पितृमेध या अन्त्यकर्म संस्कार

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पितृमेध या अन्त्यकर्म या अंत्येष्टि संस्कार हिन्दू धर्म संस्कारों में षोदश संस्कार है। यह अन्तिम संस्कार है। मृत्यु के पश्चात यह संस्कार किया जाता है। इस संस्कार को पितृमेध, अन्त्कर्म, दाह-संस्कार, श्मशानकर्म तथा अन्त्येष्टि-क्रिया आदि भी कहते हैं। यह संस्कार भी वेदमंत्रों के उच्चारण के द्वारा होता है। हिन्दू धर्म में मृत्यु के बाद दाह-संस्कार करने का विधान है। केवल संन्यासी-महात्माओं के लिए—निरग्रि होने के कारण शरीर छूट जाने पर भूमिसमाधि या जलसमाधि आदि देने का विधान है। कहीं-कहीं संन्यासी का भी दाह-संस्कार किया जाता है और उसमें कोई दोष नहीं माना जाता है। ये वे सोलह संस्कार हैं, जो हिन्दू धर्म के मेरुदण्ड के समान हैं।[1]

मृत्यु के उपरान्त मानव का क्या होता है?

यह एक ऐसा प्रश्न है जो आदिकाल से ज्यों-का-त्यों चला आया है; यह एक ऐसा रहस्य है, जिसका भेदन आज तक सम्भव नहीं हो सका है। आदिकालीन भारतीयों, मिस्रियों, चाल्डियनों, यूनानियों एवं पारसियों के समक्ष यह प्रश्न एक महत्त्वपूर्ण जिज्ञासा एवं समस्या के रूप में विद्यमान रहा है। मानव के भविष्य, इस पृथिवी के उपरान्त उसके स्वरूप एवं इस विश्व के अन्त के विषय में भाँति-भाँति के मत प्रकाशित किये जाते रहे हैं, जो महत्त्वपूर्ण एवं मनोरम हैं। प्रत्येक धर्म में इसके विषय में पृथक दृष्टिकोण रहा है। इस प्रश्न एवं रहस्य को लेकर एक नयी विद्या का निर्माण भी हो चुका है, जिसे अंग्रेज़ी में इश्चैटॉलॉजी (Eschatology) कहते हैं। यह शब्द यूनानी शब्दों-इश्चैटॉस (Eschatos=Last) एवं लोगिया (Logia=Discourse) से बना है, जिसका तात्पर्य है, अन्तिम बातों, यथा-मृत्यु, न्याय एवं मृत्यु के उपरान्त की अवस्था से सम्बन्ध रखने वाला विज्ञान। इसके दो स्वरूप हैं, जिनमें एक का सम्बन्ध है मृत्यु के उपरान्त व्यक्ति की नियति, आत्मा की अमरता, पाप एवं दण्ड तथा स्वर्ग एवं नरक के विषय की चर्चा से, और दूसरे का सम्बन्ध है अखिल ब्रह्माण्ड, उसकी सृष्टि, परिणति एवं उद्धार तथा सभी वस्तुओं के परम अन्त के विषय की चर्चा से। प्राचीन ग्रन्थों में प्रथम स्वरूप पर ही अधिक बल दिया गया है, किन्तु आजकल वैज्ञानिक दृष्टिकोण रखने वाले लोग बहुधा दूसरे स्वरूप पर ही अधिक सोचते हैं।

मृत्यु विलक्षण एवं भयावह

सामान्यत: मृत्यु विलक्षण एवं भयावह समझी जाती है, यद्यपि कुछ दार्शनिक मनोवृत्ति वाले व्यक्ति इसे मंगलप्रद एवं शरीररूपी बंदीगृह में बन्दी आत्मा की मुक्ति के रूप में ग्रहण करते रहे हैं। मृत्यु का भय बहुतों को होता है; किन्तु वह भय ऐसा नहीं है कि उस समय की अर्थात् मरण-काल की समय की सम्भावित पीड़ा से वे आक्रान्त होते हैं, प्रत्युत उनका भय उस रहस्य से है, जो मृत्यु के उपरान्त की घटनाओं से सम्बन्धित है तथा उनका भय उन भावनाओं से है, जिनका गम्भीर निर्देश जीवनोपरान्त सम्भावित एवं अचिन्त्य परिणामों के उपभोग की ओर है। सी.ई. वुल्लियामी ने अपने ग्रन्थ 'इम्मार्टल मैन'[2] में कहा है-यद्यपि (मृत्युपरान्त या प्रेत) जीवन के सम्बन्ध में अत्यन्त कठोर एवं भयानक कल्पनाओं से लेकर उच्च एवं सुन्दरतम कल्पनाएँ प्रकाशित की गयी हैं, तथापि तात्त्विक बात यही रही है कि शरीर मरता है न कि आत्मा।[3]

मृत्यु के सम्बन्ध में धारणाएँ

मृत्यु के विषय में आदिम काल से लेकर सभ्य अवस्था तक के लोगों में भाँति-भाँति की धारणाएँ रही हैं। कठोपनिषद[4] में आया है-'जब मनुष्य मरता है तो एक सन्देह उत्पन्न होता है, कुछ लोगों के मत से मृत्यूपरान्त जीवात्मा की सत्ता रहती है, किन्तु कुछ लोग ऐसा नहीं मानते हैं।' नचिकेता ने इस सन्देह को दूर करने के लिए यम से प्रार्थना की है। मृत्यूपरान्त जीवात्मा का अस्तित्व मानने वालों में कई प्रकार की धारणाएँ पायी जाती हैं।[5] कुछ लोगों का विश्वास है कि मृतों का एक लोक है, जहाँ मृत्यूपरान्त जो कुछ बच रहता है, वह जाता है। कुछ लोगों की धारणा है कि सुकृत्यों एवं दुष्कृत्यों के फलस्वरूप शरीर के अतिरिक्त प्राणी का विद्यमानांश क्रम से स्वर्ग एवं नरक में जाता है। कुछ लोग आवागमन एवं पुनर्जन्म में विश्वास रखते हैं।[6]

ग्रंथों के अनुसार

ब्रह्मपुराण[7] ने ऐसे व्यक्तियों का उल्लेख किया है, जिन्हें मृत्यु सुखद एवं सरल प्रतीत होती है; न कि पीड़ाजनक एवं चिन्तायुक्त। वह कुछ यों है-'जो झूठ नहीं बोलता, जो मित्र या स्नेही के प्रति कृतघ्न नहीं है, जो आस्तिक है, जो देवपूजा परायण है और ब्राह्मणों का सम्मान करता है तथा जो किसी से ईर्ष्या नहीं करता-वह सुखद मृत्यु पाता है।' इसी प्रकार अनुशासनपर्व[8] ने विस्तार के साथ अकालमृत्यु एवं दीर्घ जीवन के कारणों का वर्णन किया है, वह कुछ यों है-नास्तिक, यज्ञ न करने वाले, गुरुओं एवं शास्त्रों की आज्ञा के उल्लंघनकर्ता, धर्म न जानने वाले एवं दुष्कर्मी लोग अल्पायु होते हैं। जो चरित्रवान् नहीं हैं, जो सदाचार के नियम तोड़ा करते हैं और जो कई प्रकार से सम्भोग क्रिया करते रहते हैं, वे अल्पायु होते हैं और नरक में जाते हैं। जो क्रोध नहीं करते, जो सत्यवादी होते हैं, जो किसी की हिंसा नहीं करते, जो किसी की ईर्ष्या नहीं करते और जो कपटी नहीं होते, वे शतायु होते हैं।[9]

मृत्यु के आगमन के संकेत

बहुत से ग्रन्थ मृत्यु के आगमन के संकेतों का वर्णन करते हैं, यथा-शान्तिपर्व[10]), देवल[11], वायु पुराण[12], मार्कण्डेय पुराण[13], लिंग पुराण[14] आदि पुराणों में मृत्यु के आगमन के संकेतों या चिह्नों की लम्बी-लम्बी सूचियाँ मिलती हैं। स्थानाभाव से अधिक नहीं लिखा जा सकता, किन्तु उदाहरणार्थ कुछ बातें दी जा रही हैं।

शान्तिपर्व के अनुसार

शान्तिपर्व[15] के अनुसार जो अरुन्धती, ध्रुव तारा एवं पूर्ण चन्द्र तथा दूसरे की आंखों में अपनी छाया नहीं देख सकते, उनका जीवन बस एक वर्ष का होता है; जो चन्द्रमण्डल में छिद्र देखते हैं, वे केवल छ: मास के शेष जीवन वाले होते हैं; जो सूर्यमण्डल में छिद्र देखते हैं या पास की सुगन्धित वस्तुओं में शव की गन्ध पाते हैं, उनके जीवन के केवल सात दिन बचे रहते हैं। आसन्न मृत्यु के लक्षण ये हैं-कानों एवं नाक का झुक जाना, आंखों एवं दाँतों का रंग परिवर्तन हो जाना, संज्ञाशून्यता, शरीरोष्णता का अभाव, कपाल से धूम निकलना एवं अचानक बायीं आंख से पानी गिरना।

देवल के अनुसार

देवल ने 12, 11 या 10 मास से लेकर एक मास, 15 दिन या 2 दिनों तक की मृत्यु के लक्षणों का वर्णन किया है और कहा है कि जब अँगुलियों से बन्द करने पर कानों में स्वर की धमक नहीं ज्ञात होती या आंख में प्रकाश नहीं दिखता तो समझना चाहिए कि मृत्यु आने ही वाली है।

