुकुट बंधन चैत्य, जहाँ उनका दाह संस्कार हुआ था। परिनिर्वाण स्थल को अब "माथा कुँवर का कोट" नाम से जाना जाता है, जबकि मुकुट बंधन चैत्य का प्रतिनिधित्व आधुनिक रामाभार का टीला करता है। "माथा कुँवर का कोट" के गर्भ में परिनिर्वाण मंदिर एवं मुख्य स्तूप छिपे हुए थे। ये दोनों स्तूप कुशीनगर के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्मारक थे। इनके चारों ओर समय-समय पर अनेक स्तूपों, चैत्यों तथा विहारों का निर्माण होता रहा।

मुख्य-स्तूप

इस स्तूप की खुदाई सर्वप्रथम कार्लाइल ने 1879 ई. में की थी। उस समय यह बहुत जीर्ण-शीर्ण दशा में था। इस स्तूप के शिखर तथा खंड भाग पूर्णत: नष्ट हो चुके थे।[1] केवल अधोभाग ही अवशिष्ट था। चीनी यात्री ह्वेनसाँग ने इस स्तूप की ऊँचाई 200 फुट बताई थी और इसके निर्माण का श्रेय मौर्य सम्राट अशोक को दिया था।[2] परंतु कार्लाइल ने शिखर सहित इसकी ऊँचाई 150 फुट बताई है। इसकी नींव जिस पर स्तूप और मंदिर निर्मित हुए थे, पृथ्वी की सतह से 2.74 मीटर ऊँचाई पर थी। इस स्तूप में प्रयुक्त ईंटें विभिन्न आकार की थीं। कार्लाइल के अनुसार इस स्तूप के नीचे अन्य प्राचीन स्तूपों के ध्वंसावशेष दबे हुए थे।

स्तूप की खुदाई

1910 ई. में हीरानंद शास्त्री के निर्देशन में इस स्तूप की खुदाई पुन: आरंभ हुई। ऊपर के गुंबद को हटाने पर गोलाकार भित्ति में सबसे ऊपर कुछ नक़्क़ाशीदार ईंटें तथा जयगुप्त नामक राजा का एक ताँबे का सिक्का मिला। ऐसा प्रतीत होता है कि इन नक़्क़ाशीदार ईंटों को अन्य प्राचीन स्मारकों से लिया गया था।[3] खुदाई करने पर 14 फुट (2.74 मी.) नीचे ईंटों का एक वृत्ताकार कक्ष मिला।[4] इसकी ऊँचाई और व्यास 0.64 मीटर (2 फुट 1 इंच) था। इसके अंदर ताम्रपत्र द्वारा बंद एक ताम्रघट रखा था। इस ताम्रघट में बालू, लकड़ी के कोयले, मीमती पत्थर, कौड़ियाँ और दो ताम्र नलियाँ मिली हैं। इसके अतिरिक्त कुमारगुप्त प्रथम के कुछ रजत सिक्के तथा एक छोटी स्वर्ण एवं रजत नली भी मिली है। स्वर्ण नली में भूरे रंग का कोई पदार्थ तथा किसी तरल पदार्थ की दो बूँदें रखी हुई थीं। मुखाच्छादन के रूप में प्रयुक्त ताम्रपत्र पर संस्कृत भाषा में ‘निदानसूत्र’ लिखा गया है। परिनिर्वाण चैत्य में हरिबल स्वामी ने इसे स्थापित किया था।[5] फ्लीट ने प्रतिमा पर अंकित लिपि को 5वीं शताब्दी का माना है।[6] कुमारगुप्त प्रथम के सिक्कों की प्राप्ति से यह निश्चित हो जाता है कि ऊपरी स्तूप की संरचना भी इसी शताब्दी में हुई थी।

