साहित्य और समाज -रामधारी सिंह दिनकर

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साहित्य और समाज -रामधारी सिंह दिनकर
'साहित्य और समाज' का आवरण पृष्ठ
लेखक रामधारी सिंह दिनकर
मूल शीर्षक 'साहित्य और समाज'
प्रकाशक लोकभारती प्रकाशन
ISBN 978-81-8031-326
देश भारत
भाषा हिन्दी
प्रकार लेख-निबन्ध
टिप्पणी पठनीय और मननीय निबन्धों से सुसज्जित पुस्तक 'साहित्य और समाज' राष्ट्रकवि दिनकरजी के चिन्तन स्वरूप को उद्घाटित करने वाली एक श्रेष्ठ बौद्धिक कृति है।

साहित्य और समाज राष्ट्रकवि, साहित्यकार, ओजस्वी वक्ता और प्रखर चिन्तर रामधारी सिंह दिनकर के साहित्य की विभिन्न विधाओं और समस्याओं को समर्पित चिन्तन पूर्ण अठारह निबन्धों का संकलन है। पठनीय और मननीय निबन्धों से सुसज्जित यह पुस्तक राष्ट्रकवि दिनकर के चिन्तन स्वरूप को उद्घाटित करने वाली एक श्रेष्ठ बौद्धिक कृति है।

विषय

रामधारी सिंह दिनकर जी की यह पुस्तक जहाँ एक तरफ़ परम्परा और भारतीय साहित्य, साहित्य पर विज्ञान का प्रभाव, साहित्य में आधुनिकता, समाजवाद के अन्दर साहित्य, साहित्य का नूतन ध्येय, कलाकार की सफलता, भविष्य के लिए लिखने की बात; लेखकों का कार्य शिविर, हिन्दी साहित्य पर गांधीजी का प्रभाव, पाकिस्तान के पीछे साहित्य की प्रेरणा, श्री अरविन्द की साहित्यिक मान्यताएँ जॉर्ज रसल का साहित्य-चिन्तन आदि निबन्धों द्वारा समाज और साहित्य पर प्रकाश डालती है तो दूसरी तरफ़ अर्धनारीश्वर, कला, धर्म और विज्ञान, आउट-साइडर, रवीन्द्रनाथ की राष्ट्रीयता और अन्तर्राष्ट्रीयता अभारतीय हैं?, महात्मा टॉलस्टॉय जैसे विषयों को भी हमारे सम्मुख लाती है।[1]

भारतीय साहित्य और परम्परा

उपनिषदों का प्रभाव संस्कृत के सर्वश्रेष्ठ काव्यों पर नहीं के समान है। उपनिषदों की निवृत्तिमार्गी शिक्षा उस समय बढ़ी, जब देश में जैन और बौद्ध दर्शनों का जोर हुआ। वैदिक दर्शन आशावाद, सुख-भोग और उत्साह का दर्शन था। किन्तु हिन्दुओं का आज का दर्शन निवृत्ति, अहिंसा, वैराग्य और पस्ती का दर्शन है। यह उपनिषदों एवं बौद्ध और जैन दर्शनों के दीर्घ सेवन का परिणाम है और इसका प्रभाव हम संस्कृत के श्रेष्ठ काव्यों में कम, प्राकृत, अपभ्रंश और भारत की आधुनिक भाषाओं में अधिक देखते हैं। फिर भी यह सच है कि भारत का जो मन आज आधुनिक बनने का प्रयत्न कर रहा है, वह इसी निवृत्तिमार्गी संस्कार में रंगा हुआ है। एक विचित्रता और है कि संस्कृत साहित्य में विद्रोह का स्वर कहीं भी सुनाई नहीं देता है। ग़रीबी संस्कृत काल में भी रही होगी, अन्याय उस समय भी होते होंगे। जाति-प्रथा जितनी विषैली आज है, संस्कृत काल में उससे कहीं अधिक भयानक रही होगी। जो शूद्र वेद सुन ले, उसके कानों में पिघला हुआ रांगा पिला दो, यह धर्म उसी युग का आविष्कार था। किन्तु संस्कृत में कोई भी कवि ऐसा नहीं जनमा, जो यह कहने की हिम्मत करे कि यह अन्याय है और मैं इसका विरोध करूँगा।

जन्मांतरवाद और कर्मफलवाद के सिद्धान्त इस जोर से स्वीकृति किए जा चुके थे कि हर चिन्तक यह सोचकर सन्तुष्ट था कि जहाँ भी जो कुछ हो रहा है, वह सब-का-सब ठीक है और विश्वविधान की आलोचना वही करेगा, जिसमें आस्तिकता की कोई गन्ध नहीं हो। साहित्य का स्वभाव है कि वह पुरानी बातों में कवित्व जरा अधिक देखता है। अतएव पुरानी परम्पराएँ आज भी साहित्य का विषय बन जाती है, किन्तु नवयुग का कवि उन्हें नई दृष्टि से देखता है और शिक्षा भी वह उनसे नई ही निकालता है। सत्यकाम-जाबाल की कथा पुराणों में यह दिखाने को गढ़ी गई होगी कि सत्य बोलने वाले को गोत्र के बारे में जिज्ञासा बेकार है। किन्तु अब हम उससे यह शिक्षा लेते हैं कि अनव्याही नारी की सन्तान भी सम्मान का आसन पा सकती है।[1]

धर्म और कविता

पहले धर्म और कविता के बीच प्रगाढ़ संबंध था। अब वह संबंध विरल भी नहीं रहा, बिलकुल टूट गया है। पहले के कवि कहते थे कि- "रसिक रीझेंगे तो समझूँगा कि मैंने कविता लिखी है। यदि रसिक नहीं रीझें, तो यह काव्य राधा और श्याम के नाम स्मरण का बहाना है।" आज धार्मिक कथा और चरित्र को भी कवि इसलिए नहीं उठाता कि उसे भगवान का स्मरण आता है, बल्कि इसलिए कि वह अपने सौन्दर्य बोध को अभिव्यक्त करना चाहता है। साहित्य में बहुत दिनों तक यह परिपाटी रही कि कविगण अपने काव्य का आरम्भ देवता की स्तुति से करते थे। लेकिन अब वह परिपाटी समाप्त हो गई। हिन्दी में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त इस परिपाटी के अन्तिम उदाहरण थे। अब कोई भी कवि अपने ग्रन्थ का आरम्भ देव-स्तुति से नहीं करता।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 साहित्य और समाज (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 26 सितम्बर, 2013।

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