बाजी प्रभु देशपांडे

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बाजी प्रभु देशपांडे
बाजी प्रभु देशपांडे
पूरा नाम बाजी प्रभु देशपांडे
जन्म 1615 ई.
जन्म भूमि भोर तालुक, पुणे
मृत्यु तिथि 1660 ई.
मृत्यु स्थान कोल्हापुर, महाराष्ट्र
प्रसिद्धि मराठा सरदार
वंश चंद्रसेनीय कायस्थ प्रभु वंश
संबंधित लेख शिवाजी, मराठा, मराठा साम्राज्य, मुग़ल काल, मुग़ल साम्राज्य, मुग़ल वंश
धर्म हिन्दू
अन्य जानकारी बाजी प्रभु देशपांडे की वीरगति का समाचार सुनकर शिवाजी ने उन्हें एक भाव भीनी श्रद्धांजलि देते हुए 'घोड़ कीन्द दर्रे' का नाम पावन कीन्द रखा, जो यह दर्शाता था कि बाजी प्रभु के रक्त से वह स्थान अब पावन हो चुका था।

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बाजी प्रभु देशपांडे (अंग्रेज़ी: Baji Prabhu Deshpande, जन्म- 1615; मृत्यु- 1660, कोल्हापुर, महाराष्ट्र) मराठा इतिहास में बड़ा ही महत्त्वपूर्ण नाम है। वे छत्रपति शिवाजी महाराज के साहसी, निडर और देशभक्ति से परिपूर्ण व्यक्तित्व वाले सरदार थे।

परिचय

बाजी प्रभु देशपांडे का जन्म चंद्रसेनीय कायस्थ प्रभु वंश के एक परिवार में वर्तमान पुणे क्षेत्र के भोर तालुक में मावळ प्रांत में हुआ था। बाल्यकाल से ही उनके हृदय में भारतवर्ष से बाहरी मुग़ल हमलावरों को नेस्तनाबूत कर बाहर का रास्ता दिखा देने का जज़्बा था और शिवाजी की सेना में एक अभिन्न हिस्सा बनकर कार्य करना उनके इसी स्वप्न को वास्तविकता में बदलने वाला था। यही नहीं, स्वयं शिवाजी ने भी बाजी प्रभु के अभूतपूर्व उत्साह और सामरिक सूजबूझ को देखते हुए उन्हें अपनी सबल सेना के दक्षिणी कमान को सौंपा, जो की आधुनिक कोल्हापुर के इर्द गिर्द उपस्थित था।[1]

शिवाजी का साथ

बाजी प्रभु देशपांडे ने आदिलशाही नामक राजा के सेनापति अफ़ज़ल ख़ान को शिकस्त देने में अत्यंत ही अहम भूमिका अदा की थी। छत्रपति शिवाजी अफ़ज़ल ख़ान से अपने होने वाले द्वंद्व युद्ध के अभ्यास के लिए एक अति बलवान और अफ़ज़ल जितने ही लम्बे चौड़े प्रतिद्वंदी को ढूँढ रहे थे और यहीं पर बाजी प्रभु अपने साथ सूरमा मराठा योद्धाओं की एक खेप लेकर आये, जिनमें विसजी मुरामबाक भी था, जो अपनी कद काठी में अफ़ज़ल ख़ान जितना ही विशालकाय था। शिवाजी और बाजी प्रभु के नेतृत्व में मराठा सेनाओं ने अपनी कूटनीतिक और सामरिक चातुर्य से अफज़ल खान को मृत्यु के द्वार पहुँचा दिया और इस प्रबल जोड़ी ने आदिलशाह की अति विशाल सेनाओं तक की नाक में दम कर दिया। वस्तुतः मराठा सेनाएं अपनी छापामार और घात लगाकर वार करने की क्षमता के कारण युद्धभूमि में इस्लामी हमलावरों के खिलाफ बेहद ही सफल रही। साथ ही, आदिलशाह जैसे अनेकों मुग़ल और मुसलमान शासकों पर समूल विध्वंस कर देने वाले आक्रमणों के द्वारा मराठा सेनाओं ने अपने वर्षों से ज्वलंत स्वप्न को पूर्ण किया और इन शासकों द्वारा भारतवर्ष के मूल निवासी हिन्दू जनसंख्या पर किये गए अत्याचारों का भरपूर उत्तर दिया।

