ग़बन उपन्यास भाग-34

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पुलिस स्टेशन के दफ़्तर में इस समय बडी मेज़ के सामने चार आदमी बैठे हुए थे। एक दारोग़ा थे, गोरे से, शौकीन, जिनकी बडी-बडी आंखों में कोमलता की झलक थी। उनकी बग़ल में नायब दारोग़ा थे। यह सिक्ख थे, बहुत हंसमुख, सजीवता के पुतले, गेहुंआं रंग, सुडौल, सुगठित शरीरब सिर पर केश था, हाथों में कड़ेऋ पर सिगार से परहेज न करते थे। मेज़ की दूसरी तरफ इंस्पेक्टर और डिप्टी सुपरिंटेंडेंट बैठे हुए थे। इंस्पेक्टर अधेड़, सांवला, लंबा आदमी था, कौड़ी

की-सी आँखें, फले हुए गाल और ठिगना कदब डिप्टी सुपरिटेंडेंट लंबा छरहरा जवान था, बहुत ही विचारशील और अल्पभाषीब इसकी लंबी नाक और ऊंचा मस्तक उसकी कुलीनता के साक्षी थे।

डिप्टी ने सिगार का एक कश लेकर कहा, ‘बाहरी गवाहों से काम नहीं चल सकेगा। इनमें से किसी को एप्रूवर बनना होगा। और कोई अल्टरनेटिव नहीं है।’

इंस्पेक्टर ने दारोग़ा की ओर देखकर कहा, ‘हम लोगों ने कोई बात उठा तो नहीं रक्खी, हलफ से कहता हूं। सभी तरह के लालच देकर हार गए। सबों ने ऐसी गुट कर रक्खी है कि कोई टूटता ही नहीं। हमने बाहर के गवाहों को भी आजमाया, पर सब कानों पर हाथ रखते हैं।’

डिप्टी, ‘उस मारवाड़ी को फिर आजमाना होगा। उसके बाप को बुलाकर खूब धमकाइए। शायद इसका कुछ दबाव पड़े।’

इंस्पेक्टर—‘हलफ से कहता हूं, आज सुबह से हम लोग यही कर रहे हैं। बेचारा बाप लङके के पैरों पर गिरा, पर लड़का किसी तरह राज़ी नहीं होता।’

कुछ देर तक चारों आदमी विचारों में मग्न बैठे रहे। अंत में डिप्टी ने निराशा के भाव से कहा,मुकदमा नहीं चल सकता मुफ़्त का बदनामी हुआ। इंस्पेक्टर,एक हर्तिे की मुहलत और लीजिए, शायद कोई टूट जाय। यह निश्चय करके दोनों आदमी यहां से रवाना हुए। छोटे दारोग़ा भी उसके साथ ही चले गए। दारोग़ाजी ने हुक़्क़ा मंगवाया कि सहसा एक मुसलमान सिपाही

ने आकर कहा, ‘दारोग़ाजी, लाइए कुछ इनाम दिलवाइए। एक मुलजिम को शुबहे पर गिरफ्तार किया है। इलाहाबाद का रहने वाला है, नाम है रमानाथ, पहले नाम और सयनत दोनों ग़लत बतलाई थीं। देवीदीन खटिक जो नुक्कड़ पर रहता है, उसी के घर ठहरा हुआ है। ज़रा डांट बताइएगा तो सब कुछ उगल देगा।’

दारोग़ा—‘वही है न जिसके दोनों लङके---ब’

सिपाही—‘जी हां, वही है।’

इतने में रमानाथ भी दारोग़ा के सामने हाज़िर किया गया। दारोग़ा ने उसे सिर से पांव तक देखा, मानो मन में उसका हुलिया मिला रहे हों। तब कठोर दृष्टि से देखकर बोले, ‘अच्छा, यह इलाहाबाद का रमानाथ है। खूब मिले भाई। छह महीने से परेशान कर रहे हो कैसा साफ़ हुलिया है कि अंधा भी पहचान ले। यहां कब से आए हो?’ कांस्टेबल ने रमा को परामर्श दिया, ‘सब हाल सच-सच कह दो, तो तुम्हारे साथ कोई सख्ती न की जाएगी। ’

