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'''आत्मकथा''' [[हिन्दी साहित्य]] में गद्य की एक विधा है। जैसे-  लेखक और कवि सिद्धलिंगय्या द्वारा रचित आत्मकथा [[गाँव गली -सिद्धलिंगय्या|गाँव गली]]।
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'''आत्मकथा''' [[हिन्दी साहित्य]] में गद्य की एक विधा है। जैसे-  लेखक सिद्धलिंगय्या द्वारा रचित आत्मकथा [[गाँव गली -सिद्धलिंगय्या|गाँव गली]]।
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==आत्मकथा की विकास-यात्रा==
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[[उपन्यास]], [[संस्मरण]], [[रेखाचित्र]], [[रिपोर्ताज]], [[यात्रा साहित्य|यात्रा वृत्तान्त]] और डायरी की ही भाँति आत्मकथा नामक साहित्यिक विधा का भी आगमन पश्चिम से हुआ है। [[नामवर सिंह|डॉ. नामवर सिंह]] ने अपने एक व्याख्यान में कहा था कि ‘अपना लेने पर कोई चीज परायी नहीं रह जाती, बल्कि अपनी हो जाती है।’ इसलिए बहस अपनाव को लेकर नहीं, उसकी चेतना और प्रक्रिया को लेकर हो सकती है। [[आधुनिक काल]] में पाश्चात्य संस्कृति से संवाद स्थापित होने पर [[हिन्दी]] के रचनाकारों ने इन विधाओं को अपनाया और अपने जातीय संदर्भ से जोड़कर उन्हें विकसित किया। [[महात्मा गांधी]] कहते थे कि अपने चिन्तन के दरवाजे और खिड़कियाँ खुली रखनी चाहिए, ताकि विश्व की विभिन्न संस्कृतियों की हवाएँ उसमें बे-रोक-टोक आएँ-जाएँ; मगर यह ध्यान रहे कि उसी समय अपनी सांस्कृतिक परम्परा में हमारी जड़ें बहुत गहरी और मजबूत हो।<br />
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प्राचीनकाल से साहित्यिक परम्परा में आत्मकथा की अनुपस्थिति के सांस्कृतिक कारण हैं। दर्शन में वास्तविक महत्ता आत्मा की रही है। जहाँ मनुष्य के अस्तित्व को ही नश्वर माना जाता हो वहां स्वतंत्रता को महत्त्व नहीं मिलना कोई आश्चर्य का विषय नहीं है। चूँकि आत्मा ही वास्तविक है और सारे मनुष्यों में समान है, इसलिए दार्शनिकों का तर्क है कि सभी मनुष्य अन्ततः एक है। वैयक्तिक्ता, आत्मवत्ता या फिर विश्ष्टिता का बोध— इनको एक-दूसरे के पर्याय के रूप में ‘माया’ की माना जाता है। चूँकि आत्मकथा एक स्वतंत्र ‘आत्म’ की कथा है, इसलिए उसे अपने जन्म और विकास के लिए ऐसी संस्कृति की जरूरत होती है, जिसमें वैयक्तिकता को महत्त्व और पोषण प्राप्त हो।
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===प्राचीन साहित्य में आत्मकथा===
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प्राचीन साहित्य में आत्मकथा की परम्परा भले ही नहीं रही हो लेकिन ऐसा नहीं है कि कथाकारों ने आत्म वचन को नहीं अपनाया हो। एक सूक्ष्म जाँच-पड़ताल के बाद आत्मकथा-सरीखी साहित्यिक अभिव्यक्ति के कुछ टुकड़े जरूर मिलते हैं, हालांकि उनसे कोई संतुष्टि नहीं मिल पाती है। [[हर्षचरित]] का वह आरम्भिक हिस्सा है, जिसमें रचयिता [[बाणभट्ट]] ने अपमान, वंचना और हताशा में भरे अपने बचपन, विद्यार्थी जीवन और शुरूआती युवावस्था की चर्चा की है। इसी तरह कुछ और नाम भी आते हैं जिनमें बिलहण (विक्रमांकदेव चरित), [[दण्डी]] (दशकुमारचरित) आदि प्रमुख हैं।
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प्राप्त सामग्री के आधार पर काल क्रमानुसार इतिहास की दीर्घा में आत्मकथाओं के तीन निश्चित चरण दिखते हैं—
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====प्रथम चरण (1600-1875)====
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प्रथम चरण के सुदीर्घ कालखण्ड में तीन महत्वपूर्ण आत्मकथाएँ मिलती हैं। हिन्दी में सत्रहवीं शताब्दी में रचित बनारसीदास ‘जैन’ की ‘अर्द्धकथानक’  (1641ई.) अपनी बेबाकी में चौंकाने वाली आत्मकथा है। बनारसीदास की अर्द्धकथा के बाद एक लम्बा कालखण्ड अभिव्यक्ति की दृष्टि से मौन मिलता है। इस लम्बे मौन को स्वामी दयानन्द सरस्वती ने सन् 1860 में अपने ‘आत्मचरित’ से तोड़ा है। दयानन्द सरस्वती जी का स्वकथित जीवन वृत्तान्त अत्यन्त संक्षेप में भी अपने वर्तमान तक पहुंचने की कथा का निर्वाह निजी विशिष्ट चेतना के साथ करता है।
