पश्चिम भारत का इतिहास

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पश्चिम भारत में भारत के पश्चिमी भाग में स्थित क्षेत्रों को सम्मिलित किया जाता है। यह क्षेत्र उच्चस्तरीय औद्योगिक तथा आवासित है। पश्चिमी क्षेत्र के अधिकांश क्षेत्र मराठा साम्राज्य में आते थे। भारत का पश्चिमी क्षेत्र उत्तर की ओर से थार मरुस्थल, पूर्व की ओर से विंध्य पर्वत और दक्षिणी ओर से अरब सागर से घिरा हुआ है। ऐतिहासिक दृष्टिकोण से भी यह क्षेत्र भारतीय इतिहास पर अपने कभी न मिटने वाले इतिहास को सहेजे हुए है।

इतिहास

भारतीय इतिहास में पश्चिमी क्षेत्रों से जुड़ी हुईं अनेकों घटनाएँ महत्त्वपूर्ण हैं। सल्तनत काल में गुजरात हस्तशिल्प कौशल, उन्नत बंदरगाहों और उपजाऊ भूमि के कारण दिल्ली सल्तनत के समृद्धतम प्रान्तों मे से एक था। फ़िरोज़शाह तुग़लक के काल में गुजरात का गवर्नर बहुत सज्जन व्यक्ति था। फ़रिश्ता उसके विषय में लिखता है कि "वह हिन्दू धर्म को प्रोत्साहन देता था और मूर्तिपूजा को दबाने की बजाय बढ़ावा देता था।" उसके बाद जफ़र ख़ान गुजरात का गवर्नर बना। उसका पिता इस्लाम स्वीकार करने से पहले साधारण राजपूत था और उसने अपनी बहन का विवाह फ़िरोज़ तुग़लक से किया था। दिल्ली पर तैमूर के आक्रमण के बाद गुजरात और मालवा स्वतंत्र हो गए। दिल्ली सल्तनत के साथ उनका सम्बन्ध केवल नाम मात्र का ही रह गया। किन्तु जफ़र ख़ान 1407 में ही स्वयं को गुजरात का शासक घोषित करने का अवसर प्राप्त कर सका। तब वह मुजफ़्फ़रशाह के नाम से गद्दी पर बैठा।

अहमदशाह का योगदान

किन्तु गुजरात राज्य का वास्तविक संस्थापक मुजफ़्फ़रशाह का पोता अहमदशाह (1411-43) ही था। उसने अपने लम्बे शासन काल में सामंतों को काबू में किया, प्रशासन को स्थिरता दी, अपने राज्य का विस्तार किया और उसे स्वयं मज़बूत किया। वह अपनी राजधानी पाटन से हटाकर नये नगर अहमदाबाद में ले आया। इस नगर की आधाशिला 1415 में रखी गई थी। वह बहुत बड़ा भवन निर्माता था और उसने नगर को अनेक भव्य मंहलों, बाज़ारों, मस्जिदों और मदरसों से सजाया। उसने गुजरात के जैनियों की उच्च स्थापत्य-परम्परा का लाभ उठाते हुए दिल्ली के स्थापत्तय से एकदम भिन्न शैली का विकास किया। इस शैली कि कुछ विशेषताएँ हैं—पतले मीनार, पत्थर पर उत्कृष्ट नक़्क़ाशी और अलंकृत कोष्टक। उस काल की स्थापत्य कला के सुन्दर नमूने—अहमदाबाद की जामा मस्जिद और तीन दरवाज़ा, आज भी सुरक्षित है।

