ग़बन उपन्यास भाग-31

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उसी दिन शव काशी लाया गया। यहीं उसकी दाह-क्रिया हुई। वकील साहब के एक भतीजे मालवे में रहते थे। उन्हें तार देकर बुला लिया गया। दाह-क्रिया उन्होंने की। रतन को चिता के दृश्य की कल्पना ही से रोमांच होता था। वहां पहुंचकर शायद वह बेहोश हो जाती। जालपा आजकल प्रायद्य सारे दिन उसी के साथ रहती। शोकातुर रतन को न घर-बार की सुधि थी, न खाने-पीने की। नित्य ही कोई-न-कोई ऐसी बात याद आ जाती जिस पर वह घंटों रोती। पति के साथ उसका जो धर्म था, उसके एक अंश का भी उसने पालन किया होता, तो उसे बोध होता। अपनी कर्तव्यहीनता, अपनी निष्ठुरता, अपनी श्रृंगार-लोलुपता की चर्चा करके वह इतना रोती कि हिचकियां बंध जातीं। वकील साहब के सदगुणों की चर्चा करके ही वह अपनी आत्मा को शांति देती थी। जब तक जीवन के द्वार पर एक रक्षक बैठा हुआ था, उसे कुत्तों या बिल्ली या चोर-चकार की चिंता न थी, लेकिन अब द्वार पर कोई रक्षक न था, इसलिए वह सजग रहती थी,पति का गुणगान किया करती। जीवन का निर्वाह कैसे होगा, नौकरों-चाकरों में किन-किन को जवाब देना होगा, घर का कौन-कौनसा ख़र्च कम करना होगा, इन प्रश्नों के विषय में दोनों में कोई बात न होती। मानो यह चिंता म!त आत्मा के प्रति अभक्ति होगी। भोजन करना, साफ़ वस्त्र पहनना और मन को कुछ पढ़कर बहलाना भी उसे अनुचित जान पड़ता था। श्राद्ध के दिन उसने अपने सारे वस्त्र और आभूषण महापात्र को दान कर दिए। इन्हें लेकर अब वह क्या करेगी? इनका व्यवहार करके क्या वह अपने जीवन को कलंकित करेगी! इसके विरुद्ध पति की छोटी से छोटी वस्तु को भी स्मृतिचिह्न समझकर वह देखती – भालती रहती थी। उसका स्वभाव इतना कोमल हो गया था कि कितनी ही बडी हानि हो जाय, उसे क्रोध न आता था। टीमल के हाथ से चाय का सेट छूटकर फिर पडा, पर रतन के माथे पर बल तक न आया। पहले एक दवात टूट जाने पर इसी टीमल को उसने बुरी डांट बताई थी, निकाले देती थी, पर आज उससे कई गुने नुकसान पर उसने ज़बान तक न खोली। कठोर भाव उसके हृदय में आते हुए मानो डरते थे कि कहीं आघात न पहुंचे या शायद पति-शोक और पति-गुणगान के सिवा और किसी भाव या विचार को मन में लाना वह पाप समझती थी। वकील साहब के भतीजे का नाम था मणिभूषणब बडा ही मिलनसार, हंसमुख, कार्य-कुशलब इसी एक महीने में उसने अपने सैकड़ों मित्र बना लिए।

शहर में जिन-जिन वकीलों और रईसों से वकील साहब का परिचय था, उन सबसे उसने ऐसा मेल-जोल बढ़ाया, ऐसी बेतकल्लुफी पैदा की कि रतन को ख़बर नहीं और उसने बैंक का लेन-देन अपने नाम से शुरू कर दिया। इलाहाबाद बैंक में वकील साहब के बीस हज़ार रुपये जमा थे। उस पर तो उसने कब्ज़ा कर ही लिया, मकानों के किराए भी वसूल करने लगा। गांवों की तहसील भी ख़ुद ही शुरू कर दी, मानो रतन से कोई मतलब नहीं है। एक दिन टीमल ने आकर रतन से कहा, ‘बहूजी, जाने वाला तो चला गया, अब घर-द्वार की भी कुछ ख़बर लीजिए। मैंने सुना, भैयाजी ने बैंक का सब रुपया अपने नाम करा लिया।’

रतन ने उसकी ओर ऐसे कठोर कुपित नजरों से देखा कि उसे फिर कुछ कहने की हिम्मत न पड़ी। उस दिन शाम को मणिभूषण ने टीमल को निकाल दिया,चोरी का इलज़ाम लगाकर निकाला जिससे रतन कुछ कह भी न सके। अब केवल महराज रह गए। उन्हें मणिभूषण ने भंग पिला-पिलाकर ऐसा मिलाया कि वह उन्हीं का दम भरने लगे। महरी से कहते, बाबूजी का बडा रईसाना मिज़ाज है। कोई सौदा लाओ, कभी नहीं पूछते, कितने का लाए। बड़ों के घर में बडे ही होते हैं। बहूजी बाल की खाल निकाला करती थीं, यह बेचारे कुछ नहीं बोलते। महरी का मुंह पहले ही सी दिया गया था। उसके अधेड़ यौवन ने नए मालिक की रसिकता को चंचल कर दिया था। वह एक न एक बहाने से बाहर की बैठक में ही मंडलाया करती। रतन को ज़रा भी ख़बर न थी, किस तरह उसके लिए व्यूह रचा जा रहा है।

