बैलगाड़ी

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बैलगाड़ी

बैलगाड़ी अर्थात् 'एक ऐसी गाड़ी जिसे बैलों द्वारा खींचा जाता है'। आज भले ही मानव ने बहुत विकास किया है, और एक से एक बेहतरीन तथा तेज चाल वाली गाड़ियाँ आदि बनाई हैं, लेकिन बैलगाड़ी के महत्त्व को नहीं नकारा जा सकता। बैलगाड़ी विश्व का सबसे पुराना यातायात एवं सामान ढोने का साधन है। इसकी बनावट भी काफ़ी सरल होती है। स्थानीय कारीगर परम्परागत रूप से इसका निर्माण करते रहे हैं। भारत में तो बैलगाड़ियाँ प्राचीन समय से ही प्रयोग में आने लगी थीं। भारतीय हिन्दी फ़िल्मों में भी बैलगाड़ी ने अपनी विशिष्ट जगह बनाई और कई यादगार गीतों का हिस्सा बनी। यद्यपि आधुनिक समय में मानव ने शीघ्रता के चलते तेज गतियों वाली अनेकों गाड़ियों का निर्माण किया है, फिर भी विश्व के कई भागों में बैलगाड़ियाँ का सफर आज भी जारी है।

प्राचीन भारतीय परिवहन की रीढ़

वर्तमान समय में भले ही मानव तेज़ीसे विकास पथ पर अग्रसर है, जो काबिल-ए-तारीफ़ भी है, पर सृष्टि के गूढ़ रहस्यों की खोज में हम कहीं न कहीं अपनी प्रकृति से दूर होते जा रहे हैं। आधुनिकता की इस दौड़ में हम मुंशी प्रेमचन्द के 'हीरा-मोती' की जोड़ी के साथ प्राचीन भारतीय परिवहन व्यवस्था की रीढ़ रही बैलगाड़ी को भी खोते जा रहे हैं। ‘होर्रे... होर, आवा राजा, बायें दबा के। ना होर ना। शाबाश… चला झार के। बाह रे बायां… बंगड़ई नाही रे। अरे… अरे देही घुमा के सोटा। जीआ हमार लाल, खट ला खट ला आज से खोराक बढ़ी…।’ आज जो भी मनुष्य पचास से अधिक वर्ष के हैं, वे जानते हैं कि बैलगाड़ी हांकना और घोड़े की लगाम थामने में वही अन्तर था, जो आज कार व बस को चलाने में है। यही नहीं चूंकि उनके अन्दर भी आत्मा थी, अतः इस दौरान उनसे उपरोक्त संवाद भी करने में कामयाब थे। चढ़ाई,  ढलान व मोड़ पर महज बागडोर से नहीं, बल्कि संवाद से भी बैलों का पथ प्रदर्शन किया जाता था। इन पर साहित्यकारों व कवियों ने भी खूब कलम चलाया है।

आधुनिकता का प्रभाव

एक दौर था, कि गांवों में दरवाजों पर बंधे अच्छे नस्ल के गाय-बैलों और उनकी तंदुरूस्ती से ही बड़े कास्तकारों की पहचान होती थी। प्राचीन भारतीय संस्कृति इसकी साक्षात गवाह है कि कृष्ण युग से ही पशुधन सदा से हमारे सामाजिक प्रतीक रहे हैं। बदलते परिवेश में हम इतने अति आधुनिक हो गये कि कृषि में कीटनाशकों व रसायनों का जहर घोल दिया है, जिसके फलस्वरूप हमें जैविक रसायनों की तरफ़ फिर से लौटना पड़ रहा है।

बैलगाड़ी पर लकड़ियाँ ढोता व्यक्ति

हमें खुद व अपनी मिट्टी को स्वस्थ रखने के लिए गोबर चाहिए, इसकी खातिर कृषि वैज्ञानिक किसानों को वर्मी कम्पोस्ट बनाने की कला गांव-गांव घूमकर सिखा रहे हैं। एक दौर था कि जुताई करते बैलों से स्वमेव खेतों को गोबर मिल जाया करता था। खेतों में कार्य करते बैलों को उकसाते हुए किसान कहते थे कि आज "खोराक बढ़ी बेटा", जो नेताओं के कोरे आश्वासन नहीं होते थे, बल्कि घर वापसी के बाद बैलों को चारा-पानी देने के बाद ही किसान भोजन करते थे। बदले में इन प्राकृतिक संसाधनों से पर्यावरण सम्बन्धी कोई समसया भी नहीं होती थी। उस वक्त हम प्रकृति के बेहद क़रीब थे तथा गवईं समाज में हर-जुआठ, हेंगी-पैना जैसे अनेकों शब्दों का प्रयोग आम था। तमाम कहावतें व मुहावरे प्रचलित थे। जैसे- गांगू क हेंगा भयल बाड़ा, खांगल बैले हो गइला का आदि।

