गुरुवायुर मंदिर

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गुरुवायुर मंदिर केरल में स्थित है, जो भगवान श्रीकृष्ण को समर्पित है। यह एक प्राचीन मंदिर है, जो अनेक शताब्दियों से सभी को अपनी ओर आकर्षित करता रहा है। केरल में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण यह भगवान 'गुरुवायुरप्पन का मंदिर है, जो बाल गोपाल श्रीकृष्ण भगवान का बालरूप हैं। मंदिर मे स्थापित प्रतिमा मूर्तिकला का एक बेजोड़ नमूना है। यह कहा जाता है कि इस प्रतिमा को भगवान विष्णु ने ब्रह्माजी को सौंप दिया था। कई धर्मों को मानने वाले लोग भी भगवान गुरूवायूरप्पन के परम भक्त रहे हैं।

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प्रसिद्धि

यह मंदिर दो प्रमुख साहित्यिक कृतियों के लिए भी प्रसिद्ध है, जिनमें मेल्पथूर नारायण भट्टाथिरी द्वारा निर्मित 'नारायणीयम' और पून्थानम द्वारा रचित 'ज्नानाप्पना'। ये दोनो कृतियाँ भगवान गुरुवायुरप्प्न को समर्पित हैं। इन लेखों में भगवान के स्वरूप आधार पर चर्चा कि गई है तथा भगवान के अवतारों को दर्शाया गया है। नारायणीयम जो संस्कृत भाषा में रचित है, उसमें विष्णु के दस अवतारों का उल्लेख किया गाया है। और ज्नानाप्पना जो की मलयालम में रचित है, उसमें जीवन के कटु सत्यों का अवलोकन किया गया है एवं जीवन में किन बातों को अपनाना मानव लिए श्रेष्ठ है व नहीं है, इन सब बातों को गहराई के साथ उल्लेखित किया गया है। इन रचनाओं का निर्माण करने वाले लेखक भगवान गुरुवायुरप्पन के परम भक्त थे।[1]

पौराणिक संदर्भ

मंदिर के बारे में धार्मिक अभिलेखों द्वारा इसकी महत्ता का वर्णन मिलता है, जिसमें से एक कथानुसार भगवान कृष्ण ने मूर्ति की द्वारका में स्थापना की थी। एक बार जब द्वारका में भयंकर बाढ़ आयी तो यह मूर्ति बह गई और बृहस्पति को भगवान कृष्ण की यह तैरती हुई मूर्ति मिली। उन्होंने वायु की सहायता द्वारा इस मूर्ति को बचा लिया और प्रतिमा को उचित स्थान पर स्थापित करने के लिए पृथ्वी पर एक उचित स्थान की खोज आरम्भ कर दी। इसी समय वे केरल पहुँचे, जहाँ उन्हें भगवान शिव व माता पार्वती के दर्शन हुए। शिव ने कहा की यही स्थल सबसे उपयुक्त है, अत: यहीं पर मूर्ति की स्थापना की जानी चाहिए। तब गुरू एवं वायु ने मूर्ति का अभिषेक कर उसकी स्थापना की और भगवान ने उन्हें वरदान दिया कि प्रतिमा की स्थापना गुरू एवं वायु के द्वारा होने के कारण इस स्थान को 'गुरूवायुर' के नाम से ही जाना जाएगा। तब से यह पवित्र स्थल इसी नाम से प्रसिद्ध है।

एक अन्य मान्यता के अनुसार इस मंदिर का निर्माण स्वंय विश्वकर्मा द्वारा किया गया था और मंदिर का निर्माण इस प्रकार हुआ कि सूर्य की प्रथम किरणें सीधे भगवान गुरूवायुर के चरणों पर गिरें।

महत्त्व

मंदिर में स्थापित प्रतिमा बहुत ही मनोहर है। भगवान कृष्ण को यहाँ पर 'उन्निकृष्णन', 'कन्नन' और 'बालकृष्णन' आदि नामों से जाना जाता है। गुरुवायुर मंदिर को 'बैकुंठद्वार' व 'दक्षिण की द्वारका' भी कहा जाता है। यह प्रसिद्ध तीर्थ स्थल श्रद्धालुओं के लिए मोक्ष का द्वार है। यहाँ पर आकर लोग अपने पापों से मुक्ति पाते हैं। माना जाता है कि एक बार जब श्रीकृष्ण के सखा उद्धव प्रभु के स्वर्गारोहण समय के बारे में सोचकर दु:खी हुए और विचार मे पड़ गए की कलयुग के समय जब भगवान नहीं होंगे, तब संसार का अंधकार कौन दूर करेगा। इस पर भगवान ने उन्हें समझाते हुए कहा की वह स्वंय प्रतिमा में विराजमान रहेंगे और जो भी इस मूर्ति का दर्शन करेगा उसे दु:खों से मुक्ति प्राप्त होगी व पापों का नाश होगा। अत: माना जाता है कि यहाँ पर आने से समस्त मनोकामनाएँ पूर्ण होती हैं।[1]

उत्सव तथा पूजा

मंदिर में स्थापित भगवान की मूर्ति की विशेष पूजा-अराधना का विधान है। यहाँ गर्भगृह में विराजित भगवान की मूर्ति को आदिशंकराचार्य द्वारा निर्देशित विधि-विधान द्वारा ही पूजा जाता है। मंदिर में वैदिक परंपरा का निर्धारण होता है। गुरुवायुर की पूजा के पश्चात मम्मियुर शिव की अराधना का विशेष महत्व है। इनकी पूजा किए बिना भगवान गुरुवायुर की पूजा को संपूर्ण नहीं माना जाता है। मंदिर अपने उत्सवों के लिए भी विख्यात है। शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि का ख़ास महत्त्व है। इस समय यहाँ पर उत्सव का आयोजन किया जाता है। साथ ही विलक्कु एकादशी का पर्व भी मनाया जाता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 गुरुवायुर (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 12 दिसम्बर, 2012।

बाहरी कड़ियाँ

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