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[[दयानन्द सरस्वती|स्वामी दयानन्द सरस्वती]] ने अपनी आत्मकथा में अपने प्रारम्भिक जीवन के चित्रण के साथ-साथ तत्कालीन सामाजिक और धार्मिक परिस्थितियों को दर्शाया है। घर से भागने, वैरागी के हाथ पड़ने, पिता के द्वारा पकड़े जाने, पुनः भागने, तदनन्तर संन्यास लेने और विभिन्न गुरुओं से सम्बद्ध कथायें ‘जीवन चरित्र’ में आती हैं। अपने द्वारा किए गए [[शैवमत]] के खण्डन, भागवत के खण्डन आदि अनेक शास्त्रार्थ की चर्चा, साथ ही [[आर्य समाज]] की उन्नति के लिए समर्पित उनका स्वयं का व्यक्तित्व इस संक्षिप्त आत्मकथा को धार्मिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण स्थान दिलाता है। ईश्वर की इस प्रार्थना से लेखक अपनी इस आत्मकथा का समापन करता है— “...ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि सर्वत्र आर्य समाज कायम होकर पूजादि दुराचार दूर हो जावें, वेद शास्त्रों का सच्चा अर्थ सबकी समझ में आवे और उन्हीं के अनुसार लोगों का आचरण होकर देश की उन्नति हो जावे।”<ref>स्वरचित जन्मचरित्र (ऋषि दयानन्द) संपादक भगवद्यत</ref>
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सन् 1909 तथा 1918 ई. में दो खण्डों में सत्यानन्द अग्निहोत्री का आत्मचरित्र ‘मुझमें देव-जीवन का विकास’ प्रकाशित हुआ। इसमें आत्मकथा कम और उपदेशात्मकता अधिक है। ऐसा प्रतीत होता है कि लेखक ने आर्यसमाज के प्रचार की प्रतिस्पर्द्धा में देव-समाज के सिद्धान्तों का प्रतिपादन करने हेतु इस ग्रन्थ को रचा था। आस्तिकता और वैदिक विचारधारा का खण्डन इस आत्मकथा का प्रमुख हिस्सा है।
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सीताराम सूबेदार द्वारा रचित ‘सिपाही से सूबेदार तक’ जैसी आत्मकथा अपने [[अंग्रेज़ी]] [[अनुवाद|अनुवादों]] के अनेक संस्करणों में उपलब्ध है। आत्मकथाकार की सैनिक बनने की अपनी महत्त्वाकांक्षा, मामा के द्वारा दिया गया प्रोत्साहन, घर का विरोध और अन्ततः ‘खूब जवान’ हो जाने पर फौज के लिए प्रस्थान जैसी घटनाएँ आत्मकथा को रुचिकर बनाती है। आत्म-कथाकार अपनी अड़तालीस वर्षों की ब्रितानी फौज की सेवा में पाये जंग के घाव, चोट के निशानों और छह मेडलों के प्रति सर्वोत्तम है। बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है इस आत्मकथा का अपने मौलिक रूप हिन्दी में नहीं उपलब्ध होना।
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====द्वितीय चरण (1876-1946)====
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[[भारतेन्दु हरिश्चंद्र]] के छोटे आत्मकथात्मक लेख ‘एक कहानीः कुछ आप बीती कुछ जग बीती’ से प्रारम्भ हुई द्वितीय चरण में आत्मकथाएँ अनेक छोटे-बड़े प्रयोग करती है। इस छोटे-से लेख में भारतेन्दु ने अपने निज एवं अपने परिवेश को अत्यन्त सूक्ष्म दृष्टि के साथ उकेरा है। दो पृष्ठों में लिखा गया यह लेख आत्मकथा की विधा के भविष्य के लिए पुष्ट बीज है। अपना परिचय देने के क्रम में आत्मकथाकार ने अपनी सहृदयता का यथेष्ट प्रमाण दिया है-
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“जमीन चमन गुल खिलाती है क्या-क्या?
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बदलता है रंग आसमाँ कैसे-कैसे।”<ref>भारतेन्दु ग्रन्थावली, काशी नागरी प्रचारिणी सभा पृ. 813</ref>
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“हम कौन है और किस कुल में उत्पन्न हुए हैं आप लोग पीछे जानेंगे। आप लोगों को क्या, किसी का रोना हो पढ़े चलिए जी बहलाने से काम है। अभी इतना ही कहता हूँ कि मेरा जन्म जिस तिथि को हुआ, यह जैन और वैदिक दोनों में बड़ा पवित्र दिन है।”
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इस चरण में कई महत्वपूर्ण आत्मकथाएँ प्रकाशित हुई- राधाचरण गोस्वामी की ‘राधाचरण गोस्वामी का जीवन चरित्र’- इस छोटी सी कृति में वैयक्तिक संदर्भों से ज्यादा तत्कालीन साहित्य और समाज की चर्चा का निर्वाह किया गया है। [[भाई परमानन्द]] की ‘आप बीती (मेरी राम कहानी)’ का प्रकाशन वर्ष 1922 ई. है।
