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'''संगीत सम्राट बैजू बावरा'''<br />
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वेत्रवती और ऊर्वशी युगल सरिताओं के मध्य विंध्याचल पर्वत की गगन चुंबी श्रेणियों के बीच बसा [[चंदेरी]] नगर [[महाभारत]] काल से आज तक किसी न किसी कारण विख्यात रहा है। महाभारत काल में भगवान श्री[[कृष्ण]] और राजा शिशुपाल के कारण और मध्यकाल में महान [[संगीतज्ञ]] बैजू बावरा, मुग़ल सम्राट [[बाबर]], बुंदेला सम्राट [[मेदिनीराय]] तथा मणिमाला के कारण यह इतिहास में अपना विशिष्ट स्थान बनाए हुए है। 16 वीं शताब्दी के महान गायक [[संगीतज्ञ]]  [[तानसेन]] के गुरुभाई पंडित बैजनाथ का जन्म 1542 में शरद पूर्णिमा की रात एक ब्राह्मण परिवार में हुआ। चंदेरी बैजनाथ की क्रीड़ा-कर्मस्थली रही है। इस बात का उल्लेख प्रसिद्ध साहित्यकार श्री वृन्दावनलाल वर्मा के 'मृगनयनी' व '[[दुर्गावती]]' जैसे ऐतिहासिक उपन्यासों में भी मिलता है। पंडित बैजनाथ की बाल्यकाल से ही गायन एवं [[संगीत]] में काफ़ी रुचि थी। उनके गले की मधुरता और गायन की चतुराई प्रभावशाली थी। पंडित बैजनाथ को बचपन में लोग प्यार से 'बैजू' कहकर पुकारते थे। बैजू की उम्र के साथ-साथ उनके गायन और संगीत में भी बढ़ोतरी होती गई। जब बैजू युवा हुए तो नगर की कलावती नामक युवती से उनका प्रेम प्रसंग हुआ। कलावती बैजू की प्रेयसी के साथ-साथ प्रेरणास्रोत भी रही। संगीत और गायन के साथ-साथ बैजू अपनी प्रेयसी के प्यार में पागल हो गए। इसी से लोग उन्हें बैजू बावरा कहने लगे।
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|चित्र का नाम=बैजू बावरा
==अकबर का दरबार==
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|पूरा नाम= बैजनाथ मिश्र
महान सम्राट [[अकबर]] संगीत एवं [[कला]] में ख़ूब रुचि रखता था। उसने अपने दरबार में संगीत व साहित्यकारों को आश्रय दिया। उसके दरबार में 36 संगीतकार व साहित्यकार थे। उनमें से तानसेन भी एक थे। तानसेन अकबर के दरबार के नौ रत्नों में गिने जाते थे। इसी काल में बैजू बावरा की संगीत साधना चरमोत्कर्ष पर थी। अकबर ने अपने दरबार में एक संगीत प्रतियोगिता का आयोजन रखा। इस प्रतियोगिता की यह शर्त थी कि तानसेन से जो भी मुक़ाबला करेगा। वह दरबारी संगीतकार होगा तथा हारे हुए प्रतियोगी को मृत्युदंड दिया जाएगा। कोई भी संगीतकार इस शर्त के कारण सामने नहीं आया परंतु बैजू बावरा ने यह बीड़ा उठाना तय किया तथा अपने गुरु [[हरिदास]] से आज्ञा प्राप्त कर संगीत प्रतियोगिता में भाग लिया। कहा तो यहाँ तक जाता है कि संगीत की धुनों व रागों से आग और पानी भी बरसे। अंततः इस प्रतियोगिता में बैजू की हार हुई, किंतु बाद में अकबर ने प्रसन्न होकर बैजू को अपने दरबार में रख लिया।
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'''संगीत सम्राट बैजू बावरा''' (जन्म: 1542 ई. – मृत्यु: 1613 ई.) [[भारत]] के [[ध्रुपद]] गायक थे। उनको '''बैजनाथ प्रसाद''' और '''बैजनाथ मिश्र''' के नाम से भी जाना जाता है। वे [[ग्वालियर]] के [[राजा मानसिंह]] के दरबार के गायक थे। उनके जीवन के बारे में बहुत सी किंवदन्तियाँ हैं जिन्हें ऐतिहासिक रूप से जाँचा नहीं जा सकता। वेत्रवती और ऊर्वशी युगल सरिताओं के मध्य [[विंध्याचल पर्वत]] की गगनचुंबी श्रेणियों के बीच बसा [[चंदेरी]] नगर [[महाभारत]] काल से आज तक किसी न किसी कारण विख्यात रहा है। महाभारत काल में भगवान [[श्रीकृष्ण]] और राजा [[शिशुपाल]] के कारण और मध्यकाल में महान [[संगीतज्ञ]] बैजू बावरा, मुग़ल सम्राट [[बाबर]], बुंदेला सम्राट [[मेदिनीराय]] तथा मणिमाला के कारण यह इतिहास में अपना विशिष्ट स्थान बनाए हुए है।  
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==जीवन परिचय==
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16 वीं शताब्दी के महान गायक [[संगीतज्ञ]]  [[तानसेन]] के गुरुभाई पंडित बैजनाथ का जन्म 1542 में [[शरद पूर्णिमा]] की रात एक [[ब्राह्मण]] [[परिवार]] में हुआ। चंदेरी बैजनाथ की क्रीड़ा-कर्मस्थली रही है। इस बात का उल्लेख प्रसिद्ध साहित्यकार [[वृन्दावनलाल वर्मा]] के 'मृगनयनी' व 'दुर्गावती' जैसे ऐतिहासिक उपन्यासों में भी मिलता है। पंडित बैजनाथ की बाल्यकाल से ही गायन एवं [[संगीत]] में काफ़ी रुचि थी। उनके गले की मधुरता और गायन की चतुराई प्रभावशाली थी। पंडित बैजनाथ को बचपन में लोग प्यार से 'बैजू' कहकर पुकारते थे। बैजू की उम्र के साथ-साथ उनके गायन और [[संगीत]] में भी बढ़ोतरी होती गई। जब बैजू युवा हुए तो नगर की कलावती नामक युवती से उनका प्रेम प्रसंग हुआ। कलावती बैजू की प्रेयसी के साथ-साथ प्रेरणास्रोत भी रही। संगीत और गायन के साथ-साथ बैजू अपनी प्रेयसी के प्यार में पागल हो गए। इसी से लोग उन्हें बैजू बावरा कहने लगे।
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====तानसेन से मुक़ाबला====
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महान सम्राट [[अकबर]] संगीत एवं [[कला]] में ख़ूब रुचि रखता था। उसने अपने दरबार में संगीत व साहित्यकारों को आश्रय दिया। उसके दरबार में 36 संगीतकार व साहित्यकार थे। उनमें से [[तानसेन]] भी एक थे। तानसेन अकबर के दरबार के [[अकबर के नवरत्न|नौ रत्नों]] में गिने जाते थे। इसी काल में बैजू बावरा की संगीत साधना चरमोत्कर्ष पर थी। अकबर ने अपने दरबार में एक संगीत प्रतियोगिता का आयोजन रखा। इस प्रतियोगिता की यह शर्त थी कि तानसेन से जो भी मुक़ाबला करेगा। वह दरबारी संगीतकार होगा तथा हारे हुए प्रतियोगी को मृत्युदंड दिया जाएगा। कोई भी संगीतकार इस शर्त के कारण सामने नहीं आया परंतु बैजू बावरा ने यह बीड़ा उठाना तय किया तथा अपने गुरु [[हरिदास]] से आज्ञा प्राप्त कर संगीत प्रतियोगिता में भाग लिया। कहा तो यहाँ तक जाता है कि संगीत की धुनों व रागों से आग और पानी भी बरसे। अंततः इस प्रतियोगिता में बैजू की हार हुई, किंतु बाद में अकबर ने प्रसन्न होकर बैजू को अपने दरबार में रख लिया।
  
