ग़बन उपन्यास भाग-27

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कई दिनों के बाद एक दिन कोई आठ बजे रमा पुस्तकालय से लौट रहा था कि मार्ग में उसे कई युवक शतरंज के किसी नक्शे की बातचीत करते मिले। यह नक्शा वहां के एक हिंदी दैनिक पत्र में छपा था और उसे हल करने वाले को पचास रुपये इनाम देने का वचन दिया गया था। नक्शा असाकेय-सा जान पड़ता था। कम-सेकम इन युवकों की बातचीत से ऐसा ही टपकता था। यह भी मालूम हुआ कि वहां के और भी कितने ही शतरंजबाज़ों ने उसे हल करने के लिए भरपूर ज़ोर

लगाया, पर कुछ पेश न गई। अब रमा को याद आया कि पुस्तकालय में एक पत्र पर बहुत-से आदमी झुके हुए थे और उस नक्शे की नकल कर रहे थे। जो आता था, दो-चार मिनट तक वह पत्र देख लेता था। अब मालूम हुआ, यह बात थी। रमा का इनमें से किसी से भी परिचय न था, पर वह यह नक्शा देखने के लिए इतना उत्सुक हो रहा था कि उससे बिना पूछे न रहा गया। बोला,आप लोगों में किसी के पास वह नक्शा है?

युवकों ने एक कंबलपोश आदमी को नक्शे की बात पूछते सुना तो समझे कोई अताई होगा। एक ने रूखाई से कहा, ‘हां, है तो, मगर तुम देखकर क्या करोगे, यहां अच्छे-अच्छे गोते खा रहे हैं। एक महाशय, जो शतरंज में अपना सानी नहीं रखते, उसे हल करने के लिए सौ रुपये अपने पास से देने को तैयार हैं। ’ दूसरा युवक बोला, ‘दिखा क्यों नहीं देते जी, कौन जाने यही बेचारे हल कर लें, शायद इन्हीं की सूझ लड़ जाए।’ इस प्रेरणा में सज्जनता नहीं व्यंग्य था, उसमें यह भाव छिपा था कि हमें

दिखाने में कोई उज्र नहीं है, देखकर अपनी आंखों को त!प्त कर लो मगर तुम जैसे उल्लू उसे समझ ही नहीं सकते, हल क्या करेंगे। जान - पहचान की एक दुकान में जाकर उन्होंने रमा को नक्शा दिखाया।

रमा को तुरंत याद आ गया, यह नक्शा पहले भी कहीं देखा है। सोचने लगा, कहां देखा है?

एक युवक ने चुटकी ली, ‘आपने तो हल कर लिया होगा!’

दूसरा, ‘अभी नहीं किया तो एक क्षण में किए लेते हैं!’ तीसरा, ‘ज़रा दो-एक चाल बताइए तो?’

रमा ने उत्तेजित होकर कहा,यह मैं नहीं कहता कि मैं उसे हल कर ही लूंगा, मगर ऐसा नक्शा मैंने एक बार हल किया है, और संभव है, इसे भी हल कर लूं। ज़रा काग़ज़-पेंसिल दीजिए तो नकल कर लूं।‘

युवकों का अविश्वास कुछ कम हुआ। रमा को काग़ज़-पेंसिल मिल गया। एक क्षण में उसने नक्शा नकल कर लिया और युवकों को धन्यवाद देकर चला। एकाएक उसने फिरकर पूछा, ‘जवाब किसके पास भेजना होगा?’

एक युवक ने कहा,’प्रजा-मित्र’ के संपादक के पास।’

रमा ने घर पहुंचकर उस नक्शे पर दिमाग़ लगाना शुरू किया, लेकिन मुहरों की चालें सोचने की जगह वह यही सोच रहा था कि यह नक्शा कहां देखा। शायद याद आते ही उसे नक्शे का हल भी सूझ जायगा। अन्य प्राणियों की तरह मस्तिष्क भी कार्य में तत्पर न होकर बहाने खोजता है। कोई आधार मिल जाने से वह मानो छुट्टी पा जाता है। रमा आधी रात तक नक्शा सामने खोले बैठा रहा। शतरंज की जो बडी-बडी मार्के की बाजियां खेली थीं, उन सबका नक्शा उसे याद था, पर यह नक्शा कहां देखा?