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स्पष्टवादिता, सच्चाई के लिए प्रसिद्ध, वैदिक धर्म के सच्चे भक्त परमानन्द की आपबीती का अपनी तत्कालीन राजनीतिक स्थिति में एक विशेष राजनीतिक महत्त्व है। गिरफ्तारी का पहला दिन, हवालात की अंधेरी कोठरी के अन्दर, न्याय की निराशा जैसे शीर्षकों में आपबीती विभक्त है जो कहीं न कहीं ‘डायरी’ के समीप लगती है।
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जेल की सजाओं, षड्यन्त्रों, अंधेरे में बिताये अकेले घण्टी और वहाँ की गन्दगी के बारे में बताता लेखक जेल के माध्यम से सुधार करने की आशा को एक कल्पित स्थिति घोषित करता है- “यह वह स्थान है, जहाँ मनुष्य समाज के गिरे हुए आदमी इकट्ठे कर दिये जाते हैं, ताकि वे अपने मन के विचारों को एक-दूसरे से बदलते हुए उनके अनुसार अपना काल व्यतीत करें। जब कोई अच्छी प्रकृति का मनुष्य इनमें डाल दिया जाता है, तो कुछ समय तक तो उसे घृणा-सी आती है, परन्तु कुछ समय वहाँ रहने के पश्चात् वह भी वैसा ही हो जाता है, जैसा कि एक मल उठाने वाले भंगी की सन्तान जिनकी नाक में गन्ध सूँघने की शक्ति मर जाती है।”<ref>आप बीती, [[भाई परमानन्द]], पृ. 185</ref>
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20वीं शती के चौथे दशक में ही [[महात्मा गांधी]] ने ‘आत्म-दर्शन’ की अपनी जीवनव्यापी कोशिशों को आत्मकथा का रूप दिया, जिसे उन्होंने ‘सत्य के प्रयोग’ की संज्ञा दी। मूल रूप से यह आत्मकथा [[गुजराती]] में थी जो अनुदित होकर बाद में [[हिन्दी]] में भी प्रकाशित होती है। आत्मकथा की प्रस्तावना में अपने उद्देश्यों की घोषणा करते हुए उन्होंने लिखा है-
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‘‘मुझे जो करना है, तीस वर्षों से मैं जिसकी आतुर भाव से रट लगाए हुए हूँ, वह तो आत्म-दर्शन है,ईश्वर का साक्षात्कार है, मोक्ष है। मेरे सारे काम इसी दृष्टि से होते हैं। मेरा सब लेखन भी इसी दृष्टि से होता है; और राजनीति के क्षेत्र में मेरा पड़ना भी इसी वस्तु के अधीन है।’’<ref> ‘सत्य के प्रयोग’ आत्मकथा भूमिका से</ref>
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गांधी इस बात से सहमत थे कि आत्मकथा लिखने का पश्चिमी ढंग अनिवार्यतः आत्म-केन्द्रित और अहम्मन्यतापूर्ण है। परन्तु गांधी ने अपने व्यक्ति या ‘मैं’ के बजाय ‘आत्मा’ को आत्मकथा के केन्द्र में लाकर इन पाश्चात्य विकृतियों का प्रतिकार किया। सही मायने में गाँधीजी ने आत्मकथा का भारतीयकरण किया है।
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कृति के शीर्षक ‘सत्य के प्रयोग’ से भी यह प्रतीति स्पष्टतः होती है कि लेखक अपने जीवन को प्रयोग-स्थल बनाकर उस पर अनेक परिस्थितियों में बार-बार नये परीक्षण करके उनके परिणाम संसार के सामने रखने की चेष्टा कर रहा है। इसके अलावा उन्होंने स्पष्ट किया कि भारतीय जनता उनके जीवन-विश्वास और जीवन व्यवहार का अन्धानुकरण न करे, क्योंकि उनकी बातें ‘अन्तिम और सच’ नहीं है। सत्य को उन्होंने पाया नहीं है, बल्कि उसे पाने की निरन्तर अथक कोशिश की है। उनकी इस कोशिश से प्रेरित होकर, उनके जीवन-प्रसंगों के अन्तरंग हिस्सेदार बनकर अन्य लोग अपने-अपने ढंग, क्षमता और विवेक के मुताबिक यह कोशिश कर सकते हैं। इस तरह वे ज्यादा से ज्यादा अपने यहाँ एक बड़े पैमाने पर सत्य के प्रयोगों की इस संस्कृति का निर्माण तथा विकास चाहते थे। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं है कि इस काम के लिए आत्मकथा से उपयुक्त माध्यम और कुछ हो ही नहीं सकता था।
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सन् 1932 में [[प्रेमचंद|मुंशी प्रेमचंद]] ने ‘हंस’ का एक विशेष आत्मकथा-अंक सम्पादित करके, अपने यहाँ आत्मकथा विधा के विकास की एक बड़ी पहल की थी। तब के एक नए समीक्षक [[नन्ददुलारे वाजपेयी]] ने इस अंक में लिखना तो स्वीकार नहीं ही किया, उलटे इस योजना का जबरदस्त सैद्धान्तिक विरोध किया। मसलन वाजपेयी जी आत्मकथा न लिखने को आत्म-त्याग के महान दर्शन से ‘जोड़’ रहे थे और जो परम्परा में नहीं है, पर जो परम्परा में नहीं है उन्हें आधुनिक विवेक के साथ अपनाया और समृद्ध भी तो किया जा सकता है। इस प्रसंग में [[हजारी प्रसाद