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धार्मिक सुधारों में कबीर का नाम अग्रगण्य है। इनका चलाया हुआ सम्प्रदाय कबीरपंथ कहलाता है। इनका जन्म 1500 ई. के लगभग उस जुलाहा जाति में हुआ था, जो कुछ ही पीढ़ी पहले हिन्दू से मुसलमान हुई थी, किन्तु जिसके बीच बहुत से हिन्दू संस्कार जीवित थे। ये वाराणसी में लहरतारा के पास रहते थे।

प्रमुख ग्रंथ

कबीर का प्रमुख धर्मस्थान कबीरचौरा आज तक प्रसिद्ध है। यहाँ पर एक मठ और कबीरदास का मन्दिर है, जिसमें उनका चित्र रखा हुआ है। देश के विभिन्न भागों से सहस्रों यात्री यहाँ पर दर्शन करने आते हैं। इनके मूल सिद्धान्त निम्नांकित ग्रन्थों में पाए जाते हैं-

ब्रह्मनिरूपण, ईसमुक्तावली, कबीरपरिचय की साखी, शब्दावली, पद, साखियाँ, दोहे, सुखनिधान, गोरखनाथ की गोष्ठी, कबीरपंजी, वलक्क की रमैनी, रामानन्द की गोष्ठी, आनन्द रामसागर, अनाथमंगल, अक्षरभेद की रमैनी, अक्षरखण्ड की रमैनी, अरिफ़नामा कबीर का, अर्जनामा कबीर का, आरती कबीरकृत, भक्ति का अंग, छप्पय, चौकाघर की रमैनी, मुहम्मदी बानौ, नाम माहात्म्य, पिया पहिचानवे को अंग, ज्ञानगुदरी, ज्ञानसागर, ज्ञानस्वरोदय, कबीराष्टक, करमखण्ड की रमैनी, पुकार, शब्द अनलहक, साधकों के अंग, सतसंग को अंग, स्वासगुंञ्जार, तीसा जन्म, कबीर कृत जन्मबोध, ज्ञानसम्बोधन, मुखहोम, निर्भयज्ञान, सतनाम या सतकबीर बानी, ज्ञानस्तोत्र, हिण्डोरा, सतकबीर, बन्दीछोर, शब्द वंशावली, उग्रगीता, बसन्त, होली, रेखता, झूलना, खसरा, हिण्डोला, बारहमासा, चाँचरा, चौतीसा, अलिफ़नामा, रमैनी, बीजक, आगम, रामसार, सोरठा कबीरजी कृत, शब्द पारखा और ज्ञानबतीसी, रामरक्षा, अठपहरा, निर्भयज्ञान, कबीर और धर्मदास की गोष्ठी आदि।

एकेश्वरवादी

कबीरदास ने स्वयं ग्रन्थ नहीं लिखे, केवल मुख से भाखे हैं। इनके भजनों तथा उपदेशों को इनके शिष्यों ने लिपिबद्ध किया। इन्होंने एक ही विचार को सैकड़ों प्रकार से कहा है और सबमें एक ही भाव प्रतिध्वनित होता है। ये रामनाम की महिमा गाते थे, एक ही ईश्वर (एकेश्वरवाद) को मानते थे और कर्मकाण्ड के घोर विरोधी थे। अवतार, मूर्ति, रोजा, ईद, मसजिद, मन्दिर आदि को नहीं मानते थे। अहिंसा, मनुष्य मात्र की समता तथा संसार की असारता को इन्होंने बार-बार गया है। ये उपनिषदों के निर्गुण ब्रह्मा को मानते थे और साफ़ कहते थे कि वही शुद्ध ईश्वर है, चाहे उसे राम कहो या अल्ला। ऐसी दशा में इनकी शिक्षाओं का प्रभाव शिष्यों द्वारा परिवर्तन से उल्टा नहीं जा सकता था। थोड़ा-सा उलट-पुलट करने से केवल इतना फल हो सकता है कि रामनाम अधिक न होकर सत्यनाम अधिक हो। यह निश्चित बात है कि ये रामनाम और सत्यनाम दोनों को भजनों में रखते थे। प्रतिमापूजन इन्होंने निन्दनीय माना है। अवतारों का विचार इन्होंने त्याज्य बताया है। दो-चार स्थानों पर कुछ ऐसे शब्द हैं, जिनसे अवतार महिमा व्यक्त होती है।

मत-विरोधाभास

कबीर के मुख्य विचार उनके ग्रन्थों में सूर्यवत् चमक रहे हैं, किन्तु उनसे यह नहीं जान पड़ता कि आवागमन सिद्धान्त पर वे हिन्दू मत को मानते थे या मुसलमान मत को। अन्य बातों पर कोई वास्तविक विरोध कबीर की शिक्षाओं में नहीं दिखता। कबीर साहब के बहुत-से शिष्य उनके जीवन काल में ही हो गए थे। भारत में अब भी आठ-नौ लाख मनुष्य कबीरपंथी हैं। इनमें मुसलमान थोड़े ही हैं और हिन्दू बहुत अधिक हैं। कबीरपंथी कण्ठी पहनते हैं, बीजक, रमैनी आदि ग्रन्थों के प्रति पूज्य भाव रखते हैं। गुरु को सर्वोपरि मानते हैं।

निर्गुणमार्गी पंथ

निर्गुण-निराकारवादी कबीरपंथी के प्रभाव से ही अनेक निर्गुणमार्गी पंथ चल निकले। यथा-

नानकपंथ पंजाब में, दादूपन्थ जयपुर (राजस्थान) में, लालदासी अलवर में, सत्यनामी नारनौल में, बाबालाली सरहिन्द में, साधुपंथ दिल्ली के पास, शिवनारायणी गाजीपुर में, ग़रीबदासी रोहतक में, मलूकदासी कड़ा (प्रयाग) में, रामसनेही राजस्थान में। कबीरपंथ को मिलाकर इन ग्यारहों में समान रूप में अकेले निर्गुण निराकार ईश्वर की उपासना की जाती है। मूर्तिपूजा वर्जित है, उपासना और पूजा का काम किसी भी जाति का व्यक्ति कर सकता है। गुरु की उपासना पर बड़ा ज़ोर दिया जाता है। इन सबका पूरा साहित्य हिन्दी साहित्य में है। रामनाम, सत्यनाम अथवा शब्द का जप और योग इनका विशेष साधन है। व्यवहार में बहुत से कबीरपंथी बहुदेववाद, कर्म, जन्मान्तर और तीर्थ इत्यादि भी मानते हैं।

इन्हें भी देखें: कबीर


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

(पुस्तक ‘हिन्दू धर्मकोश’) पृष्ठ संख्या-153


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