दोहा
दोहा मात्रिक अर्द्धसम छंद है। दोहे के चार चरण होते हैं। इसके विषम चरणों (प्रथम तथा तृतीय) में 13-13 मात्राएँ और सम चरणों (द्वितीय तथा चतुर्थ) में 11-11 मात्राएँ होती हैं। 'दोहा' या 'दूहा' की उत्पत्ति कतिपय लेखकों ने संस्कृत के दोधक से मानी है। 'प्राकृतपैगलम्' के टीकाकारों ने इसका मूल 'द्विपदा' शब्द को बताया है। यह उत्तरकालीन अपभ्रंश का प्रमुख छन्द है।
उत्पत्ति
दोहा वह पहला छन्द है, जिसमें तुक मिलाने का प्रयत्न हुआ। प्राचीन अपभ्रंश में इस छन्द का प्रयोग कम मिलता है, तथापि सिद्ध कवि सरहपा[1] ने इसका सबसे पहले प्रयोग किया। एक मतानुसार 'विक्रमोर्वशीय' में इसका सबसे प्राचीन रूप उपलब्ध है। फिर भी पाँचवीं या छठी शताब्दी के पश्चात् दोहा काफ़ी प्रयोग में आता रहा। हाल की सतसई से भी इसका सूत्र जोड़ा जाता है। यह तर्क प्रबल रूप से प्रस्तुत किया जाता है कि कदाचित यह लोक-प्रचलित छन्द रहा होगा। दोहा दो पंक्तियों का छन्द है। 'बड़ो दूहो', 'तूँवेरी दूहो' तथा 'अनमेल दूहो', तीन प्रकार राजस्थानी में और मिलते हैं। प्राचीन दोहा के पहले और तीसरे चरण में 13-13 मात्राएँ तथा दूसरे और चौथे में 11-11 मात्राएँ होती हैं। 'बड़ो दूहो' में 1 और 4 चरण 11-11 मात्राओं के तथा 2 और 3 चरण 13-13 मात्राओं के होते हैं। 'तूँवेरी दूहो' में मात्राओं का यह क्रम उलटा है। पहले और चौथे चरण की तुक मिलने से 'मध्यमेल दूहो' बनते हैं। दोहा लोकसाहित्य का सबसे सरलतम छन्द है, जिसे साहित्य में यश प्राप्त हो सका।
- समानार्थक
दोहा और साखी समानार्थक हैं। सम्भवत: बौद्ध सिद्धों को इस शब्द ज्ञान था। साखि करब जालन्धर पाएँ पंक्ति में जालन्धर पाद को साक्षी करने का उल्लेख आया है। गोरखपन्थियों से प्रभावित होकर यह शब्द कबीरपन्थियों की रचनाओं में आया और बाद के साहित्य में दूहे का अर्थ भी 'साखी' ग्रहण किया गया।
रचना
'प्राकृतपैगलम्'[2] के अनुसार इस छन्द के प्रथम तथा तृतीय पाद में 13-13 मात्राएँ और दूसरे तथा चौथे में 11-11 मात्राएँ होती हैं। यदि पदान्त में होती है; विषम चरणों के आदि में जगण नहीं होना चाहिए। अन्त में लघु होता है। तुक प्राय: सम पादों की मिलती है। मात्रिक गणों का क्रम इस प्रकार रहता है- 6+4+3, 6+4+1.
साहित्य में स्थान
प्राकृत साहित्य में जो स्थान गाथा का है, प्रयोग की दृष्टि से अपभ्रंश में वही स्थान दोहा छन्द का है। अपभ्रंश में मुक्तक पद्यों के रूप में अनेक दोहे मिलते हैं। प्राकृत में जिस प्रकार 'गाथासप्तसती' तथा 'बज्जालग्ग' जैसे गाथाबद्ध संग्रह मिलते हैं, उसी प्रकार अपभ्रंश में और हिन्दी में दोहे के संग्रह मिलते हैं। उपदेश, मुक्तक पद्यों के रूप में तो दोहे का प्रयोग मुनि योगेन्द्र, रामसिंह, देवसेन तथा बौद्ध सिद्धों ने किया है। हेमचन्द्र तथा अन्य 'अलंकार शास्त्र', व्याकरण ग्रन्थ लेखकों ने अनेक दोहे अपनी कृतियों में उद्धृत किये हैं। स्वयंभू के 'पउमचरिउ' में भी दोहे का प्रयोग मिलता है। यह छन्द हिन्दी को अपभ्रंश से मिला है। सभी अपभ्रंश छन्द शास्त्र विषयक कृतियों में दोहे तथा उसके भेदों का विवेचन मिलता है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 9वीं शताब्दी का आरम्भ
- ↑ प्राकृतपैगलम् - 1|78
- ↑ पद्मावत, 13
- ↑ रामचरितमानस, 1|235
धीरेंद्र, वर्मा “भाग- 1 पर आधारित”, हिंदी साहित्य कोश (हिंदी), 291।