वायुपुराण एवं लिंगपुराण के अनुसार

अन्तिम दो लक्षणों को वायुपुराण[16] एवं लिंगपुराण[17] ने सबसे बुरा माना है।[18] मुंशी हीरक जयन्ती ग्रन्थ[19] में डॉ. आर. जी. हर्षे ने कई ग्रन्थों के आधार पर लिखा है कि जब व्यक्ति स्वप्न में गधा देखता है तो उसका मरण निश्चित-सा है, जब वह स्वप्न में बूढ़ी कुमारी स्त्री देखता है तो भय, रोग एवं मृत्यु का लक्षण समझना चाहिए[20] या जब त्रिशूल देखता है तो मृत्यु परिलक्षित होती है।

मरणासन्न प्रथा

भारत के अधिकांश भागों में ऐसी प्रथा है कि जब व्यक्ति मरणासन्न रहता है या जब वह अब-तब रहता है, तो लोग उसे खाट से उतारकर पृथिवी पर लिटा देते हैं। यह प्रथा यूरोप में भी है।[21]

  • कौशिकसूत्र[22] में आया है; जब व्यक्ति शक्तिहीन होता है, अर्थात् मरने लगता है तो (पुत्र या सेवा करने वाला कोई सम्बन्धी) शाला में लगी हुई घास पर कुश बिछा देता है और उसे 'स्योनास्मै भव' मन्त्र के साथ (बिस्तर या खाट से) उठाकर उस पर रख देता है।
  • बौधायनपितृमेधसूत्र[23] के मत से जब यजमान के मरने का भय हो जाए तो यज्ञशाला में पृथिवी पर बालू बिछा देनी चाहिए और उस पर दर्भ फैला देने चाहिए, जिनकी नोंक दक्षिण की ओर होती है, मरणासन्न के दायें कान में 'आयुष: प्राणं सन्तनु' से आरम्भ होने वाले अनुवाक का पाठ (पुत्र या किसी अन्य सम्बन्धी द्वारा) होना चाहिए।[24]
  • शुद्धिप्रकाश[25] में आया है कि जब कोई व्यक्ति मृतप्राय हो, उसकी आंखें आधी बन्द हो गई हों और वह खाट से नीचे उतार दिया गया हो, तो उसके पुत्र या किसी सम्बन्धी को चाहिए कि वह उससे निम्न प्रकार का कोई एक या सभी प्रकार के दस दान कराये-गौ, भूमि, तिल, सोना, घृत, वस्त्र, धान्य, गुड़, रजत (चाँदी) एवं नमक[26] ये दान गयाश्राद्ध या सैकड़ों अश्वमेधों से बढ़कर हैं। संकल्प इस प्रकार का होता है-'अभ्युदय (स्वर्ग) की प्राप्ति या पापमोचन के लिए मैं दस दान करूँगा।' दस दानों के उपरान्त उत्क्रान्ति-धेनु (मृत्यु को ध्यान में रखकर बछड़े के साथ गौ) दी जाती है, और इसके उपरान्त वैतरणी गौ का दान किया जाता है।[27]
  • अन्त्येष्टिपद्धति एवं शुद्धिप्रकाश[28] में उन मन्त्रों का (जो वैदिक नहीं है) उल्लेख है जो दानों के समय कहे जाते हैं। अन्त्येष्टिपद्धति अन्त्यकर्मदीपक आदि ने व्यवस्था दी है कि जब व्यक्ति आसन्नमृत्यु हो, तो उसके पुत्र या सम्बन्धियों को चाहिए कि वे उससे व्रतोद्यापन, सर्वप्रायश्चित्त एवं दस दानों के कृत्य करायें, किन्तु यदि मरणासन्न इन कृत्यों को स्वयं करने में अशक्त हो तो पुत्र या सम्बन्धी को उसके लिए ऐसा कर देना चाहिए। जब व्यक्ति संकल्पित व्रत नहीं कर पाता तो मरते समय वह व्रतोद्यापन कृत्य करता है।[29]

व्रतोद्यापन

संक्षेप में व्रतोद्यापन यों है-पुत्र या सम्बन्धी मरणासन्न व्यक्ति को स्नान द्वारा या पवित्र जल से मार्जन करके या गंगा जल पिलाकर पवित्र करता है, स्वयं स्नानसन्ध्या से पवित्र हो लेता है, दीप जलाता है, गणेश एवं विष्णु की पूजा-वन्दना करता है, पूजा की सामग्री रखकर संकल्प करता है[30] निमन्त्रित ब्राह्मण को सम्मानित करता है और पहले से संकल्पित सोना उसे देता है और ब्राह्मण घोषित करता है-'सभी व्रत पूर्ण हों। उद्यापन (व्रत-पूर्ति) के फल की प्राप्ति हो।' सर्वप्रायश्चित में पुत्र चार या तीन विद्वान ब्राह्मणों या एक आत्मज्ञानी ब्राह्मण को 6, 3 या डेढ़ वर्ष वाले प्रायश्चित्तों के निष्क्रिय रूप में सोना आदि का दान देता है और इसकी घोषणा करता है और वह अशौच के उपरान्त प्रायश्चित करता है। मरणासन्न व्यक्ति को या पुत्र या सम्बन्धी को सर्वप्रायश्चित करना पड़ता है। वह क्षीरकर्म करके स्नान करता है, पंचगव्य पीता है, चन्दनलेप एवं अन्य पदार्थों से एक ब्राह्मण को सम्मानित करता है, गोपूजा करके या उसके स्थान पर धन का दान करता है।[31] सर्वप्रायश्चित के उपरान्त दश-दान होते हैं। गरुड़पुराण[32] ने महादान संज्ञक अन्य दानों की व्यवस्था दी है, यथा-तिल, लोहा, सोना, रूई, नमक, सात प्रकार के अन्न, भूमि, गौ; कुछ अन्य दान भी हैं, यथा-छाता, चन्दन, अँगूठी, जलपात्र, आसन, भोजन, जिन्हें पददान कहा जाता है। गरुड़पुराण[33] के मत से यदि मरणासन्न व्यक्ति आतुर-संन्यास नियमों के अनुसार संन्यास ग्रहण कर लेता है, तो वह आवागमन (जन्म-मरण) से छुटकारा पा जाता है।

आदिकाल से ही ऐसा विश्वास रहा है कि मरते समय व्यक्ति जो विचार रखता है, उसी के अनुसार दैहिक जीवन के उपरान्त उसका जीवात्मा आक्रान्त होता है (अन्ते या मति: सा गति:), अत: मृत्यु के समय व्यक्ति को सांसारिक मोह-माया छोड़कर हरि या शिव का स्मरण करना चाहिए और मन ही मन 'ऊँ नमो वासुदेवाय' का जप करना चाहिए।[34] बहुत से वचनों के अनुसार उसे वैदिक पाठ सुनाना चाहिए।[35]

मरणासन्न व्यक्ति द्वारा स्मरण

हिरण्यकेशिपितृमेधसूत्र[36] के मत से आहिताग्नि के मरते समय पुत्र या सम्बन्धी को उसके कान में (जब वह ब्रह्मज्ञानी हो) तैत्तिरीयोपनिषद के दो अनुवाक (2|1 एवं 3|1) कहने चाहिए। अन्त्यकर्मदीपक[37] का कथन है कि जब मरणासन्न व्यक्ति जप न कर सके तो उसे विष्णु या शिव का रमणीय रूप मन में धारण कर विष्णु या शिव के सहस्र नाम सुनने चाहिए और भगवद्गीता, भागवत, रामायण, ईशावास्य आदि उपनिषदों एवं सामवेदीय मन्त्रों का पाठ सुनना चाहिए।[38]

उपनिषदों में भी मरणासन्न व्यक्ति की भावनाओं के विषय में संकेत मिलते हैं। छान्दोग्योपनिषद[39] में आया है-'सभी ब्रह्म है। व्यक्ति को आदि, अन्त एवं इसी स्थिति के रूप में इसका (ब्रह्म का) ध्यान करना चाहिए। इसी की इच्छा की सृष्टि मनुष्य है। इस विश्व में उसकी जो इच्छा (या भावना) होगी, उसी के अनुसार वह इहलोक से जाने के उपरान्त होगा।'[40] इसी प्रकार की भावना प्रश्नोपनिषद[41] में भी पायी जाती है। वहाँ ऐसा आया है कि विचार-शक्ति आत्मा को उच्चतर उठाती जाती है, जिससे मनुष्य-मन को ऐसा परिज्ञान होना चाहिए कि अखिल ब्रह्माण्ड में जितने भौतिक पदार्थ या अभिव्यक्तियाँ हैं, वे सब एक हैं और उनमें एक ही विभु रूप समाया हुआ है। भगवद्गीता ने यही भावना और अधिक स्पष्ट रूप से व्यक्त की है-'वह व्यक्ति, जो अन्तकाल में मुझे स्मरण करता हुआ इस जीवन से विदा होता है, वह मेरे पास आता है, इसमें संशय नहीं है'।[42] किन्तु एक बात स्मरणीय यह है कि अन्तकाल में ही केवल भगवान का स्मरण करने से कुछ न होगा, जब जीवन भर आत्मा ऐसी भावना से अभिभूत रहता है, तभी भगवत्प्राप्ति होती है। ऐसा कहा गया है-'व्यक्ति मृत्यु के समय जो भी रूप (या वस्तु) सोचता है, उसी को वह प्राप्त होता है, और यह तभी सम्भव है, जबकि वह जीवन भर ऐसा करता आया हो।'[43]