द्विवेदी|आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी]] को याद करना जरूरी है— ‘‘फिर यूरोपीय प्रभाव होने मात्र से कोई चीज अस्पृश्य नहीं हो जाती। [[प्रेमचंद की कहानियाँ]], [[बैताल पचीसी]] के ढंग की न होकर आधुनिक यूरोपीय कहानियों के ढंग की हुई हैं, इतना कह देने से प्रेमचन्द का महत्त्व कम नहीं हो जाता। प्रभाव तो मनुष्य पर तब तक पड़ेगा, जब तक उसमें जीवन है। जहाँ जीवन का वेग अधिक है, प्राण धारा बहाव तेज है, उसी स्थान से उसका ऐश्वर्य छितराएगा ही। आलोक सीमा में बंधना नहीं चाहता उसका धर्म ही प्रकाशित होना और प्रकाशित करना है।’’<ref>आत्मकथा की संस्कृति- पंकज चतुर्वेदी, पृष्ठ 33-34</ref>
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1941 में प्रकाशित आत्मकथा ‘मेरी आत्म कहानी’ के आत्मकथाकार प्रसिद्ध साहित्यकार [[श्यामसुन्दर दास]] हैं। सम्पूर्ण कृति में [[नागरी प्रचारिणी सभा]] की स्थापना, विकास, गति, तत्कालीन हिन्दी और हिन्दी की स्थिति की चर्चाएँ हैं। एक उच्चकोटि के भाषाविद् की आत्मकथा होने के बावजूद भी आत्मकथा में भाषा-शैली का या अभिव्यक्ति का माधुर्य नहीं है। पत्रों के उद्धरण, अंग्रेजी दस्तावेज, आँकड़ों का विस्तृत वर्णन लेखक के ऐतिहासिक महत्त्व को प्रमाणित तो करते हैं लेकिन आत्मकथा की सहज निर्बन्ध वैयक्तिक गति को खंडित करते हैं।
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सन् 1942 ई. में [[बाबू गुलाबराय]] की आत्मकथा ‘मेरी असफलताएँ’ शीर्षक से प्रकाशित हुई। यह आत्मकथा अत्यन्त ही रोचक एवं व्यंग्य-विनोदपूर्ण है, साथ ही लेखक के व्यक्तित्व, चरित्र, कार्यक्षमता पर अप्रत्यक्ष रूप से प्रकाश डालती है।
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[[हरिभाऊ उपाध्याय]] की आत्मकथा ‘साधना के पथ पर’ 1946 ई. में प्रकाशित हुई, जिसमें लेखक ने 1842 से 1945 तक के जीवनानुभवों को लिपिबद्ध किया है। यह कृति अनेक जगहों पर उपदेशात्मक हो गयी है, लेकिन ऐसा सोद्देश्य हुआ है, क्योंकि लेखक ने भूमिका में स्पष्ट कर दिया है कि हो सकता है, ये अनुभव पाठकों के लिए उपयोगी हों।
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[[राहुल सांकृत्यायन]] की आत्मकथा पांच खण्डों में ‘मेरी जीवन यात्रा’ शीर्षक से प्रकाशित हुई। इनमें से पहले दो खण्ड उनके जीवनकाल में क्रमशः 1946 तथा 1947 में प्रकाशित हुए तथा शेष तीन खण्डों का प्रकाशन उनकी मृत्यु के बाद सन् 1967 में हुआ था। आत्मकथा में राहुल सांकृत्यायन के जीवन के 62 सालों का चित्रण है। प्रथम खण्ड में वंश-परिचय, जन्म, शैशव, शिला व तारुण्य का वर्णन है। तथा दक्षिण भारत की यात्रा, मठ का आश्रय, आर्य समाज से सम्पर्क, महात्मा गाँधी के प्रभाव आदि का दिग्दर्शन है। द्वितीय खण्ड में [[श्रीलंका|लंका]], [[तिब्बत]], [[जापान]], [[रूस]] व [[यूरोप]] आदि की यात्रा, किसान सत्याग्रह, जेलयात्रा, [[बौद्ध धर्म]] व साम्यवाद से प्रभावित होने की कथा है। तृतीय खण्ड में सोवियत प्रदेश के त्रि-वर्षीय निवास (1944 से 1947 तक) का वर्णन है। चतुर्थ खण्ड में 1947 से 1950 तक की घटनाओं का विवरण है। इस खण्ड का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है उनका [[हिन्दी]] के प्रति समर्पण तथा हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने में उनका योगदान। अंतिम खण्ड में आत्मकथाकार ने साहित्यिक समस्याओं का उद्घाटन किया है।
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इस विशाल और व्यापक आत्मकथा में लेखक की साहित्यिक अभिरुचियों, वैयक्तिक गुण-दोषों, अनुभूतियों, भावनाओं, यात्राओं तथा विशिष्ट उपलब्धियों का विस्तृत वर्णन हुआ है। स्थान-स्थान पर उनकी रचनाधर्मिता, रचना-प्रक्रिया तथा लेखन स्रोतों का भी उल्लेख है। डॉ. हरदयाल के शब्दों में “मुहावरेदार भाषा में लिखी गयी यह आत्मकथा उनकी यायावरी, विद्याव्यसनी एवं विद्रोही वृत्ति से साकार हो उठी है।”<ref>हिन्दी साहित्य का इतिहास, सम्पादक- डा. नगेन्द्र, सह-सम्पादक- डा. हरदयाल, पृ. 815</ref>
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07:58, 3 नवम्बर 2016 का अवतरण

