ग़बन उपन्यास भाग-49

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जालपा ने छूटते ही कहा, ‘ज़ोहरा –‘ ऐसा मत कहो मैं ख़िदमत नहीं कर रही हूं, अपने पापों का प्रायश्चित्ता कर रही हूं। मैं बहुत दुद्यखी हूं। मुझसे बडी अभागिनी संसार में न होगी।’

मैंने अनजान बनकर कहा, ‘इसका मतलब मैं नहीं समझी।’

जालपा ने सामने ताकते हुए कहा, ‘कभी समझ जाओगी। मेरा प्रायश्चित्त इस जन्म में न पूरा होगा। इसके लिए मुझे कई जन्म लेने पड़ेंगे।’ ‘मैंने कहा,तुम तो मुझे चक्कर में डाले देती हो, बहन! मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा है। जब तक तुम इसे समझा न दोगी, मैं तुम्हारा गला न छोडूंगी।’ जालपा ने एक लंबी सांस लेकर कहा, ‘ज़ोहरा –‘ किसी बात को ख़ुद छिपाए रहना इससे ज़्यादा आसान है कि दूसरों पर वह बोझ रक्खूं।’ मैंने आर्त कंठ से कहा, ‘हां, पहली मुलाकात में अगर आपको मुझ पर इतना एतबार न हो, तो मैं आपको इलज़ाम न दूंगी, मगर कभी न कभी आपको मुझ पर एतबार करना पड़ेगा। मैं आपको छोडूंगी नहीं।’

कुछ दूर तक हम दोनों चुपचाप चलती रहीं, एकाएक जालपा ने कांपती हुई आवाज़ में कहा, ‘ज़ोहरा –‘ अगर इस वक्त तुम्हें मालूम हो जाय कि मैं कौन हूं, तो शायद तुम नफरत से मुंह उधर लोगी और मेरे साए से भी दूर भागोगी।’

इन लर्जिेंशों में न मालूम क्या जादू था कि मेरे सारे रोएं खड़े हो गए। यह एक रंज और शर्म से भरे हुए दिल की आवाज़ थी और इसने मेरी स्याह ज़िंदगी की सूरत मेरे सामने खड़ी कर दी। मेरी आंखों में आंसू भर आए। ऐसा जी में आया कि अपना सारा स्वांग खोल दूं। न जाने उनके सामने मेरा दिल क्यों ऐसा हो गया था। मैंने बड़े-बडे काइएं और छंटे हुए शोहदों और पुलिस-अफसरों को चपर-गट्टू बनाया है, पर उनके सामने मैं जैसे भीगी बिल्ली बनी हुई थी। फिर मैंने जाने कैसे अपने को संभाल लिया। मैं बोली तो मेरा गला भी भरा हुआ था, ‘यह तुम्हारा ख़याल फलत है देवी!’

‘शायद तब मैं तुम्हारे पैरों पर फिर पड़ूंगी। अपनी या अपनों की बुराइयों पर शर्मिन्दा होना सच्चे दिलों का काम है।’

जालपा ने कहा, ‘लेकिन तुम मेरा हाल जानकर करोगी क्या बस, इतना ही समझ लो कि एक ग़रीब अभागिन औरत हूं, जिसे अपने ही जैसे अभागे और ग़रीब आदमियों के साथ मिलने-जुलने में आनंद आता है।’

‘इसी तरह वह बार-बार टालती रही, लेकिन मैंने पीछा न छोडा, आख़िर उसके मुंह से बात निकाल ही ली।’

रमा ने कहा, ‘यह नहीं, सब कुछ कहना पड़ेगा।’

ज़ोहरा—‘अब आधी रात तक की कथा कहां तक सुनाऊं। घंटों लग जाएंगे। जब मैं बहुत पीछे पड़ी, तो उन्होंने आख़िर में कहा,मैं उसी मुखबिर की बदनसीब औरत हूं, जिसने इन कैदियों पर यह आगत ढाई है। यह कहते-कहते वह रो पड़ीं। फिर ज़रा आवाज़ को संभालकर बोलीं,हम लोग इलाहाबाद के रहने वाले हैं। एक ऐसी बात हुई कि इन्हें वहां से भागना पड़ा। किसी से कुछ कहा न सुना, भाग आए। कई महीनों में पता चला कि वह यहां हैं।’

रमा ने कहा, ‘इसका भी क़िस्सा है। तुमसे बताऊंगा कभी, जालपा के सिवा और किसी को यह न सूझती।