सहसा उसकी आंखों के सामने बिजली-सी कौधं गई। खोई हुई स्मृति मिल गई। अहा! राजा साहब ने यह नक्शा दिया था। हां, ठीक है। लगातार तीन दिन दिमाग़ लडाने के बाद इसे उसने हल किया था। नक्शे की नकल भी कर लाया था। फिर तो उसे एक-एक चाल याद आ गई। एक क्षण में नक्शा हल हो गया! उसने उल्लास के नशे में ज़मीन पर दो-तीन कुलांचें लगाई, मूछों पर ताव दिया, आइने में मुंह देखा और चारपाई पर लेट गया। इस तरह अगर महीने में एक

नक्शा मिलता जाए, तो क्या पूछना!

देवीदीन अभी आग सुलगा रहा था कि रमा प्रसन्न मुख आकर बोला, ‘दादा, जानते हो ‘प्रजा-मित्र’ अख़बार का दफ़्तर कहां है?’

देवीदीन—‘ ‘जानता क्यों नहीं हूं। यहां कौन अख़बार है, जिसका पता मुझे न मालूम हो ‘प्रजा-मित्र’ का संपादक एक रंगीला युवक है, जो हरदम मुंह में पान भरे रहता है। मिलने जाओ, तो आंखों से बातें करता है, मगर है हिम्मत का धनी, दो बेर जेहल हो आया है।’

रमा—‘आज ज़रा वहां तक जाओगे?’

देवीदीन ने कातर भाव से कहा, ‘मुझे भेजकर क्या करोगे? मैं न जा सकूंगा। ’

‘क्या बहुत दूर है?’

‘नहीं, दूर नहीं है।’

‘फिर क्या बात है?’

देवीदीन ने अपराधियों के भाव से कहा, ‘बात कुछ नहीं है, बुढिया बिगड़ती है। उसे बचन दे चुका हूं कि सुदेसी-बिदेसी के झगड़े में न पड़ूंगा, न किसी अख़बार के दफ़्तर में जाऊंगा। उसका दिया खाता हूं, तो उसका हुकुम भी तो बजाना पड़ेगा।’

रमा ने मुस्कराकर कहा, ‘दादा, तुम तो दिल्लगी करते हो मेरा एक बडा ज़रूरी काम है। उसने शतरंज का एक नक्शा छापा था, जिस पर पचास रुपया इनाम है। मैंने वह नक्शा हल कर दिया है। आज छप जाय, तो मुझे यह इनाम मिल जाय। अख़बारों के दफ़्तर में अक्सर खुगिया पुलिस के आदमी आतेजाते रहते हैं। यही भय है। नहीं, मैं ख़ुद चला जाता, लेकिन तुम नहीं जा रहे

हो तो लाचार मुझे ही जाना पड़ेगा। बडी मेहनत से यह नक्शा हल किया है। सारी रात जागता रहा हूं।’

देवीदीन ने चिंतित स्वर में कहा, ‘तुम्हारा वहां जाना ठीक नहीं।’

रमा ने हैरान होकर पूछा, ‘तो फिर? क्या डाक से भेज दूं? ’

देवीदीन ने एक क्षण सोचकर कहा, ‘नहीं, डाक से क्या भेजोगे। इधर-उधर हो जाय, तो तुम्हारी मेहनत अकारथ जाय। रजिस्ट्री कराओ, तो कहीं परसों पहुंचेगा। कल इतवार है। किसी और ने जवाब भेज दिया, तो इनाम वह मार ले जायगा। यह भी तो हो सकता है कि अख़बार वाले धांधली कर बैठें और तुम्हारा जवाब अपने नाम से छापकर रुपया हजम कर लें।’

रमा ने दुबिधा में पड़कर कहा, ‘मैं ही चला जाऊंगा।’

‘तुम्हें मैं न जाने दूंगा। कहीं फंस जाओ तो बस!’

‘फंसंना तो एक दिन है ही। कब तक छिपा रहूंगा?’

