गोवर्धन परिक्रमा

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गोवर्धन परिक्रमा का हिन्दू धर्म में बड़ा ही महत्त्व है। हिन्दुओं का पसिद्ध तीर्थस्‍थल गोवर्धन मथुरा से 26 कि.मी. पश्चिम में डीग हाईवे पर स्थित है। कहा जाता है कि यहाँ के कण-कण में भगवान श्रीकृष्ण का वास है। यहाँ एक प्रसिद्ध पर्वत है, जिसे 'गोवर्धन पर्वत' अथवा 'गिरिराज' कहा जाता है। यह पर्वत छोटे-छोटे बालू पत्थरों से बना हुआ है। इस पर्वत की लंबाई 8 कि.मी. है। हिन्दू धर्म में मान्‍यता है कि इसकी परिक्रमा करने से मांगी गई सभी मुरादें पूरी हो जाती हैं। यह आस्‍था की अनोखी मि‍साल है। इसीलि‍ए ति‍ल-ति‍ल घटते इस पहाड़ की लोग लोट-लोट कर परि‍क्रमा पूरी करते हैं। हर दिन सैकड़ों श्रद्धालु अपनी मनोकामनाओं को लेकर गोवर्धन आते हैं और 21 कि‍लोमीटर के फेरे लगाते हैं। श्रद्धाभाव का आलम यह है कि‍ साल भर श्रद्धालुओं की भीड़ लगी रहती है। लोग सर्दी, गर्मी और बरसात की परवाह कि‍ए बि‍ना ही 365 दि‍न यहां श्रद्धा-सुमन अर्पि‍त करते हैं।

पौराणिक कथा

भगवान कृष्ण के पिता नंद महाराज ने एक बार अपने भाई उपनंद से पूछा कि- "गोवर्धन पर्वत वृंदावन की पवित्र धरती पर कैसे आया?" तब उपनंद ने कहा कि- "पांडवों के पिता पांडु ने भी यही प्रश्‍न अपने दादा भीष्म पितामह से पूछा था। इस प्रश्‍न के उत्तर में भीष्‍म पितामह ने जो कथा सुनाई वह इस प्रकार है-

एक दिन गोलोक वृंदावन में भगवान श्रीकृष्ण ने राधारानी से कहा कि- "जब हम ब्रजभूमि पर जन्म लेंगे, तब हम वहां पर अनेक लीलायें रचायेंगे। तब हमारे द्वारा रचाई गई लीला धरतीवासियों की स्मृतियों में हमेशा रहेगी। पर समय परिवर्तन के साथ यह सब चीजें ऐसी नहीं रह पायेंगी और नष्ट हो जायेंगी। परन्तु गोवर्धन पर्वत और [यमुना नदी]] धरती के अन्त तक रहेंगी। यह सब कथा सुनकर राधारानी प्रसन्न हो गईं।

अन्य पौराणिक कथानुसार

गोवर्धन पर्वत के संबंध में कई कथाएं प्रचलित हैं। एक अन्य कथा के अनुसार- प्राचीन काल में पर्वतराज ओरोंकल की पत्‍नी सलमनी द्वीप ने गोर्वधन नाम के पुत्र को जन्म दिया। गोर्वधन के जन्म के समय आसमान से सभी देवी-देवताओं ने फूलों की वर्षा की और अप्सराओं ने नृत्य किया। सभी ने मंगल गान और बधाई गीत गाये। सभी ने उसे गोलोक वृंदावन के मस्तिष्‍क पर अवतरित हुआ अनमोल रत्न कहा। कुछ समय पश्‍चात सतयुग के प्रारंभ में परमज्ञानी पुलत्स्य मुनि ने सलमनी द्वीप का भ्रमण किया। उन्होंने वहां पर गोवर्धन पर्वत को देखा, जो कि विसर्पी पौधे, फूल, नदियों, गुफ़ाओं और चू-चू करते हुए पक्षियों के कारण अति सुंदर लग रहा था। उसे देखकर उनके मन में कपट आ गया। वह ओरोंकल से मिलने के लिए आए, ओरोंकल ने उनका सम्मान किया और अपने आप को उनकी सेवा में सर्मपित कर दिया। पुलस्त्य मुनि ने ओरोंकल से कहा कि वह कली से आये हैं, जो कि एक पवित्र तीर्थ स्थल है। यह गंगा के किनारे पर स्थित है। परन्तु वहां पर कोइ भी सुंदर पर्वत नहीं है। फिर उन्होंने कहा- "राजन तुम गोर्वधन को मुझे दे दो।" यह सुनने के बाद ओरोंकल ने मुनि से प्रार्थना की कि- "मान्यवर! यह ना मांगे। इसके बदले कुछ भी मांग लें, मैं दे दूंगा।" मुनि ने कहा- "राजन! तुम हमारी आज्ञा का उल्लंघन कर रहे हो।"