रमा ने प्रसन्नचित्त बनने की चेष्टा करके कहा, ‘अब तो आपके हाथ में हूं, रियायत कीजिए या सख्ती कीजिए। इलाहाबाद की म्युनिसिपैलिटी में नौकर था। हिमाकत कहिए या बदनसीबी, चुंगी के चार सौ रुपये मुझसे ख़र्च हो गए। मैं वक्त पर रुपये जमा न कर सका। शर्म के मारे घर के आदमियों से कुछ न कहा, नहीं तो इतने रुपये इंतजाम हो जाना कोई मुश्किल न था। जब कुछ बस न चला, तो वहां से भागकर यहां चला आया। इसमें एक हर्फ भी ग़लत नहीं है।’

दारोग़ा ने गंभीर भाव से कहा, ‘मामला कुछ संगीन है,क्या कुछ शराब का चस्का पड़ गया था? ’

‘मुझसे कसम ले लीजिए, जो कभी शराब मुंह से लगाई हो।’

कांस्टेबल ने विनोद करके कहा,मुहब्बत के बाज़ार में लुट गए होंगे, हुज़ूर।’

रमा ने मुस्कराकर कहा, ‘मुझसे फाकेमस्तों का वहां कहां गुजर?’

दारोग़ा –‘तो क्या जुआ खेल डाला? या, बीवी के लिए जेवर बनवा डाले!’

रमा झेंपकर रह गया। अपराधी मुस्कराहट उसके मुख पर रो पड़ी। दारोग़ा—‘अच्छी बात है, तुम्हें भी यहां ख़ासे मोटे जेवर मिल जायंगे!’

एकाएक बूढ़ा देवीदीन आकर खडाहो गया। दारोग़ा ने कठोर स्वर में कहा, ‘क्या काम है यहां?’

देवीदीन—‘हुज़ूर को सलाम करने चला आया। इन बेचारों पर दया की नज़र रहे हुज़ूर, बेचारे बडे सीधे आदमी हैं।‘

दारोग़ा –‘बचा सरकारी मुलज़िम को घर में छिपाते हो, उस पर सिफारिश करने आए हो!’

देवीदीन—‘मैं क्या सिफारिस करूंगा हुज़ूर, दो कौड़ी का आदमी।’

दारोग़ा—‘जानता है, इन पर वारंट है, सरकारी रुपये ग़बन कर गए हैं।’

देवीदीन—‘हुज़ूर, भूल-चूक आदमी से ही तो होती है। जवानी की उम्र है ही, ख़र्च हो गए होंगे।

यह कहते हुए देवीदीन ने पांच गिन्नियां कमर से निकालकर मेज़ पर रख दीं।

दारोग़ा ने तड़पकर कहा, ‘यह क्या है?’

देवीदीन—‘कुछ नहीं है, हुज़ूर को पान खाने को।’

दारोग़ा –‘रिश्वत देना चाहता है! क्यों? कहो तो बचा, इसी इल्ज़ाम में भेज दूं।’

देवीदीन—‘भेज दीजिए सरकार। घरवाली लकड़ी-कफ़न की फिकर से छूट जाएगी। वहीं बैठा आपको दुआ दूंगा।‘

दारोग़ा –‘अबे इन्हें छुडाना है तो पचास गिन्नियां लाकर सामने रक्खो। जानते हो इनकी गिरफ्तारी पर पांच सौ रुपये का इनाम है!’

देवीदीन—‘आप लोगों के लिए इतना इनाम हुज़ूर क्या है। यह ग़रीब परदेसी आदमी हैं, जब तक जिएंगे आपको याद करेंगे।’

दारोग़ा –‘बक-बक मत कर, यहां धरम कमाने नहीं आया हूं।’

देवीदीन—‘बहुत तंग हूं हुज़ूर।दुकानदारी तो नाम की है।’

कांस्टेबल—‘बुढिया से मांग जाके।’ देवीदीन—‘कमाने वाला तो मैं ही हूं हुज़ूर, लड़कों का हाल जानते ही हो तन-पेट काटकर कुछ रुपये जमा कर रखे थे, सो अभी सातों-धाम किए चला आता हूं। बहुत तंग हो गया हूं।

दारोग़ा –‘तो अपनी गिन्नियां उठा ले। इसे बाहर निकाल दो जी।’

देवीदीन—‘आपका हुकुम है, तो लीजिए जाता हूं। धक्का क्यों दिलवाइएगा।’

दारोग़ा –‘कांस्टेबल सेध्द इन्हें हिरासत में रखो। मुंशी से कहो इनका बयान लिख लें।’