बनावट

वैसे तो बैलगाड़ी देश के विभिन्न हिस्सों में अलग-अलग रूपों में मिलती है। हरियाणा में भी बैलगाड़ी के विभिन्न रूप देखने को मिलते हैं। दो बैलों वाली गाड़ियों में लोहे के पहिए होते थे, जिन्हें खींचने के लिए बैलों को बहुत जोर लगाना पड़ता था। लोहे के पहियों को टिकाणी पर फिट करने के लिए शण लगाया जाता था। शण जब सिकुड़ जाता था, तो बैलगाड़ी के पहियों से गलियों में 'चुर्र-चूं-चुर्र-चूं' की आवाज़ सुनाई देती थी। रबड़ के टायर लगी बैलगाड़ी बनने के बाद लोगों ने दो के स्थान पर एक बैल का प्रयोग करना शुरू कर दिया। वहीं शण का स्थान भी बैरिंग ने ले लिया। पहियों व टिकाणी के बीच बैरिंग लगने से बैल आसानी से बैलगाड़ी को खींच सकते हैं। बैलगाड़ी को 'गाड़ा', 'बुग्गी' व 'रेहड़ू' आदि नामों से भी जाना जाता है। बैलगाड़ी के निर्माण में टिकाणी या धुरी पर एक चौरस लकड़ी की बाडी बनाई जाती है। बाडी में फड़ व फड़ पर जुआ लगाया जाता है, जिसमें बैलों को जोड़ा जाता है। जुए में लकड़ी की सिमल व सिमल में बैलों को जोड़ते हुए जोत लगाई जाती है और आडर पर बैठकर बैलगाड़ी चलाई जाती है।[1]

आजीविका का साधन

बैलगाड़ी

वह समय भी बड़ा प्यारा था, जब हीरा-मोती की जोड़ी खेतों के साथ मार्ग की भी शान हुआ करती थी। एक से एक डिज़ाइन वाली बैलगाड़ियाँ हुआ करती थीं, जिन पर लोग गर्वपूर्वक सवारी करते थे। वहीं मालवाहक बैलगाड़ियाँ बेहद मजबूत व बड़ी होती थीं। पुराने समय में जबकि परिवहन के इतने साधन उपलब्ध नहीं थे, जितने की आज हैं, तब बैलगाड़ियाँ किसी मानव के लिए आजीविका का मुख्य स्रोत हुआ करती थीं। यही बैलगाड़ियाँ प्राचीन भारतीय परिवहन व्यवस्था की रीढ़ मानी जाती थीं। उस दौरान एक तबका इससे जुड़कर अपना व पूरे परिवार का भरण-पोषण करता था। अब हमारी विकास की दौड़ इतनी तेज हो गई है कि हमारे पास इतना मौका नहीं है कि यह देख सकें कि इसकी दिशा व दशा सही भी है या नहीं। निःसन्देह हमने बहुत तेज़ीसे विकास किया है, मगर इसकी दशा व दिशा निर्धारित करने में आज भी हम चूक रहे हैं।

फ़िल्मों में स्थान

सिनेमा जगत में कई फ़िल्मों में बैलगाड़ी को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। बैलगाड़ी को जीवंत रूप में प्रस्तुत किया गया है। वासु भट्टाचार्य की फ़िल्म 'तीसरी कसम' की पूरी कहानी बैलगाड़ी के इर्द-गिर्द ही घूमती है। इस फ़िल्म के सभी गाने बैलगाड़ी में ही फ़िल्माए गए थे। पात्र 'हीरामन' बैलगाड़ी में बैठा गा रहा है- "सजन रे झूठ मत बोलो, खुदा के पास जाना है, न हाथी है न घोड़ा है, वहाँ पैदल ही जाना है"; "दुनिया बनाने वाले, क्या तेरे मन में समाई, काहे को दुनिया बनाई"। इसी तरह इसी फ़िल्म का गाना "सजनवा बैरी हो गए हमार, करमवा बैरी हो गए हमार, चिट्ठियां हो तो हर कोई बांचे, भाग न बांचे कोए" भी बैलगाड़ी पर ही हीरामन गाता प्रतीत होता है। महान् फ़िल्मकार विमल राय की फ़िल्म 'दो बीघा ज़मीन' व 'देवदास' में भी बैलगाड़ी की अपनी अहमियत है। अन्य फ़िल्में 'आशीर्वाद' व 'गीत गाता चल' में बैलगाड़ी को विशेष स्थान दिया गया है। 'राष्ट्रीय फ़िल्म विकास निगम' द्वारा बनाई गई एक फ़िल्म में तो फ़िल्म की शुरूआत ही बैलगाड़ी में बैठे एक बुजुर्ग से की गई है।[1]