आत्मकथा हिन्दी साहित्य में गद्य की एक विधा है। जैसे- लेखक सिद्धलिंगय्या द्वारा रचित आत्मकथा गाँव गली

आत्मकथा की विकास-यात्रा

उपन्यास, संस्मरण, रेखाचित्र, रिपोर्ताज, यात्रा वृत्तान्त और डायरी की ही भाँति आत्मकथा नामक साहित्यिक विधा का भी आगमन पश्चिम से हुआ है। डॉ. नामवर सिंह ने अपने एक व्याख्यान में कहा था कि ‘अपना लेने पर कोई चीज परायी नहीं रह जाती, बल्कि अपनी हो जाती है।’ इसलिए बहस अपनाव को लेकर नहीं, उसकी चेतना और प्रक्रिया को लेकर हो सकती है। आधुनिक काल में पाश्चात्य संस्कृति से संवाद स्थापित होने पर हिन्दी के रचनाकारों ने इन विधाओं को अपनाया और अपने जातीय संदर्भ से जोड़कर उन्हें विकसित किया। महात्मा गांधी कहते थे कि अपने चिन्तन के दरवाजे और खिड़कियाँ खुली रखनी चाहिए, ताकि विश्व की विभिन्न संस्कृतियों की हवाएँ उसमें बे-रोक-टोक आएँ-जाएँ; मगर यह ध्यान रहे कि उसी समय अपनी सांस्कृतिक परम्परा में हमारी जड़ें बहुत गहरी और मजबूत हो।
प्राचीनकाल से साहित्यिक परम्परा में आत्मकथा की अनुपस्थिति के सांस्कृतिक कारण हैं। दर्शन में वास्तविक महत्ता आत्मा की रही है। जहाँ मनुष्य के अस्तित्व को ही नश्वर माना जाता हो वहां स्वतंत्रता को महत्त्व नहीं मिलना कोई आश्चर्य का विषय नहीं है। चूँकि आत्मा ही वास्तविक है और सारे मनुष्यों में समान है, इसलिए दार्शनिकों का तर्क है कि सभी मनुष्य अन्ततः एक है। वैयक्तिक्ता, आत्मवत्ता या फिर विश्ष्टिता का बोध— इनको एक-दूसरे के पर्याय के रूप में ‘माया’ की माना जाता है। चूँकि आत्मकथा एक स्वतंत्र ‘आत्म’ की कथा है, इसलिए उसे अपने जन्म और विकास के लिए ऐसी संस्कृति की जरूरत होती है, जिसमें वैयक्तिकता को महत्त्व और पोषण प्राप्त हो।

प्राचीन साहित्य में आत्मकथा

प्राचीन साहित्य में आत्मकथा की परम्परा भले ही नहीं रही हो लेकिन ऐसा नहीं है कि कथाकारों ने आत्म वचन को नहीं अपनाया हो। एक सूक्ष्म जाँच-पड़ताल के बाद आत्मकथा-सरीखी साहित्यिक अभिव्यक्ति के कुछ टुकड़े जरूर मिलते हैं, हालांकि उनसे कोई संतुष्टि नहीं मिल पाती है। हर्षचरित का वह आरम्भिक हिस्सा है, जिसमें रचयिता बाणभट्ट ने अपमान, वंचना और हताशा में भरे अपने बचपन, विद्यार्थी जीवन और शुरूआती युवावस्था की चर्चा की है। इसी तरह कुछ और नाम भी आते हैं जिनमें बिलहण (विक्रमांकदेव चरित), दण्डी (दशकुमारचरित) आदि प्रमुख हैं। प्राप्त सामग्री के आधार पर काल क्रमानुसार इतिहास की दीर्घा में आत्मकथाओं के तीन निश्चित चरण दिखते हैं—

प्रथम चरण (1600-1875)

प्रथम चरण के सुदीर्घ कालखण्ड में तीन महत्वपूर्ण आत्मकथाएँ मिलती हैं। हिन्दी में सत्रहवीं शताब्दी में रचित बनारसीदास ‘जैन’ की ‘अर्द्धकथानक’ (1641ई.) अपनी बेबाकी में चौंकाने वाली आत्मकथा है। बनारसीदास की अर्द्धकथा के बाद एक लम्बा कालखण्ड अभिव्यक्ति की दृष्टि से मौन मिलता है। इस लम्बे मौन को स्वामी दयानन्द सरस्वती ने सन् 1860 में अपने ‘आत्मचरित’ से तोड़ा है। दयानन्द सरस्वती जी का स्वकथित जीवन वृत्तान्त अत्यन्त संक्षेप में भी अपने वर्तमान तक पहुंचने की कथा का निर्वाह निजी विशिष्ट चेतना के साथ करता है।