मुनि की यह बात सुनकर राजा रोने लगे। राजा गोवर्धन से अपनी जुदाई को सहन नहीं कर पा रहे थे। यह सब बातें गोवर्धन सुन रहे थे। उन्होंने कहा- "महर्षि! आप मुझे कैसे कली तक लेकर जाएंगे।" मुनि ने कहा- "मैं तुम्हें अपने दायें हाथ पर रख कर लेकर जाऊंगा।" गोवर्धन ने कहा- "मुनिराज मैं आपके साथ चलूंगा, परन्तु एक शर्त है।" गोवर्धन ने कहा कि- "आप मुझे ले जाते समय जहां भी रख देंगे, मैं वहीं पर स्थिर हो जाऊंगा। उससे आगे नहीं जाऊंगा।" मुनि गोवर्धन की शर्त मान गये। मुनि ने गोवर्धन को अपने दायें हाथ पर रख लिया और कली के लिये चल दिये। जब वह ब्रज की ओर से गुजरे, गोर्वधन को अनुभव हुआ कि जरूर यह कोई पवित्र स्थल है। उनके मन में विचार आया कि वह यहीं रूक जायें। परन्तु वह अपने वचन के कारण विवश थे। तभी पुलस्त्य मुनि के अन्दर एक प्राकृतिक अनुभव आया और वह ध्यान मुद्रा में जाने लगे। इसके लिए उन्हें गोवर्धन को अपने हाथ से उतारना पड़ा। फिर क्या था, गोवर्धन वहीं पर स्थिर हो गये। जब मुनि ने अपनी साधना समाप्त की और वह गोवर्धन को अपने साथ ले जाने लगे, तब गोवर्धन ने अपनी शर्त याद दिलाई और कहा- "मुनिराज आप अपने वचनानुसार मुझे और आगे नहीं ले जा सकते।" यह वचन सुनकर मुनि क्रोधित हो गये और गोवर्धन को श्राप दिया और कहा- "तुम प्रतिदिन एक तिल नीचे घरती में धसते चले जाओगे।" इसी श्राप के कारण गोवर्धन एक-एक तिल नीचे धसते चले जा रहे हैं। जब सतयुग में गोवर्धन धरती पर आये, वे आठ योजन लम्बे, पांच योजन चौड़े और दो योजन ऊँचे थे। उनको मिले श्राप के कारण कहा जाता है कि कलयुग के 10 हज़ार वर्ष पूरे हो जाने पर गोवर्धन पूरी तरह से धरती में समाहित हो जायेंगे।

एक अन्‍य पौराणिक कथा भी गोवर्धन के बारे में प्रचलित है। इसके अनुसार गोवर्धन को त्रेता युग का माना जाता है। रावण से सीता को छुड़ाने के लिए राम को लंका पर चढ़ाई करना आवश्यक था। इसके लिए विशाल समुद्र को पार करने के लिए उन्‍हें सेतु की आवश्यकता पड़ी। सेतु बनाने के लिये उन्‍होंने अपनी वानर सेना को पत्थरों की खोज में भेजा। हनुमान पत्थर लेने के लिए हिमालय पर गये और वहां से गोवर्धन पर्वत को अपने साथ लाने लगे। तभी उन्हें सूचना मिली कि सेतु निर्माण का कार्य पूरा हो चूका है। उस समय हनुमान ब्रज से गुजर रहे थे, उन्होंने गोवर्धन को वहीं पर छोड़ दिया। तब गोवर्धन पर्वत ने हनुमान से कहा कि- "भगवन मुझसे क्या गलती हो गई, जो आप मुझे नहीं ले जा रहे हैं।" यह कह कर गोवर्धन रोने लगे। तभी हनुमान ने भगवान राम का ध्यान किया और यह सब कथा विस्तार से कही। फिर उत्तर में भगवान राम ने कहा कि गोवर्धन से कहो कि जब हम द्वापर युग में कृष्ण के रूप में अवतार लेंगे तो सात दिन और सात रातों तक उसे अपनी अंगुली पर धारण करेंगे। तभी से गोवर्धन की पूजा मेरे रूप में होने लगेगी। यह वचन सुनकर गोवर्धन खुश हो गये और प्रभु की महिमा का गुणगान करने लगे।


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