इस स्तूप के 10.36 मीटर नीचे खोदने पर 2.82 मीटर ऊँचे एक छोटे स्तूप का अवशेष मिला। इसके पश्चिमी पार्श्व में प्रथम शताब्दी में निर्मित बुद्ध की एक ध्यानावस्थित मृणमूर्ति स्थापित की गई थी।[7] स्तूप के भीतर एक मिट्टी के पात्र में कुछ जला हुआ कोयला रखा था। संभवत: यह कोयला किसी भिक्षु की चिता का था, जिसे इसमें रख दिया गया था। यह स्तूप अच्छी दशा में था, अत: हीरानंद शास्त्री ने इस स्तूप को मुख्य स्तूप से बहुत पूर्व का माना है।[8] उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि इस स्तूप का कई बार परिवर्धन एवं जीर्णोद्धार किया गया। यहाँ सर्वप्रथम एक छोटे-से स्तूप का निर्माण हुआ और कालांतर में उसके आकार में निरंतर अभिवृद्धि होती रही। पाँचवीं शताब्दी में हरिबल स्वामी ने इसका जीर्णोद्धार करवाया और परवर्ती काल में भी उसकी आवश्यक मरम्मत होती रही। 75 फुट ऊँचा स्तूप का वर्तमान कलेवर 1927 में भक्तों के लिए गए कार्य का सुफल है।

परिनिर्वाण मन्दिर

'परिनिर्वाण मंदिर' उत्तर प्रदेश के सर्वाधिक प्राचीन नगरों में से एक कुशीनगर में स्थित है। सर्वप्रथम कार्लाइल ने 1876 ई. में इस मंदिर और परिनिर्वाण प्रतिमा को खोज निकाला था। प्रतिमा को ईंटों के बने एक सिंहासन पर स्थापित किया गया था। यह सिंहासन 24 फुट लंबा तथा 5 फुट 6 इंच चौड़ा था। कार्लाइल ने 1876 ई. में मंदिर और परिनिर्वाण प्रतिमा की खोज की थी। कार्लाइल को ऊँची दीवारें तो मिली थीं, परंतु छत के अवशेष नहीं मिले थे। इसमें केवल गर्भगृह और उसके आगे एक प्रवेश कक्ष था। इस टीले के गर्भगृह में खुदाई करते समय कार्लाइल को एक ऊँचे सिंहासन पर तथागत की 20 फुट (लगभग 6.1 मीटर) लंबी परिनिर्वाण मुद्रा की प्रतिमा मिली थी। यह प्रतिमा चित्तीदार बलुआ पत्थर की है। इसमें बुद्ध को पश्चिम की तरफ मुख करके लेटे हुए दिखाया गया है। इसका सिर उत्तराभिमुख है, दाहिना हाथ सिर के नीचे और बायाँ हाथ जंघे पर स्थित है। पैर एक-दूसरे के ऊपर हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि परिनिर्वाण प्रतिमा की स्थापना 5वीं शताब्दी में हुई थी, परन्तु यह मंदिर इतना प्राचीन नहीं प्रतीत होता। मूर्ति पर प्रयुक्त परवर्ती प्लास्टर इस बात का सूचक है कि यह मंदिर कई शताब्दियों तक परिवर्तित होता रहा। उत्तरी और दक्षिणी दीवारों के नीचे, मूर्ति से युक्त पूर्ववर्ती मन्दिर के अवशेष उस स्थान से मिले हैं, जहाँ से कार्लाइल को परिनिर्वाण मंदिर के अवशेष मिले थे।

इन्हें भी देखें: माथा कुँवर मन्दिर कुशीनगर


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. कार्लाइल के समय अंड के नीचे का गोलाकार भाग 25 फुट ऊँचा था और उसकी परिधि 56 फुट थी।
  2. थामस वाटर्स, आन युवान च्वाँग्स ट्रैवेल्स इन इंडिया, जिल्द दो, पृ. 28
  3. आर्कियोलाजिकल सर्वे आफ इंडिया (वार्षिक रिपोर्ट), 1910-11, पृ. 64
  4. देबला मित्रा, बुद्धिस्ट् मानुमेंट्स, (कलकत्ता, 1971), पृ. 70
  5. यह हरिबल स्वामी वही था जिसने परिनिर्वाण प्रतिमा को स्थापित किया था।
  6. आर्कियोलाजिकल सर्वे आफ इंडिया, (वार्षिक रिपोर्ट), 1910-11, पृ. 64
  7. देबला मित्रा बुद्धिस्ट् मानुमेंट्स (कलकत्ता, 1971), पृ. 70
  8. आर्कियोलाजिकल सर्वे आफ इंडिया, वार्षिक रिपोर्ट, 1910-11,, पृ. 64-65
  • ऐतिहासिक स्थानावली | विजयेन्द्र कुमार माथुर | वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग | मानव संसाधन विकास मंत्रालय, भारत सरकार

बाहरी कड़ियाँ

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