देवीदीन के होंठ आवेश से कांप रहे थे। उसके चेहरे पर इतनी व्यग्रता रमा ने कभी नहीं देखी, जैसे कोई चिडिया अपने घोंसले में कौवे को घुसते देखकर विह्नल हो गई हो वह एक मिनट तक थाने के द्वार पर खडारहा, फिर पीछे गिरा और एक सिपाही से कुछ कहा, तब लपका हुआ सड़क पर चला गया, मगर एक ही पल में फिर लौटा और दारोग़ा से बोला, ‘हुज़ूर, दो घंटे की मुहलत

न दीजिएगा?’

रमा अभी वहीं खडाथा। उसकी यह ममता देखकर रो पड़ा। बोला, ‘दादा, अब तुम हैरान न हो, मेरे भाग्य में जो कुछ लिखा है, वह होने दो। मेरे भी यहां होते, तो इससे ज़्यादा और क्या करते! मैं मरते दम तक तुम्हारा उपकार ---’

देवीदीन ने आँखें पोंछते हुए कहा, ‘कैसी बातें कर रहे हो, भैया! जब रुपये पर आई तो देवीदीन पीछे हटने वाला आदमी नहीं है। इतने रुपये तो एक-एक दिन जुए में हार-जीत गया हूं। अभी घर बेच दूं, तो दस हज़ार की मालियत है। क्या सिर पर लाद कर ले जाऊंगा। दारोग़ाजी, अभी भैया को हिरासत में न भेजो, मैं रुपये की गिकर करके थोड़ी देर में आता हूं।’

देवीदीन चला गया तो दारोग़ाजी ने सहृदयता से भरे स्वर में कहा, ‘है तो खुर्राट, मगर बडा नेक।तुमने इसे कौनसी बूटी सुंघा दी?’

रमा ने कहा, ‘गरीबों पर सभी को रहम आता है।’

दारोग़ा ने मुस्कराकर कहा, ‘पुलिस को छोड़कर, इतना और कहिए। मुझे तो यकीन नहीं कि पचास गिन्नियां लावे।’ रमानाथ—‘अगर लाए भी तो उससे इतना बडा तावान नहीं दिलाना चाहता। आप मुझे शौक़ से हिरासत में ले लें।’

दारोग़ा –‘मुझे पांच सौ के बदले साढ़े छह सौ मिल रहे हैं, क्यों छोड़ूं। तुम्हारी गिरफ्तारी का इनाम मेरे किसी दूसरे भाई को मिल जाय, तो क्या बुराई है। रमानाथ—‘जब मुझे चक्की पीसनी है, तो जितनी जल्द पीस लूं उतना ही अच्छा। मैंने समझा था, मैं पुलिस की नज़रों से बचकर रह सकता हूं। अब मालूम हुआ कि यह बेकली और आठों पहर पकड़ लिए जाने का ख़ौफ जेल से कम जानलेवा नहीं।’

दारोग़ाजी को एकाएक जैसे कोई भूली हुई बात याद आ गई। मेज़ के दराज़ से एक मिसल निकाली, उसके पन्ने इधर-उधर उल्टे, तब नम्रता से बोले,अगर मैं कोई ऐसी तरकीब बतलाऊं कि देवीदीन के रुपये भी बच जाएं और तुम्हारे ऊपर भी आंच न आए तो कैसा?’

रमा ने अविश्वास के भाव से कहा, ऐसी तरकीब कोई है, मुझे तो आशा नहीं।’

दारोग़ा—‘अभी साई के सौ खेल हैं। इसका इंतज़ाम मैं कर सकता हूं। आपको महज़ एक मुकदमे में शहादत देनी पड़ेगी?’