पन्हाला दुर्ग पर आदिलशाह का आक्रमण

इन दिनों शिवाजी ने अपनी सेना को पन्हाला क़िले के इर्द-गिर्द इकठ्ठा कर लिया था। आदिलशाह को किसी तरह खबर मिल गयी। उसने तुरंत अपनी एक विशाल सेना के द्वारा पन्हाला क़िले के समीप एक तीव्र हमला बोल दिया। हमला इतना भीषण था कि मराठा सेना को भारी नुकसान का सामना करना पड़ा। वहां से निकलकर बचना शिवाजी के लिए अति महत्वपूर्ण हो गया था। युद्ध कई माह तक चलता रहा। आदिलशाह का प्रबल सेनापति सिद्दी जोहर अपनी जेहादी सेनाओं के द्वारा खूब कहर बरपा रहा था और उसने काफ़ी सफलता भी हासिल की, जब उसने मराठा सेनाओं की रसद और संपत्ति को नष्ट कर दिया।

हमले को नाकाम करने के सभी उपाय विफल हुए जा रहे थे। शिवाजी के कुशल सेनापति नेताजी पालकर ने भी हर संभव प्रयास किया। अंततः शिवाजी ने एक अति गोपनीय विकल्प चुना। उन्होंने अपने एक वकील को सिद्दी जोहर के पास इस करार को लेकर भेजा कि हम एक ससमझौता करने के लिए तैयार हैं। यह सुनते ही आदिलशाह की सेनाओं ने कुछ हल्का रुख इख्तियार करा और महीनों से चल रहे संग्राम में एक अल्प विराम तो लग ही गया। दरअसल यह शिवाजी की पन्हाला क़िले से अपनी सेनाओं को सुरक्षित बचा लाने की रणनीति का हिस्सा थ। आदिलशाह की दस हज़ार सैनिकों की जेहादी सेना से बचना एक जटिल कार्य था।[1]

शिवा नवी का बलिदान

इसी योजना के अंतर्गत गुरु पूर्णिमा या आषाड़ व्याध पूर्णिमा की एक रात्रि को 600 बेहद ही चुनिंदा और सक्षम योद्धाओं की टोली को लेकर शिवाजी और बाजी प्रभु इस योजना को अंजाम देने के लिए निकल चले। वे दो गुटों में बंटे। एक छद्म गुट की अगुवाई शिवाजी के हमशक्ल शिवा नवी कर रहे थे और दूसरे की खुद शिवाजी महाराज जिसमें बाजी भी थे। मुग़ल सेना ने शिवा नवी की सेना पर आक्रमण कर अपनी सारी क्षमता और ऊर्जा उस दिशा में ही लगा दी। आदिलशाह की जेहादी सेनाओं ने शिवा नवी को अगुवा कर लिया और उनका शीर्ष मर्दन कर दिया। शिवा नवी के इस महान् बलिदान के कारण शिवाजी महाराज और बाजी प्रभु द्वारा संचालित डालों को अपनी मुहीम के लिए और अधिक समय मिल गया।

मुग़लों से युद्ध

इस छद्मावरण का पता चलते ही मुग़ल सेनाएं छटपटा कर अपने बाल नोचने लगीं और असली शिवाजी की तलाश में निकल पड़ी। परन्तु तब तक शिवाजी और उनकी सेनाएं पुरजोर लगाकर वहाँ से जितनी दूर हो सके निकल चुकी थी। मुग़लों की 4000 सैनिकों की फ़ौज को चकमा देते हुए सेना के अश्वों का दौड़-दौड़ कर जब सारा बल समाप्त होने की कगार पर ही था, तभी वे घोड़े कीन्द दर्रे के पार पहुँच गए, जिससे बाद में शिवाजी ने पावन कीन्द का नाम दिया और यही वह ऐतिहासिक पल था, जब बाजी प्रभु ने अपने ऊपर मुग़लों को पूरी तरह से धूल चटाने की ज़िम्मेदारी ली। उन्होंने अपने साथ कुछ 300 मराठा सैनिकों को लिया और शिवाजी महाराज से आगे बढ़ने के लिए कहा। इस प्रकार वे मुग़लों से लड़कर शिवाजी और उनकी बची हुई सेना को सकुशल विशालगढ़ क़िले तक पहुँचाने में मददगार रहे। शिवाजी यह सुनकर बाजी प्रभु की वीरता से स्तब्ध रह गए और अनमने भाव से अपनी सेना के साथ विशालगढ़ की ओर चल दिए।