बैजू बावरा अकबर के दरबार में रहने के बजाय ग्वालियर आ गए, जहां उन्हें सूचना मिली कि उनके गुरु हरिदास समाधिस्थ होने वाले हैं। वे अपने गुरु के अंतिम दर्शनों के लिए [[वृन्दावन]] पहुंचे और उनके दर्शन करने के पश्चात विभिन्न प्रकार की आपदाओं का सामना करते हुए अपने जीवन के अंतिम पड़ाव में [[कश्मीर]] नरेश की राजधानी [[श्रीनगर]] पहुंचे। उस समय उनका शिष्य गोपालदास वहां दरबारी गायक था। फटेहाल बैजू ने अपने आने की सूचना गोपालदास तक पहुंचाने के लिए द्वारपाल से कहा, तो द्वारपाल ने दो टूक जवाब दिया कि उनके स्वामी का कोई गुरु नहीं है। यह सुनकर बैजू को काफ़ी आघात पहुंचा और वे श्रीनगर के एक मंदिर में पहुंचकर राग ध्रुपद का गायन करने लगे। बैजू के श्रेष्ठ गायन को सुनकर अपार भीड़ उमड़ने लगी। जब बैजू की ख़बर कश्मीर नरेश के पास पहुंची, तो वे स्वयं भी वहां आए तथा बैजू का स्वागत कर अपने दरबार में ले आए। कश्मीर नरेश ने गोपालदास को पुनः संगीत शिक्षा दिए जाने हेतु बैजू से निवेदन किया। राजा की आज्ञा से उन्होंने गोपाल को पुनः संगीत शिक्षा देकर निपुण किया।
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बैजू बावरा अकबर के दरबार में रहने के बजाय [[ग्वालियर]] आ गए, जहां उन्हें सूचना मिली कि उनके गुरु हरिदास समाधिस्थ होने वाले हैं। वे अपने गुरु के अंतिम दर्शनों के लिए [[वृन्दावन]] पहुंचे और उनके दर्शन करने के पश्चात विभिन्न प्रकार की आपदाओं का सामना करते हुए अपने जीवन के अंतिम पड़ाव में [[कश्मीर]] नरेश की राजधानी [[श्रीनगर]] पहुंचे। उस समय उनका शिष्य गोपालदास वहां दरबारी गायक था। फटेहाल बैजू ने अपने आने की सूचना गोपालदास तक पहुंचाने के लिए द्वारपाल से कहा, तो द्वारपाल ने दो टूक जवाब दिया कि उनके स्वामी का कोई गुरु नहीं है। यह सुनकर बैजू को काफ़ी आघात पहुंचा और वे श्रीनगर के एक मंदिर में पहुंचकर राग [[ध्रुपद]] का गायन करने लगे। बैजू के श्रेष्ठ गायन को सुनकर अपार भीड़ उमड़ने लगी। जब बैजू की ख़बर कश्मीर नरेश के पास पहुंची, तो वे स्वयं भी वहां आए तथा बैजू का स्वागत कर अपने दरबार में ले आए। कश्मीर नरेश ने गोपालदास को पुनः संगीत शिक्षा दिए जाने हेतु बैजू से निवेदन किया। राजा की आज्ञा से उन्होंने गोपाल को पुनः संगीत शिक्षा देकर निपुण किया।
  