ज़ोहरा बोली,’यह सब मैंने दूसरे दिन जान लिया। अब मैं तुम्हारे रगरग से वाकिफ हो गई। जालपा मेरी सहेली है। शायद ही अपनी कोई बात उन्होंने मुझसे छिपाई हो कहने लगीं,ज़ोहरा –‘ मैं बडी मुसीबत में फंसी हुई हूं। एक तरफ तो एक आदमी की जान और कई ख़ानदानों की तबाही है, दूसरी तरफ अपनी तबाही है। मैं चाहूं, तो आज इन सबों की जान बचा सकती हूं। मैं अदालत को ऐसा सबूत दे सकती हूं कि फिर मुखबिर की शहादत की कोई हैसियत ही न रह जायगी, पर मुखबिर को सज़ा से नहीं बचा सकती। बहन, इस दुविधा में मैं पड़ी नरक का कष्ट झेल रही हूं। न यही होता है कि इन लोगों को मरने दूं, और न यही हो सकता है कि रमा को आग में झोंक दूं। यह कहकर वह रो पड़ीं और बोलीं, बहन, मैं खुद मर जाऊंगी, पर उनका अनिष्ट मुझसे न होगा। न्याय पर उन्हें भेंट नहीं कर सकती। अभी देखती हूं, क्या फैसला होता है। नहीं कह

सकती, उस वक्त मैं क्या कर बैठूं। शायद वहीं हाईकोर्ट में सारा क़िस्सा कह सुनाऊं, शायद उसी दिन ज़हर खाकर सो रहूं।‘

इतने में देवीदीन का घर आ गया। हम दोनों विदा हुई। जालपा ने मुझसे बहुत इसरार किया कि कल इसी वक्त ग़िर आना। दिन?भर तो उन्हें बात करने की फुरसत नहीं रहती। बस वही शाम को मौक़ा मिलता था। वह इतने रुपये जमा कर देना चाहती हैं कि कम-से-कम दिनेश के घर वालों को कोई तकलीफ न हो दो सौ रुपये से ज़्यादा जमा कर चुकी हैं। मैंने भी पांच रुपये दिए। मैंने दो-एक बार ज़िक्र किया कि आप इन झगड़ों में न पडिए, अपने घर चली जाइए,

लेकिन मैं साफ-साफ कहती हूं, मैंने कभी ज़ोर देकर यह बात न कही। जबजब मैंने इसका इशारा किया, उन्होंने ऐसा मुंह बनाया, गोया वह यह बात सुनना भी नहीं चाहतीं। मेरे मुंह से पूरी बात कभी न निकलने पाई। एक बात है, ‘कहो तो कहूं?’

रमा ने मानो ऊपरी मन से कहा, ‘क्या बात है?’

ज़ोहरा—‘डिप्टी साहब से कह दूं, वह जालपा को इलाहाबाद पहुंचा दें। उन्हें कोई तकलीफ न होगी। बस दो औरतें उन्हें स्टेशन तक बातों में लगा ले जाएंगी। वहां गाड़ी तैयार मिलेगी, वह उसमें बैठा दी जाएंगी, या कोई और तदबीर सोचो।’

रमा ने ज़ोहरा की आंखों से आंख मिलाकर कहा, ‘क्या यह मुनासिब होगा?’

ज़ोहरा ने शरमाकर कहा, ‘मुनासिब तो न होगा।’

रमा ने चटपट जूते पहन लिए और ज़ोहरा से पूछा, ‘देवीदीन के ही घर पर रहती है न?’

ज़ोहरा उठ खड़ी हुई और उसके सामने आकर बोली, ‘तो क्या इस वक्त जाओगे?’

रमानाथ—‘हां ज़ोहरा –‘ इसी वक्त चला जाऊंगा। बस, उनसे दो बातें करके उस तरफ चला जाऊंगा जहां मुझे अब से बहुत पहले चला जाना चाहिए था।’ ज़ोहरा—‘मगर कुछ सोच तो लो, नतीजा क्या होगा।’

रमानाथ—‘सब सोच चुका, ज़्यादा-से ज़्यादा तीन?चार साल की कैद दरोगबयानी के जुर्म में, बस अब रूख़सत, भूल मत जाना ज़ोहरा –‘ शायद फिर कभी मुलाकात हो!’

रमा बरामदे से उतरकर सहन में आया और एक क्षण में फाटक के बाहर था। दरबान ने कहा, ‘हुज़ूर ने दारोग़ाजी को इत्तला कर दी है?’

रमनाथ—‘इसकी कोई ज़रूरत नहीं।’

चौकीदार—‘मैं ज़रा उनसे पूछ लूं। मेरी रोज़ी क्यों ले रहे हैं, हुज़ूर?’

