"भव कि परहिं परमात्मा बिंदक": अवतरणों में अंतर
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भव कि परहिं परमात्मा बिंदक। सुखी कि होहिं कबहुँ हरिनिंदक॥ | भव कि परहिं परमात्मा बिंदक। सुखी कि होहिं कबहुँ हरिनिंदक॥ | ||
राजु कि रहइ नीति बिनु जानें। अघ कि रहहिं हरिचरित बखानें॥3॥ | राजु कि रहइ नीति बिनु जानें। अघ कि रहहिं हरिचरित बखानें॥3॥ | ||
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परमात्मा को जानने वाले कहीं जन्म-मरण (के चक्कर) में पड़ सकते हैं? [[भगवान]] की निंदा करने वाले कभी सुखी हो सकते हैं? नीति बिना जाने क्या राज्य रह सकता है? [[हरि|श्री हरि]] के चरित्र वर्णन करने पर क्या पाप रह सकते हैं?॥3॥ | परमात्मा को जानने वाले कहीं जन्म-मरण (के चक्कर) में पड़ सकते हैं? [[भगवान]] की निंदा करने वाले कभी सुखी हो सकते हैं? नीति बिना जाने क्या राज्य रह सकता है? [[हरि|श्री हरि]] के चरित्र वर्णन करने पर क्या पाप रह सकते हैं?॥3॥ | ||
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पुस्तक- श्रीरामचरितमानस (उत्तरकाण्ड) |प्रकाशक- गीताप्रेस, गोरखपुर |संकलन- भारत डिस्कवरी पुस्तकालय|पृष्ठ संख्या- | पुस्तक- श्रीरामचरितमानस (उत्तरकाण्ड) |प्रकाशक- गीताप्रेस, गोरखपुर |संकलन- भारत डिस्कवरी पुस्तकालय|पृष्ठ संख्या-530 | ||
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==संबंधित लेख== | ==संबंधित लेख== |
04:36, 14 जुलाई 2016 के समय का अवतरण
भव कि परहिं परमात्मा बिंदक
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कवि | गोस्वामी तुलसीदास |
मूल शीर्षक | रामचरितमानस |
मुख्य पात्र | राम, सीता, लक्ष्मण, हनुमान, रावण आदि |
प्रकाशक | गीता प्रेस गोरखपुर |
शैली | सोरठा, चौपाई, छन्द और दोहा |
संबंधित लेख | दोहावली, कवितावली, गीतावली, विनय पत्रिका, हनुमान चालीसा |
काण्ड | उत्तरकाण्ड |
सभी (7) काण्ड क्रमश: | बालकाण्ड, अयोध्या काण्ड, अरण्यकाण्ड, किष्किंधा काण्ड, सुंदरकाण्ड, लंकाकाण्ड, उत्तरकाण्ड |
भव कि परहिं परमात्मा बिंदक। सुखी कि होहिं कबहुँ हरिनिंदक॥ |
- भावार्थ
परमात्मा को जानने वाले कहीं जन्म-मरण (के चक्कर) में पड़ सकते हैं? भगवान की निंदा करने वाले कभी सुखी हो सकते हैं? नीति बिना जाने क्या राज्य रह सकता है? श्री हरि के चरित्र वर्णन करने पर क्या पाप रह सकते हैं?॥3॥
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भव कि परहिं परमात्मा बिंदक | ![]() |
चौपाई- मात्रिक सम छन्द का भेद है। प्राकृत तथा अपभ्रंश के 16 मात्रा के वर्णनात्मक छन्दों के आधार पर विकसित हिन्दी का सर्वप्रिय और अपना छन्द है। गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस में चौपाई छन्द का बहुत अच्छा निर्वाह किया है। चौपाई में चार चरण होते हैं, प्रत्येक चरण में 16-16 मात्राएँ होती हैं तथा अन्त में गुरु होता है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
पुस्तक- श्रीरामचरितमानस (उत्तरकाण्ड) |प्रकाशक- गीताप्रेस, गोरखपुर |संकलन- भारत डिस्कवरी पुस्तकालय|पृष्ठ संख्या-530
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