रमानाथ—‘झूठी शहादत होगी।’ दारोग़ा—‘नहीं, बिलकुल सच्ची। बस समझ लो कि आदमी बन जाओगे।म्युनिसिपैलिटी के पंजे से तो छूट जाओगे, शायद सरकार परवरिश भी करे। यों अगर चालान हो गया तो पांच साल से कम की सज़ा न होगी। मान लो, इस वक्त देवी तुम्हें बचा भी ले, तो बकरे की माँ कब तक ख़ैर मनाएगी। ज़िंदगी ख़राब हो जायगी। तुम अपना नफा-नुकसान ख़ुद समझ लो। मैं ज़बरदस्ती नहीं करता।’

दारोग़ाजी ने डकैती का वृत्तांत कह सुनाया। रमा ऐसे कई मुकदमे समाचारपत्रों में पढ़ चुका था। संशय के भाव से बोला, ‘तो मुझे मुख़बिर बनना पड़ेगा और यह कहना पड़ेगा कि मैं भी इन डकैतियों में शरीक था। यह तो झूठी शहादत हुई।’

दारोग़ा—‘मुआमला बिलकुल सच्चा है। आप बेगुनाहों को न फंसाएंगे। वही लोग जेल जाएंगे जिन्हें जाना चाहिए। फिर झूठ कहां रहा- डाकुओं के डर से यहां के लोग शहादत देने पर राज़ी नहीं होते। बस और कोई बात नहीं। यह मैं मानता हूं कि आपको कुछ झूठ बोलना पड़ेगा, लेकिन आपकी ज़िंदगी बनी जा रही है, इसके लिहाज़ से तो इतना झूठ कोई चीज़ नहीं। ख़ूब सोच लीजिए। शाम तक जवाब दीजिएगा।’

रमा के मन में बात बैठ गई। अगर एक बार झूठ बोलकर वह अपने पिछले कर्मों का प्रायश्चित्त कर सके और भविष्य भी सुधार ले, तो पूछना ही क्या जेल से तो बच जायगा। इसमें बहुत आगा-पीछा की ज़रूरत ही न थी। हां, इसका निश्चय हो जाना चाहिए कि उस पर फिर म्युनिसिपैलिटी अभियोग न चलाएगी और उसे कोई जगह अच्छी मिल जायगी। वह जानता था, पुलिस की ग़रज़ है और वह मेरी कोई वाजिब शर्त अस्वीकार न करेगी। इस तरह बोला, मानो उसकी आत्मा धर्म और अधर्म के संकट में पड़ी हुई है, ‘मुझे यही डर है कि कहीं मेरी

गवाही से बेगुनाह लोग न फंस जाएं।’ दारोग़ा –‘इसका मैं आपको इत्मीनान दिलाता हूं।’

रमानाथ—‘लेकिन कल को म्युनिसिपैलिटी मेरी गर्दन नापे तो मैं किसे पुकारूंगा?’

दारोग़ा –‘मजाल है, म्युनिसिपैलिटी चूं कर सके। गौजदारी के मुकदमे में मुददई तो सरकार ही होगी। जब सरकार आपको मुआफ कर देगी, तो मुकदमा कैसे चलाएगी। आपको तहरीरी मुआफीनामा दे दिया जायगा, साहब।’ रमानाथ—‘और नौकरी?’

दारोग़ा –‘वह सरकार आप इंतज़ाम करेगी। ऐसे आदमियों को सरकार ख़ुद अपना दोस्त बनाए रखना चाहती है। अगर आपकी शहादत बढिया हुई और उस फ्री की जिरहों के जाल से आप निकल गए, तो फिर आप पारस हो जाएंगे!’ दारोग़ा ने उसी वक्त मोटर मंगवाई और रमा को साथ लेकर डिप्टी साहब से मिलने चल दिए। इतनी बडी कारगुज़ारी दिखाने में विलम्ब क्यों करते?डिप्टी से एकांत में ख़ूब ज़ीट उडाई। इस आदमी का यों पता लगाया। इसकी सूरत

देखते ही भांप गया कि मगरूर है, बस गिरफ्तार ही तो कर लिया! बात सोलहों आने सच निकली। निगाह कहीं चूक सकती है! हुज़ूर, मुज़रिम की आँखें पहचानता हूं। इलाहाबाद की म्युनिसिपैलिटी के रुपये ग़बन करके भागा है। इस मामले में शहादत देने को तैयार है। आदमी पढ़ा-लिखा, सूरत का शरीफ़ और ज़हीन है।’

डिप्टी ने संदिग्ध भाव से कहा, ‘हां, आदमी तो होशियार मालूम होता है।’

‘मगर मुआफीनामा लिये बग़ैर इसे हमारा एतबार न होगा। कहीं इसे यह शुबहा हुआ कि हम लोग इसके साथ कोई चाल चल रहे हैं, तो साफ़ निकल जाएगा। ‘

डिप्टी—‘यह तो होगा ही। गवर्नमेंट से इसके बारे में बातचीत करना होगा। आप टेलीफोन मिलाकर इलाहाबाद पुलिस से पूछिए कि इस आदमी पर कैसा मुकदमा है। यह सब तो गवर्नमेंट को बताना होगा। दारोग़ाजी ने टेलीफोन डाइरेक्टरी देखी, नंबर मिलाया और बातचीत शुरू हुई।

डिप्टी—‘क्या बोला?’