रमा ने कोई जवाब न दिया। तेज़ी से सड़क पर चल खडा हुआ। ज़ोहरा निस्पंद खड़ी उसे हसरत-भरी आंखों से देख रही थी। रमा के प्रति ऐसा प्यार, ऐसा विकल करने वाला प्यार उसे कभी न हुआ था। जैसे कोई वीरबाला अपने प्रियतम को समरभूमि की ओर जाते देखकर गर्व से फली न समाती हो चौकीदार ने लपककर दारोग़ा से कहा। वह बेचारे खाना खाकर लेटे ही थे। घबराकर निकले, रमा के पीछे दौड़े और पुकारा, ‘बाबू साहब, ज़रा सुनिए तो, एक मिनट रूक जाइए, इससे क्या फ़ायदा,कुछ मालूम तो हो, आप कहां जा रहे हैं?आख़िर बेचारे एक बार ठोकर खाकर गिर पड़े। रमा ने लौटकर उन्हें उठाया और पूछा, ‘कहीं चोट तो नहीं आई?’

दारोग़ा –‘कोई बात न थी, ज़रा ठोकर खा गया था। आख़िर आप इस वक्त कहां जा रहे हैं?सोचिए तो इसका नतीज़ा क्या होगा?’

रमानाथ—‘मैं एक घंटे में लौट आऊंगा। जालपा को शायद मुख़ालिफों ने बहकाया है कि हाईकोर्ट में एक अर्जी दे दे। ज़रा उसे जाकर समझाऊंगा।’

दारोग़ा –‘यह आपको कैसे मालूम हुआ?’

रमानाथ—‘ज़ोहरा कहीं सुन आई है।’

दारोग़ा –‘बडी बेवफा औरत है। ऐसी औरत का तो सिर काट लेना चाहिए।’

रमानाथ—‘इसीलिए तो जा रहा हूं। या तो इसी वक्त उसे स्टेशन पर भेजकर आऊंगा, या इस बुरी तरह पेश आऊंगा कि वह भी याद करेगी। ज़्यादा बातचीत का मौक़ा नहीं है। रात-भर के लिए मुझे इस कैद से आज़ाद कर दीजिए। ’

दारोग़ा –‘मैं भी चलता हूं, ज़रा ठहर जाइए।’

रमानाथ—‘जी नहीं, बिलकुल मामला बिगड़ जाएगा। मैं अभी आता हूं।’

दारोग़ा लाजवाब हो गए। एक मिनट तक खड़े सोचते रहे, फिर लौट पड़े और ज़ोहरा से बातें करते हुए पुलिस स्टेशन की तरफ चले गए। उधर रमा ने आगे बढ़कर एक तांगा किया और देवीदीन के घर जा पहुंचा। जालपा दिनेश के घर से लौटी थी और बैठी जग्गो और देवीदीन से बातें कर रही थी। वह इन दिनों एक ही वक्त ख़ाना खाया करती थी। इतने में रमा ने नीचे से आवाज़ दी। देवीदीन उसकी आवाज़ पहचान गया। बोला, ‘भैया हैं सायत।’

जालपा—‘कह दो, यहां क्या करने आए हैं। वहीं जायं।’

देवीदीन—‘नहीं बेटी, ज़रा पूछ तो लूं, क्या कहते हैं। इस बख़त कैसे उन्हें छुटटी मिली?’

जालपा—‘मुझे समझाने आए होंगे और क्या! मगर मुंह धो रक्खें।’

देवीदीन ने द्वार खोल दिया। रमा ने अंदर आकर कहा, ‘दादा, तुम मुझे यहां देखकर इस वक्त ताज्जुब कर रहे होगे। एक घंटे की छुटटी लेकर आया हूं। तुम लोगों से अपने बहुत से अपराधों को क्षमा कराना था। जालपा ऊपर हैं?’ देवीदीन बोला, ‘हां, हैं तो। अभी आई हैं, बैठो, कुछ खाने को लाऊं!’

रमानाथ—‘नहीं, मैं खाना खा चुका हूं। बस, जालपा से दो बातें करना चाहता हूं।’

देवीदीन—‘वह मानेंगी नहीं, नाहक शमिऊदा होना पड़ेगा। मानने वाली औरत नहीं है।’ रमानाथ—‘मुझसे दो-दो बातें करेंगी या मेरी सूरत ही नहीं देखना चाहतीं?ज़रा जाकर पूछ लो।’

देवीदीन—‘इसमें पूछना क्या है, दोनों बैठी तो हैं, जाओ। तुम्हारा घर जैसे तब था वैसे अब भी है।’

रमानाथ—‘नहीं दादा, उनसे पूछ लो। मैं यों न जाऊंगा।’

देवीदीन ने ऊपर जाकर कहा,’तुमसे कुछ कहना चाहते हैं, बहू!’

