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'''खपरैल''' का प्रयोग प्राय: छतों व दीवारों को ढकने के लिए किया जाता है। ये [[मिट्टी]] के बने होते है। [[भारत]] में काफ़ी पुराने समय से ही खपरैल का प्रयोग बड़े पैमाने पर झोपड़ी आदि की छत आदि बनाने में किया जाता रहा है। समय के साथ-साथ अब खपरैल का प्रयोग बहुत कम हो गया है। इनका स्थान अब सीमेंट की चादरों या फिर टीन आदि की चादरों ने ले लिया है।
 
'''खपरैल''' का प्रयोग प्राय: छतों व दीवारों को ढकने के लिए किया जाता है। ये [[मिट्टी]] के बने होते है। [[भारत]] में काफ़ी पुराने समय से ही खपरैल का प्रयोग बड़े पैमाने पर झोपड़ी आदि की छत आदि बनाने में किया जाता रहा है। समय के साथ-साथ अब खपरैल का प्रयोग बहुत कम हो गया है। इनका स्थान अब सीमेंट की चादरों या फिर टीन आदि की चादरों ने ले लिया है।
 
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==ग्रामीण क्षेत्रों में प्रयोग==
*प्राय: ग्रामीण अंचलों में खपरैल का प्रयोग अधिक देखने को मिलता है।
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प्राय: ग्रामीण अंचलों में खपरैल का प्रयोग अधिक देखने को मिलता है। [[बाँस]] और बल्ली के चौकोर जाल पर इन्हें बिछाया जाता है। खपरैल से बने मकानों में ठंडक भी काफ़ी होती है। छत बिछाने के लिए स्थानीय देशी खपरैल से लेकर स्यालकोट, इलाहाबाद, मँगलौर इत्यादि में अच्छे मेल की खपरैल काफी बनती थीं, पर इनका प्रचलन अब धीरे-धीरे सीमेंट, कंक्रीट तथा प्रबलित ईंटों के कारण कम होता जा रहा है। वह गरीब व्यक्ति जो मंहगे मकान आदि नहीं बनवा सकते, वे साधारण सी झोपड़ी बनाकर उस पर [[छप्पर]] बनाने के लिए खपरैलों का प्रयोग करते हैं। खपरैल बहुत मजबूत होते हैं। इससे निर्मित छप्पर भारी [[वर्षा]] तथा आँधी आदि को आसानी से सह लेते हैं। आधुनिक समय में खपरैल कई चीजों के साथ तेजी से गायब हो रहे हैं। कुम्हार भी अब इन्हें नहीं बनाते। ईंटों के मुकाबले अब खपरैल बहुत कम मात्रा में बन रहे हैं।
*वह गरीब व्यक्ति जो मंहगे मकान आदि नहीं बनवा सकते, वे साधारण सी झोपड़ी बनाकर उस पर [[छप्पर]] बनाने के लिए खपरैलों का प्रयोग करते हैं।
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*खपरैल बहुत मजबूत होते हैं। इससे निर्मित छप्पर भारी [[वर्षा]] तथा आँधी आदि को आसानी से सह लेते हैं।
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[[मिट्टी]] के खपरैल प्राय: उसी प्रकार बनाये जाते हैं, जैसे ईंट; लेकिन इनके बनाने में अधिक मेहनत और ध्यान देना पड़ता है। खपरैलों के विभिन्न प्रकार की डिज़ाइनों के लिए साँचा भी बहुत सावधानी से बनाना पड़ता है और उनके पकाने और निकासी में बहुत सावधानी रखनी पड़ती है। देशी खपरैलों में दो प्रकार की खपरैलें अधिक प्रचलित हैं। एक में दो अधगोली नालीदार खपरैलें एक दूसरे पर औंधाकर रख दी जाती हैं। दूसरे में दो चौकोर चौके, जिनके किनारे, थोड़ा सा ऊपर मुड़े रहते हैं, अगल-बगल रखकर उन दोनों के ऊपर एक अधगोली खपरैल उलटकर रख दी जाती है, जिससे दोनों चौकों के बीच की जगह ढक जाए। करीब 1,200 खपरैलें 100 वर्गफुट छत छाने के लिए अपेक्षित होती हैं।
*आधुनिक समय में खपरैल कई चीजों के साथ तेजी से गायब हो रहे हैं। कुम्हार भी अब इन्हें नहीं बनाते।
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==लुप्त होती खपरैल==
*ईंटों के मुकाबले अब खपरैल बहुत कम मात्रा में बन रहे हैं। [[बाँस]] और बल्ली के चौकोर जाल पर इन्हें बिछाया जाता है।
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आधुनिक समय में खपरैल का प्रयोग अब सीमित हो गया है। आर.सी.सी. और [[लोह|लोहे]] के अधिक प्रयोग के कारण घरों में इसका प्रयोग अब नहीं होता। सामान्य खपरैल लगभग 1600 रुपए से 2000 [[रुपया|रुपए]] प्रति हजार बिकते हैं। वहीं अच्छे खपरैल की दर भी आसमान छू रही है। इस पर मजदूरी की बढ़ी दर ने छत संवारना और मुश्किल कर दिया है। खपरैल उतारने व चढ़ाने के लिए मजदूरी 150 से 200 रुपए प्रतिदिन हो रही है। एक छोटे घर की मरम्मत सैकड़ों से हज़ारों रुपए में बदल गई है।
*खपरैल से बने मकानों में ठंडक भी काफ़ी होती है।
 