तीर्थस्थान गमन

पुराणों के आधार पर कुछ निबन्धों का ऐसा कथन है कि अन्तकाल उपस्थित होने पर व्यक्ति को, यदि सम्भव हो तो, किसी तीर्थ-स्थान (यथा गंगा) में ले जाना चाहिए। शुद्धितत्त्व[44] ने कूर्मपुराण को उद्धृत किया है-'गंगा के जल में, वाराणसी के स्थल या जल में, गंगासागर में या उसकी भूमि, जल या अन्तरिक्ष में मरने से व्यक्ति मोक्ष (संसार से अन्तिम छुटकारा) पाता है।' इसी अर्थ में स्कन्दपुराण में आया है-'गंगा के तटों से एक गव्यूति (दो कोस) तक क्षेत्र (पवित्र स्थान) होता है, इतनी दूर तक दान, जप एवं होम करने से गंगा का ही फल प्राप्त होता है; जो इस क्षेत्र में मरता है, वह स्वर्ग जाता है और पुन: जन्म नहीं पाता'।[45] पूजारत्नाकर में आया है-'जहाँ जहाँ शालग्रामशिला होती है, वहाँ हरि का निवास रहता है; जो शालग्रामशिला के पास मरता है, वह हरि का परमपद प्राप्त करता है।' ऐसा भी कहा गया है कि यदि कोई अनार्य देश (कीकट) में भी शालग्राम से एक कोस की दूरी पर मरता है, वह वैकुण्ठ (विष्णुलोक) पाता है। इसी प्रकार जो व्यक्ति तुलसी के वन में मरता है या मरते समय जिसके मुख में तुलसीदल रहता है, वह करोड़ों पाप करने पर भी मोक्षपद प्राप्त करता है। इस प्रकार की भावनाएँ आज भी लोकप्रसिद्ध हैं।[46]

मृत्यु का उत्तम काल

मृत्यु के उत्तम काल के विषय में भी कुछ धारणाएँ हैं। शान्तिपर्व[47] में आया है-'जो व्यक्ति सूर्य के उत्तर दिशा में जाने पर (उत्तरायण होने पर) मरता है या किसी अन्य शुभ नक्षत्र एवं मुहूर्त में मरता है, वह सचमुच पुण्यवान है।' यह भावना उपनिषदों में व्यक्त उत्तरायण एवं दक्षिणायन में मरने की धारणा पर आधारित है। छान्दोग्योपनिषद[48] में आया है-'अब (यदि यह आत्मज्ञानी व्यक्ति मरता है) चाहे लोग उसकी अन्त्येष्टि क्रिया (श्राद्ध आदि) करें या न करें, वह अर्चि: अर्थात् प्रकाश को प्राप्त होता है, प्रकाश से दिन, दिन से चन्द्र के अर्ध प्रकाश (शुक्ल पक्ष), उससे उत्तरायण के छ: मास, उससे वर्ष, वर्ष से सूर्य, सूर्य से चन्द्र, चन्द्र से विद्युत को प्राप्त होता है। अमानव उसे ब्रह्म की ओर ले जाता है। यह देवों का मार्ग है; वह मार्ग, जिससे ब्रह्म की प्राप्ति होती है। जो लोग इस मार्ग से जाते हैं, वे मानव जीवन में पुन: नहीं लौटते। हाँ, वे नहीं लौटते।' ऐसी ही बात छान्दोग्योपनिषद[49] में आयी है, जहाँ कहा गया है कि पंचाग्नि-विद्या जानने वाले गृहस्थ तथा विश्वास (श्रद्धा) एवं तप करने वाले वानप्रस्थ एवं परिव्राजक (जो अभी ब्रह्म को नहीं जानते) भी देवयान (देवमार्ग) से जाते हैं। और जो लोग ग्रामवासी हैं,[50] यज्ञपरायण हैं, दान-दक्षिणायुक्त हैं, धूम को जाते हैं, वे धूम से रात्रि, रात्रि से चन्द्र के अर्ध अंधकार (कृष्ण पक्ष) में, उससे दक्षिणायन के छ: मास, उससे पितृलोक, उससे आकाश एवं चन्द्र को जाते हैं, जहाँ वे कर्मफल पाते हैं और पुन: उसी मार्ग से लौट आते हैं। छान्दोग्योपनिषद[51] ने एक तीसरे स्थान की ओर संकेत किया है, जहाँ कीट-पतंग आदि लगातार आते-जाते रहते हैं।

बृहदारण्यकोपनिषद[52] ने भी देवलोग, पितृलोक एवं उस लोक का उल्लेख किया है, जहाँ कीट, पतंग आदि जाते हैं। भगवद्गीता[53] ने भी उपनिषदों के इन वचनों को सूक्ष्म रूप में कहा है-मैं उन कालों का वर्णन करूँगा, जब कि भक्तगण कभी न लौटने के लिए इस विश्व से विदा होते हैं। अग्नि, ज्योति, दिन, शुक्ल पक्ष, उत्तरायण सूर्य के छ:; जब ब्रह्मज्ञानी इन कालों में मरते हैं, तो ब्रह्मलोक जाते हैं। धूम, रात्रि, कृष्ण पक्ष, दक्षिणायन सूर्य के छ: मासों में मरने वाले भक्तगण चन्द्रलोक में जाते हैं और पुन: लौट आते हैं। इस विषय में ये दो मार्ग, जो प्रकाशमान एवं अंधकारमय हैं, सनातन हैं। एक से जाने वाला कभी नहीं लौटता, किन्तु दूसरे से आने वाला लौट आता है। वेदान्तसूत्र[54] ने 'प्रकाश', 'दिन' आदि शब्दों को यथाश्रुत शाब्दिक अर्थ में लेने को नहीं कहा है; अर्थात् उसके मत से ये मार्गों के लक्षण या स्तर नहीं हैं, प्रत्युत ये उन देवताओं के प्रतीक हैं, जो मृतात्माओं को सहायता देते हैं और देवलोक एवं पितृलोक के मार्गों में उन्हें ले जाते हैं, अर्थात् वे आतिवाहिक एवं अभिमानी देवता हैं। शंकर ने वेदान्तसूत्र[55] की व्याख्या में बताया है कि जब भीष्म ने उत्तरायण की बाट जोही तो इससे यही समझना चाहिए कि वहाँ अर्चिरादि की प्रशस्ति मात्र है-जो ब्रह्मज्ञानी है, वह यदि दक्षिणायन में मर जाता है तो भी वह अपने ज्ञान का फल पाता है, अर्थात् ब्रह्म को प्राप्त करता है। जब भीष्म ने उत्तरायण की बाट जोही तो ऐसा करके उन्होंने केवल लोकप्रसिद्ध प्रयोग या आचरण को मान्यता दी और उन्होंने यह भी प्रकट किया कि उनमें यह शक्ति भी थी कि वे अपनी इच्छाशक्ति से ही मर सकते हैं, क्योंकि उनके पिता ने उन्हें ऐसा वर दे रखा था।[56] शंकर एवं वेदान्तसूत्र के वचनों के रहते हुए भी लोकप्रसिद्ध बात यही रही है कि उत्तरायण में मरना उत्तम है।[57]

संस्कार

अन्त्येष्टि एक संस्कार है। यह द्विजों द्वारा किये जाने वाले सोलह या इससे भी अधिक संस्कारों में एक है और मनु[58], याज्ञवल्क्यस्मृति[59] एवं जातुकर्ण्य[60] के मत से यह वैदिक मन्त्रों के साथ किया जाता है।[61] ये संस्कार पहले स्त्रियों के लिए भी[62] होते थे, किन्तु बिना वैदिक मन्त्रों के (किन्तु विवाह संस्कार में वैदिक मन्त्रोंच्चारण होता है) और शूद्रों के लिए[63] भी बिना वैदिक मन्त्रों के। बौधायन पितृमेधसूत्र[64] का कथन है कि प्रत्येक मानव के लिए दो संस्कार ऋण-स्वरूप हैं (अर्थात् उनका सम्पादन अनिवार्य है) और वे हैं, जन्म संस्कार एवं मृतक संस्कार। दाह संस्कार तथा श्राद्ध आदि आहिताग्नि[65] एवं स्मार्ताग्नि[66] के लिए भिन्न-भिन्न रीतियों से होते हैं, तथा उन लोगों के लिए भी जो श्रौत या स्मार्त कोई अग्नि नहीं रखते। जो स्त्री है, बच्चा है, परिव्राजक है, जो दूर देश में मरता है, जो अकाल मृत्यु पाता है या आत्महत्या करता है या दुर्घटनावश मर जाता है; उनके लिए अन्त्येष्टि-कृत्य भिन्न-भिन्न प्रकार के होते हैं। एक ही विषय की कृत्य-विधियों में श्रौतसूत्र एवं गृह्यसूत्र विभिन्न बातें कहते हैं और आगे चलकर मध्य एवं पश्चात्यकालीन युगों युगों में विधियाँ और भी विस्तृत होती चली गयी हैं। निर्णयसिन्धु[67] ने स्पष्ट कहा है कि, अन्त्येष्टि प्रत्येक शाखा में भिन्न रूप से उल्लिखित है, किन्तु कुछ बातें सभी शाखाओं में एक-सी हैं।[68] अन्त्य-कर्मों के विस्तार, अभाव एवं उपस्थिति के आधार पर सूत्रों, स्मृतियों, पुराणों एवं निबन्धों के काल-क्रम-सम्बन्धी निष्कर्ष निकाले गये हैं,[69] किन्तु ये निष्कर्ष बहुधा अनुमानों एवं वैयक्तिक भावनाओं पर ही आधारित हैं।

