पनचक्की

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पनचक्की

पनचक्की (अंग्रेज़ी: Water Wheel) एक यांत्रिक युक्ति है जो बहते हुए या गिरते हुए जल की ऊर्जा से घूमकर किसी दूसरी युक्ति को चलाती है जिससे उपयोगी काम होता है। मध्ययुग में पनचक्कियाँ विभिन्न देशों में कारखानों में बहुत से काम करतीं थीं। इन पनचक्कियों का सर्वाधिक उपयोग अनाज पीसकर आटा बनाने में होता था। 'पनचक्की' पर्वतीय क्षेत्र में आटा पीसने का एक उपकरण है जिसका उपयोग अत्यन्त प्राचीन काल से है। पानी से चलने के कारण इसे "घट' या "घराट' कहते हैं। पनचक्कियाँ प्राय: सदानीरा नदियों के तट पर बनाई जाती हैं। गूल द्वारा नदी से पानी लेकर उसे लकड़ी के पनाले में प्रवाहित किया जाता है जिससे पानी में तेज प्रवाह उत्पन्न हो जाता है। इस प्रवाह के नीचे पंखेदार चक्र (फितौड़ा) रखकर उसके ऊपर चक्की के दो पाट रखे जाते हैं। निचला चक्का भारी एवं स्थिर होता है। पंखे के चक्र का बीच का ऊपर उठा नुकीला भाग (बी) ऊपरी चक्के के खांचे में निहित लोहे की खपच्ची (क्वेलार) में फँसाया जाता है। पानी के वेग से ज्यों ही पंखेदार चक्र घूमने लगता है, चक्की का ऊपरी चक्का घूमने लगता है।

पनचक्की का निर्माण

पनचक्की प्राय: दो मंजिली होती है। कही पंखेदार चक्र के घूमने की जगह को छोड़कर एक मंजिली चक्की भी देखने में आती है। भूमिगत या निचली मंजिल में पनचक्की के फितौड़ा, तलपाटी (तवपाटी), ताल (तव), काँटा (कान), बी, औक्यूड़, तलपाटी को दबाने के लिए भार या पत्थर तथा पनेला (पन्याव) होते हैं। ऊपरी मंजिल में निचला चक्का (तवौटी पाटि), ऊपरी चक्का (मथरौटी पाटि), क्वेलार, चड़ि, आधार की लकड़ी, पन्याइ तथा की छत की रस्सियों से लटका "ड्यूक' होता है। पनचक्की निर्माण के लिए सर्वप्रथम नदी के किनारे किसी उपयुक्त स्थान तक गूल द्वारा पानी पहुँचाया जाता है। उस पानी को फिर ऊँचाई से लगभग 45° के कोण पर स्थापित लकड़ी के नीलादार पनाले में प्रवाहित किया जाता है, इससे पानी में तीव्र वेग उत्पन्न हो जाता है। पनाले के मूँह पर बाँस की जाली लगी रहती है, उससे पानी में बहकर आने वाली घास-पात या लकड़ी वहीं अटक जाती है। गूल को स्थानीय बोली में "बान' भी कहा जाता है। पनाले को पत्थर की दीवार पर टिकाया जाता है। गूल के पानी को तोड़ने के लिए पनाले के पास ही पत्थर या लकड़ी की एक तख्ती भी होती है, जिसे "मुँअर' कहते हैं। इसे पानी की विपरीत दिशा में लगाकर जब चाहे पनाले में प्रवाहित कर दिया जाता है या पनाले में पानी का प्रवाह रोककर गूल तोड़ दी जाती है। "पनाला' प्राय: ऐसी लकड़ी का बनाया जाता है, जो पानी में शीघ्र सड़े-गले नहीं। स्थानीय उपलब्धता के आधार पर पनाले की लकड़ी चीड़, जामुन, साल, बाँस, सानड़, बैंस, जैथल आदि किसी की भी हो सकती है। पनाले की नाली इस तरह काटी जाती है कि बाहर की ओर नीचे का सिरा संकरा तथा भीतरी ओर गोल गहराई लिए हुए हो। पनाले का गूल पर स्थित सिरा चौड़ा और नीचे का सिरा सँकरा होता है। सामान्यत: पनाले की लंबाई 15 से 16 फीट हो सकती है और गोलाई लगभग 2 फीट तक होती है, परन्तु नाम घट-बढ़ भी सकती है। पनाले गाँव के लोग सामूहिक रुप से जंगल से पनचक्की के स्थल तक लाते हैं।