‘तो मरने के पहले ही क्यों रोना-पीटना हो जब फंसोगे, तब देखी जाएगी। लाओ, मैं चला जाऊं। बुढिया से कोई बहाना कर दूंगा। अभी भेंट भी हो जाएगी। दफ़्तर ही में रहते भी हैं। फिर घूमने-घामने चल देंगे, तो दस बजे से पहले न लौटेंगे।’

रमा ने डरते-डरते कहा, ‘तो दस बजे बाद जाना, क्या हरज है।’

देवीदीन ने खड़े होकर कहा, ‘तब तक कोई दूसरा काम आ गया, तो आज रह जाएगा। घंटे-भर में लौट आता हूं। अभी बुढिया देर में आएगी।’यह कहते हुए देवीदीन ने अपना काला कंबल ओढ़ा, रमा से लिफाफा लिया और चल दिया।

जग्गो साग-भाजी और फल लेने मंडी गई हुई थी। आधा घंटे में सिर पर एक टोकरी रक्खे और एक बडा-सा टोकरा मजूर के सिर पर रखवाए आई। पसीने से तर थी। आते ही बोली, ‘कहां गए? ज़रा बोझा तो उतारो, गरदन टूट गई।’

रमा ने आगे बढ़कर टोकरी उतरवा ली। इतनी भारी थी कि संभाले न संभलती थी।

जग्गो ने पूछा, ‘वह कहां गए हैं?’

रमा ने बहाना किया, ‘मुझे तो नहीं मालूम, अभी इसी तरफ चले गए हैं।’

बुढिया ने मजूर के सिर का टोकरा उतरवाया और ज़मीन पर बैठकर एक टूटी-सी पंखिया झलती हुई बोली, ‘चरस की चाट लगी होगी और क्या, मैं मरमर कमाऊं और यह बैठे-बैठे मौज उडाएं और चरस पीएं।’

रमा जानता था, देवीदीन चरस पीता है, पर बुढिया को शांत करने के लिए बोला, ‘क्या चरस पीते हैं? मैंने तो नहीं देखा!’

बुढिया ने पीठ की साड़ी हटाकर उसे पंखी की डंडी से खुजाते हुए कहा, ‘इनसे कौन नसा छूटा है, चरस यह पीएं, गांजा यह पीएं, सराब इन्हें चाहिए,भांग इन्हें चाहिए, हां अभी तक अगीम नहीं खाई, या राम जाने खाते हों, मैं कौन हरदम देखती रहती हूं। मैं तो सोचती हूं कौन जाने आगे क्या हो, हाथ में चार पैसे होंगे, तो पराए भी अपने हो जाएंगे, पर इस भले आदमी को रत्ती-

भर चिंता नहीं सताती। कभी तीरथ है, कभी कुछ, कभी कुछ, मेरा तो;नाक पर उंगली रखकरध्द नाक में दम आ गया। भगवान उठा ले जाते तो यह कुसंग तो छूट जाती। तब याद करेंगे लाला! तब जग्गो कहां मिलेगी, जो कमा-कमाकर गुलछर्रे उडाने को दिया करेगी। तब रक्त के आंसू न रोएं, तो कह देना कोई कहता था। (मजूर से) ‘कै पैसे हुए तेरे?’

मजूर ने बीड़ी जलाते हुए कहा, ‘बोझा देख लो दाई, गरदन टूट गई!’

जग्गो ने निर्दय भाव से कहा, ‘हां-हां, गरदन टूट गई! बडी सुकुमार है न? यह ले, कल फिर चले आना।’

मजूर ने कहा, ‘यह तो बहुत कम है। मेरा पेट न भरेगा।’