ऋग्वेद के सूक्त

श्रौतसूत्रों, गृह्यसूत्रों एवं पश्चात्कालीन ग्रन्थों में उल्लिखित अन्त्य कर्मों को उपस्थित करने के पूर्व ऋग्वेद के पाँच सूक्तों[70] का अनुवाद इस प्रकार है। इन सूक्तों की ऋचाएँ (मन्त्र) बहुधा सभी सूत्रों द्वारा प्रयुक्त हुई हैं और उनका प्रयोग आज भी अन्त्येष्टि के समय होता है और उनमें अधिकांश वैदिक संहिताओं में भी पायी जाती हैं। भारतीय एवं पाश्चात्य टीकाकारों ने इन मन्त्रों की टीका एवं व्याख्या विभिन्न प्रकार से की है।[71]

प्रथम सूक्त

ऋग्वेद[72] में प्रथम सूक्त का वर्णन इस प्रकार है-

  1. "(यजमान!) उस यम की पूजा करो, जो (पितरों का) राजा है, विवस्वान् का पुत्र है, (मृत) पुरुषों को एकत्र करने वाला है, जिसने (शुभ कर्म करने वाले) बहुतों के लिए मार्ग खोज डाला है और जिसने महान (अपार्थिव) ऊँचाइयाँ पार कर ली हैं।
  2. हम लोगों के मार्ग का ज्ञान सर्वप्रथम यम को हुआ; वह ऐसा चारागाह (निवास) है, जिसे कोई नहीं छीन सकता, वह वही निवास-स्थान है, जहाँ हमारे प्राचीन पूर्वज अपने-अपने मार्ग को जानते हुए गये।
  3. मातलि (इन्द्र के सारथि या स्वयं इन्द्र) 'काव्य' नामक (पितरों) के साथ, यम अंगिरसों के साथ एवं बृहस्पति ऋक्वनों के साथ समृद्धिशाली होते हैं (शक्ति में वृद्धि पाते हैं); जिन्हें (अर्थात् पितरों को) देवगण आश्रय देते हैं और जो देवगण को आश्रय देते हैं; उनमें कुछ लोग (देवगण, इन्द्र तथा अन्य) स्वाहा से प्रसन्न होते हैं और अन्य लोग (पितर) स्वधा से प्रसन्न होते हैं।[73] में ऋक्वन (गायक) लोग बृहस्पति से सम्बन्धित हैं। अन्य स्थानों पर वे विष्णु, अज-एकपाद एवं सोम से भी सम्बन्धित माने गये हैं। स्वाहा का उच्चारण देवगण को आहुति देते समय तथा स्वधा का उच्चारण पितरों को आहुति देते समय किया जाता है।</ref>
  4. हे यम! अंगिरस् नामक पितरों के साथ एकमत होकर इस यज्ञ में जाओ और (कुशों के) आसन पर बैठो। विज्ञ लोगों (पुरोहितों) द्वारा कहे जाने वाले मन्त्र तुम्हें (यहाँ) लायें। (राजन्!) इस आहुति से प्रसन्न होओ।
  5. हे यम! अंगिरसों एवं वैरूपों (के साथ जाओ) और आनन्दित होओ। मैं तुम्हारे पिता विवस्वान का आह्वान करता हूँ; यज्ञ में बिछे हुए कुशासन पर बैठकर (वे स्वयं आनन्दित हों)।[74]
  6. अंगिरस, नवग्व, अथर्व एवं भृगु लोग हमारे पितर हैं और सोम से प्रीति रखते हैं। हमें उन श्रद्धास्पदों की सदिच्छा प्राप्त हो! हमें उनका कल्याणप्रद अनुग्रह भी प्राप्त हो!
  7. जिन मार्गों से हमारे पूर्वज गये, उन्हीं प्राचीन मार्गों से शीघ्रता करके जाओ। तुम लोग (अर्थात् मृत लोग) यम एवं वरुण नामक दो राजाओं को स्वेच्छापूर्वक आनन्द मनाते हुए देखो।[75]
  8. हे मृत! उच्चतम स्वर्ग में पितरों, यम एवं अपने इष्टापूर्त के साथ जा मिलो।[76] अपने पापों को वहीं छोड़कर अपने घर को लौट जाओ! दिव्य ज्योति से परिपूर्ण हो (नवीन) शरीर से जा मिलो![77]
  9. हे दुष्टात्माओं! दूर हटो, प्रस्थान करो, इस स्थान (श्मशान) से अलग हट जाओ; पितरों ने उसके (मृत) के लिए यह स्थान (निवास) निर्धारित किया है। यम ने उसको यह विश्रामस्थान दिया है, जो जलों, दिवसों एवं रातों से भरा-पूरा है।
  10. हे मृतात्मा! शीघ्रता करो, अच्छे मार्ग से बढ़ते हुए सरमा की संतान (यम के) दो कुत्तों से, जिन्हें चार आंखें प्राप्त हैं, बचकर बढ़ो। इस प्रकार अपने पितरों के साथ पहुँचो, जो तुम्हें पहचान लेंगे और जो स्वयम् यम के साथ आनन्दोपभोग करते हैं।
  11. हे राजा यम! इसे (मृतात्मा को) उन अपने दो कुत्तों से, जो रक्षक हैं, चार-चार आंख वाले हैं, जो पितृलोक के मार्ग की रक्षा करते हैं और मनुष्यों पर दृष्टि रखते हैं, सुरक्षा दो। तुम इसको आनन्द और स्वास्थ्य दो।
  12. यम के दो दूत, जिनके नथुने चौड़े होते हैं, जो अति शक्तिशाली हैं और जिन्हें कठिनाई से संतुष्ट किया जा सकता है, मनुष्यों के बीच में विचरण करते हैं। वे दोनों (दूत) हमें आज वह शुभ जीवन फिर से प्रदान करें, जिससे कि हम सूर्य को देख सकें।
  13. हे पुरोहितों! यम के लिए सोमरस निकालो, यम को आहुति दो। वह यज्ञ, जिससे अग्नि देवों तक ले जाने वाला दूत कहा गया है और जो पूर्णरूपेण संन्नद्ध है, यम के पास पहुँचता है।
  14. पुरोहितों! घी-मिश्रित आहुतियों यम को दो और तब प्रारम्भ करो। वह हमें देवपूजा में लगे रहने दे, जिससे हमें लम्बी आयु प्राप्त हो।
  15. यमराज को अत्यन्त मधुर आहुति दो, यह प्रणाम उन ऋषियों को है, जो हमसे बहुत पहले उत्पन्न हुए थे और जिन्होंने हमारे लिए मार्ग बनाया। वह बृहत् (बृहत्साम) तीन यज्ञों में और छ: बृहत् विस्तारों में विचरता है। त्रिष्टुप्, गायत्री आदि छन्द-सभी यम में केन्द्रित हैं।"