अहमदशाह ने सौराष्ट्र और गुजरात-राजस्थान की सीमा पर स्थित राजपूत रियासतों को भी अपने अधिकार में करने का प्रयत्न किया। सौराष्ट्र में उसने गिरनार के मज़बूत क़िले पर क़ब्ज़ा कर लिया, लेकिन इस शर्त पर राजा को लौटा दिया कि वह उसे कर देता रहेगा। फिर उसने प्रसिद्ध तीर्थ स्थान सिद्धपुर पर आक्रमण किया और अनेक सुन्दर मन्दिरों को मिट्टी में मिला दिया। उसने गुजरात के हिन्दुओं पर जज़िया लगा दिया। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था। इन घटनाओं के कारण अनेक मध्ययुगीन इतिहासकारों ने अहमदशाह का काफ़िरों के दुश्मन के रूप में स्वागत किया है। अनेक आधुनिक इतिहासकारों ने उसे धर्मान्ध कहा है। परन्तु सत्य कहीं जटिल जान पड़ता है। एक ओर अहमदशाह ने धर्मान्ध होकर मन्दिरों को तोड़ने का हुक्म दिया, और वहीं अहमदशाह की दूसरी ओर प्रशासन में हिन्दुओं को सम्मिलित करने में भी नहीं हिचका। 'बनिया' (वैश्य) समाज से सम्बद्ध माणिक चन्द और मोती चन्द उसके मंत्री थे। वह इतना न्यायप्रिय था कि ख़ून के अपराध में उसने अपने दामाद को चौराहे पर फाँसी लगवा दी। उसने जहाँ हिन्दू राजाओं से युद्ध किए, वहीं उस काल के मुसलमान शासकों, विशेषतः मालवा के शासकों से भी वह लड़ता रहा। उसने इंदौर के शक्तिशाली क़िले को जीता तथा झालावाड़, बूँदी और डुंगरपुर की राजपूत रियासतों को भी अपने अधिकार में कर लिया।

गुजरात तथा मालवा की शत्रुता

गुजरात और मालवा प्रारम्भ से ही एक-दूसरे के कट्टर शत्रु थे और हर अवसर पर एक-दूसरे का विरोध ही करते थे। मुजफ़्फ़रशाह ने मालवा के सुल्तान हुशंग शाह को हराकर क़ैद कर लिया। लेकिन मालवा पर अधिकार रख पाना सम्भव ने देखकर उसने कुछ सालों के बाद हुशंग शाह को छोड़ दिया और उसे फिर मालवा का शासक बना दिया। लेकिन इससे दोनों के बीच खाई भरी नहीं बल्कि मालवा अपने को गुजरात से और भी अधिक असुरक्षित समझने लगा। मालवा वाले हमेशा गुजरात की शक्ति को कम करने का अवसर ढूंढते रहते थे और इसके लिए वे गुजरात के विरोधी गुटों को, चाहे वे विद्रोही सरदार हो या फिर हिन्दू राजा, सहायता देते रहते थे। गुजरात ने मालवा की गद्दी पर अपना आदमी बिठवाकर इस प्रवृत्ति पर रोक लगाने का प्रयतन किया। लेकिन इस शत्रुता ने दोनों राज्यों को कमज़ोर कर दिया। परिणामतः ये दोनों ही पश्चिम भारत की राजनीति में कोई बड़ी भूमिका नहीं निभा सके।

महमूद बेगड़ा

गुजरात का सबसे प्रसिद्ध सुल्तान महमूद बेगड़ा था। उसने 50 से भी अधिक वर्षों तक (1459-1511) तक गुजरात पर राज्य किया। उसे 'बेगड़ा' इसलिए कहा जाता था कि उसने दो सबसे मज़बूत क़िलों- सौराष्ट्र और गिरनार, जिसे अब जूनागढ़ कहा जाता है, और दक्षिण गुजरात का चम्पानेर को जीता था।[1] गिरनार का राजा लगातार कर देता रहा था। लेकिन बेगड़ा ने सौराष्ट्र को अपने अधिकार में लेने की नीति के अंतर्गत उसे अपने राज्य में विलीन करना चाहा था। सौराष्ट्र समृद्ध प्रदेश था। उसकी भूमि की कई पट्टियाँ उपजाऊ थीं, और उसके उन्नत बंदरगाह थे। किन्तु दुर्भाग्य से सौराष्ट्र प्रदेश में लुटेरे और समुद्री डाकू भी बहुत थे, जो व्यापारियों और जहाज़ों पर घात लगाये रहते थे। गिरनार का क़िला सौराष्ट्र पर अधिकार बनाये रखने और सिंध के विरुद्ध अभियान के लिए बहुत उपयुक्त था।