दारोग़ा –‘कहता है, यहां इस नाम के किसी आदमी पर मुकदमा नहीं है।’

डिप्टी—‘यह कैसा है भाई, कुछ समझ में नहीं आता। इसने नाम तो नहीं बदल दिया?’

दारोग़ा –‘कहता है, म्युनिसिपैलिटी में किसी ने रुपये ग़बन नहीं किए। कोई मामला नहीं है।’

डिप्टी—‘ये तो बडा ताज्जुब का बात है। आदमी बोलता है हम रुपया लेकर भागा, निसिपैलिटी बोलता है कोई रुपया ग़बन नहीं किया। यह आदमी पागल तो नहीं है?’

दारोग़ा –‘मेरी समझ में कोई बात नहीं आती, अगर कह दें कि तुम्हारे ऊपर कोई इल्ज़ाम नहीं है, तो फिर उसकी गर्द भी न मिलेगी।’

‘अच्छा, म्युनिसिपैलिटी के दफ़्तर से पूछिए।’

दारोग़ा ने फिर नंबर मिलाया। सवाल-जवाब होने लगा।

दारोग़ा –‘आपके यहां रमानाथ कोई क्लर्क था?

जवाब, ‘जी हां, था।

दारोग़ा –‘वह कुछ रुपये ग़बन करके भागा है?

जवाब,’नहीं। वह घर से भागा है, पर ग़बन नहीं किया। क्या वह आपके यहां है?’

दारोग़ा –‘जी हां, हमने उसे गिरफ्तार किया है। वह ख़ुद कहता है कि मैंने रुपये ग़बन किए। बात क्या है?’

जवाब, ‘पुलिस तो लाल बुझक्कड़ है। ज़रा दिमाग़ लडाइए।’

दारोग़ा –‘यहां तो अक्ल काम नहीं करती।’

जवाब, ‘यहीं क्या, कहीं भी काम नहीं करती। सुनिए, रमानाथ ने मीज़ान लगाने में ग़लती की, डरकर भागा। बाद को मालूम हुआ कि तहबील में कोई कमी न थी। आई समझ में बात।’

डिप्टी—‘अब क्या करना होगा ख़ाँ साहबब चिडिया हाथ से निकल गया!’

दारोग़ा –‘निकल कैसे जाएगी हुज़ूरब रमानाथ से यह बात कही ही क्यों जाए? बस उसे किसी ऐसे आदमी से मिलने न दिया जाय जो बाहर की ख़बरें पहुंचा सके। घरवालों को उसका पता अब लग जावेगा ही, कोई न कोई ज़रूर उसकी तलाश में आवेगा। किसी को न आने दें। तहरीर में कोई बात न लाई जाए। ज़बानी इत्मीनान दिला दिया जाय। कह दिया जाय, कमिश्नर साहब को मुआफीनामा के लिए रिपोर्ट की गई है। इंस्पेक्टर साहब से भी राय ले ली जाय। इधर तो यह लोग सुपरिंटेंडेंट से परामर्श कर रहे थे, उधर एक घंटे में देवीदीन लौटकर थाने आया तो कांस्टेबल ने कहा, ‘दारोग़ाजी तो साहब के पास गए।’

देवीदीन ने घबडाकर कहा, ‘तो बाबूजी को हिरासत में डाल दिया?’

कांस्टेबल, ‘नहीं, उन्हें भी साथ ले गये।’

देवीदीन ने सिर पीटकर कहा, ‘पुलिस वालों की बात का कोई भरोसा नहीं। कह गया कि एक घंटे में रुपये लेकर आता हूं, मगर इतना भी सबर न हुआ। सरकार से पांच ही सौ तो मिलेंगे। मैं छह सौ देने को तैयार हूं। हां, सरकार में कारगुज़ारी हो जायगी और क्या वहीं से उन्हें परागराज भेज देंगे। मुझसे भेटं भी न होगी। बुढिया रो-रोकर मर जायगी। यह कहता हुआ देवीदीन वहीं ज़मीन

पर बैठ गया।’

कांस्टेबल ने पूछा, ‘तो यहां कब तक बैठे रहोगे?’