द्वितीय सूक्त

ऋग्वेद[78] में द्वितीय सूक्त का वर्णन इस प्रकार है-

  1. "सोम-निम्न, मध्यम या उत्तरतर श्रेणियों के स्नेही पितर लोग आगे आंयें, और वे पितर लोग भी जिन्होंने शाश्वत जीवन या मृतात्मा का रूप धारण किया है, कृपालु हों और आगे आयें, क्योंकि वे दयापूर्ण एवं ऋतु के ज्ञाता हैं। वे पितर लोग, जिनका हम आह्वान करें, हमारी रक्षा करें।
  2. आज हमारा प्रणाम उन पितरों को है जो (इस मृत के जन्म के पूर्व ही) चले गये या (इस मृत के जन्मोपरान्त) बाद को गये, और (हम उन्हें भी प्रणाम करते हैं) जो इस विश्व में विराजमान हैं या जो शक्तिशाली लोगों के बीच स्थान ग्रहण करते हैं।
  3. मैं उन पितरों को जान गया हूँ जो मुझे (अपना वंशज) पहचानेंगे और मैं विष्णु के पादन्यास एवं उनके बच्चे (अर्थात् अग्नि) को जान गया हूँ। वे पितर, जो कुशों पर बैठते हैं और अपनी इच्छा के अनुसार हवि एवं सोम ग्रहण करते हैं, बारम्बार यहाँ आयें।
  4. हे कुशासन पर बैठने वाले पितर लोगों, (नीचे) अपनी रक्षा लेकर हमारी ओर आओ; हमने आपके लिए हवि तैयार कर रखी है; इन्हें ग्रहण करो। कल्याणकारी रक्षा के साथ आओ और ऐसा आनन्द दो जो दु:ख से रहित हो।
  5. कुश पर रखी हुई प्रिय निधियों (हव्यों) को ग्रहण करने के लिए आमन्त्रित सोमप्रिय पितर लोग आयें। वे हमारी स्तुतियाँ (यहाँ) सुने। वे हमारे पक्ष में बोलें और हमारी रक्षा करें।
  6. हे पितर लोगों, आप सभी, घुटने मोड़कर एवं हव्य की दायीं ओर बैठकर यज्ञ की प्रशंसा करें; मनुष्य होने के नाते हम आपके प्रति जो ग़लती करें, उसके लिए आप हमें पीड़ा न दें।
  7. पितर लोग अग्नि की दिव्य ज्वाला के सामने (उसकी गोद में) बैठकर मुझ मर्त्य यजमान को धन दें। आप मृत व्यक्ति के पुत्रों को धन दें और उन्हें शक्ति दें।
  8. यम हमारे जिन पुराने एवं समृद्ध पितरों संगीत का आनन्द उठाते हैं, वे सोमपान के लिए एक-एक करके आयें, जो यशस्वी थे और जिनकी संगति में (पितरों के राजा) यम को आनन्द मिलता है, वह (हमारे द्वारा दिये गये) हव्य स्वेच्छापूर्वक ग्रहण करें।
  9. हे अग्नि, उन पितरों के साथ जाओ, जो तृषा से व्याकुल थे और (देवों के लोकों में पहुँचने में) पीछे रह जाते थे, जो यज्ञ के विषय में जानते थे और जो स्तुतियों के रूप में स्तोमों के प्रणेता थे, जो हमें भली-भाँति जानते थे, वे (हमारी पुकार) अवश्य सुनते हैं। जो काव्य नामक हवि ग्रहण करते हैं और जो गर्म दूध के चतुर्दिक बैठते हैं।
  10. हे अग्नि, उन अवश्य आने वाले पितरों के साथ पहले और समय से कालान्तर में जाओ और जो (दिये हुए) हव्य ग्रहण करते हैं, जो हव्य का पान करते हैं, जो उसी रथ में बैठते हैं, जिसमें इन्द्र एवं अन्य देव विराजमान हैं, जो सहस्रों की संख्या में देवों को प्रणाम करते हैं और जो गर्म दूध के चतुर्दिक बैठते हैं।
  11. हे अग्निष्वात्त नामक पितर लोगों, जो अच्छे पथप्रदर्शक कहे जाते हैं, (इस यज्ञ में) आओ और अपने प्रत्येक उचित आसन पर विराजमान होओ। (दिये हुए) पवित्र हव्य को, जो कुश पर रखा हुआ है, ग्रहण करो और शूर पुत्रों के साथ समृद्धि दो।
  12. हे जातवेदा अग्नि, (हम लोगों द्वारा) प्रशंसित होने पर, हव्यों को स्वादयुक्त बना लेने पर और उन्हें लाकर (पितरों को) दे देने पर वे उन्हें अभ्यासवश ग्रहण करें। हे देव, आप पूत हव्यों को खायें।
  13. हे जातवेदा, आप जानते हैं कि कितने पितर हैं, यथा-वे जो यहाँ (पास) हैं, जो यहाँ नहीं हैं, जिन्हें हम जानते हैं और जिन्हें हम नहीं जानते हैं (क्योंकि वे हमारे ऊपर दूर के पूर्वज हैं)। आप इस भली प्रकार बने हुए हव्य को अपने आचरण के अनुसार कृपा कर ग्रहण करें।
  14. हे अग्नि, उनके (पितरों के) साथ जो (जिनके शरीर) अग्नि से जला दिये गए थे, जो नहीं जलाये गए थे और जो स्वधा के साथ आनन्दित होते हैं, आप मृत की इच्छा के अनुसार शरीर की व्यवस्था करें, जिससे नये जीवन (स्वर्ग) में उसे प्रेरणा मिले।"

तृतीय सूक्त

ऋग्वेद[79] में तृतीय सूक्त का वर्णन इस प्रकार है-

  1. "हे अग्नि! इस (मृत व्यक्ति ?) को न जलाओ, चतुर्दिक इसे न झुलाओ, इसके चर्म (के भागों को) इतस्तत: न फेंको; हे जातवेदा (अग्नि)! जब तुम इसे भली प्रकार जला लो तो इसे (मृत को) पितरों के यहाँ भेज दो।
  2. हे जातवेदा! जब तुम इसे पूर्णरूपेण जला लो तो इसे पितरों के अधीन कर दो। जब यह (मृत व्यक्ति) उस मार्ग का अनुसरण करता है, जो इसे (नव) जीवन की ओर ले जाता है, तो यह वह हो जाये जो देवों की अभिलाषाओं को होता है।
  3. तुम्हारी आंखें सूर्य की ओर जायें, तुम्हारी साँस हवा की ओर जाये और तुम अपने गुणों के कारण स्वर्ग या पृथिवी को जाओ या तुम जल में जाओ, यदि तुम्हें वहाँ आनन्द प्राप्त हो (या यदि यहीं तुम्हारा भाग्य हो तो), अपने सारे अंगों के साथ तुम ओषधियों (जड़ी-बूटियों) में विराजमान होओ।
  4. हे जातवेदा, तुम उस बकरी को जला डालो, जो तुम्हारा भाग है, तुम्हारी ज्वाला, तुम्हारा दिव्य प्रकाश उस बकरी को जला डाले;[80] तुम इसे (मृत को) उन लोगों के लोक में ले जाओ, जो तुम्हारे कल्याणकारी शरीरों (ज्वालाओं) के द्वारा अच्छे कर्म करते हैं।
  5. हे अग्नि, (इस मृत को) पितरों की ओर छोड़ दो, यह जो तुम्हें अर्पित है, चारों ओर धूम रहा है। हे जातवेदा, यह (नव) जीवन ग्रहण करे और अपने हव्यों को बढ़ाये तथा एक नवीन (वायव्य) शरीर से युक्त हो जाए।
  6. हे मृत व्यक्ति! वह अग्नि जो सब कुछ जला डालता है, तुम्हारे उस शरीरांग को दोषमुक्त कर दे, जो काले पक्षी (कौआ) द्वारा काट लिया गया है, या जिसे चींटी या सर्प या जंगली पशु ने काटा है, और ब्राह्मणों में प्रविष्ट सोम भी यही करे।
  7. हे मृत व्यक्ति! तुम गायों के साथ अग्नि का कवच धारण करो (अर्थात् अग्नि की ज्वालाओं से बचने के लिए गाय का चर्म धारण करो) और अपने को मोटे मांस से छिपा लो, जिससे (वह अग्नि) जो अपनी ज्वाला से घेर लेता है, जो (वस्तुओं को नष्ट करने में) आनन्दित होता है, जो तीक्ष्ण है और पूर्णतया भस्म कर देता है, (तुम्हारे भागों को) इधर-उधर बिखेर न दे।
  8. हे अग्नि, इस प्याले को, जो देवों को एवं सोमप्रिय (पितरों) को प्रिय है, नष्ट न करो। इस चमस (चम्मच या प्याले) में, जिससे देव पीते हैं, अमर देव लोग आनन्द लेते हैं।
  9. जो अग्नि कच्चे मांस का भक्षण करता है, मैं उसे बहुत दूर भेज देता हूँ, वह अग्नि जो दुष्कर्मों (पापों) को ढोता है, यम लोक को जाए! दूसरा अग्नि (जातवेदा), जो सब कुछ जानता है, देवों को अर्पित हव्य ग्रहण करे।
  10. मैं, पितरों को हव्य देने के हेतु (जातवेदा) अग्नि को निरीक्षित करता हुआ, कच्चा मांस खाने वाले अग्नि को पृथक करता हूँ, जो तुम्हारे घर में प्रविष्ट हुआ था; वह (दूसरा अग्नि) धर्म (गर्म दूध या हव्य) को उच्चतम लोक की ओर प्रेरित करे।[81]
  11. वह अग्नि जो हव्यों को ले जाता है, ऋत के अनुसार समृद्धि पाने वाले पितरों को उसे दे। वह देवों एवं पितरों को हव्य दे।
  12. हे अग्नि! हमने, जो तुम्हें प्यार करते हैं, तुम्हें प्रतिष्ठापित किया है और जलाया है। तुम प्यारे पितरों को यहाँ ले आओ, जो हमें प्यार करते हैं और वे हव्य ग्रहण करें।
  13. हे अग्नि! तुम उस स्थल को, जिसे तुमने शवदाह में जलाया, (जल से) बुझा दो। कियाम्बु (पौधा) यहाँ उगे और दूर्वा घास अपने अंकुरों को फैलाती हुई यहाँ उगे।
  14. हे शीतिका (शीतल पौधे), हे शीतलाप्रद औषधि, हे ह्लादिका (तरोताजा करने वाली बूटी) आनन्द बिखेरती हुई मेढकी के साथ पूर्णरूपेण घुल-मिल जाओ। तुम इस अग्नि का आनन्दित करो।"

चतुर्थ सूक्त

ऋग्वेद[82] में चतुर्थ सूक्त का वर्णन इस प्रकार है- इस सूक्त के तीन से लेकर छ: तक के मन्त्रों को छोड़कर अन्य मन्त्र अन्त्येष्टि पर प्रकाश नहीं डालते, अत: हम केवल चार मन्त्रों को ही अनूदित करेंगे। (1,2). प्रथम दो मन्त्र त्वष्टा की कन्या एवं विवस्वान् के विवार एवं विवस्वान् से उत्पन्न यम एवं यमी के जन्म की ओर संकेत करते हैं। निरुक्त[83] में दोनों की व्याख्या विस्तार से दी हुई है। सरस्वती की स्तुति वाले मन्त्र (7-9) अथर्ववेद[84] में भी पाये जाते हैं। और कौशिकसूत्र[85] में उन्हें अथर्ववेद[86] के साथ अन्त्येष्टि कृत्य के लिए प्रयुक्त किया गया है।

