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'''प्रवरपुर''' [[जम्मू कश्मीर]] राज्य की ग्रीष्मकालीन राजधानी [[श्रीनगर]] का ऐतिहासिक नाम है। कश्मीर का वर्णन [[टॉलमी]] ने कस्पेरिया के रूप में किया है। [[नागार्जुनकोंडा]] [[अभिलेख]] में भी [[कश्मीर]] का उल्लेख हुआ है। [[पाणिनि]] और [[पतंजलि]] ने कश्मीर का एक शहर के रूप में वर्णन किया है। दिव्यावदान में भी कश्मीर को एक सुन्दर नगर कहा गया है। बौद्ध ग्रंथ [[अवदानशतक]] और बोधिसत्त्वयानी कल्पलता में कश्मीर को नागों द्वारा निवासित नगर कहा है। [[कौटिल्य]] के [[अर्थशास्त्र]] में कश्मीर शहर से हीरा (वज्र) मिलने का उल्लेख है। उपर्युक्त उदाहरणों से ऐसा मालूम होता है कि श्रीनगर का वर्णन कश्मीर के रूप में मिलता है। प्रवरसेन द्वितीय ने छठी शताब्दी के प्रारम्भ में नई राजधानी 'प्रवरसेनपुर' या 'प्रवरपुर' बसायी। यह ठीक उसी स्थान पर बसा था, जहाँ वर्तमान श्रीनगर है।  
 
'''प्रवरपुर''' [[जम्मू कश्मीर]] राज्य की ग्रीष्मकालीन राजधानी [[श्रीनगर]] का ऐतिहासिक नाम है। कश्मीर का वर्णन [[टॉलमी]] ने कस्पेरिया के रूप में किया है। [[नागार्जुनकोंडा]] [[अभिलेख]] में भी [[कश्मीर]] का उल्लेख हुआ है। [[पाणिनि]] और [[पतंजलि]] ने कश्मीर का एक शहर के रूप में वर्णन किया है। दिव्यावदान में भी कश्मीर को एक सुन्दर नगर कहा गया है। बौद्ध ग्रंथ [[अवदानशतक]] और बोधिसत्त्वयानी कल्पलता में कश्मीर को नागों द्वारा निवासित नगर कहा है। [[कौटिल्य]] के [[अर्थशास्त्र]] में कश्मीर शहर से हीरा (वज्र) मिलने का उल्लेख है। उपर्युक्त उदाहरणों से ऐसा मालूम होता है कि श्रीनगर का वर्णन कश्मीर के रूप में मिलता है। प्रवरसेन द्वितीय ने छठी शताब्दी के प्रारम्भ में नई राजधानी 'प्रवरसेनपुर' या 'प्रवरपुर' बसायी। यह ठीक उसी स्थान पर बसा था, जहाँ वर्तमान श्रीनगर है।  
 
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[[युवानच्वांग]] श्रीनगर का वर्णन करते हुए लिखता है कि उसे [[सम्राट अशोक]] (263-226 ई.पू.) ने बसाया था। तृतीय बौद्ध संगीति के समापन के पश्चात् मोग्गालिपुत्त तिस्य को यहाँ बौद्ध मत के प्रचारार्थ भेजा गया था। [[राजतरंगिणी]] का लेखक भी इस मत को दोहराता है कि श्रीनगर को सम्राट अशोक ने बसाया था। कनिंघम कल्हण का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि उसने इसे दो नदियों के संगम पर बसा हुआ बताया है। यह वर्णन वर्तमान श्रीनगर का सही-सही उल्लेख है। कनिंघम पुराने श्रीनगर का समीकरण पाण्डरीथान से करते हैं, जो श्रीनगर से 3 मील उत्तर में बसा हुआ है। कनिंघम लिखता है कि युवानच्वांग ने यहाँ एक विशाल बौद्ध स्तूप देखा था, जिसमें बुद्ध दाँत सुरक्षित था। परंतु युवानच्वांग के [[पंजाब]] वापस आने (643 ई.) के समय तक [[कन्नौज]] के शक्तिशाली शासक [[हर्षवर्धन]] ने कश्मीर पर आक्रमण कर बुद्ध का वह दाँत प्राप्त कर लिया था।  
 