देवीदीन ने मानो कोड़े की काट से आहत होकर कहा,’अब तो दारोग़ाजी से दो-दो बातें करके ही जाऊंगा। चाहे जेहल ही जाना पड़े, पर फटकारूंगा ज़रूर, बुरी तरह फटकारूंगा। आख़िर उनके भी तो बाल-बच्चे होंगे! क्या भगवान से ज़रा भी नहीं डरते! तुमने बाबूजी को जाती बार देखा था?बहुत रंजीदा थे? ’ कांस्टेबल, ’रंजीदा तो नहीं थे, ख़ासी तरह हंस रहे थे। दोनों जने मोटर में बैठकर गए हैं।’

देवीदीन ने अविश्वास के भाव से कहा, ‘हंस क्या रहे होंगे बेचारे। मुंह से चाहे हंस लें, दिल तो रोता ही होगा। ’

देवीदीन को यहां बैठे एक घंटा भी न हुआ था कि सहसा जग्गो आ खड़ी हुई। देवीदीन को द्वार पर बैठे देखकर बोली, ‘तुम यहां क्या करने लगे?भैया कहां हैं?’

देवीदीन ने मर्माहत होकर कहा, ‘भैया को ले गए सुपरीडंट के पास, न जाने भेंट होती है कि ऊपर ही ऊपर परागराज भेज दिए जाते हैं। ’

जग्गो—‘दारोग़ाजी भी बडे वह हैं। कहां तो कहा था कि इतना लेंगे, कहां लेकर चल दिए!’

देवीदीन—‘इसीलिए तो बैठा हूं कि आवें तो दो-दो बातें कर लूं।’

जग्गो—‘हां, फटकारना ज़रूर,जो अपनी बात का नहीं, वह अपने बाप का क्या होगा। मैं तो खरी कहूंगी। मेरा क्या कर लेंगे!’

देवीदीन—‘दूकान पर कौन है?’

जग्गो—‘बंद कर आई हूं। अभी बेचारे ने कुछ खाया भी नहीं। सबेरे से

वैसे ही हैं। चूल्हे में जाय वह तमासाब उसी के टिकट लेने तो जाते थे। न घर

से निकलते तो काहे को यह बला सिर पड़ती।

देवीदीन—‘जो उधार ही से पराग भेज दिया तो?’

जग्गो—‘तो चिट्ठी तो आवेगी ही। चलकर वहीं देख आवेंगे?’

देवीदीन—‘(आंखों में आंसू भरकर) सज़ा हो जायगी?

जग्गो—‘रुपया जमा कर देंगे तब काहे को होगी। सरकार अपने रुपये ही तो लेगी?

देवीदीन—‘नहीं पगली, ऐसा नहीं होता। चोर माल लौटा दे तो वह छोड़ थोड़े ही दिया जाएगा।’

जग्गो ने परिस्थिति की कठोरता अनुभव करके कहा, ‘दारोग़ाजी, ’

वह अभी बात भी पूरी न करने पाई थी कि दारोग़ाजी की मोटर सामने आ पहुंची। इंस्पेक्टर साहब भी थे। रमा इन दोनों को देखते ही मोटर से उतरकर आया और प्रसन्न मुख से बोला, ‘तुम यहां देर से बैठे हो क्या दादा? आओ, कमरे में चलो। अम्मां, तुम कब आइ?’

दारोग़ाजी ने विनोद करके कहा, ‘कहो चौधारी, लाए रुपये?’

देवीदीन—‘जब कह गया कि मैं थोड़ी देर में आता हूं, तो आपको मेरी राह देख लेनी चाहिए थी। चलिए, अपने रुपये लीजिए।’

दारोग़ा –‘खोदकर निकाले होंगे?’