3. "सर्वविज्ञ पूषा, जो पशुओं को नष्ट नहीं होने देता और विश्व की रक्षा करता है, तुम्हें इस लोक से (दूसरे लोक में) भेजे। वह तुम्हें इन पितरों के अधीन कर दे और अग्नि तुम्हें जानने वाले देवों के अधीन कर दे।

4. वह पूषा जो इस विश्व का जीवन है, जो स्वयं जीवन है, तुम्हारी रक्षा करे। वे लोग जो तुमसे आगे गये हैं (स्वर्ग के) मार्ग में तुम्हारी रक्षा करें। सविता देव तुम्हें वहाँ प्रतिष्ठापित करे, जहाँ सुन्दर कर्म करने वाले जाकर निवास करते हैं।

5. पूषा इन सभी दिशाओं को क्रम से जानता है। वह हमें उस मार्ग से ले चले, जो भय से रहित है। वह समृद्धिदाता है, प्रकाशमान है, उसके साथ सभी शूरवीर हैं; वह विज्ञ हमारे आगे बिना किसी त्रुटि के बढ़े।

6. पूषा (पितृलोक में जाने वाले) मार्गों के सम्मुख स्थित है, वह स्वर्ग को जाने वाले मार्गों और पृथिवी के मार्गों पर खड़ा है। हमको प्रिय लगने वाला वह दोनों लोकों के सम्मुख खड़ा है और वह विज्ञ दोनों लोकों में आता-जाता रहता है।"

पंचम सूक्त

ऋग्वेद[87] में पंचम सूक्त का वर्णन इस प्रकार है-

  1. "हे मृत्यु! उस मार्ग की ओर हो जाओ, जो तुम्हारा है और देवयान से पृथक है। मैं तुम्हें, जो आंखों एवं कानों से युक्त हो, सम्बोधित करता हूँ। हमारी सन्तानों को पीड़ा न दो, हमारे वीर पुत्रों को हानि न पहुँचाओ।
  2. हे यज्ञ करने वाले (याज्ञिक) हमारे सम्बन्धीगण! क्योंकि तुम मृत्यु के पदचिह्नों को मिटाते हुए आये हो और अपने लिए दीर्घ जीवन प्रतिष्ठापित कर चुके हो तथा समृद्धि एवं सन्तानों से युक्त हो, तुम पवित्र एवं शुद्ध बनो।
  3. ये जीवित (सम्बन्धी) मृत से पृथक हो पीछे घूम गये हैं; आज के दिन देवों के प्रति हमारा आह्वान कल्याणकारी हो गया। तब हम नाचने के लिए, (बच्चों के साथ) हँसने के लिए और दीर्घ जीवन को दृढ़ता से स्थापित करते हुए आगे गये।
  4. मैं जीवित (सम्बन्धियों, पुत्र आदि) की रक्षा के लिए यह बाधा (अवरोध) रख रहा हूँ, जिससे कि अन्य लोक (इस मृत व्यक्ति के) लक्ष्य को न पहुँचे। वे सौ शरदों तक जीवित रहें। वे इस पर्वत (पत्थर) के द्वारा मृत्यु को दूर रखें।
  5. हे धाता! बचे हुए लोगों को उसी प्रकार सम्भाल के रखो, जिस प्रकार दिन के उपरान्त दिन एक-एक क्रम में आते रहते हैं, जिस प्रकार अनुक्रम से ऋतुएँ आती हैं, जिससे कि छोटे लोग अपने बड़े (सम्बन्धी) को न छोड़ें।
  6. हे बचे हुए लोगों, बुढ़ापा स्वीकार कर दीर्घ आयु पाओ, क्रम से जो भी तुम्हारी संख्याएँ हो (वैसा ही प्रयत्न करो कि तुम्हें लम्बी आयु मिले); भद्र जन्म वाला एवं कृपालु त्वष्टा तुम्हें यहाँ (इस विश्व में) दीर्घ जीवन दे।
  7. ये नारियाँ, जिनके पति योग्य एवं जीवित हैं, आँखों में अंजन के समान घृत लगाकर घर में प्रवेश करें। ये पत्नियाँ प्रथमत: सुसज्जित, अश्रुहीन एवं पीड़ाहीन हो घर में प्रवेश करे।
  8. हे (मृत की) पत्नी! तुम अपने को जीवित (पुत्रों एवं अन्य सम्बन्धी) लोगों के लोक की ओर उठाओ; तुम उस (अपने पति) के निकट सोयी हुई हो, जो मृत है; आओ, तुम पत्नीत्व के प्रति सत्य रही हो और उस पति के प्रति, जिसने पहले (विवाह के समय) तुम्हारा हाथ पकड़ा था और जिसने तुम्हें भली-भाँति प्यार किया, सत्य रही हो।
  9. (मैं) मृत (क्षत्रिय) के हाथ से प्रण करता हूँ, जिससे कि हममें सैनिक वीरता, दिव्यता एवं शक्ति आये। तुम (मृत) वहाँ और हम यहाँ शूर पुत्र पायें और यहाँ सभी आक्रमणकारी शत्रुओं पर विजय पायें।
  10. हे मृत! इस विशाल एवं सुन्दर माता पृथिवी के पास आओ। यह नयी (पृथिवी), जिसने तुम्हें भेंट दी और तुम्हें मृत्यु की गोद से सुरक्षित रखा, तुम्हारे लिए ऊन के समान मृदु लगे।
  11. हे पृथिवी! ऊपर उठ जाओ, इसे न दबाओ, इसके लिए सरल पहुँच एवं आश्रय बनो, और इस (हड्डियों के रूप में मृत व्यक्ति) को उसी प्रकार ढँको, जिस प्रकार माता अपने आँचल से पुत्र को ढँकती है।
  12. पृथिवी ऊपर उठे और अटल रहे। सहस्रों स्तम्भ इस घर को सम्भाले हुए खड़े रहें। ये घर (मिट्टी के खण्ड) उसे भोजन दें। वे यहाँ सभी दिनों के लिए उसके हेतु (हड्डियों के रूप में मृत के लिए) आश्रय बनें।
  13. मैं तुम्हारे चारों ओर तुम्हारे लिए मिट्टी का आश्रय बना दे रहा हूँ। मिट्टी का यह खण्ड रखते समय मेरी कोई हानि न हो। पितर लोग इस स्तम्भ को अटल रखें। यम तुम्हारे लिए यहाँ आसनों की व्यवस्था कर दें।
  14. देवगण ने मुझे दिन में रखा है, जो पुन: तीर के पंख के समान (कल के रूप में) लौट आयेगा; (अत:) मैं अपनी वाणी उसी प्रकार रोक रहा हूँ, जिस प्रकार कोई लगाम से घोड़ा रोकता है।"

ऋग्वेद में पितृ-यज्ञ

यह अवलोकनीय है कि 'पितृ-यज्ञ' शब्द ऋग्वेद[88] में आया है। इसका क्या तात्पर्य है? हमें यह स्मरण रखना है कि ऋग्वेद[89] की ऋचाएँ किसी एक व्यक्ति के मरने के उपरान्त के कृत्यों की ओर संकेत करती है। उनका सम्बन्ध पूर्वपुरुषों की श्राद्ध-क्रियाओं से नहीं है। पूर्वपुरुषों से, जिन्हें बर्हिषद: एवं अग्निष्वात्तात्[90] कहा गया है, तुरन्त के मृतात्मा के प्रति स्नेह प्रदर्शित करने के लिए उत्सुकता अवश्य प्रकट की गयी है। पूर्वपुरुषों को 'हवि:' दिया गया है और वे उसे ग्रहण करते हैं, ऐसा प्रदर्शित किया गया है।[91] तैत्तिरीय संहिता[92] में दिये गये मन्त्रों के उद्देश्य[93] से उपर्युक्त ऋग्वेदीय मन्त्रों का उद्देश्य पृथक है। यह बात ठीक है कि तैत्तिरीय संहिता[94] के तीन मन्त्र ऋग्वेद[95] के हैं और वे पिण्ड-पितृयज्ञ में प्रयुक्त होते हैं। किन्तु यह कहने के लिए कोई तर्क नहीं है कि ऋग्वेद[96] का 'पितृयज्ञ', पिण्ड-पितृयज्ञ से अधिक प्राचीन है। यह सम्भव है कि ये दोनों विभिन्न बातों की ओर संकेत करते हुए समकालिक प्रचलन के ही द्योतक हों।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. पुस्तक-कल्याण संस्कार-अंक (जनवरी सन 2006 ई. से
  2. इम्मार्टल मैन (पृष्ठ 2)
  3. अंग्रेज़ी शब्द ‘स्पिरिट’ एवं भारतीय शब्द आत्मा में धार्मिक एवं दार्शनिक दृष्टि से अर्थ-साम्य नहीं है। प्रथम शब्द जीवनोच्छ्वास का द्योतक है और दूसरे को भारतीय दर्शन में परमात्मा की अभिव्यक्ति का रूप दिया गया है। आत्मा अमर है, शरीर नाशवान्। गीता में आया भी है-

    'नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावक:।
    न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुत:।।’ और भी-‘अजो नित्य: शाश्वतोऽयं पुराण:........।’