जग्गो ने दो पैसे और थोड़े से आलू देकर उसे विदा किया और दुकान सजाने लगी। सहसा उसे हिसाब की याद आ गई। रमा से बोली, ‘भैया, ज़रा आज का खरचा तो टांक दो। बाज़ार में जैसे आग लग गई है।’बुढिया छबडियों में चीज़ें लगा-लगाकर रखती जाती थी और हिसाब भी लिखाती जाती थी। आलू, टमाटर, कद्दू, केले, पालक, सेम, संतरे, गोभी, सब चीज़ों का तौल और दर उसे याद था। रमा से दोबारा पढ़वाकर उसने सुना तब उसे संतोष हुआ। इन सब कामों से छुट्टी पाकर उसने अपनी चिलम भरी और मोढ़े पर बैठकर पीने लगी, लेकिन उसके अंदाज़से मालूम होता था कि वह तंबाकू का रस लेने के लिए नहीं, दिल को जलाने के लिए पी रही है। एक क्षण के बाद बोली, ‘दूसरी औरत होती तो घड़ी-भर इसके साथ निबाह न होता, घड़ी- भर, पहर रात से चक्की में जुत जाती हूं और दस बजे रात तक दुकान पर बैठी सती होती रहती हूं। खाते-पीते बारह बजते हैं तब जाकर चार पैसे दिखाई देते हैं, और जो कुछ कमाती हूं, यह नसे में बरबाद कर देता है। सात कोठरी में छिपा के रक्खूं, पर इसकी निगाह पहुंच जाती है। निकाल लेता है। कभी एकाध चीज़-बस्त बनवा लेती हूं तो वह आंखों में गड़ने लगती है। तानों से छेदने लगता है। भाग में लड़कों का सुख भोगना नहीं बदा था, तो क्या करूं! छाती फाड़ के मर जाऊं? मांगे से मौत भी तो नहीं मिलती। सुख भोगना लिखा होता, तो जवान बेटे चल देते, और इस पियक्कड़ के हाथों मेरी यह सांसत होती! इसी ने सुदेसी के झगड़े में पड़कर मेरे लालों की जान ली। आओ, इस कोठरी में भैया, तुम्हें मुग्दर की जोड़ी दिखाऊं। दोनों इस जोड़ी से पांच-पांच सौ हाथ उधरते थे।‘

अंधेरी कोठरी में जाकर रमा ने मुग्दर की जोड़ी देखी। उस पर वार्निश थी, साफ-सुथरी मानो अभी किसी ने उधरकर रख दिया हो बुढिया ने सगर्व नजरों से देखकर कहा,लोग कहते थे कि यह जोड़ी महा ब्राह्मन को दे दे, तुझे देख-देख कलक होगा। मैंने कहा,यह जोड़ी मेरे लालों की जुफल जोड़ी है। यही मेरे दोनों लाल हैं। बुढिया के प्रति आज रमा के हृदय में असीम श्रद्धा जाग्रत हुई। कितना पावन धैर्य है, कितनी विशाल वत्सलता, जिसने लकड़ी के इन दो टुकड़ों को जीवन प्रदान कर दिया है। रमा ने जग्गो को माया और लोभ में डूबी हुई, पैसे पर जान देने वाली, कोमल भावों से सर्वथा विहीन समझ रक्खा था। आज उसे विदित हुआ कि उसका हृदय कितना स्नेहमय, कितना कोमल, कितना मनस्वी है। बुढिया ने उसके मुंह की ओर देखा, तो न जाने क्यों उसका मात!-हृदय उसे गले लगाने के लिए अधीर हो उठा। दोनों के हृदय प्रेम के सूत्र में बंध गए। एक ओर पुत्र-स्नेह था, दूसरी ओर मातृ-भक्ति। वह मालिन्य जो अब तक गुप्त भाव से दोनों को पृथक् किए हुए था, आज एकाएक दूर हो गया। बुढिया ने कहा, ‘मुंह-हाथ धो लिया है न बेटा, बडे मीठे संतरे लाई हूं, एक लेकर चखो तो।’

रमा ने संतरा खाते हुए कहा, ‘आज से मैं तुम्हें अम्मां कहा करूंगा।’

बुढिया के शुष्क, ज्योतिहीन, ठंडे, कृपण नजरों से मोती के-से दो बिंदु निकल पड़े।

इतने में देवीदीन दबे पांव आकर खडाहो गया। बुढिया ने तड़पकर पूछा,यह इतने सबेरे किधर सवारी गई थी सरकार की?’

