लाड़सागर

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लाड़सागर चाचा हित वृन्दावनदास द्वारा रचित प्रसिद्ध रचना है। इसमें राधा के शैशव से लेकर किशोरावस्था तक श्रीकृष्ण के प्रति व्यक्त किये गये प्रेम का अगाध सागर है। शैशवावस्था की चपल क्रीड़ाओं का स्वाभाविक वर्णन करते हुए कवि ने अपनी भावना द्वारा राधा का जैसा मोहक चित्र अपनी इस रचना में अंकित किया है, वैसा इस विषय को लेकर किसी अन्य कवि ने नहीं किया।[1]

रचनाकाल

'लाड़सागर' संवत 1804 से 1835 (सन 1747 से 1778 ई.) तक की रचना है। लेखक ने प्रत्येक प्रकरण के अंत में रचना काल स्वयं दे दिया है। रीतिकालीन प्रबन्ध-काव्यों में 'लाड़सागर' का भक्ति-प्रबन्ध काव्य की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण स्थान है।

प्रकरण

'लाड़सागर' दस प्रकरणों में विभक्त है। इनमें राधा की बाल-लीलाएँ, श्रीकृष्ण की लीलाएँ और विवाह, उत्कण्ठा, कृष्ण-सगाई, विवाह-मंगल, गौनाचार आदि प्रसिद्ध विषय हैं। कृष्ण-चरित्र के एक अंश-बाल तथा किशोर चरित्र को आधार बनाकर उसी पर क्षीण कथा पट का ताना-बाना बुना गया है। राधा-कृष्ण के बाल-जीवन की कहानी का इस ग्रंथ से आभास मिल जाता है।[1]

रस सौंदर्य

वात्सल्य और श्रृंगार रस का इसमें गहरा पुट है। 'लाड़सागर' का श्रृंगार विवाह-संस्कार से परिमार्जित श्रृंगार है- स्वकीय रूप में राधा को चित्रित किया गया है। पूर्वानुराग, स्वप्न दर्शन, प्रत्यक्ष दर्शन और श्रवण दर्शन आदि सभी स्थितियों का मनोहारी वर्णन किया गया है। 'लाड़' अर्थात् वात्सल्य प्रेम की व्यंजनाओं का इसमें सर्वांगीण रूप दृष्टिगत होता है।

भाषा-शैली

'लाड़सागर' की भाषा व्यावहारिक बोलचाल की ब्रजभाषा है। इसे हम ब्रजवासियों की घरेलू बोली कह सकते हैं। ब्रज के रीति-रिवाजों, त्यौहार-पर्वों और धार्मिक-सामाजिक कृत्यों के वर्णन से परिपूर्ण होने के कारण शायद जान-बूझकर चाचा वृन्दावनदास जी ने इसे साहित्यिक अभिव्यक्ति से बचाया है। संवाद-शैली की दृष्टि से इसकी भाषा में प्रवाह है। लोकोक्तियों और मुहावरों का भी प्रचुर मात्रा में प्रयोग किया गया है। "जल वसि के वैर मगर सों किन छाती जु सिराई", "घर बैठे ही गाल बजायौ देर को परन निकेत है", आदि प्रचलित लोकोक्तियाँ इसमें खूब पाई जाती हैं।

छन्द प्रयोग

चाचा हित वृन्दावनदास ने लाड़सागर को गेय पदों में लिखा है, किंतु दोहा, अरिल्ल, सीरण, कवित्त, छप्पय आदि छन्दों का भी प्रयोग मिलता है। सम्पूर्ण 'लाड़सागर' में चालीस रागों का प्रयोग हुआ है। शास्त्रीय संगीत का ज्ञान इनसे स्पष्ट परिलक्षित होता है।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 हिन्दी साहित्य कोश, भाग 2 |प्रकाशक: ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी |संकलन: भारतकोश पुस्तकालय |संपादन: डॉ. धीरेंद्र वर्मा |पृष्ठ संख्या: 550 |

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