[[युवानच्वांग]] श्रीनगर का वर्णन करते हुए लिखता है कि उसे [[सम्राट अशोक]] (263-226 ई.पू.) ने बसाया था। तृतीय बौद्ध संगीति के समापन के पश्चात् मोग्गालिपुत्त तिस्य को यहाँ बौद्ध मत के प्रचारार्थ भेजा गया था। [[राजतरंगिणी]] का लेखक भी इस मत को दोहराता है कि श्रीनगर को सम्राट अशोक ने बसाया था। कनिंघम कल्हण का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि उसने इसे दो नदियों के संगम पर बसा हुआ बताया है। यह वर्णन वर्तमान श्रीनगर का सही-सही उल्लेख है। कनिंघम पुराने श्रीनगर का समीकरण पाण्डरीथान से करते हैं, जो श्रीनगर से 3 मील उत्तर में बसा हुआ है। कनिंघम लिखता है कि युवानच्वांग ने यहाँ एक विशाल बौद्ध स्तूप देखा था, जिसमें बुद्ध दाँत सुरक्षित था। परंतु युवानच्वांग के [[पंजाब]] वापस आने (643 ई.) के समय तक [[कन्नौज]] के शक्तिशाली शासक [[हर्षवर्धन]] ने कश्मीर पर आक्रमण कर बुद्ध का वह दाँत प्राप्त कर लिया था।  
 
 
राजतरंगिणी में प्रवरपुर का प्रचुर उल्लेख मिलता है। इसके अनुसार ललितादित्य मुक्तापीड़ ने मदोन्मत होकर अपने सचिवों को प्रवरपुर जला डालने की आज्ञा दी। पर सचिवों ने चतुराई के साथ कार्य किया। नगर की सीमा-प्रांत पर घोड़ों को खाने के निमित्त घास की एक ऊँची ढेर लगी हुई थी। उनकी आज्ञा के अनुसार इसमें [[आग]] लगा दी गई। ललितादित्य ने अपने प्रासाद की छत से अग्रि की लपटों को देख समझा कि मंत्रियों ने उसकी आज्ञा को पूर्ण किया। पर उन्माद के उतरने पर उसे अपने इस कृत्य पर पश्चाताप हुआ। दुःख से वह आक्रांत हो उठा। मंत्रियों ने उसकी यह दशा देखकर उसे वास्तविक बात बता दी। इसे सुनकर उसे उसी प्रकार प्रसन्नता हुई,  जिस प्रकार, कोई व्यक्ति स्वप्न में अपने पुत्र को मरा समझकर क्लेशयुक्त तथा उसके उपरांत जगने पर उसे वह देखकर, सुखी होता है।   
 
राजतरंगिणी में प्रवरपुर का प्रचुर उल्लेख मिलता है। इसके अनुसार ललितादित्य मुक्तापीड़ ने मदोन्मत होकर अपने सचिवों को प्रवरपुर जला डालने की आज्ञा दी। पर सचिवों ने चतुराई के साथ कार्य किया। नगर की सीमा-प्रांत पर घोड़ों को खाने के निमित्त घास की एक ऊँची ढेर लगी हुई थी। उनकी आज्ञा के अनुसार इसमें [[आग]] लगा दी गई। ललितादित्य ने अपने प्रासाद की छत से अग्रि की लपटों को देख समझा कि मंत्रियों ने उसकी आज्ञा को पूर्ण किया। पर उन्माद के उतरने पर उसे अपने इस कृत्य पर पश्चाताप हुआ। दुःख से वह आक्रांत हो उठा। मंत्रियों ने उसकी यह दशा देखकर उसे वास्तविक बात बता दी। इसे सुनकर उसे उसी प्रकार प्रसन्नता हुई,  जिस प्रकार, कोई व्यक्ति स्वप्न में अपने पुत्र को मरा समझकर क्लेशयुक्त तथा उसके उपरांत जगने पर उसे वह देखकर, सुखी होता है।   
 
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[[कनिंघम]] के अनुसार [[अशोक]] के पुत्र जलोक ने [[श्रीनगर]] में वर्तमान तख्तेसुलेमान शिखर, जिसे मूलरूप में जेष्टेश्वर शिखर कहा जाता था, पर एक मन्दिर बनवाया था, जिसे कश्मीर ब्राह्मण एकमत से जेष्ठ रुद्र मन्दिर के रूप में स्वीकारते हैं। श्रीनगर में हिन्दू राजाओं ने अनेक मन्दिरों का निर्माण करवाया था लेकिन वे बाद के [[मुस्लिम]] शासकों द्वारा नष्ट कर मस्जिद या दरगाहों में तब्दील कर दिये गये। ऐसा ही एक मन्दिर, जिसे महाराज नरेन्द्र ने 180 ई. में बनवाया था, नरपीर की जियारतगाह बना दी गयी। [[झेलम नदी|झेलम]] पर चौथे पुल के निकट दक्षिण तट पर पाँच शिखरों वाला महाश्रीमन्दिर, जिसे प्रवरसेन द्वितीय ने अपार धन व्यय करके निर्मित करवाया था, उसे शाह सिकन्दर द्वारा 1404 ई. में अपनी बेगम की मृत्यु पर मक़बरे में बदल दिया गया। यह स्थान अब मक़बरा शाही के रूप में प्रसिद्ध है। केवल [[शंकराचार्य]] का प्राचीन मन्दिर ही अब श्रीनगर का प्राचीन हिन्दू स्मारक बचा है। [[जहाँगीर]] के समय यहाँ सुन्दर बाग एवं मस्जिदें बनवायी गयीं। जहाँगीर की बेगम [[नूरजहाँ]] ने [[शालीमार बाग़ श्रीनगर|शालीमार बाग़]] बनवाया। [[निशात बाग़ श्रीनगर|निशात बाग़]] नूरजहाँ के भाई आसफ खाँ ने बनवाया। मुग़लकालीन इमारतें ही अब श्रीनगर की प्रमुख ऐतिहासिक इमारतें हैं।   
 