स्वामी दयानन्द सरस्वती ने अपनी आत्मकथा में अपने प्रारम्भिक जीवन के चित्रण के साथ-साथ तत्कालीन सामाजिक और धार्मिक परिस्थितियों को दर्शाया है। घर से भागने, वैरागी के हाथ पड़ने, पिता के द्वारा पकड़े जाने, पुनः भागने, तदनन्तर संन्यास लेने और विभिन्न गुरुओं से सम्बद्ध कथायें ‘जीवन चरित्र’ में आती हैं। अपने द्वारा किए गए शैवमत के खण्डन, भागवत के खण्डन आदि अनेक शास्त्रार्थ की चर्चा, साथ ही आर्य समाज की उन्नति के लिए समर्पित उनका स्वयं का व्यक्तित्व इस संक्षिप्त आत्मकथा को धार्मिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण स्थान दिलाता है। ईश्वर की इस प्रार्थना से लेखक अपनी इस आत्मकथा का समापन करता है— “...ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि सर्वत्र आर्य समाज कायम होकर पूजादि दुराचार दूर हो जावें, वेद शास्त्रों का सच्चा अर्थ सबकी समझ में आवे और उन्हीं के अनुसार लोगों का आचरण होकर देश की उन्नति हो जावे।”[1]

सन् 1909 तथा 1918 ई. में दो खण्डों में सत्यानन्द अग्निहोत्री का आत्मचरित्र ‘मुझमें देव-जीवन का विकास’ प्रकाशित हुआ। इसमें आत्मकथा कम और उपदेशात्मकता अधिक है। ऐसा प्रतीत होता है कि लेखक ने आर्यसमाज के प्रचार की प्रतिस्पर्द्धा में देव-समाज के सिद्धान्तों का प्रतिपादन करने हेतु इस ग्रन्थ को रचा था। आस्तिकता और वैदिक विचारधारा का खण्डन इस आत्मकथा का प्रमुख हिस्सा है।

सीताराम सूबेदार द्वारा रचित ‘सिपाही से सूबेदार तक’ जैसी आत्मकथा अपने अंग्रेज़ी अनुवादों के अनेक संस्करणों में उपलब्ध है। आत्मकथाकार की सैनिक बनने की अपनी महत्त्वाकांक्षा, मामा के द्वारा दिया गया प्रोत्साहन, घर का विरोध और अन्ततः ‘खूब जवान’ हो जाने पर फौज के लिए प्रस्थान जैसी घटनाएँ आत्मकथा को रुचिकर बनाती है। आत्म-कथाकार अपनी अड़तालीस वर्षों की ब्रितानी फौज की सेवा में पाये जंग के घाव, चोट के निशानों और छह मेडलों के प्रति सर्वोत्तम है। बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है इस आत्मकथा का अपने मौलिक रूप हिन्दी में नहीं उपलब्ध होना।

द्वितीय चरण (1876-1946)

भारतेन्दु हरिश्चंद्र के छोटे आत्मकथात्मक लेख ‘एक कहानीः कुछ आप बीती कुछ जग बीती’ से प्रारम्भ हुई द्वितीय चरण में आत्मकथाएँ अनेक छोटे-बड़े प्रयोग करती है। इस छोटे-से लेख में भारतेन्दु ने अपने निज एवं अपने परिवेश को अत्यन्त सूक्ष्म दृष्टि के साथ उकेरा है। दो पृष्ठों में लिखा गया यह लेख आत्मकथा की विधा के भविष्य के लिए पुष्ट बीज है। अपना परिचय देने के क्रम में आत्मकथाकार ने अपनी सहृदयता का यथेष्ट प्रमाण दिया है-

“जमीन चमन गुल खिलाती है क्या-क्या?

बदलता है रंग आसमाँ कैसे-कैसे।”[2]

“हम कौन है और किस कुल में उत्पन्न हुए हैं आप लोग पीछे जानेंगे। आप लोगों को क्या, किसी का रोना हो पढ़े चलिए जी बहलाने से काम है। अभी इतना ही कहता हूँ कि मेरा जन्म जिस तिथि को हुआ, यह जैन और वैदिक दोनों में बड़ा पवित्र दिन है।”

इस चरण में कई महत्वपूर्ण आत्मकथाएँ प्रकाशित हुई- राधाचरण गोस्वामी की ‘राधाचरण गोस्वामी का जीवन चरित्र’- इस छोटी सी कृति में वैयक्तिक संदर्भों से ज्यादा तत्कालीन साहित्य और समाज की चर्चा का निर्वाह किया गया है। भाई परमानन्द की ‘आप बीती (मेरी राम कहानी)’ का प्रकाशन वर्ष 1922 ई. है।

स्पष्टवादिता, सच्चाई के लिए प्रसिद्ध, वैदिक धर्म के सच्चे भक्त परमानन्द की आपबीती का अपनी तत्कालीन राजनीतिक स्थिति में एक विशेष राजनीतिक महत्त्व है। गिरफ्तारी का पहला दिन, हवालात की अंधेरी कोठरी के अन्दर, न्याय की निराशा जैसे शीर्षकों में आपबीती विभक्त है जो कहीं न कहीं ‘डायरी’ के समीप लगती है।