पनचक्की का फितौड़

फितौड़ा लकड़ी का ऐसा ठोस टुकड़ा होता है, जो बीच में उभरा रहता है और दोनों सिरों पर कम चौड़ होता है। इसका निचला सिरा अपेक्षाकृत अधिक नुकीला होता है, जिस पर लोहे की कील लगी होती है। यह कील आधार पटरे के मध्य में रखे लोहे के गुटके या चकमक पत्थर के बने ताल पर टिका रहता है। इन दोनों को समवेत् रुप से ताल काँटा कहा जाता है। तालकाँटे को कही "मैनपाटी' भी कहा जाता है। फितौड़ा प्राय: सानड़, साल, जामुन, साज की लकड़ी का बना होता है। आधार पटरा प्राय: साल या सानड़ की लकड़ी का होता है। "तालकाँटे' की कहीं मैणपाटी भी कहते हैं। फितौड़े के गोलाई वाले मध्य भाग में खाँचों में लकड़ी के पाँच, सात, नौ या ग्यारह पंखे लगे रहते हैं। इनकी लंबाई सवा फीट तथा चौड़ाई 3/4 फीट तक होती है। पंखों की लंबाई-चौड़ाई ऊपरी चक्के के वजन और फितौड़े के आकार-प्रकार पर निर्भर करती है। पंखों को "फिरंग' कहा जाता है। पंखों में प्राय: चीड़ या साल की छड़ फँसाई जाती है, जो निचले चक्के के छेद से होती हुई ऊपरी चक्के के खाँचे में फिर लोहे की खपच्ची (क्वेलार) में फँसाई जाती है, निचले चक्के में स्थिति छेद में लकड़ी के गुटके को अच्छी तरह कील दिया जाता है, जिससे मडुवा आदि महीन अनाज छिद्रों से छिर न सके। लोहे की इस छड़ को "बी' कहा जाता है। आधार के पटरे को पत्थरों से अच्छी तरह से दबा दिया जाता है, जिससे वह हिले नहीं। आधार पटरे के एक सिरे को दीवार से दबा कर दूसरे सिरे पर साज या साल की मजबूत लकड़ी फँसा कर दो मंजिलें तक पहुँचाई जाती है, जहाँ उस पर एक हत्था लगाया जाता है। इसे "औक्यूड़' कहते हैं।

औक्यूड़ का अर्थ

औक्यूड़ का अर्थ है - उठाने की कल। औक्यूड़ को उठाने के लिए लकड़ी की पत्ती प्रयोग में लाई जाती है, जो सिरे की ओर पतली तथा पीछे की ओर मोटी होती है। इस पर भी हत्था बना रहता है। औक्यूड़ उठाने से घराट का ऊपरी चक्का निचले चक्के से थोड़ा उठ जाता है, जिससे आटा मोटा पिसता है। औक्यूड़ को बिठा दिया जाए, तो आटा महीन पिसने लगता है। औक्यूड़ की सहायता से आटा मोटा या महीन किया जाता है।