[[कनिंघम]] के अनुसार [[अशोक]] के पुत्र जलोक ने [[श्रीनगर]] में वर्तमान तख्तेसुलेमान शिखर, जिसे मूलरूप में जेष्टेश्वर शिखर कहा जाता था, पर एक मन्दिर बनवाया था, जिसे कश्मीर ब्राह्मण एकमत से जेष्ठ रुद्र मन्दिर के रूप में स्वीकारते हैं। श्रीनगर में हिन्दू राजाओं ने अनेक मन्दिरों का निर्माण करवाया था लेकिन वे बाद के [[मुस्लिम]] शासकों द्वारा नष्ट कर मस्जिद या दरगाहों में तब्दील कर दिये गये। ऐसा ही एक मन्दिर, जिसे महाराज नरेन्द्र ने 180 ई. में बनवाया था, नरपीर की जियारतगाह बना दी गयी। [[झेलम नदी|झेलम]] पर चौथे पुल के निकट दक्षिण तट पर पाँच शिखरों वाला महाश्रीमन्दिर, जिसे प्रवरसेन द्वितीय ने अपार धन व्यय करके निर्मित करवाया था, उसे शाह सिकन्दर द्वारा 1404 ई. में अपनी बेगम की मृत्यु पर मक़बरे में बदल दिया गया। यह स्थान अब मक़बरा शाही के रूप में प्रसिद्ध है। केवल [[शंकराचार्य]] का प्राचीन मन्दिर ही अब श्रीनगर का प्राचीन हिन्दू स्मारक बचा है। [[जहाँगीर]] के समय यहाँ सुन्दर बाग एवं मस्जिदें बनवायी गयीं। जहाँगीर की बेगम [[नूरजहाँ]] ने [[शालीमार बाग़ श्रीनगर|शालीमार बाग़]] बनवाया। [[निशात बाग़ श्रीनगर|निशात बाग़]] नूरजहाँ के भाई आसफ खाँ ने बनवाया। मुग़लकालीन इमारतें ही अब श्रीनगर की प्रमुख ऐतिहासिक इमारतें हैं।   
  
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Disamb2.jpg प्रवरपुर एक बहुविकल्पी शब्द है अन्य अर्थों के लिए देखें:- प्रवरपुर (बहुविकल्पी)
श्रीनगर का एक दृश्य

प्रवरपुर जम्मू कश्मीर राज्य की ग्रीष्मकालीन राजधानी श्रीनगर का ऐतिहासिक नाम है। कश्मीर का वर्णन टॉलमी ने कस्पेरिया के रूप में किया है। नागार्जुनकोंडा अभिलेख में भी कश्मीर का उल्लेख हुआ है। पाणिनि और पतंजलि ने कश्मीर का एक शहर के रूप में वर्णन किया है। दिव्यावदान में भी कश्मीर को एक सुन्दर नगर कहा गया है। बौद्ध ग्रंथ अवदानशतक और बोधिसत्त्वयानी कल्पलता में कश्मीर को नागों द्वारा निवासित नगर कहा है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में कश्मीर शहर से हीरा (वज्र) मिलने का उल्लेख है। उपर्युक्त उदाहरणों से ऐसा मालूम होता है कि श्रीनगर का वर्णन कश्मीर के रूप में मिलता है। प्रवरसेन द्वितीय ने छठी शताब्दी के प्रारम्भ में नई राजधानी 'प्रवरसेनपुर' या 'प्रवरपुर' बसायी। यह ठीक उसी स्थान पर बसा था, जहाँ वर्तमान श्रीनगर है।

