"गीता 18:58": अवतरणों में अंतर

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इस प्रकार भगवान् <balloon link="अर्जुन" title="महाभारत के मुख्य पात्र है। पाण्डु एवं कुन्ती के वह तीसरे पुत्र थे । अर्जुन सबसे अच्छा धनुर्धर था। वो द्रोणाचार्य का शिष्य था। द्रौपदी को स्वयंवर मे जीतने वाला वो ही था।
इस प्रकार भगवान् <balloon link="अर्जुन" title="महाभारत के मुख्य पात्र है। पाण्डु एवं कुन्ती के वह तीसरे पुत्र थे । अर्जुन सबसे अच्छा धनुर्धर था। वो द्रोणाचार्य का शिष्य था। द्रौपदी को स्वयंवर में जीतने वाला वो ही था।
¤¤¤ आगे पढ़ने के लिए लिंक पर ही क्लिक करें ¤¤¤">अर्जुन</balloon> को भक्ति प्रधान कर्मयोगी बनने की आज्ञा देकर अब उस आज्ञा के पालन करने का फल बतलाते हुए उसे न मानने में बहुत बड़ी हानि दिखलाते हैं-  
¤¤¤ आगे पढ़ने के लिए लिंक पर ही क्लिक करें ¤¤¤">अर्जुन</balloon> को भक्ति प्रधान कर्मयोगी बनने की आज्ञा देकर अब उस आज्ञा के पालन करने का फल बतलाते हुए उसे न मानने में बहुत बड़ी हानि दिखलाते हैं-  
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07:47, 20 फ़रवरी 2011 का अवतरण

गीता अध्याय-18 श्लोक-58 / Gita Chapter-18 Verse-58

प्रसंग-


इस प्रकार भगवान् <balloon link="अर्जुन" title="महाभारत के मुख्य पात्र है। पाण्डु एवं कुन्ती के वह तीसरे पुत्र थे । अर्जुन सबसे अच्छा धनुर्धर था। वो द्रोणाचार्य का शिष्य था। द्रौपदी को स्वयंवर में जीतने वाला वो ही था। ¤¤¤ आगे पढ़ने के लिए लिंक पर ही क्लिक करें ¤¤¤">अर्जुन</balloon> को भक्ति प्रधान कर्मयोगी बनने की आज्ञा देकर अब उस आज्ञा के पालन करने का फल बतलाते हुए उसे न मानने में बहुत बड़ी हानि दिखलाते हैं-


मच्चित: सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि ।
अथ चेत्तवमहंकारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि ।।58।



उपर्युक्त प्रकार से मुझमें चित्तवाला होकर तू मेरी कृपा से समस्त संकटों को अनायास ही पार कर जायेगा और यदि अहंकार के कारण मेरे वचनों को न सुनेगा तो नष्ट हो जायेगा अर्थात् परमार्थ से भ्रष्ट हो जायेगा ।।58।।

With your mind thus given to Me, you shall tide over all difficulties by My grace. And if, from egotism, you will not listen, you will be lost.(58)


त्वम् = तूं ; मच्चित्त: = मेरे में निरन्तर मनवाला हुआ ; मत्प्रसादात् = मेरी कृपासे (अनायास ही); तरिष्यसि = तर जायगा ; अथ = और ; चेत् = यदि ; अहंकारात् = अहंकार के कारण (मेरे वचनों को) ; सर्वदुर्गाणि = जन्म मृत्यु आदि सब संकटों को ; न = नहीं ; श्रोष्यसि = सुनेगा (तो) ; विनड्क्ष्यसि = नष्ट हो जायगा अर्थात् परमार्थ से भ्रष्ट हो जायगा



अध्याय अठारह श्लोक संख्या
Verses- Chapter-18

1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20 | 21 | 22 | 23 | 24 | 25 | 26 | 27 | 28 | 29 | 30 | 31 | 32 | 33 | 34 | 35 | 36, 37 | 38 | 39 | 40 | 41 | 42 | 43 | 44 | 45 | 46 | 47 | 48 | 49 | 50 | 51, 52, 53 | 54 | 55 | 56 | 57 | 58 | 59 | 60 | 61 | 62 | 63 | 64 | 65 | 66 | 67 | 68 | 69 | 70 | 71 | 72 | 73 | 74 | 75 | 76 | 77 | 78

अध्याय / Chapter:
एक (1) | दो (2) | तीन (3) | चार (4) | पाँच (5) | छ: (6) | सात (7) | आठ (8) | नौ (9) | दस (10) | ग्यारह (11) | बारह (12) | तेरह (13) | चौदह (14) | पन्द्रह (15) | सोलह (16) | सत्रह (17) | अठारह (18)