मालवा और मेवाड़

मालवा, नर्मदा और ताप्ती नदियों के बीच पठार पर स्थित था। गुजरात और उत्तर भारत तथा गुजरात और दक्षिण भारत के बीच मुख्य मार्गों पर इसका अधिकार था। जब तक मालवा शक्तिशाली रहा वह गुजरात, मेवाड़, बहमनी और दिल्ली के लोदी सुल्तानों की महत्वाकांक्षाओं पर अकुंश का काम करता रहा। मालवा की भौगोलिक और राजनीतिक स्थित ऐसी थी कि यदि उस क्षेत्र की कोई शक्ति उस पर अधिकार कर लेती तो वह समस्त उत्तर भारत पर अधिकार करने का प्रयत्न कर सकती थी।

पंद्रहवीं शताब्दी में मालवा अपनी उन्नति के चरम शिखर पर रहा। राजधीनी धार से मांडू ले जाई गई। मांडू बहुत सुरक्षित स्थान था और प्राकृतिक सौन्दर्य से भरपूर था। मालवा के शासकों ने वहाँ बहुत सी इमारतें बनवाईं, जिनके खण्डहर अब भी भव्य हैं। मांडू की स्थापत्त कला गुजरात की स्थापत्त कला से भिन्न थी और स्थूल थी। भारी आधारशिला के कारण वह और भी स्थूकाय लगती थी। अनेक रंगों और चमकीली ईंटों के प्रयोग से इमारतों में भिन्नता पैदा हो जाती थी। इन इमारतों में जामा मस्जिद, हिंडोला महल और जहाज़ महल सबसे प्रसिद्ध हैं।

आंतरिक विद्रोह तथा प्रारम्भिक शासक

मालवा में शुरू से ही आंतरिक विद्रोह होते रहे थे। गद्दी के उत्तराधिकार के लिए अनेक प्रतिद्वन्द्वियों में लगातार संघर्ष होता रहता था और इन संघर्षों के साथ विभिन्न सरदारों और दलों में शक्ति प्राप्त करने के लिए संघर्ष भी जुड़ जाता था। गुजरात और मेवाड़ के पड़ोसी राज्य हमेशा इस दलबंदी का लाभ उठाने के अवसर की तलाश करते रहते थे। मालवा के प्रारम्भिक शासकों में से एक हुशंगशाह ने सहनशीलता की उदार नीति अपनाई। उसने अनेक राजपूतों को मालवा में बसने के लिए प्रोत्साहित किया। उसने मेवाड़ के राजा राणा मोकल के दो बड़े भाइयों को मालवा में जागीरें दीं। इसी काल में निर्मित 'ललितपुर मन्दिर' के शिलालेखों से इस बात की जानकारी मिलती है कि मन्दिरों के निर्माण पर कोई पाबंदी नहीं थी। हुशंगशाह ने जैनियों को भी सहायता प्रदान की, जो राज्य के मुख्य व्यापारी और साहूकार थे। सफल व्यापारी नरदेव सोनी उसका खजांची और सलाहकार था।