एक दिन मणिभूषण ने रतन से कहा, ‘काकीजी, अब तो मुझे यहां रहना व्यर्थ मालूम होता है। मैं सोचता हूं, अब आपको लेकर घर चला जाऊं। वहां आपकी बहू आपकी सेवा करेगी, बाल-बच्चों में आपका जी बहल जायगा और ख़र्च भी कम हो जाएगा। आप कहें तो यह बंगला बेच दिया जाय। अच्छे दाम मिल जायंगे।’

रतन इस तरह चौंकी, मानो उसकी मूर्च्छा भंग हो गई हो, मानो किसी ने उसे झंझोड़कर जगा दिया हो सकपकाई हुई आंखों से उसकी ओर देखकर बोली, ‘क्या मुझसे कुछ कह रहे हो?’

मणिभूषण—‘जी हां, कह रहा था कि अब हम लोगों का यहां रहना व्यर्थ है। आपको लेकर चला जाऊं, तो कैसा हो?’

रतन ने उदासीनता से कहा, ‘हां, अच्छा तो होगा।’

मणिभूषण—‘काकाजी ने कोई वसीयतनामा लिखा हो, तो लाइए देखूं, उनको इच्छाओं के आगे सिर झुकाना हमारा धर्म है।’

रतन ने उसी भांति आकाश पर बैठे हुए, जैसे संसार की बातों से अब उसे कोई सरोकार ही न रहा हो, जवाब दिया, ‘वसीयत तो नहीं लिखी, और क्या ज़रूरत थी?’

मणिभूषण ने फिर पूछा, ‘शायद कहीं लिखकर रख गए हों?’

रतन—‘मुझे तो कुछ मालूम नहीं। कभी ज़िक्र नहीं किया।’

मणिभूषण ने मन में प्रसन्न होकर कहा,मेरी इच्छा है कि उनकी कोई यादगार बनवा दी जाय।

रतन ने उत्सुकता से कहा, ‘हां-हां, मैं भी चाहती हूं।’

मणिभूषण—‘गांव की आमदनी कोई तीन हज़ार साल की है, यह आपको मालूम है। इतना ही उनका वार्षिक दान होता था। मैंने उनके हिसाब की किताब देखी है। दो सौ-ढाई सौ से किसी महीने में कम नहीं है। मेरी सलाह है कि वह सब ज्यों-का-त्यों बना रहे।’

रतन ने प्रसन्न होकर कहा, हां, और क्या! ’

मणिभूषण—‘तो गांव की आमदनी तो धार्मार्थ पर अर्पण कर दी जाए। मकानों का किराया कोई दो सौ रुपये महीना है। इससे उनके नाम पर एक छोटीसी संस्कृत पाठशाला खोल दी जाए।

रतन—‘बहुत अच्छा होगा।’

मणिभूषण—‘और यह बंगला बेच दिया जाए। इस रुपये को बैंक में रख दिया जाय।’

रतन—‘बहुत अच्छा होगा। मुझे रुपये-पैसे की अब क्या ज़रूरत है।’

मणिभूषण—‘आपकी सेवा के लिए तो हम सब हाज़िर हैं। मोटर भी अलग कर दी जाय। अभी से यह फ़िक्र की जाएगी, तब जाकर कहीं दो-तीन महीने में फुरसत मिलेगी।’

रतन ने लापरवाही से कहा, ‘अभी जल्दी क्या है। कुछ रुपये बैंक में तो हैं।’

मणिभूषण—‘बैंक में कुछ रुपये थे, मगर महीने-भर से ख़र्च भी तो होरहे हैं। हज़ार-पांच सौ पड़े होंगे। यहां तो रुपये जैसे हवा में उड़ जाते हैं। मुझसे तो इस शहर में एक महीना भी न रहा जाय। मोटर को तो जल्द ही निकाल देना चाहिए।’

रतन ने इसके जवाब में भी यही कह दिया, ‘अच्छा तो होगा।’

वह उस मानसिक दुर्बलता की दशा में थी, जब मनुष्य को छोटे-छोटे काम भी असूझ मालूम होने लगते हैं। मणिभूषण की कार्य-कुशलता ने एक प्रकार से उसे पराभूत कर दिया था। इस समय जो उसके साथ थोड़ी-सी भी सहानुभूति दिखा देता, उसी को वह अपना शुभचिंतक समझने लगती। शोक और मनस्ताप ने उसके मन को इतना कोमल और नर्म बना दिया था कि उस पर किसी की भी छाप पड़ सकती थी। उसकी सारी मलिनता और भिकैता मानो भस्म हो गई थी, वह सभी को अपना समझती थी। उसे किसी पर संदेह न था, किसी से शंका न थी। कदाचित उसके सामने कोई चोर भी उसकी संपत्ति का अपहरण करता तो वह शोर न मचाती।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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