जेल की सजाओं, षड्यन्त्रों, अंधेरे में बिताये अकेले घण्टी और वहाँ की गन्दगी के बारे में बताता लेखक जेल के माध्यम से सुधार करने की आशा को एक कल्पित स्थिति घोषित करता है- “यह वह स्थान है, जहाँ मनुष्य समाज के गिरे हुए आदमी इकट्ठे कर दिये जाते हैं, ताकि वे अपने मन के विचारों को एक-दूसरे से बदलते हुए उनके अनुसार अपना काल व्यतीत करें। जब कोई अच्छी प्रकृति का मनुष्य इनमें डाल दिया जाता है, तो कुछ समय तक तो उसे घृणा-सी आती है, परन्तु कुछ समय वहाँ रहने के पश्चात् वह भी वैसा ही हो जाता है, जैसा कि एक मल उठाने वाले भंगी की सन्तान जिनकी नाक में गन्ध सूँघने की शक्ति मर जाती है।”[3]

20वीं शती के चौथे दशक में ही महात्मा गांधी ने ‘आत्म-दर्शन’ की अपनी जीवनव्यापी कोशिशों को आत्मकथा का रूप दिया, जिसे उन्होंने ‘सत्य के प्रयोग’ की संज्ञा दी। मूल रूप से यह आत्मकथा गुजराती में थी जो अनुदित होकर बाद में हिन्दी में भी प्रकाशित होती है। आत्मकथा की प्रस्तावना में अपने उद्देश्यों की घोषणा करते हुए उन्होंने लिखा है-

‘‘मुझे जो करना है, तीस वर्षों से मैं जिसकी आतुर भाव से रट लगाए हुए हूँ, वह तो आत्म-दर्शन है,ईश्वर का साक्षात्कार है, मोक्ष है। मेरे सारे काम इसी दृष्टि से होते हैं। मेरा सब लेखन भी इसी दृष्टि से होता है; और राजनीति के क्षेत्र में मेरा पड़ना भी इसी वस्तु के अधीन है।’’[4]

गांधी इस बात से सहमत थे कि आत्मकथा लिखने का पश्चिमी ढंग अनिवार्यतः आत्म-केन्द्रित और अहम्मन्यतापूर्ण है। परन्तु गांधी ने अपने व्यक्ति या ‘मैं’ के बजाय ‘आत्मा’ को आत्मकथा के केन्द्र में लाकर इन पाश्चात्य विकृतियों का प्रतिकार किया। सही मायने में गाँधीजी ने आत्मकथा का भारतीयकरण किया है।

कृति के शीर्षक ‘सत्य के प्रयोग’ से भी यह प्रतीति स्पष्टतः होती है कि लेखक अपने जीवन को प्रयोग-स्थल बनाकर उस पर अनेक परिस्थितियों में बार-बार नये परीक्षण करके उनके परिणाम संसार के सामने रखने की चेष्टा कर रहा है। इसके अलावा उन्होंने स्पष्ट किया कि भारतीय जनता उनके जीवन-विश्वास और जीवन व्यवहार का अन्धानुकरण न करे, क्योंकि उनकी बातें ‘अन्तिम और सच’ नहीं है। सत्य को उन्होंने पाया नहीं है, बल्कि उसे पाने की निरन्तर अथक कोशिश की है। उनकी इस कोशिश से प्रेरित होकर, उनके जीवन-प्रसंगों के अन्तरंग हिस्सेदार बनकर अन्य लोग अपने-अपने ढंग, क्षमता और विवेक के मुताबिक यह कोशिश कर सकते हैं। इस तरह वे ज्यादा से ज्यादा अपने यहाँ एक बड़े पैमाने पर सत्य के प्रयोगों की इस संस्कृति का निर्माण तथा विकास चाहते थे। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं है कि इस काम के लिए आत्मकथा से उपयुक्त माध्यम और कुछ हो ही नहीं सकता था।

सन् 1932 में मुंशी प्रेमचंद ने ‘हंस’ का एक विशेष आत्मकथा-अंक सम्पादित करके, अपने यहाँ आत्मकथा विधा के विकास की एक बड़ी पहल की थी। तब के एक नए समीक्षक नन्ददुलारे वाजपेयी ने इस अंक में लिखना तो स्वीकार नहीं ही किया, उलटे इस योजना का जबरदस्त सैद्धान्तिक विरोध किया। मसलन वाजपेयी जी आत्मकथा न लिखने को आत्म-त्याग के महान दर्शन से ‘जोड़’ रहे थे और जो परम्परा में नहीं है, पर जो परम्परा में नहीं है उन्हें आधुनिक विवेक के साथ अपनाया और समृद्ध भी तो किया जा सकता है। इस प्रसंग में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी को याद करना जरूरी है— ‘‘फिर यूरोपीय प्रभाव होने मात्र से कोई चीज अस्पृश्य नहीं हो जाती। प्रेमचंद की कहानियाँ, बैताल पचीसी के ढंग की न होकर आधुनिक यूरोपीय कहानियों के ढंग की हुई हैं, इतना कह देने से प्रेमचन्द का महत्त्व कम नहीं हो जाता। प्रभाव तो मनुष्य पर तब तक पड़ेगा, जब तक उसमें जीवन है। जहाँ जीवन का वेग अधिक है, प्राण धारा बहाव तेज है, उसी स्थान से उसका ऐश्वर्य छितराएगा ही। आलोक सीमा में बंधना नहीं चाहता उसका धर्म ही प्रकाशित होना और प्रकाशित करना है।’’[5]