देवीदीन—‘आपके अकबाल से हज़ार-पांच सौ अभी ऊपर ही निकल सकते हैं। ज़मीन खोदने की ज़रूरत नहीं पड़ी। चलो भैया, बुढिया कब से खड़ी है। मैं रुपये चुकाकर आता हूं। यह तो इसपिकटर साहब थे न? पहले इसी थाने में थे।‘

दारोग़ा –‘तो भाई, अपने रुपये ले जाकर उसी हांड़ी में रख दो। अफसरों की सलाह हुई कि इन्हें छोड़ना न चाहिए। मेरे बस की बात नहीं है।’

इंस्पेक्टर साहब तो पहले ही दफ़्तर में चले गए थे। ये तीनों आदमी बातें करते उसके बग़ल वाले कमरे में गए। देवीदीन ने दारोग़ा की बात सुनी, तो भौंहें तिरछी हो गई। बोला, दारोग़ाजी, मरदों की एक बात होती है, मैं तो यही जानता हूं। मैं रुपये आपके हुक्म से

लाया हूं। आपको अपना कौल पूरा करना पड़ेगा। कहके मुकर जाना नीचों का काम है।’

इतने कठोर शब्द सुनकर दारोग़ाजी को भन्ना जाना चाहिए था, पर उन्होंने ज़रा भी बुरा न माना। हंसते हुए बोले,भई अब चाहे, नीच कहो, चाहे दग़ाबाज़ कहो, पर हम इन्हें छोड़ नहीं सकते। ऐसे शिकार रोज़ नहीं मिलते। कौल के पीछे अपनी तरक़्क़ी नहीं छोड़ सकता दारोग़ा के हंसने पर देवीदीन और भी तेज़ हुआ, ‘तो आपने कहा किस मुंह से था? ’

दारोग़ा –‘कहा तो इसी मुंह से था, लेकिन मुंह हमेशा एक-सा तो नहीं रहता। इसी मुंह से जिसे गाली देता हूं, उसकी इसी मुंह से तारीफ भी करता हूं।’

देवीदीन—‘(तिनककर) यह मूंछें मुड़वा डालिए।’

दारोग़ा –‘मुझे बडी ख़ुशी से मंजूर है। नीयत तो मेरी पहले ही थी, पर शर्म के मारे न मुड़वाता था। अब तुमने दिल मज़बूत कर दिया।’

देवीदीन—‘हंसिए मत दारोग़ाजी, आप हंसते हैं और मेरा ख़ून जला जाता है। मुझे चाहे जेहल ही क्यों न हो जाए, लेकिन मैं कप्तान साहब से ज़रूर कह दूंगा। हूं तो टके का आदमी पर आपके अकबाल से बडे अफसरों तक पहुंच है।’

दारोग़ा –‘अरे, यार तो क्या सचमुच कप्तान साहब से मेरी शिकायत कर दोगे?’

देवीदीन ने समझा कि धमकी कारगर हुई। अकड़कर बोला, ‘आप जब किसी की नहीं सुनते, बात कहकर मुकर जाते हैं, तो दूसरे भी अपने-सी करेंगे ही। मेम साहब तो रोज़ ही दुकान पर आती हैं।’

दारोग़ा –‘कौन, देवी? अगर तुमने साहब या मेम साहब से मेरी कुछ शिकायत की, तो कसम खाकर कहता हूं, कि घर खुदवाकर फेंक दूंगा!’

देवीदीन—‘जिस दिन मेरा घर खुदेगा, उस दिन यह पगड़ी और चपरास भी न रहेगी, हुज़ूर।’

दारोग़ा –‘अच्छा तो मारो हाथ पर हाथ, हमारी तुम्हारी दो-दो चोटें हो जायं,यही सही।’

देवीदीन—‘पछताओगे सरकार, कहे देता हूं पछताओगे।’

रमा अब जब्त न कर सका। अब तक वह देवीदीन के बिगड़ने का तमाशा देखने के लिए भीगी बिल्ली बना खडाथा। कहकहा मारकर बोला, ‘दादा, दारोग़ाजी तुम्हें चिढ़ा रहे हैं। हम लोगों में ऐसी सलाह हो गई है कि मैं बिना कुछ लिए-दिए ही छूट जाऊंगा, ऊपर से नौकरी भी मिल जायगी। साहब ने पक्का वादा किया है। मुझे अब यहीं रहना होगा।’

देवीदीन ने रास्ता भटके हुए आदमी की भांति कहा, ‘कैसी बात है भैया, क्या कहते हो! क्या पुलिस वालों के चकमे में आ गए? इसमें कोई न कोई चाल ज़रूर छिपी होगी।’

रमा ने इत्मीनान के साथ कहा, ‘और बात नहीं, एक मुकदमे में शहादत देनी पड़ेगी।’

देवीदीन ने संशय से सिर हिलाकर कहा, ‘झूठा मुकदमा होगा?’