==दुखद अंत==
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==अंतिम समय==
कला और बैजू का प्रेम प्रसंग जितना निश्छल, अद्वितीय एवं सुखद था, उसका अंत उतनी ही दुखद घटना से हुआ। कहा जाता है कि बैजू को अपने पिता के साथ तीर्थों के दर्शन के लिए चंदेरी से बाहर जाना पड़ा और उनका विछोह हो गया। वे बाद में भी नहीं मिले। इस घटना का 'बैजू' के जीवन पर काफ़ी प्रभाव पड़ा और इसी घटना का बैजू को महान संगीतकार बनाने में काफ़ी योगदान रहा। चंदेरी में जब अपने संगीत और स्वयं का भविष्य अंधकार में नज़र आया तो बैजू ने चंदेरी छोड़ने का दृढ़ निश्चय किया। ग्वालियर के महाराजा मानसिंह को कला एवं संगीत से अत्यधिक प्रेम था। उन्होंने बैजू बावरा को अपने दरबार में रख लिया तथा अपनी रानी मृगनयनी की [[संगीत]] शिक्षा की ज़िम्मेदारी बैजू को सौंपी। बैजू ने ध्रुपद, मूजरीटोड़ी, मंगल गुजरी आदि नए-नए रागों का आविष्कार किया। उन्होंने मृगनयनी को संगीत में निपुण कर संगीताचार्य बनाया तथा बाद में दरबार छोड़कर अपने गुरु हरिदास के पास चल दिए।
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कला और बैजू का प्रेम प्रसंग जितना निश्छल, अद्वितीय एवं सुखद था, उसका अंत उतनी ही दुखद घटना से हुआ। कहा जाता है कि बैजू को अपने पिता के साथ तीर्थों के दर्शन के लिए [[चंदेरी]] से बाहर जाना पड़ा और उनका विछोह हो गया। वे बाद में भी नहीं मिले। इस घटना का 'बैजू' के जीवन पर काफ़ी प्रभाव पड़ा और इसी घटना का बैजू को महान संगीतकार बनाने में काफ़ी योगदान रहा। चंदेरी में जब अपने संगीत और स्वयं का भविष्य अंधकार में नज़र आया तो बैजू ने चंदेरी छोड़ने का दृढ़ निश्चय किया। ग्वालियर के [[राजा मानसिंह|महाराजा मानसिंह]] को कला एवं संगीत से अत्यधिक प्रेम था। उन्होंने बैजू बावरा को अपने दरबार में रख लिया तथा अपनी रानी मृगनयनी की [[संगीत]] शिक्षा की ज़िम्मेदारी बैजू को सौंपी। बैजू ने ध्रुपद, मूजरीटोड़ी, मंगल गुजरी आदि नए-नए रागों का आविष्कार किया। उन्होंने मृगनयनी को संगीत में निपुण कर संगीताचार्य बनाया तथा बाद में दरबार छोड़कर अपने गुरु हरिदास के पास चल दिए।
  