अकबर पुल, श्रीनगर

युवानच्वांग श्रीनगर का वर्णन करते हुए लिखता है कि उसे सम्राट अशोक (263-226 ई.पू.) ने बसाया था। तृतीय बौद्ध संगीति के समापन के पश्चात् मोग्गालिपुत्त तिस्य को यहाँ बौद्ध मत के प्रचारार्थ भेजा गया था। राजतरंगिणी का लेखक भी इस मत को दोहराता है कि श्रीनगर को सम्राट अशोक ने बसाया था। कनिंघम कल्हण का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि उसने इसे दो नदियों के संगम पर बसा हुआ बताया है। यह वर्णन वर्तमान श्रीनगर का सही-सही उल्लेख है। कनिंघम पुराने श्रीनगर का समीकरण पाण्डरीथान से करते हैं, जो श्रीनगर से 3 मील उत्तर में बसा हुआ है। कनिंघम लिखता है कि युवानच्वांग ने यहाँ एक विशाल बौद्ध स्तूप देखा था, जिसमें बुद्ध दाँत सुरक्षित था। परंतु युवानच्वांग के पंजाब वापस आने (643 ई.) के समय तक कन्नौज के शक्तिशाली शासक हर्षवर्धन ने कश्मीर पर आक्रमण कर बुद्ध का वह दाँत प्राप्त कर लिया था। राजतरंगिणी में प्रवरपुर का प्रचुर उल्लेख मिलता है। इसके अनुसार ललितादित्य मुक्तापीड़ ने मदोन्मत होकर अपने सचिवों को प्रवरपुर जला डालने की आज्ञा दी। पर सचिवों ने चतुराई के साथ कार्य किया। नगर की सीमा-प्रांत पर घोड़ों को खाने के निमित्त घास की एक ऊँची ढेर लगी हुई थी। उनकी आज्ञा के अनुसार इसमें आग लगा दी गई। ललितादित्य ने अपने प्रासाद की छत से अग्रि की लपटों को देख समझा कि मंत्रियों ने उसकी आज्ञा को पूर्ण किया। पर उन्माद के उतरने पर उसे अपने इस कृत्य पर पश्चाताप हुआ। दुःख से वह आक्रांत हो उठा। मंत्रियों ने उसकी यह दशा देखकर उसे वास्तविक बात बता दी। इसे सुनकर उसे उसी प्रकार प्रसन्नता हुई, जिस प्रकार, कोई व्यक्ति स्वप्न में अपने पुत्र को मरा समझकर क्लेशयुक्त तथा उसके उपरांत जगने पर उसे वह देखकर, सुखी होता है।

श्रीनगर में नहर से घरों का दृश्य

कनिंघम के अनुसार अशोक के पुत्र जलोक ने श्रीनगर में वर्तमान तख्तेसुलेमान शिखर, जिसे मूलरूप में जेष्टेश्वर शिखर कहा जाता था, पर एक मन्दिर बनवाया था, जिसे कश्मीर ब्राह्मण एकमत से जेष्ठ रुद्र मन्दिर के रूप में स्वीकारते हैं। श्रीनगर में हिन्दू राजाओं ने अनेक मन्दिरों का निर्माण करवाया था लेकिन वे बाद के मुस्लिम शासकों द्वारा नष्ट कर मस्जिद या दरगाहों में तब्दील कर दिये गये। ऐसा ही एक मन्दिर, जिसे महाराज नरेन्द्र ने 180 ई. में बनवाया था, नरपीर की जियारतगाह बना दी गयी। झेलम पर चौथे पुल के निकट दक्षिण तट पर पाँच शिखरों वाला महाश्रीमन्दिर, जिसे प्रवरसेन द्वितीय ने अपार धन व्यय करके निर्मित करवाया था, उसे शाह सिकन्दर द्वारा 1404 ई. में अपनी बेगम की मृत्यु पर मक़बरे में बदल दिया गया। यह स्थान अब मक़बरा शाही के रूप में प्रसिद्ध है। केवल शंकराचार्य का प्राचीन मन्दिर ही अब श्रीनगर का प्राचीन हिन्दू स्मारक बचा है। जहाँगीर के समय यहाँ सुन्दर बाग एवं मस्जिदें बनवायी गयीं। जहाँगीर की बेगम नूरजहाँ ने शालीमार बाग़ बनवाया। निशात बाग़ नूरजहाँ के भाई आसफ खाँ ने बनवाया। मुग़लकालीन इमारतें ही अब श्रीनगर की प्रमुख ऐतिहासिक इमारतें हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

भारतीय ऐतिहासिक स्थल कोश से पेज संख्या 332-334 | डॉ. हुकम चन्द जैन | जैन प्रकाशन मन्दिर

बाहरी कड़ियाँ

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