रमानाथ—‘नहीं दादा, बिलकुल सच्चा मामला है। मैंने पहले ही पूछ लिया है।’

देवीदीन की शंका शांत न हुई। बोला, ‘मैं इस बारे में और कुछ नहीं कह सकता भैया, ज़रा सोच-समझकर काम करना। अगर मेरे रुपयों को डरते हो, तो यही समझ लो कि देवीदीन ने अगर रुपयों की परवा की होती, तो आज लखपति होता। इन्हीं हाथों से सौ-सौ रुपये रोज़ कमाए और सब-के-सब उडादिए हैं। किस मुकदमे में सहादत देनी है? कुछ मालूम हुआ?’

दारोग़ाजी ने रमा को जवाब देने का अवसर न देकर कहा, ‘वही डकैतियों वाला मुआमला है जिसमें कई ग़रीब आदमियों की जान गई थी। इन डाकुओं ने सूबे-भर में हंगामा मचा रक्खा था। उनके डर के मारे कोई आदमी गवाही देने पर राज़ी नहीं होता।’

देवीदीन ने उपेक्षा के भाव से कहा, ‘अच्छा तो यह मुख़बिर बन गए?यह बात है। इसमें तो जो पुलिस सिखाएगी वही तुम्हें कहना पड़ेगा, भैया! मैं छोटी समझ का आदमी हूं, इन बातों का मर्म क्या जानूं, पर मुझसे मुख़बिर बनने को कहा जाता, तो मैं न बनता, चाहे कोई लाख रुपया देता। बाहर के आदमी को क्या मालूम कौन अपराधी है, कौन बेकसूर है। दो-चार अपराधियों के साथ दो-चार बेकसूर भी ज़रूर ही होंगे।’

दारोग़ा –‘हरगिज़ नहीं। जितने आदमी पकड़े गए हैं, सब पक्के डाकू हैं। ’

देवीदीन—‘यह तो आप कहते हैं न, हमें क्या मालूम।’

दारोग़ा –‘हम लोग बेगुनाहों को फंसाएंगे ही क्यों? यह तो सोचो।’

देवीदीन—‘यह सब भुगते बैठा हूं, दारोग़ाजी! इससे तो यही अच्छा है कि आप इनका चालान कर दें। साल-दो साल का जेहल ही तो होगा। एक अधरम के दंड से बचने के लिए बेगुनाहों का ख़ून तो सिर पर न चढ़ेगा! ’

रमा ने भीरूता से कहा, ‘मैंने ख़ूब सोच लिया है दादा, सब काग़ज़ देख लिए हैं, इसमें कोई बेगुनाह नहीं है।’

देवीदीन ने उदास होकर कहा,’होगा भाई! जान भी तो प्यारी होती है!’यह कहकर वह पीछे घूम पड़ा। अपने मनोभावों को इससे स्पष्ट रूप से वह प्रकट न कर सकता था। एकाएक उसे एक बात याद आ गई। मुड़कर बोला, ‘तुम्हें कुछ रुपये देता जाऊं।’

रमा ने खिसियाकर कहा, ‘क्या ज़रूरत है?’

दारोग़ा –‘आज से इन्हें यहीं रहना पड़ेगा।’

देवीदीन ने कर्कश स्वर में कहा,’हां हुज़ूर, इतना जानता हूं। इनकी दावत होगी, बंगला रहने को मिलेगा, नौकर मिलेंगे, मोटर मिलेगी। यह सब जानता हूं। कोई बाहर का आदमी इनसे मिलने न पावेगा, न यह अकेले आ-जा सकेंगे, यह सब देख चुका हूं।’

यह कहता हुआ देवीदीन तेज़ी से क़दम उठाता हुआ चल दिया, मानो वहां उसका दम घुट रहा हो दारोग़ा ने उसे पुकारा, पर उसने फिरकर न देखा। उसके मुख पर पराभूत वेदना छाई हुई थी।

जग्गो ने पूछा, ‘भैया नहीं आ रहे हैं?’

देवीदीन ने सड़क की ओर ताकते हुए कहा, ‘भैया अब नहीं आवेंगे। जब अपने ही अपने न हुए तो बेगाने तो बेगाने हैं ही!’ वह चला गया। बुढिया भी पीछे-पीछे भुनभुनाती चली।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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