ज़िंदगी की शाम होते-होते पं. बैजनाथ उर्फ बैजू बावरा चंदेरी वापस आ गए। वहां बसंत पंचमी के दिन वे इस दुनिया से विदा लेकर दिव्य ज्योति में विलीन हो गए। चंदेरी स्थित विंध्याचल पर्वत की गगन चुंबी श्रेणियों में चंद्रगिरी नामक पहाड़ पर कीर्ति दुर्ग और जौहर स्मारक के मध्य बैजू के समाधि स्थल पर स्मारक बना है। बैजू बावरा की स्मृति को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए उनके स्मारक के रख-रखाव तथा उनकी याद को चिरस्थायी बनाने के लिए उनकी स्मृति में वार्षिक समारोह मनाए जाने की नितांत आवश्यकता है। मध्यकाल में साहित्य और भक्ति का उत्थान हुआ और एक आंदोलन के रूप में इसका फैलाव हुआ। इस काल को भक्तिकाल के स्वर्णयुग के नाम से जाना जाता है। इस काल में संगीत और साहित्य को राजकीय संरक्षण भी प्राप्त हुआ। [[भक्तिकाल]] के प्रतिपादकों में महासंत [[रामानुज]], [[रामानंद]], [[नानक]], [[कबीर]], [[सूरदास]], मीराबाई ([[मीरां]]), [[तुलसीदास]], [[रैदास]] अनेका-नेक संत रहे हैं।
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ज़िंदगी की शाम होते-होते पं. बैजनाथ उर्फ बैजू बावरा चंदेरी वापस आ गए। वहां [[बसंत पंचमी]] के दिन वे इस दुनिया से विदा लेकर दिव्य ज्योति में विलीन हो गए। चंदेरी स्थित [[विंध्याचल पर्वत]] की गगन चुंबी श्रेणियों में चंद्रगिरी नामक पहाड़ पर कीर्ति दुर्ग और जौहर स्मारक के मध्य बैजू के समाधि स्थल पर स्मारक बना है। बैजू बावरा की स्मृति को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए उनके स्मारक के रख-रखाव तथा उनकी याद को चिरस्थायी बनाने के लिए उनकी स्मृति में वार्षिक समारोह मनाए जाने की नितांत आवश्यकता है। मध्यकाल में साहित्य और भक्ति का उत्थान हुआ और एक आंदोलन के रूप में इसका फैलाव हुआ। इस काल को भक्तिकाल के स्वर्णयुग के नाम से जाना जाता है। इस काल में संगीत और साहित्य को राजकीय संरक्षण भी प्राप्त हुआ। [[भक्तिकाल]] के प्रतिपादकों में महासंत [[रामानुज]], [[रामानंद]], [[नानक]], [[कबीर]], [[सूरदास]], मीराबाई ([[मीरां]]), [[तुलसीदास]], [[रैदास]] अनेका-नेक संत रहे हैं।
 