देवी ने सरलता से मुस्कराकर कहा, ‘कहीं नहीं, ज़रा एक काम से चला गया था।’

‘क्या काम था, ज़रा मैं भी तो सुनूं, या मेरे सुनने लायक़ नहीं है?’

‘पेट में दरद था, ज़रा वैदजी के पास चूरन लेने गया था।’

‘झूठे हो तुम, उड़ो उससे जो तुम्हें जानता न हो चरस की टोह में गए थे तुम।’

‘नहीं, तेरे चरन छूकर कहता हूं। तू झूठ-मूठ मुझे बदनाम करती है।’

‘तो फिर कहां गए थे तुम?’

‘बता तो दिया। रात खाना दो कौर ज़्यादा खा गया था, सो पेट फूल गया,और मीठा-मीठा---’

‘झूठ है, बिलकुल झूठ! तुम चाहे झूठ बोलो, तुम्हारा मुंह साफ़ कहे देता है, यह बहाना है, चरस, गांजा, इसी टोह में गए थे तुम। मैं एक न मानूंगी। तुम्हें इस बुढ़ापे में नसे की सूझती है, यहां मेरी मरन हुई जाती है। सबेरे के गए-गए नौ बजे लौटे हैं, जानो यहां कोई इनकी लौंडी है।’

देवीदीन ने एक झाड़ू लेकर दुकान में झाड़ू लगाना शुरू किया, पर बुढिया ने उसके हाथ से झाडू छीन लिया और पूछा,तुम अब तक थे कहां? जब तक यह न बताओगे, भीतर घुसने न दूंगी।

देवीदीन ने सिटपिटाकर कहा, ‘क्या करोगी पूछकर, एक अख़बार के दफ़्तर में तो गया था। जो चाहे कर ले।’

बुढिया ने माथा ठोंककर कहा, ‘तुमने फिर वही लत पकड़ी? तुमने कान न पकडाथा कि अब कभी अख़बारों के नगीच न जाऊंगा। बोलो, यही मुंह था कि कोई और!’

‘तू बात तो समझती नहीं, बस बिगड़ने लगती है।'

‘ख़ूब समझती हूं। अख़बार वाले दंगा मचाते हैं और ग़रीबों को जेहल ले जाते हैं। आज बीस साल से देख रही हूं। वहां जो आता-जाता है, पकड़ लिया जाता है। तलासी तो आए दिन हुआ करती है। क्या बुढ़ापे में जेहल की रोटियां तोड़ोगे?’

देवीदीन ने एक लिफाफा रमानाथ को देकर कहा, ‘यह रुपये हैं भैया, गिन लो। देख, यह रुपये वसूल करने गया था। जी न मानता हो, तो आधे ले ले!’

बुढिया ने आँखें गाड़कर कहा, ‘अच्छा! तो तुम अपने साथ इस बेचारे को भी डुबाना चाहते हो तुम्हारे रुपये में आग लगा दूंगी। तुम रुपये मत लेना, भैया! जान से हाथ धोओगे। अब सेंतमेंत आदमी नहीं मिलते, तो सब लालच दिखाकर लोगों को फंसाते हैं। बाज़ार में पहरा दिलावेंगे, अदालत में गवाही करावेंगे! फेंक दो उसके रुपये, जितने रुपये चाहो, मुझसे ले जाओ।’

जब रमानाथ ने सारा वृत्तांत कहा, तो बुढिया का चित्त शांत हुआ। तनी हुई भवें ढीली पड़ गई, कठोर मुद्रा नर्म हो गई। मेघ-पट को हटाकर नीला आकाश हंस पड़ा। विनोद करके बोली, ‘इसमें से मेरे लिए क्या लाओगे, बेटा?’

रमा ने लिफाफा उसके सामने रखकर कहा, ‘तुम्हारे तो सभी हैं, अम्मां! मैं रुपये लेकर क्या करूंगा?’