दुर्भाग्य से मालवा के सभी शासक इतने सहनशील और उदार नहीं थे। महमूद ख़िलजी (1436-1469) ने, जिसे मालवा के सुल्तानों में सर्वाधिक शक्तिशाली माना जाता है, राणा कुम्भा और अन्य पड़ोसी हिन्दू राजाओं से लड़ाईयों के दौरान अनेक मन्दिरों को नष्ट करवा दिया। यद्यपि उसके इस कार्य को न्यायसंगत नहीं कहा जा सकता, फिर भी यह कहना होगा कि यह सब लड़ाईयों के दौरान किया गया था, और इसलिए इसे मन्दिरों को नष्ट करने की किसी सामान्य नीति का हिस्सा नहीं माना जा सकता। महमूद ख़िलजी चपल और महत्वाकांक्षी शासक था। उसने लगभग सभी पड़ोसी राज्यों- गुजरात, गोंडवाना और उड़ीसा, बहमनी सुल्तान और यहाँ तक की दिल्ली सल्तनत से भी युद्ध किया। फिर भी उसकी अधिकांश शक्ति दक्षिणी राजपूताना पर अधिकार और मेवाड़ का दबाने के प्रयत्न में ही खर्च हो गई।

मेवाड़ का उत्थान

पंद्रहवीं शताब्दी में मेवाड़ का उत्थान उत्तर भारत की राजनीति में एक महत्त्वपूर्ण घटक सिद्ध हुआ। अलाउद्दीन ख़िलज़ी के द्वारा रणथंभौर की विजय से राजपूताना में चौहानों की शक्ति समाप्त हो गई। उसके अवशेषों से अनेक नयी रियासतों का उदय हुआ। मारवाड़ रियासत, जिसकी राजधानी 1465 ई. में निर्मित जोधपुर थी, उनमें से एक थी। अन्य महत्त्वपूर्ण रियासत मुस्लिम रियासत नागौर थी। अजमेर, जो शक्तिशाली मुस्लिम गवर्नरों का केन्द्र रहा था, पर अलग-अलग समय पर अलग-अलग लोगों का अधिकार रहा। उभरती हुई राजपूत रियासतों के बीच अजमेर संघर्ष का कारण बना। पूर्वी राजपूताना पर प्रभुत्व को लेकर भी संघर्ष था, क्योंकि दिल्ली के शासकों की इस क्षेत्र में बहुत रुचि थी।

मेवाड़ के प्रारम्भिक इतिहास की ज्यादा जानकारी उपलब्ध नहीं है। यद्यपि इसका उदय आठवीं शताब्दी से ही हो गया था, किन्तु इसे शक्तिशाली बनाने वाला व्यक्ति राणा कुम्भा (1433-1468) ही था। अपने आंतरिक प्रतिद्वन्द्वियों पर सावधानी से विजय प्राप्त करके अपनी स्थिती मज़बूत कर ली। इसके बाद कुम्भा ने अपना ध्यान गुजरात की सीमा से लगे बूंदी, कोटा और डंगरपुर को जीतने की ओर लगाया। चूंकि उससे पहले कोटा, मालवा का करद था और डंगरपुर गुजरात का, इसलिए उसकी गतिविधियों के कारण इन दोनों राज्यों से उसकी शत्रुता हो गई। इस शत्रुता के अन्य कारण भी थे। नागौर के ख़ान ने भी अपने ऊपर राणा कुम्भा के आक्रमण के समय गुजरात के सुल्तान से सहायता की प्रार्थना की थी। राणा ने महमूद ख़िलजी के एक विरोधी को अपने दरबार में शरण दी थी और उसे मालवा की गद्दी पर बैठाने का प्रयास भी किया। बदला लेने के लिए महमूद ख़िलजी ने भी राज्य के कई विरोधियों को शरण देकर उन्हें सक्रिय सहायत दी थी। इनमें से राजा का भाई मोकल भी था। गुजरात और मालवा के साथ संघर्ष में राजा अपने पूरे राज्यकाल में लिप्त रहा। इस दौराण राणा को मारवाड़ के राठौरों से भी संघर्ष करना पड़ा। मारवाड़, मेवाड़ के अधीन था। लेकिन जल्दी ही राव जोधा के नेतृत्व में सफल संघर्ष के बाद वह स्वतंत्र हो गया था।