==हरिदास का शिष्य?==
 
==हरिदास का शिष्य?==
वृन्दावन के कई विद्वान बैजू बावरा को हरिदास का शिष्य नहीं मानते। उनका कहना है कि उन्होंने कुछ चीज़ें हरिदास से सीखी ज़रूर थीं, लेकिन वो उनके विधिवत शिष्य नहीं थे। हालांकि वृन्दावन के लोग बैजू बावरा को भी स्वामी हरिदास का ही चेला मानते हैं। कहानी है कि जब हरिदास को [[कृष्ण]] की याद आई तो वो वृन्दावन आ गए और इस निधि वन में रहकर भगवान कृष्ण की भक्ति और साधना करने लगे।
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[[वृन्दावन]] के कई विद्वान बैजू बावरा को हरिदास का शिष्य नहीं मानते। उनका कहना है कि उन्होंने कुछ चीज़ें हरिदास से सीखी ज़रूर थीं, लेकिन वो उनके विधिवत शिष्य नहीं थे। हालांकि वृन्दावन के लोग बैजू बावरा को भी स्वामी हरिदास का ही शिष्य मानते हैं। कहानी है कि जब हरिदास को [[कृष्ण]] की याद आई तो वो वृन्दावन आ गए और इस निधिवन में रहकर भगवान कृष्ण की भक्ति और साधना करने लगे।
  
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10:35, 25 अप्रैल 2013 का अवतरण

बैजू बावरा
बैजू बावरा
पूरा नाम बैजनाथ मिश्र
अन्य नाम बैजनाथ प्रसाद
जन्म 1542 ई.
मृत्यु 1613 ई.
कर्म-क्षेत्र संगीतज्ञ
विषय संगीत
प्रसिद्धि संगीत सम्राट तानसेन से मुक़ाबला किया थ।
नागरिकता भारतीय
अन्य जानकारी जब बैजू युवा हुए तो नगर की कलावती नामक युवती से उनका प्रेम प्रसंग हुआ। संगीत और गायन के साथ-साथ बैजू अपनी प्रेयसी के प्यार में पागल हो गए। इसी से लोग उन्हें बैजू बावरा कहने लगे।

संगीत सम्राट बैजू बावरा (जन्म: 1542 ई. – मृत्यु: 1613 ई.) भारत के ध्रुपद गायक थे। उनको बैजनाथ प्रसाद और बैजनाथ मिश्र के नाम से भी जाना जाता है। वे ग्वालियर के राजा मानसिंह के दरबार के गायक थे। उनके जीवन के बारे में बहुत सी किंवदन्तियाँ हैं जिन्हें ऐतिहासिक रूप से जाँचा नहीं जा सकता। वेत्रवती और ऊर्वशी युगल सरिताओं के मध्य विंध्याचल पर्वत की गगनचुंबी श्रेणियों के बीच बसा चंदेरी नगर महाभारत काल से आज तक किसी न किसी कारण विख्यात रहा है। महाभारत काल में भगवान श्रीकृष्ण और राजा शिशुपाल के कारण और मध्यकाल में महान संगीतज्ञ बैजू बावरा, मुग़ल सम्राट बाबर, बुंदेला सम्राट मेदिनीराय तथा मणिमाला के कारण यह इतिहास में अपना विशिष्ट स्थान बनाए हुए है।