1941 में प्रकाशित आत्मकथा ‘मेरी आत्म कहानी’ के आत्मकथाकार प्रसिद्ध साहित्यकार श्यामसुन्दर दास हैं। सम्पूर्ण कृति में नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना, विकास, गति, तत्कालीन हिन्दी और हिन्दी की स्थिति की चर्चाएँ हैं। एक उच्चकोटि के भाषाविद् की आत्मकथा होने के बावजूद भी आत्मकथा में भाषा-शैली का या अभिव्यक्ति का माधुर्य नहीं है। पत्रों के उद्धरण, अंग्रेजी दस्तावेज, आँकड़ों का विस्तृत वर्णन लेखक के ऐतिहासिक महत्त्व को प्रमाणित तो करते हैं लेकिन आत्मकथा की सहज निर्बन्ध वैयक्तिक गति को खंडित करते हैं।

सन् 1942 ई. में बाबू गुलाबराय की आत्मकथा ‘मेरी असफलताएँ’ शीर्षक से प्रकाशित हुई। यह आत्मकथा अत्यन्त ही रोचक एवं व्यंग्य-विनोदपूर्ण है, साथ ही लेखक के व्यक्तित्व, चरित्र, कार्यक्षमता पर अप्रत्यक्ष रूप से प्रकाश डालती है।

हरिभाऊ उपाध्याय की आत्मकथा ‘साधना के पथ पर’ 1946 ई. में प्रकाशित हुई, जिसमें लेखक ने 1842 से 1945 तक के जीवनानुभवों को लिपिबद्ध किया है। यह कृति अनेक जगहों पर उपदेशात्मक हो गयी है, लेकिन ऐसा सोद्देश्य हुआ है, क्योंकि लेखक ने भूमिका में स्पष्ट कर दिया है कि हो सकता है, ये अनुभव पाठकों के लिए उपयोगी हों।

राहुल सांकृत्यायन की आत्मकथा पांच खण्डों में ‘मेरी जीवन यात्रा’ शीर्षक से प्रकाशित हुई। इनमें से पहले दो खण्ड उनके जीवनकाल में क्रमशः 1946 तथा 1947 में प्रकाशित हुए तथा शेष तीन खण्डों का प्रकाशन उनकी मृत्यु के बाद सन् 1967 में हुआ था। आत्मकथा में राहुल सांकृत्यायन के जीवन के 62 सालों का चित्रण है। प्रथम खण्ड में वंश-परिचय, जन्म, शैशव, शिला व तारुण्य का वर्णन है। तथा दक्षिण भारत की यात्रा, मठ का आश्रय, आर्य समाज से सम्पर्क, महात्मा गाँधी के प्रभाव आदि का दिग्दर्शन है। द्वितीय खण्ड में लंका, तिब्बत, जापान, रूसयूरोप आदि की यात्रा, किसान सत्याग्रह, जेलयात्रा, बौद्ध धर्म व साम्यवाद से प्रभावित होने की कथा है। तृतीय खण्ड में सोवियत प्रदेश के त्रि-वर्षीय निवास (1944 से 1947 तक) का वर्णन है। चतुर्थ खण्ड में 1947 से 1950 तक की घटनाओं का विवरण है। इस खण्ड का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है उनका हिन्दी के प्रति समर्पण तथा हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने में उनका योगदान। अंतिम खण्ड में आत्मकथाकार ने साहित्यिक समस्याओं का उद्घाटन किया है।

इस विशाल और व्यापक आत्मकथा में लेखक की साहित्यिक अभिरुचियों, वैयक्तिक गुण-दोषों, अनुभूतियों, भावनाओं, यात्राओं तथा विशिष्ट उपलब्धियों का विस्तृत वर्णन हुआ है। स्थान-स्थान पर उनकी रचनाधर्मिता, रचना-प्रक्रिया तथा लेखन स्रोतों का भी उल्लेख है। डॉ. हरदयाल के शब्दों में “मुहावरेदार भाषा में लिखी गयी यह आत्मकथा उनकी यायावरी, विद्याव्यसनी एवं विद्रोही वृत्ति से साकार हो उठी है।”[6]



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. स्वरचित जन्मचरित्र (ऋषि दयानन्द) संपादक भगवद्यत
  2. भारतेन्दु ग्रन्थावली, काशी नागरी प्रचारिणी सभा पृ. 813
  3. आप बीती, भाई परमानन्द, पृ. 185
  4. ‘सत्य के प्रयोग’ आत्मकथा भूमिका से
  5. आत्मकथा की संस्कृति- पंकज चतुर्वेदी, पृष्ठ 33-34
  6. हिन्दी साहित्य का इतिहास, सम्पादक- डा. नगेन्द्र, सह-सम्पादक- डा. हरदयाल, पृ. 815

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