राणा कुम्भा की उपलब्धि

यद्यपि राणा कुम्भा पर चारों ओर से दबाव था, लेकिन वह मेवाड़ में अपनी स्थिति बनाए रखने में सफल रहा। गुजरात की फ़ौजों ने कुम्भलगढ़ पर दो बार घेरा डाला। महमूद ख़िलजी अजमेर तक पहुँचने में सफल हुआ और उसने वहाँ अपना गवर्नर नियुक्त कर दिया। राणा भी इन आक्रमणों को विफल करने और रणथंभौर जैसे दूर-दराज़ स्थित कुछ क्षेत्रों के अतिरिक्त पहले से जीते अधिकांश क्षेत्रों को अपने अधिकार में बनाये रखने में सफल रहा। विपरीत परिस्थितियाँ होते हुए भी राणा द्वारा दो बड़ी शक्तियों को रोके रखना कुछ कम उपलब्धि नहीं थी। कुम्भा विद्वानों का आदर करता था। वह स्वयं भी विद्वान् था। उसने कई पुस्तकें लिखी थीं। जिसमें से कुछ अब भी पढ़ी जा सकती हैं। उसके महल और चित्तौड़ में बनवाया गया 'विजय स्तम्भ' के खण्डहर इस बात के प्रमाण हैं कि वह उत्साही भवन निर्माता भी था। उसने सिचाई के लिए अनेक झीलें और तालाब खुदवाये। उसके शासन काल में बने कुछ मन्दिर इस बात के गवाह हैं कि उस समय भी पत्थर काटने और स्थापत्य कला का स्तर काफ़ी ऊँचा था।

राणा सांगा का प्रभुत्व

कुम्भा के पुत्र ऊदा ने गद्दी हथियाने के लिये उसकी हत्या कर दी। यद्यपि ऊदा को भी शीघ्र ही अपदस्थ कर दिया गया, लेकिन उसने अपने पीछे ग़लत परम्परा छोड़ी। राणा कुम्भा का पोता राणा सांगा अपने भाइयों के साथ लम्बे दलगत संघर्ष के बाद 1508 में मेवाड़ की गद्दी पर बैठा। कुम्भा की हत्या और सांगा के उदय के मध्य की सबसे महत्त्वपूर्ण घटना मालवा का तेज़ी से हुआ विघटन थी। वहाँ के शासक महमूद द्वितीय का पूर्वी मालवा के शक्तिशाली राजपूत सरदार मेदिनी राय के साथ झगड़ा हो गया था। मेदिनी राय ने ही मालवा की गद्दी पर अधिकार के लिए उसकी सहायता की थी। मालवा के शासक ने गुजरात से सहायता की प्रार्थना की, जबकि मेदिनी राय राणा सांगा के दरबार में पहुँचा। राणा सांगा ने 1517 की लड़ाई में महमूद द्वितीय को हरा दिया और बंदी बनाकर उसे चित्तौड़ ले आया। लेकिन छह महीने के बाद ही उसके एक पुत्र को बंधक रूप में रखकर उसे मुक्त कर दिया गया। चंदेरी सहित पूर्वी मालवा पर राणा सांगा का प्रभुत्व मान लिया गया।

मालवा की घटनाओं ने दिल्ली के लोदी सुल्तानों को चिंतित कर दिया। वे बहुत सतर्कता से स्थिति का अध्ययन कर रहे थे। इब्राहीम लोदी ने 1518 में मेवाड़ पर आक्रमण कर दिया। लेकिन घटोली की लड़ाई में उसकी बुरी तरह से पराजय हुई। इब्राहीम लोदी अपनी आंतरिक स्थिति को मज़बूत करने के लिए लौट गया। इसी बीच बाबर भी भारत के दरवाज़े खटखटा रहा था। इस प्रकार 1525 के आसपास भारत की राजनीतिक स्थिति में तेज़ी से परिवर्तन हो रहा था। और इस क्षेत्र में प्रभुत्व के लिए एक निर्णायक संघर्ष अवश्यंभावी हो गया।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. एक और मत के अनुसार उसे बेगड़ा इसलिए कहा जाता था, क्योंकि उसकी मूछें गाय (बेगड़ा) के सींगों के समान थीं।

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