  4. कठोपनिषद (1।1।20)
  5. देखिए सी.ई. वुल्लियामी का इम्मार्टल मैन पृष्ठ 11।
  6. यूनानी लेखक पिण्डार (द्वितीय आलिचिएन ओड), प्लेटो (पीड्रस एवं टिमीएस) एवं हेरोडोटस (2।123)।
  7. ब्रह्मपुराण 214।34-39
  8. अनुशासनपर्व 104।11-12; 144।49-60
  9. अनुशासनपर्व 104।11-12 एवं 14
  10. शान्तिपर्व 318।9-17
  11. कल्पतरु, मोक्षकाण्ड, पृष्ठ 248-250
  12. वायु पुराण 19|1-32
  13. मार्कण्डेय पुराण 43।1-33 या 40।1-33
  14. लिंग पुराण पूर्वार्ध, अध्याय 91
  15. शान्तिपर्व अध्याय 318
  16. वायुपुराण 19|28
  17. लिंगपुराण पूर्वार्ध, 91।24
  18. द्वे चात्र परमेऽरिष्टे एतद्रूपं परं भवेत्। घोषं न श्रृणुयात्कर्णे ज्योतिर्नेत्रे न पश्यति।। वायुपुराण (19।27); नग्नं वा श्रमणं दृष्ट्वा विद्यान्मृत्युमुपस्थितम्। लिंगपुराण (पूर्वभाग 91।19)।
  19. मुंशी हीरक जयन्ती ग्रन्थ पृष्ठ 246-268
  20. पृष्ठ 251
  21. प्रो. एडगर्टन का लेख; ‘दी आवर आव डेथ’, एनल्स आव दी भण्डारकर ओ. आर. इंस्टीट्यूट, जिल्द 8, पृष्ठ 219-249
  22. कौशिकसूत्र 80|3
  23. बौधायनपितृमेधसूत्र 3|1|18
  24. गोभिलस्मृति (3।22), पितृदयिता आदि।

    दुर्बलीभवन्तं शालातृणेषु दर्भानास्तीर्य स्योनास्मै भवेत्यवरोहयति।
    मन्त्रोक्तावनुमन्त्रयते। यत्ते कृष्णेत्यवदीपयति। कौशिक. (80|3-5)। 'स्योनास्मै' मन्त्र के लिए देखिए अथर्ववेद (18-2-19), ऋग्वेद (1|22|15) एवं वाजसनेयीसंहिता (36|13), देखिए निरुक्त (9|32)।

    पितृदयिता (पृष्ठ 74) में आया है-'यदा कण्ठस्थानगतजीवी विह्वलो देही भवति तदा बहिर्गोमयेनोपलिप्तायां भूमौ कुशान्दक्षिणाग्रानास्तीर्य तदुपरि दक्षिणशिरसं स्थापयित्वा सुवर्णरजतगोभूमिदीपतिलपात्राणि दापयेत्।
    गोभिलस्मृति (3।22)-‘दुर्बलं स्नापयित्वा तु शुद्धचैलाभिसंवृतम्। दक्षिणाशिरसं भूमौ बहिष्मत्यां निवेशयेत्।।'