*आधुनिक समय में खपरैल का प्रयोग अब सीमित हो गया है। आर.सी.सी. और [[लोह|लोहे]] के अधिक प्रयोग के कारण घरों में इसका प्रयोग अब नहीं होता।
 
*सामान्य खपरैल लगभग 1600 रुपए से 2000 [[रुपया|रुपए]] प्रति हजार बिकते हैं। वहीं अच्छे खपरैल की दर भी आसमान छू रही है। इस पर मजदूरी की बढ़ी दर ने छत संवारना और मुश्किल कर दिया है।
 
*खपरैल उतारने व चढ़ाने के लिए मजदूरी 150 से 200 रुपए प्रतिदिन हो रही है। एक छोटे घर की मरम्मत सैकड़ों से हज़ारों रुपए में बदल गई है। 
 
  
 
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13:43, 17 अप्रैल 2013 का अवतरण

खपरैल का प्रयोग प्राय: छतों व दीवारों को ढकने के लिए किया जाता है। ये मिट्टी के बने होते है। भारत में काफ़ी पुराने समय से ही खपरैल का प्रयोग बड़े पैमाने पर झोपड़ी आदि की छत आदि बनाने में किया जाता रहा है। समय के साथ-साथ अब खपरैल का प्रयोग बहुत कम हो गया है। इनका स्थान अब सीमेंट की चादरों या फिर टीन आदि की चादरों ने ले लिया है।

ग्रामीण क्षेत्रों में प्रयोग

प्राय: ग्रामीण अंचलों में खपरैल का प्रयोग अधिक देखने को मिलता है। बाँस और बल्ली के चौकोर जाल पर इन्हें बिछाया जाता है। खपरैल से बने मकानों में ठंडक भी काफ़ी होती है। छत बिछाने के लिए स्थानीय देशी खपरैल से लेकर स्यालकोट, इलाहाबाद, मँगलौर इत्यादि में अच्छे मेल की खपरैल काफी बनती थीं, पर इनका प्रचलन अब धीरे-धीरे सीमेंट, कंक्रीट तथा प्रबलित ईंटों के कारण कम होता जा रहा है। वह गरीब व्यक्ति जो मंहगे मकान आदि नहीं बनवा सकते, वे साधारण सी झोपड़ी बनाकर उस पर छप्पर बनाने के लिए खपरैलों का प्रयोग करते हैं। खपरैल बहुत मजबूत होते हैं। इससे निर्मित छप्पर भारी वर्षा तथा आँधी आदि को आसानी से सह लेते हैं। आधुनिक समय में खपरैल कई चीजों के साथ तेजी से गायब हो रहे हैं। कुम्हार भी अब इन्हें नहीं बनाते। ईंटों के मुकाबले अब खपरैल बहुत कम मात्रा में बन रहे हैं।

निर्माण

मिट्टी के खपरैल प्राय: उसी प्रकार बनाये जाते हैं, जैसे ईंट; लेकिन इनके बनाने में अधिक मेहनत और ध्यान देना पड़ता है। खपरैलों के विभिन्न प्रकार की डिज़ाइनों के लिए साँचा भी बहुत सावधानी से बनाना पड़ता है और उनके पकाने और निकासी में बहुत सावधानी रखनी पड़ती है। देशी खपरैलों में दो प्रकार की खपरैलें अधिक प्रचलित हैं। एक में दो अधगोली नालीदार खपरैलें एक दूसरे पर औंधाकर रख दी जाती हैं। दूसरे में दो चौकोर चौके, जिनके किनारे, थोड़ा सा ऊपर मुड़े रहते हैं, अगल-बगल रखकर उन दोनों के ऊपर एक अधगोली खपरैल उलटकर रख दी जाती है, जिससे दोनों चौकों के बीच की जगह ढक जाए। करीब 1,200 खपरैलें 100 वर्गफुट छत छाने के लिए अपेक्षित होती हैं।

लुप्त होती खपरैल

आधुनिक समय में खपरैल का प्रयोग अब सीमित हो गया है। आर.सी.सी. और लोहे के अधिक प्रयोग के कारण घरों में इसका प्रयोग अब नहीं होता। सामान्य खपरैल लगभग 1600 रुपए से 2000 रुपए प्रति हजार बिकते हैं। वहीं अच्छे खपरैल की दर भी आसमान छू रही है। इस पर मजदूरी की बढ़ी दर ने छत संवारना और मुश्किल कर दिया है। खपरैल उतारने व चढ़ाने के लिए मजदूरी 150 से 200 रुपए प्रतिदिन हो रही है। एक छोटे घर की मरम्मत सैकड़ों से हज़ारों रुपए में बदल गई है।


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