लुप्त होने का संकट

यदि आज स्थितियाँ ऐसी ही रहीं तो क्या बैलगाडि़याँ और बैलों की जोडि़याँ देखने को मिल पायेंगी? वक्त के थपेड़ों से दो-चार बैलगाड़ी स्वामी बस बुजुर्गों की निशानी मान कर इसे जीवित रखे हुए हैं, अन्यथा आगामी पीढ़ी कब की बैलगाड़ी की थमती रफ्तार को भुला चुका होती। कार की रफ्तार के सामने बैलगाड़ी रफ्तार मन्द पड़ चुकी है। टैक्टर ने बैलों की जगह स्थान ले लिया है। पशु तस्करी व मांस के ग्लोबल बिजनेस ने बैलों को असमय काल के गाल में ढकेल दिया है।

बैलगाड़ी

आम आदमी की सवारी कहे जाने वाली यह गाड़ी अब गांवों से गायब होती जा रही है। ग्रामीण विशेषकर किसान बोझा ढोने, खेती के कार्य के लिए अकसर दो बैलों की गाड़ी का ही प्रयोग करते थे। किसानों व ग्रामीणों के लिए इससे सस्ता वाहन कुछ भी नहीं था। क़रीब तीन दशक पहले तक किसानों के लगभग दूसरे या तीसरे घरों में भी ये गाड़ी देखने को मिलती थी, किसान इनका प्रयोग खेती के कामों, व्यावसायिक ज़रूरतों को पूरा करने व सफर का आनंद लेने के लिए करते थे। लेकिन मशीनीकरण का युग आने के कारण धीरे-धीरे दो बैलों की गाड़ी अब लगभग गायब हो गई है। यह नहीं है कि गांवों में वर्तमान युग में बैलगाड़ी देखने को नहीं मिलती, बैलगाड़ी तो है, लेकिन बैलगाड़ी में दो की बजाय एक ही बैल देखने को मिलता है। इसे बदलते परिवेश का नतीजा कहें या कुछ ओर। दो बैलों की गाड़ी कम होने का एक कारण ट्रैक्टर माना जा रहा है, वहीं महंगाई भी इसका एक कारण है। महंगाई बढ़ने से बैलों की कीमत भी आसमान छूने लगी है।[1]

पशु तस्करी

कभी क्विंटलों वजन लादकर शान से चलती बैलों की जोड़ी आज खुद पशु तस्करों के ट्रकों में ठुंसी लाचार आँखों से जान की भीख मांगती नजर आती है। आधुनिक परिवहन के संसाधनों की प्रदूषित गैसों ने जहां लोगों को रोग ग्रस्त कर पर्यावरण का बंटाधार किया है, वहीं बैलों की टूटती परम्परा ने खेतों को रासायनिक खादों की तपती ज्वर में झोंक दिया है, जिसने व्यक्ति के स्वास्थ को दीमक की तरह चाट कर जिन्दा लाश बना दिया है। आज यदि समय रहते हम न संभले तो बैल तथा बैलगाड़ी मात्र अतीत का एक हिस्सा बनकर रह जायेंगे। साथ में भगवान शिव की सवारी भी इतिहास के पन्नों में दफन हो जायेगी। वह वक्त भी आने वाला है कि बैलों को देखने के लिए हमें चिडि़याघरों की और मुख करना होगा। आने वाली नस्लों को बैल व बैलगाड़ी दिखाने के लिए किताबों व मुंशी प्रेमचन्द के 'हीरा-मोती' का दर्शन कल्पना के सहारे करना होगा।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 गाँवों से गायब हो रही दो बैलों वाली गाड़ी (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 17 अप्रैल, 2013।

बाहरी कड़ियाँ

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