जीवन परिचय

16 वीं शताब्दी के महान गायक संगीतज्ञ तानसेन के गुरुभाई पंडित बैजनाथ का जन्म 1542 में शरद पूर्णिमा की रात एक ब्राह्मण परिवार में हुआ। चंदेरी बैजनाथ की क्रीड़ा-कर्मस्थली रही है। इस बात का उल्लेख प्रसिद्ध साहित्यकार वृन्दावनलाल वर्मा के 'मृगनयनी' व 'दुर्गावती' जैसे ऐतिहासिक उपन्यासों में भी मिलता है। पंडित बैजनाथ की बाल्यकाल से ही गायन एवं संगीत में काफ़ी रुचि थी। उनके गले की मधुरता और गायन की चतुराई प्रभावशाली थी। पंडित बैजनाथ को बचपन में लोग प्यार से 'बैजू' कहकर पुकारते थे। बैजू की उम्र के साथ-साथ उनके गायन और संगीत में भी बढ़ोतरी होती गई। जब बैजू युवा हुए तो नगर की कलावती नामक युवती से उनका प्रेम प्रसंग हुआ। कलावती बैजू की प्रेयसी के साथ-साथ प्रेरणास्रोत भी रही। संगीत और गायन के साथ-साथ बैजू अपनी प्रेयसी के प्यार में पागल हो गए। इसी से लोग उन्हें बैजू बावरा कहने लगे।

तानसेन से मुक़ाबला

महान सम्राट अकबर संगीत एवं कला में ख़ूब रुचि रखता था। उसने अपने दरबार में संगीत व साहित्यकारों को आश्रय दिया। उसके दरबार में 36 संगीतकार व साहित्यकार थे। उनमें से तानसेन भी एक थे। तानसेन अकबर के दरबार के नौ रत्नों में गिने जाते थे। इसी काल में बैजू बावरा की संगीत साधना चरमोत्कर्ष पर थी। अकबर ने अपने दरबार में एक संगीत प्रतियोगिता का आयोजन रखा। इस प्रतियोगिता की यह शर्त थी कि तानसेन से जो भी मुक़ाबला करेगा। वह दरबारी संगीतकार होगा तथा हारे हुए प्रतियोगी को मृत्युदंड दिया जाएगा। कोई भी संगीतकार इस शर्त के कारण सामने नहीं आया परंतु बैजू बावरा ने यह बीड़ा उठाना तय किया तथा अपने गुरु हरिदास से आज्ञा प्राप्त कर संगीत प्रतियोगिता में भाग लिया। कहा तो यहाँ तक जाता है कि संगीत की धुनों व रागों से आग और पानी भी बरसे। अंततः इस प्रतियोगिता में बैजू की हार हुई, किंतु बाद में अकबर ने प्रसन्न होकर बैजू को अपने दरबार में रख लिया।

बैजू बावरा अकबर के दरबार में रहने के बजाय ग्वालियर आ गए, जहां उन्हें सूचना मिली कि उनके गुरु हरिदास समाधिस्थ होने वाले हैं। वे अपने गुरु के अंतिम दर्शनों के लिए वृन्दावन पहुंचे और उनके दर्शन करने के पश्चात विभिन्न प्रकार की आपदाओं का सामना करते हुए अपने जीवन के अंतिम पड़ाव में कश्मीर नरेश की राजधानी श्रीनगर पहुंचे। उस समय उनका शिष्य गोपालदास वहां दरबारी गायक था। फटेहाल बैजू ने अपने आने की सूचना गोपालदास तक पहुंचाने के लिए द्वारपाल से कहा, तो द्वारपाल ने दो टूक जवाब दिया कि उनके स्वामी का कोई गुरु नहीं है। यह सुनकर बैजू को काफ़ी आघात पहुंचा और वे श्रीनगर के एक मंदिर में पहुंचकर राग ध्रुपद का गायन करने लगे। बैजू के श्रेष्ठ गायन को सुनकर अपार भीड़ उमड़ने लगी। जब बैजू की ख़बर कश्मीर नरेश के पास पहुंची, तो वे स्वयं भी वहां आए तथा बैजू का स्वागत कर अपने दरबार में ले आए। कश्मीर नरेश ने गोपालदास को पुनः संगीत शिक्षा दिए जाने हेतु बैजू से निवेदन किया। राजा की आज्ञा से उन्होंने गोपाल को पुनः संगीत शिक्षा देकर निपुण किया।