‘घर क्यों नहीं भेज देते। इतने दिन आए हो गए, कुछ भेजा नहीं।’

‘मेरा घर यही है, अम्मां! कोई दूसरा घर नहीं है।’

बुढिया का मातृत्व वंचित हृदय गद्गद हो उठा। इस मात!-भक्ति के लिए कितने दिनों से उसकी आत्मा तड़प रही थी। इस कृपण हृदय में जितना प्रेम संचित हो रहा था, वह सब माता के स्तन में एकत्र होने वाले दूध की भांति बाहर निकलने के लिए आतुर हो गया। उसने नोटों को गिनकर कहा, ‘पचास हैं, बेटा! पचास मुझसे और ले लो। चाय का पतीला रखा हुआ है। चाय की दुकान खोल दो। यहीं एक तरफ चारपांच मोढ़े और मेज़ रख लेना। दो-दो घंटे सांझ-सवेरे बैठ जाओगे तो गुज़र भर को मिल जायगा। हमारे जितने गाहक आवेंगे, उनमें से कितने ही चाय भी पी लेंगे।’

देवीदीन बोला, ‘तब चरस के पैसे मैं इस दुकान से लिया करूंगा!’

बुढिया ने विहंसित और पुलकित नजरों से देखकर कहा, ‘कौड़ी-कौड़ी का हिसाब लूंगी। इस उधर में न रहना।’

रमा अपने कमरे में गया, तो उसका मन बहुत प्रसन्न था। आज उसे कुछ वही आनंद मिल रहा था, जो अपने घर भी कभी न मिला था। घर पर जो स्नेह मिलता था, वह उसे मिलना ही चाहिए था। यहां जो स्नेह मिला, वह मानो आकाश से टपका था। उसने स्नान किया, माथे पर तिलक लगाया और पूजा का स्वांग भरने बैठा कि बुढिया आकर बोली,बेटा, तुम्हें रसोई बनाने में बडी तकलीफ होती है। मैंने एक ब्राह्मनी ठीक कर दी है। बेचारी बडी ग़रीब है। तुम्हारा भोजन बना दिया करेगी। उसके हाथ का तो तुम खा लोगे, नेम-करम से रहती है बेटा,ऐसी बात नहीं है। मुझसे रुपये-पैसे उधार ले जाती है। इसी से राजी हो गई है।’

उन वृद्ध आंखों से प्रगाढ़, अखंड मात!त्व झलक रहा था, कितना विशुद्ध, पवित्र! ऊंच-नीच और जाति-मर्यादा का विचार आप ही आप मिट गया। बोला, ‘जब तुम मेरी माता हो गई तो फिर काहे का छूत-विचार! मैं तुम्हारे ही हाथ का खाऊंगा। ’

बुढिया ने जीभ दांतों से दबाकर कहा, ‘अरे नहीं बेटा! मैं तुम्हारा धरम न लूंगी, कहां तुम बराम्हन और कहां हम खटिक ऐसा कहीं हुआ है।’

‘मैं तो तुम्हारी रसोई में खाऊंगा। जब मां-बाप खटिक हैं, तो बेटा भी खटिक है। जिसकी आत्मा बडी हो वही ब्राह्मण है।’

‘और जो तुम्हारे घरवाले सुनें तो क्या कहें! ‘

‘मुझे किसी के कहने-सुनने की चिंता नहीं है, अम्मां! आदमी पाप से नीच होता है, खाने-पीने से नीच नहीं होता। प्रेम से जो भोजन मिलता है, वह पवित्र होता है। उसे तो देवता भी खाते हैं।’

बुढिया के हृदय में भी जाति-गौरव का भाव उदय हुआ। बोली, ‘बेटा, खटिक कोई नीच जात नहीं है। हम लोग बराम्हन के हाथ का भी नहीं खाते। कहार का पानी तक नहीं पीते। मांस-मछरी हाथ से नहीं छूते, कोई-कोई सराब पीते हैं, मुदा लुक-छिपकर। इसने किसी को नहीं छोडा, बेटा! बड़े-बडे तिलकधारी गटाफट पीते हैं। लेकिन मेरी रोटियां तुम्हें अच्छी नहीं लगेंगी?’

रमा ने मुस्कराकर कहा, ‘प्रेम की रोटियों में अम!त रहता है, अम्मां! चाहे गेहूं की हों या बाजरे की।’बुढिया यहां से चली तो मानो अंचल में आनंद की निधि भरे हो।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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