  25. शुद्धिप्रकाश पृष्ठ 151-152
  26. दानानि च जातूकर्ण्य आह। उत्क्रान्तिवैतरण्यौ च दश दानानि चैव हि। प्रेतेऽपि कृत्वा तं प्रेतं शवधर्मेण दाहयेत्।.....दश दानानि च तेनैवोक्तानि। गोभूतिलहिरण्याज्यवासोधान्यगुडानि च। रूप्यं लवणमित्याहुर्दश दानान्यनुक्रमात्।। शुद्धिप्रकाश (पृष्ठ 152)। और देखिए गरुड़ पुराण (प्रेतखण्ड, 4।4); एपिग्रैफ़िया इण्डिका (जिल्द 19, पृष्ठ 230)।
  27. आसन्नमृत्युना देया गौ: सवत्सा तु पूर्ववत्। तदभावे तु गौरेव नरकोत्तरणाय च।। तदा यदि न शक्नोति दातुं वैतरणीं तु गाम। शक्तोऽन्योऽरुक् तदा दत्त्वा दद्याच्छ्रेयो मृतस्य च।। व्यास (शुद्धितत्त्व, पृष्ठ 300; शुद्धिप्रकाश पृष्ठ 153; अन्त्यकर्मदीपक पृष्ठ 7)। गरुड़पुराण (प्रेतखण्ड, 4।6) में आया है-'नदीं वैतरणीं तर्तु दद्याद्वैतरणीं च गाम्। कृष्णस्तनी सकृष्णांगी सा वै वैतरणी स्मृता।।' ऐसा आया है कि यम के द्वार पर वैतरणी नाम की नदी है, जो रक्त एवं पैने अस्त्रों से परिपूर्ण है; जो लोग मरते समय गौदान करते हैं, वे उस नदी को गाय की पूँछ पकड़कर पार कर जाते हैं। स्कन्दपुराण 6|226|32-33 जहाँ वैतरणी की चर्चा है; ‘मृत्युकाले प्रचच्छन्ति ये धेनुं ब्राह्मणाय वै। तस्या: पुच्छं समाश्रित्य ते तरन्ति च तां नृप।।’
  28. अन्त्येष्टिपद्धति एवं शुद्धिप्रकाश पृष्ठ 152-153
  29. अन्त्यकर्मदीपक पृष्ठ 3-4
  30. संकल्प यह है-अत्र पृथिव्यां जम्बूद्वीपे भरतखण्डे आर्यावर्तेकदेशे विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य ब्रह्मणो द्वितीयपरार्वे.........अमुकतियौ अमुकगोत्र..........अमुकशमहिं ममात्मन: (मम पित्रादे:) व्रतग्रहणदिवसादारभ्य अद्य यावत्फलाभिलाषादिगृहीतानां निष्कामतया गृहीतानां च अमुकामुकव्रतानामकृतोद्यापनदोषपरिहारार्थ श्रुतिस्मृति-पुराणोक्ततत्तदव्रतजन्यसांगफलप्राप्त्यर्थ विष्ण्वादीनां तत्तद्देवानां प्रीपये इदं सुवर्णमग्निदैवतम् (तदभावे इदं रजतं चन्द्रदैवतम्) अमुकगोत्रायामुकशर्मण् ब्राह्मणाय दास्ये ओं तत्सत् न मम इति संकल्प........आदि-आदि (अन्त्यकर्मदीपक, पृष्ठ 4)’।
  31. देशकालौ संकीर्त्य मम (मत्पत्रादेर्वां) ज्ञाताज्ञातकामाकामसकृदसकृत्कायिकवाचिकमानसिकतांसर्गिक-स्पृष्टास्पृष्ट-भुक्ताभुक्त-पीतापीतसकलपातकानुपातकोपपातकलघुपातकसंकरीकरणमलिनीकरणपात्री- करणजातिभ्रंशकरप्रकीर्णकादिनानाविधपातकानां निरासेन देहावसानकाले देहशुद्धिद्वारा श्रीपरमेश्वरप्रीत्यर्थमिमां सर्वप्रायश्चित्तप्रत्याम्नायभूतां यथाशक्त्यलंकृतां सवत्सां गां रुद्रदेवताममुकगोत्रायामुकशर्मणे ब्राह्मणाय तुभ्यमहं संप्रददे ओं तत्सत् न मम। अन्त्यकर्मदीपक (पृष्ठ 5)।
  32. गरुड़पुराण 2|4|7-9
  33. गरुड़पुराण 2|4|47
  34. भगवद्गीता (8|5-6) एवं पद्म पुराण (5|47|262)-'मरणे या मति: पुंसां गतिर्भवति तादृशी।'
  35. गौतम-पितृमेधसूत्र 1|1-8
  36. हिरण्यकेशिपितृमेधसूत्र 1|1
  37. अन्त्यकर्मदीपक पृष्ठ 18
  38. जपेऽसमर्थश्चेद हृदये चतुर्भुजं शंखचक्रगदापद्मधरं पीताम्बरकिरीटकेयूरकौस्तुभवनमालाधरं रमणीयरूपं विष्णुं त्रिशूलडमरुधरं त्रिनेत्रं गंगाधरं शिवं वा भावयन् सहस्रनामगीताभागवतभारतरामायणेशावास्याद्युपनिषद: पावमानादीनि सूक्तानि च यथासम्भवं शृणुयात्। अन्त्यकर्मदीपक (पृष्ठ 18)। विष्णुसहस्रनाम के लिए देखिए अनुशासनपर्व (149|14-120); शिव के 1008 नामों के लिए देखिए वही (17|31-153); और शिव सहस्रनाम के लिए देखिए शान्तिपर्व भी (285|74)।
  39. छान्दोग्योपनिषद (शाण्डिल्य-विद्या, 314|1)
  40. सर्वखल्विदं ब्रह्म तज्जलानिति शान्त उपासीताथ खलु क्रतुमय: पुरुषो यथाक्रतुरस्मिँल्लोके पुरुषो भवति तथेत: प्रेत्य भवति स क्रतुं कुर्वीत। छान्दोग्योपनिषद् (3|14|1)। अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्। य: प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशय:।। यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्। तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भाव भावित:।। भगवद्गीता (8|5-6) देखिए और शंकरभाष्य, वेदान्तसूत्र (1|2|1 एवं 4|1|12)।
  41. प्रश्नोपनिषद 3|10
  42. प्रश्नोपनिषद 8|5
  43. भगवद्गीता 8|6
  44. शुद्धितत्त्व पृष्ठ 299
  45. शुद्धितत्त्व, पृष्ठ 299-300; शुद्धिप्रकाश, पृष्ठ 155
  46. कूर्मपुराणम्। गंगायां च जले मोक्षो वाराणस्यां जले स्थले। जले स्थले चान्तरिक्षे गंगासागरसंगमे।। तथा स्कन्दे-तीराद् गव्यूतिमात्रं तु परित: क्षेत्रमुच्यते। अत्र दानं जपो होमो गंगायां नात्र संशय:।। अत्रस्थास्त्रिदिवं यान्ति ये मृता न पुनर्भवा:। शुद्धितत्त्व (पृष्ठ 299-300); शुद्धिप्रकाश (पृष्ठ 155)। पूजारत्नाकरे-शालग्रामशिला यत्र तत्र संनिहितो हरि:। तत्सन्निघौ त्यजेत् प्राणान् याति विष्णो: परं पदम्।। लिंगपुराणे-शालग्रामसमीपे तु क्रोशमात्रं समन्तत:।। कीकटेपि मृतो याति वैकुण्ठभवनं नर:। वैष्णवामृते व्यास:-तुलसीकानने जन्तोर्यदि मृत्युर्भवेत् क्वचित्। स निर्भर्त्स्य नरं पापी लीलयैव हरिं विशेत्।। प्रयाणकाले यस्यास्ये दीयते तुलसीदलम्। निर्वाणं याति पक्षीन्द्र पापकोटियृतोपि स:।। शुद्धितत्त्व (पृष्ठ 299); शुद्धिप्रकाश (पृष्ठ 155)। कीकट मगध देश का नाम है, जिसे ऋग्वेद (3।53।14) में आर्यधर्म से बाहर की भूमि कहा गया है। और देखिए निरुक्त (6।32) जहाँ कीकट देश को अनार्य निवास कहा गया है। शुद्धिप्रकाश ‘कीकटेपि’ के स्थान पर ‘कीटकोऽपि’ लिखता है जो अधिक समीचीन है, किन्तु यह संशोधन भी हो सकता है।
  47. शान्तिपर्व (298।23, कल्पतरु, मोक्षकाण्ड, पृष्ठ 254)
  48. छान्दोग्योपनिषद 4|15|5-6
  49. छान्दोग्योपनिषद 5।10।1-2
  50. छान्दोग्योपनिषद 5|10|3-7
  51. छान्दोग्योपनिषद 5|10|8
  52. बृहदारण्यकोपनिषद 6|2|115-16
  53. भगवद्गीता 8|23-25
  54. वेदान्तसूत्र 4|3|4-6
  55. वेदान्तसूत्र (4|2|20 अतश्चायनेपि दक्षिणे)
  56. याज्ञवल्क्यस्मृति (3|9193-196) 'देवयान' एवं 'पितृयान' के विषय में देखिए ऋग्वेद में भी, यथा-3|58|5; 7|38|8; 7|76|2; 10|51|5; 10|98|11; 10|18|1; 10|2|7 और तैत्तिरीय ब्राह्मण (2|6|3|5); शतपथ ब्राह्मण (1।9।3।2); बृहदारण्यकोपनिषद् (1।5।16)।
  57. बौधायनपितृमेधसूत्र 2।|7|21 एवं गौतमपितृमेधसूत्र 2|7|1-2
  58. मनु 2।16
  59. याज्ञवल्क्यस्मृति 1|10
  60. जातुकर्ण्य (संस्कारप्रकाश, पृष्ठ 135 एवं अन्त्यकर्मदीपक, पृष्ठ 1)
  61. निषेकादिश्मशानान्तो मन्त्रैर्यस्योदितो विधि:। तस्य शास्त्रेऽधिकारोऽस्मिन् ज्ञेयो नान्यस्य कस्यचित्।। मनु 2।16; ब्रह्मक्षत्रियविट्शूद्रा वर्णास्त्वाद्यास्त्रो द्विजा:। निषेकाद्या: श्मशानान्तास्तेषां वै मन्त्रत: क्रिया:।। याज्ञवल्क्यस्मृति (1।10); आधानपुंससीमन्तजातनामान्नचौलका:। मौञ्जी व्रतानि गोदानं समावर्तविवाहका:।। अर्न्त्य चैतानि कर्माणि प्रोच्यन्ते षोडशैव तु।। जातूकर्ण्य (संस्कारप्रकाश, पृष्ठ 135 एवं अन्त्यकर्मदीपक, पृष्ठ 1)।
  62. आश्वलायनगृह्यसूत्र 1|15|12, 1|16|6, 1|17|11 एवं मनु 2|66
  63. मनु 10।127 एवं याज्ञवल्क्यस्मृति 1।10
  64. बौधायन पितृमेधसूत्र 3|1|4
  65. जो श्रौत अग्निहोत्र अर्थात् वैदिक यज्ञ करता है
  66. जो केवल स्मार्त अग्नि को पूजता है, अर्थात् स्मृतियों में व्यवस्थित धार्मिक कृत्य करता है
  67. निर्णयसिन्धु पृष्ठ 569
  68. प्रतिशाखं भिन्नेप्यन्त्यकर्मणि साधारणं किंचिदुच्यते। निर्णयसिन्धु (पृष्ठ 569)।
  69. जैसा कि डॉक्टर कैलैण्ड ने किया है
  70. ऋग्वेद 10|14-18
  71. श्री बेर्ट्रम एस. पकिल (Bertrum S. Puckle) ने अपनी पुस्तक ‘फ़्यूनरल कस्टम्स’ (Funeral Customs : London 1926) में अन्त्य कर्मों आदि के विषय में बड़ी मनोरंजक बातें दी हैं। उन्होंने इंग्लैण्ड, फ़्राँस आदि यूरोपीय देशों, यहूदियों तथा विश्व के अन्य भागों के अन्त्य कर्मों के विषय में विस्तार के साथ वर्णन किया है। उनके द्वारा उपस्थापित वर्णन प्राचीन एवं आधुनिक भारतीय विश्वासों एवं आचारों से बहुत मेल खाते हैं, यथा-जहाँ व्यक्ति रोगग्रस्त पड़ा रहता है, वहाँ काक (काले कौआ) या काले पंख वाले पक्षी का उड़ते हुए बैठ जाना मृत्यु की सूचना है (पृष्ठ 17), कब्र में गाड़ने के पूर्व शव को स्नान कराना या उस पर लेप करना (पृष्ठ 34 एवं 36), मृत व्यक्ति के लिए रोने एवं शोक प्रकट करने के लिए पेशेवर स्त्रियों को भाड़े पर बुलाना (पृष्ठ 67), रात्रि में शव को न गाड़ना (पृष्ठ 77), सूतक के कारण क्षौरकर्म करना (पृष्ठ 91), मृत के लिए कब्र पर मांस एवं मद्य रखना (पृष्ठ 99-100), कब्रगाह में बपतिस्मा-रहित बच्चों, आत्महन्ताओं, पागलों एवं जातिच्युतों को न गाड़ने देना (पृष्ठ 143)।
  72. ऋग्वेद 10|14
  73. काव्य, अंगिरस एवं ऋक्वन् लोग पितरों की विभिन्न कोटियों के द्योतक हैं। ऋग्वेद 7|10|4
  74. वैरूप लोग अंगिरसों की उपकोटि में आते हैं।
  75. यह और आगे आने वाले तीन मन्त्र मृत लोगों को सम्बोधित हैं।
  76. देखिए इस ग्रन्थ का खण्ड 2, अध्याय 35, जहाँ इष्टापूर्त की व्याख्या उपस्थित की गई है। इष्टापूर्त का अर्थ है, यज्ञकर्मों (इष्ट) एवं दान-कर्मों (पूर्त) से उत्पन्न समन्वित आध्यात्मिक अथवा पारलौकिक फलोत्पत्ति।
  77. पितृलोक के आनन्दों की उपलब्धि के लिए मृतात्मा के वायव्य शरीर की कल्पना की गयी है। यह ऋग्वेदीय कल्पना अपूर्व है।
  78. ऋग्वेद 10|15
  79. ऋग्वेद 10|16
  80. ऋग्वेद (10।16।4)......अजो भाग:-इससे उस बकरी की ओर संकेत है, जो शव के साथ ले जायी जाती थी। और देखिए ऋग्वेद (10|6|7), जहाँ शव के साथ गाय के जलाने की बात कही गयी है।
  81. यह मन्त्र कुछ जटिल है। यदि इस मन्त्र के शाब्दिक अर्थ पर ध्यान दें तो प्रकट होता है कि 'क्रव्याद्' अग्नि पितृयज्ञ में प्रयुक्त होती है। ऐसा कहना सम्भव है कि 'क्रव्याद्' अग्नि को अपवित्र माना जाता था और वह साधारण या यज्ञिय अग्नि से पृथक थी।
  82. ऋग्वेद 10|17
  83. निरुक्त 12|10-11
  84. अथर्ववेद 18|1|41-43
  85. कौशिकसूत्र 81-39
  86. अथर्ववेद 7|68|1-2 एवं 18|3|25
  87. ऋग्वेद 10|18
  88. ऋग्वेद 10|16|10
  89. ऋग्वेद 10|15-18
  90. ऋग्वेद 10|15|3-4, 11
  91. ऋग्वेद 10|15|11-12
  92. तैत्तिरीय संहिता 1|8|5
  93. जो साकमेघ में सम्पादित पितृयज्ञ की ओर संकेत करता है
  94. तैत्तिरीय संहिता 1|8|5
  95. ऋग्वेद 10|57|3-5
  96. ऋग्वेद 10|15|10

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