तवौटी पाटि एवं मथरौटि पाटि

दुमंजिले में "बी' को बीच में रख कर निचला चक्का स्थापित किया जाता है। निचले चक्के (तवौटी पाटि) को स्थिर कर दिया जाता है। फिर निचले चक्के के ऊपर ऊपरी चक्का रखा जाता है। इसी ऊपरी चक्के के खांचे में फंसी लोहे की खपच्ची को फितौड़ से ऊपर निकली लोहे की छड़ की नोक पर टिकाया जाता है। ऊपरी चक्के को "मथरौटि पाटि' कहा जाता है। ये चक्के पिथौरागढ़ जनपद के बौराणी नामक स्थान के सर्वोत्तम माने जाते हैं, जो घिसते कम हैं और टिकाऊ भी होते हैं। इन्हें निर्मित करने में बौराणी के कारीगर सिद्धहस्त माने जाते हैं। चक्की को भी गांव वाले सामूहिक रुप से पनचक्की स्थल तक लाते हैं। ऊपरी चक्के पर अलंकरण भी रहता है। बौराणी के चक्के उपलब्ध न होने पर स्थानीय टिकाऊ व कठोर पत्थरों के भी कई लोग चक्के बनाते हैं।

मानी और डोका

ऊपरी चक्के से लगभग दो-ढाई इंच छत में बँधी भांग (cannabis Sativa), रामबांस (Agave americana ) या बाबिल (Eulalipsis binata ) की रस्सियों की सहायता से किंरगाल (Chimnobambusa faicata and C. jaunsarenisis ) का "डोका' बनाया जाता है। यह किसी पेड़ के तने का शंक्वाकर खोखल का भी हो सकता है, जो उल्टा लटका रहता है, अब यह तख्तों से बॉक्स के आकार का भी बनने लगा है। इस डोके के निचले संकरे सिरे पर एक "पन्याइ' या "मानी' लगी रहती है। यह आगे की ओर नालीनुमा मुख वाली होती है। मानी डोके में डाले गए अनाज को एकाएक नीचे गिरने से रोकती है। इस मानी के मुखड़े की ओर से पीछे की ओर नाली लगभग 25 अंश से 30 अंश का कोण बनाती हुई काटी जाती है। यह मानी या पन्याइ गेठी (Boehmeria regulosa ) जामुन, बाँज आदि की बनी होती है। मानी की नाली से अनाज की धार को नियंत्रित करने के लिए कभी गीले आटे का भी लेप उसके मुँह पर लगा दिया जाता है। इस मानी या पन्याइ के पीछे की ओर छेद करके उसमें कटूँज (Castanopsis tribuloides ) बाँज या फँयाट (Quercxus glauce ) की तिरछी लकड़ी फँसा दी जाती है। यह लकड़ी मानी और डोके का संतुलन बनाए रखती है। आवश्यकता पड़ने पर इस तिरछे डंडे पर रस्सी बाँध कर मुँह को ऊपरी चक्के में बने छेद के ठीक ऊपर रखा जाता है। जिससे अनाज के दाने चक्के के पाट के भीतर ही पड़े, बाहर न बिखरें। डोके और मानी की रस्सियों पर गाँठे लगी रहती हैं। इनमें लकड़ी फँसाकर आवश्यकतानुरुप डोके व मानी को आगे-पीछे कर स्थिर कर दिया जाता है। इस तिरछे डंडे पर एक या एकाधिक पक्षी के आकार के लकड़ी के टुकड़े इस प्रकार लगाए जाते हैं कि उनका निचला सिरा चक्के के ऊपरी पाट को निरन्तर छूता रहे। इन्हें "चड़ी' कहा जाता है, क्योंकि ये चक्के के ऊपरी पाट पर सदा चढ़ी रहती है। ये चड़ियाँ चक्के के घूमते ही मानी और डोके को हिलाती है, अनाज के दाने मानी की धार से चक्की में गिरने लगते हैं और चक्की अन्न के दानों को आटे में परिणत कर देती है।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महर, पंकज सिंह। पनचक्की (घराट / घट) (हिंदी) मेरा पहाड़ कम्युनिटी ऑफ़ उत्तराखंड लवर्स। अभिगमन तिथि: 14 अप्रॅल, 2013।

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