अंतिम समय

कला और बैजू का प्रेम प्रसंग जितना निश्छल, अद्वितीय एवं सुखद था, उसका अंत उतनी ही दुखद घटना से हुआ। कहा जाता है कि बैजू को अपने पिता के साथ तीर्थों के दर्शन के लिए चंदेरी से बाहर जाना पड़ा और उनका विछोह हो गया। वे बाद में भी नहीं मिले। इस घटना का 'बैजू' के जीवन पर काफ़ी प्रभाव पड़ा और इसी घटना का बैजू को महान संगीतकार बनाने में काफ़ी योगदान रहा। चंदेरी में जब अपने संगीत और स्वयं का भविष्य अंधकार में नज़र आया तो बैजू ने चंदेरी छोड़ने का दृढ़ निश्चय किया। ग्वालियर के महाराजा मानसिंह को कला एवं संगीत से अत्यधिक प्रेम था। उन्होंने बैजू बावरा को अपने दरबार में रख लिया तथा अपनी रानी मृगनयनी की संगीत शिक्षा की ज़िम्मेदारी बैजू को सौंपी। बैजू ने ध्रुपद, मूजरीटोड़ी, मंगल गुजरी आदि नए-नए रागों का आविष्कार किया। उन्होंने मृगनयनी को संगीत में निपुण कर संगीताचार्य बनाया तथा बाद में दरबार छोड़कर अपने गुरु हरिदास के पास चल दिए।

ज़िंदगी की शाम होते-होते पं. बैजनाथ उर्फ बैजू बावरा चंदेरी वापस आ गए। वहां बसंत पंचमी के दिन वे इस दुनिया से विदा लेकर दिव्य ज्योति में विलीन हो गए। चंदेरी स्थित विंध्याचल पर्वत की गगन चुंबी श्रेणियों में चंद्रगिरी नामक पहाड़ पर कीर्ति दुर्ग और जौहर स्मारक के मध्य बैजू के समाधि स्थल पर स्मारक बना है। बैजू बावरा की स्मृति को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए उनके स्मारक के रख-रखाव तथा उनकी याद को चिरस्थायी बनाने के लिए उनकी स्मृति में वार्षिक समारोह मनाए जाने की नितांत आवश्यकता है। मध्यकाल में साहित्य और भक्ति का उत्थान हुआ और एक आंदोलन के रूप में इसका फैलाव हुआ। इस काल को भक्तिकाल के स्वर्णयुग के नाम से जाना जाता है। इस काल में संगीत और साहित्य को राजकीय संरक्षण भी प्राप्त हुआ। भक्तिकाल के प्रतिपादकों में महासंत रामानुज, रामानंद, नानक, कबीर, सूरदास, मीराबाई (मीरां), तुलसीदास, रैदास अनेका-नेक संत रहे हैं।

हरिदास का शिष्य?

वृन्दावन के कई विद्वान बैजू बावरा को हरिदास का शिष्य नहीं मानते। उनका कहना है कि उन्होंने कुछ चीज़ें हरिदास से सीखी ज़रूर थीं, लेकिन वो उनके विधिवत शिष्य नहीं थे। हालांकि वृन्दावन के लोग बैजू बावरा को भी स्वामी हरिदास का ही शिष्य मानते हैं। कहानी है कि जब हरिदास को कृष्ण की याद आई तो वो वृन्दावन आ गए और इस निधिवन में रहकर भगवान कृष्ण की भक्ति और साधना करने लगे।


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