"सोउ मुनि ग्याननिधान मृगनयनी": अवतरणों में अंतर
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सोउ मुनि ग्याननिधान मृगनयनी बिधु मुख निरखि। | सोउ मुनि ग्याननिधान मृगनयनी बिधु मुख निरखि। | ||
बिबस होइ हरिजान नारि बिष्नु माया प्रगट॥115 ख॥ | बिबस होइ हरिजान नारि बिष्नु माया प्रगट॥115 ख॥ | ||
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''' | '''सोरठा'''-मात्रिक [[छंद]] है और यह '[[दोहा]]' का ठीक उल्टा होता है। इसके विषम चरणों (प्रथम और तृतीय) में 11-11 मात्राएँ और सम चरणों (द्वितीय तथा चतुर्थ) में 13-13 मात्राएँ होती हैं। विषम चरणों के अंत में एक गुरु और एक लघु मात्रा का होना आवश्यक होता है। | ||
04:24, 15 जुलाई 2016 के समय का अवतरण
सोउ मुनि ग्याननिधान मृगनयनी
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कवि | गोस्वामी तुलसीदास |
मूल शीर्षक | रामचरितमानस |
मुख्य पात्र | राम, सीता, लक्ष्मण, हनुमान, रावण आदि |
प्रकाशक | गीता प्रेस गोरखपुर |
शैली | सोरठा, चौपाई, छन्द और दोहा |
संबंधित लेख | दोहावली, कवितावली, गीतावली, विनय पत्रिका, हनुमान चालीसा |
काण्ड | उत्तरकाण्ड |
सभी (7) काण्ड क्रमश: | बालकाण्ड, अयोध्या काण्ड, अरण्यकाण्ड, किष्किंधा काण्ड, सुंदरकाण्ड, लंकाकाण्ड, उत्तरकाण्ड |
सोउ मुनि ग्याननिधान मृगनयनी बिधु मुख निरखि। |
- भावार्थ
वे ज्ञान के भण्डार मुनि भी मृगनयनी (युवती स्त्री) के चंद्रमुख को देखकर विवश (उसके अधीन) हो जाते हैं। हे गरुड़ जी! साक्षात भगवान विष्णु की माया ही स्त्री रूप से प्रकट है॥115 (ख)॥
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सोउ मुनि ग्याननिधान मृगनयनी | ![]() |
सोरठा-मात्रिक छंद है और यह 'दोहा' का ठीक उल्टा होता है। इसके विषम चरणों (प्रथम और तृतीय) में 11-11 मात्राएँ और सम चरणों (द्वितीय तथा चतुर्थ) में 13-13 मात्राएँ होती हैं। विषम चरणों के अंत में एक गुरु और एक लघु मात्रा का होना आवश्यक होता है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
पुस्तक- श्रीरामचरितमानस (उत्तरकाण्ड) |प्रकाशक- गीताप्रेस, गोरखपुर |संकलन- भारत डिस्कवरी पुस्तकालय|पृष्ठ संख्या-533
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