जालपा मुंह लटकाकर बोली,’तो कहते क्यों नहीं, मैंने कुछ ज़बान बंद कर दी है? जालपा ने यह बात इतने ज़ोर से कही थी कि नीचे रमा ने भी सुन ली। कितनी निर्ममता थी! उसकी सारी मिलन-लालसा मानो उड़ गई। नीचे ही से खड़े-खड़े बोला, ‘वह अगर मुझसे नहीं बोलना चाहतीं, तो कोई जबरदस्ती नहीं। मैंने जज साहब से सारा कच्चा चिटठा कह सुनाने का निश्चय कर लिया है। इसी इरादे से इस वक्त चला हूं। मेरी वजह से इनको इतने कष्ट हुए, इसका मुझे खेद है। मेरी अक्ल पर परदा पडाहुआ था। स्वार्थ ने मुझे अंधा कर रक्खा था। प्राणों के मोह ने, कष्टों के भय ने बुद्धि हर ली थी। कोई ग्रह सिर पर सवार था। इनके अनुष्ठानों ने उस ग्रह को शांत कर दिया। शायद दो-चार साल के लिए सरकार की मेहमानी खानी पड़े। इसका भय नहीं। जीता रहा तो फिर भेंट होगी। नहीं मेरी बुराइयों को माफ करना और मुझे भूल जाना। तुम भी देवी दादा और दादी, मेरे अपराध क्षमा करना। तुम लोगों ने मेरे ऊपर जो दया की है, वह मरते दम तक न भूलूंगा। अगर जीता लौटा, तो शायद तुम लोगों की कुछ सेवा कर सकूं। मेरी तो ज़िंदगी सत्यानाश हो गई। न दीन का हुआ न दुनिया का। यह भी कह देना कि उनके गहने मैंने ही चुराए थे। सर्राफ को देने के लिए रुपये न थे। गहने लौटाना ज़रूरी था, इसीलिए वह कुकर्म करना पड़ा। उसी का फल आज तक भोग रहा हूं और शायद जब तक प्राण न निकल जाएंगे, भोगता रहूंगा। अगर उसी वक्त सगाई से सारी कथा कह दी होती, तो चाहे उस वक्त इन्हें

बुरा लगता, लेकिन यह विपत्ति सिर पर न आती। तुम्हें भी मैंने धोखा दिया था। दादा, मैं ब्राह्मण नहीं हूं, कायस्थ हूं, तुम जैसे देवता से मैंने कपट किया। न जाने इसका क्या दंड मिलेगा। सब कुछ क्षमा करना। बस, यही कहने आया था।’

रमा बरामदे के नीचे उतर पडाऔर तेज़ी से क़दम उठाता हुआ चल दिया। जालपा भी कोठे से उतरी, लेकिन नीचे आई तो रमा का पता न था। बरामदे के नीचे उतरकर देवीदीन से बोली, ‘किधर गए हैं दादा?’ देवीदीन ने कहा, ‘मैंने कुछ नहीं देखा, बहू! मेरी आँखें आंसू से भरी हुई थीं। वह अब न मिलेंगे। दौड़ते हुए गए थे। ’

जालपा कई मिनट तक सड़क पर निस्पंद-सी खड़ी रही। उन्हें कैसे रोक लूं! इस वक्त वह कितने दुखी हैं, कितने निराश हैं! मेरे सिर पर न जाने क्या शैतान सवार था कि उन्हें बुला न लिया। भविष्य का हाल कौन जानता है। न जाने कब भेंट होगी। विवाहित जीवन के इन दो-ढाई सालों में कभी उसका हृदय अनुराग से इतना प्रकंपित न हुआ था। विलासिनी रूप में वह केवल प्रेम

आवरण के दर्शन कर सकती थी। आज त्यागिनी बनकर उसने उसका असली रूप देखा, कितना मनोहर, कितना विशु', कितना विशाल, कितना तेजोमय। विलासिनी ने प्रेमोद्यान की दीवारों को देखा था, वह उसी में खुश थी। त्यागिनी बनकर वह उस उद्यान के भीतर पहुंच गई थी,कितना रम्य दृश्य था, कितनी सुगंध, कितना वैचित्र्य, कितना विकास, इसकी सुगंध में, इसकी रम्यता का देवत्व भरा हुआ था। प्रेम अपने उच्चतर स्थान पर पहुंचकर देवत्व से मिल जाता है। जालपा को अब कोई शंका नहीं है, इस प्रेम को पाकर वह जन्म-जन्मांतरों तक सौभाग्यवती बनी रहेगी। इस प्रेम ने उसे वियोग, परिस्थिति और मृत्यु के भय से मुक्त कर दिया,उसे अभय प्रदान कर दिया। इस प्रेम के सामने अब सारा संसार और उसका अखंड वैभव तुच्छ है।

इतने में ज़ोहरा आ गई। जालपा को पटरी पर खड़े देखकर बोली,’वहां कैसे खड़ी हो, बहन, आज तो मैं न आ सकी। चलो, आज मुझे तुमसे बहुत - सी बातें करनी हैं।’

दोनों ऊपर चली गई।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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