कीन्द में मराठा सूरमाओं ने अपने जौहर का वह सैलाब बरपाया, जिसका इतिहास साक्षी है। हर हर महादेव की प्रचंड हुंकारों के साथ ही मराठा सेना भूखे शेरों की तरह मुग़लों पर टूट पड़ी। बाजी प्रभु की सेना की संख्या बहुत ही अल्प थी। मुग़ल सेना का सिर्फ एक सौवां हिस्सा। हर तरफ़ भीषण नरसंहार का मंज़र फ़ैल चूका था। जिहादी अपने आक्रमणों में बर्बरता का उपयोग करे जा रहे थे। पर बाजी प्रभु देशपांडे उस वीरता की परम गाथा का नाम है, जो की शत्रु की रह में एक भीमकाय चट्टान की तरह खड़े रहे। उन्होंने दोनों हाथों में एक तलवार ली और अपनी पूर्ण शक्ति से मुग़लों को मौत के घात उतारते रहे। शीघ्र ही उनके तन पर चोटों और घावों की संख्या इतनी बढ़ गयी कि ऐसा लगने लगा मानो कभी भी उनके प्राण तन को त्याग सकते हैं, परन्तु अपने मनो-मस्तिष्क की असीम गहराइयों में समाये उस विश्वास और शक्ति के चलते वे अपनी अंतिम सांस तक लड़ते रहे और जिहादी मुग़लों को छठी का दूध याद दिला दिया। उनका शरीर रक्त से लथपथ और तलवारों और भालों के घावों से छलनी हो गया था। पर वे डटे रहे। वे तब तक डटे रहे, जब तक उन्होंने उन तीन तोपों के दागे जाने की ध्वनि नहीं सुन ली जो शिवाजी के विशालगढ़ क़िले में सुरक्षित पहुँच जाने के चिन्ह के रूप में पूर्व निर्धारित की गई थी।[1]

वीरगति

उधर शिवाजी महाराज की सेना को भी विशालगढ़ में पहले से मौजूद एक और मुग़ल सरदार की सेना का सामना करना पड़ा। उनसे जूझते हुए लगभग सुबह ही हो चली थी और सूर्योदय तक आखिरकार शिवाजी ने उन तीन तोपों को दाग दिया जो बाजी प्रभु को एक इशारा थी। बाजी प्रभु यद्यपि तब तक जीवित तो थे, परन्तु लगभग मरणासीन हो चुके थे। उनके सभी साथी सैनिक हर हर महादेव का उद्घोष करते हुए बाजी प्रभु देशपांडे को उठाकर दर्रे के पार पहुँच गए। परन्तु तभी, एक वीर, विजयी मुस्कान के साथ बाजी ने अपनी अंतिम सांस ली और परमात्मा में लीन हो गए। इसी के साथ भारतीय इतिहास के पन्नों पर वीर बाजी प्रभु देशपांडे का नाम कभी ने मिट सकने वाली स्याही से अंकित हो गया। उनका स्वर्णिम बलिदान भारतीय स्वराज की ओर उठे सबसे पहले कदमों में से एक था। देशभक्ति ही नहीं, यह सम्पूर्ण मानव जाति के लिए परिस्थितियों के झुकने वाले जज़्बे का एक दिल दहला देने वाला प्रमाण था।

बाजी प्रभु देशपांडे की वीरगति का समाचार सुनकर शिवाजी का हृदय भर आया। बाजी प्रभु को एक भाव भीनी श्रद्धांजलि देते हुए उन्होंने घोड़ कीन्द दर्रे का नाम पावन कीन्द रखा, जो दर्शाता था कि बाजी प्रभु के रक्त से वह पावन हो चुका था।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 वीर बाजी प्रभु देशपांडे : वीरता का एक अविस्मरणीय पर्याय (हिंदी) satyavijayi.com। अभिगमन तिथि: 02 अगस्त, 2017।

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